Wednesday, July 3, 2019

खत से ज़ुदा पन्ने


मेरे दरवाजे पर पड़ा था एक खत, शायद रात भर पड़ा होगा। मुझे सुबह मिला था। रात कितनी तेज बारिश पड़ी थी, ये उस खत से जाना जा सकता था। घर के छज्जे के नीचे होने के बाद भी वो पूरा पानी से तर था। अगर उसे उसी वक़्त खोला जाता तो उसके टूकड़े हो जाते। वैसे तो जमीन पर पड़े हर कागज़ को उठाया नहीं जाता या हर पन्ने पर ध्यान नहीं जाता। मगर उसे इस तरह से मोड़ा और लपेटा गया था की दिमाग उसे उठाने और सुखाने की ओर एक दम चला गया। खत के अन्दर लिखे गये शब्दों के अक्श बाहर उभर आये थे। सभी पन्ने नीली स्याही से रंग गये थे।


मैं कभी भूलूंगी नहीं वो सब

प्यारी अम्मा -

ये ख़त मैं तुम्हे जहर खाने से एक घंटा पहले लिख रही हूँ। अगर जहर नहीं खा पाई तो घर से भाग जाऊंगी, मुझे पता है, अगर मैं घर से भाग गई तो मेरे घरवालों को बहुत ज़लालत झेलनी पड़ेगी मगर, अगर मैं एक दिन और इस घर में रही तो मैं मर जाऊँगी, मेरे हाथ में एक समय ज़हर की एक छोटी सी शीशी है जिसमें मेरे बाइस सालों का अंत दिखाई दे रहा है।

मैं मानती हूँ, मैंने सबको बहुत दुख दिये हैं बस, अब बहुत हो गया। अब मैं और दुख देना नहीं चाहती किसी को। चार दिन के बाद में मेरी शादी है और वो रिश्ता भले ही जबरन रहा है लेकिन "हाँ" कहने की गलती मैंने ही की है।

अम्मा मा कर देना मुझे मैं जा रही हूँ, शायद फिर कभी लौटकर ना आऊँ

मुझे अच्छी तरह से याद है वो पहला ख़त जो मैंने उस रात में अपने घरवालों को लिखा था। उसका एक एक शब्द मेरे दिमाग पर छपा हुआ है। उसमे समाया डर और दूर निकल जाने कि खुशी दोनों बहुत ज्यादा थी। मैं कभी डर को आने वाली खुशियों से दूर करती तो कभी आगे कुछ है भी ये सोच ही नहीं पाती। वो डर फिर अकेला मुझपर चड़ जाता।

अम्मा तुमने मुझे अपने जीवन की जो भी बातें बताई वो मेरे दिल को कसोटती जाती रही है। मैं तुम जैसी नहीं बन सकती। और ना ही बनना चाहती। अम्मा तुमने एक ही टाइम मे वो सब कैसे पी लिया जो इस छोटी सी जहर की शीशी से भी ज्यादा जहरीला था। मगर वो सारी बातें जो जब तुम सुनाती थी तो मेरे सामने धूंधली ही सही मगर कुछ तस्वीरें बना डालती थी। और उमने तुम जवान दिखती थी लेकिन सही बताऊँ तो तुम्हारी जवानी की शक्ल में मैं होती थी। तुम जो जो बताती जाती लगता जाता की वो सब मैं कर रही हूँ या मेरे साथ ही हो रहा है। मैं तुम्हारी कही हर बात मे, रात मे, कहानी मे सब कुछ करती जाती थी। क्या जब मैंने तुम्हे अपनी बातें बताई तो क्या तुम्हे भी मुझमे तुम दिखाई देती थी? मुझे लगा था की मेरे अब की बातों में छुपी लड़की तुम्हे जवानी की अपनी शक़्ल याद आती होगी। आखिर हमारे बीच में तीस साल का गेप मिंटो मे भर जाने का एक यही तो रास्ता था।

इतना समय बहीत गया है लेकिन उस खत का एक एक शब्द कभी बी मेरी आंखो के सामने नाचता है और मैं सहम जाती हूँ। मैं अगर जरा सा भी सोचू उस वक़्त को जब मेरे उस खत को पढ़ा गया होगा तो क्या हुआ होगा? उसको सपने मे भी देखूगीं तो मुझे ज़हर की भी जरूरत नहीं पड़ेगी बिना हिचकी लिये ही मैं मर जाऊंगी।

हमारे दो पड़ोसी दस साल के बाद मे मुझे मिले जिन्होने उस दिन के बारे मे मुझे बताया, जिन सालो को मैं अपनी जिन्दगी का हिस्सा ही नही मानती थी वही मेरी जिन्दगी की देन थे। अम्मा, एक दिन तुम बहुत ग़ोर से एक लोटे को देखे जा रही थी। झाडू लगाते लगाते तुम उस बक्से की तरफ चली गई जो हमारे घर का एक मात्र तिजोरी बना रहा है। उस लोटे मे क्या था? तुमने कभी नहीं बताया। मगर जब तुम उसे देख रही थी तो मैंने पहली बार ये महसूस किया था की तुम मेरी अम्मा नहीं हो। वो तो नहीं हो जिसे मैं रोज देखती हूँ॥ कई बार सोचा था की उसके बारे मे मैं तुमसे कुछ पूँछू मगर मन नहीं होता था। इसलिये नहीं की तुम बताओगी नही या मेरे पूछने पर तुम्हे बुरा लगेगा। मगर इसलिये की उस तस्वीर को मैं भूलना नहीं चाहती थी जो मैंने एक पल के लिये देखी थी।

अम्मा मेरा सच मे मन नहीं है इस जगह से जाने का - लेकिन........

मैं फिर से बोलूँगी


अब तक इस ख़त की लाइनों में जीवित सांसो को महसूस करने की भूख मेरे शरीर को हिलाने लगी थी। जैसे आर्लम लगाये समय सांसो के साथ डांस कर रहा हो। 

Saturday, June 29, 2019

शमशानघाट से विदा

पंडित जी ने अपना कमन्डल उठाया और शमशानघाट से विदा लेने के लिए तैयार हो गए। बहुत ही नराज़ थे दिल्ली की सरकार से। अब शमशान घाट नये तरीके बनाया जा रहा है। जिसमे उसको बैठने के लायक बनाया जाएगा। जहाँ पर गन्दगी और कोई जानवर ना तो आएगा और ना ही दिखाई देगा। इसलिए पंडित जी की भी विदाई कर दी गई है। सबसे ज़्यादा जानवर पालने वाले ये ही शख़्स थे। जो अपना काम जानवरों से कराते आए है। चाहें वो अन्य जानवरों को भगाना हो या फालतू बच्चों को जो वहाँ से चीजों को बीन कर ले जाया करते थे। जिनके लिए यहाँ की कोई भी चीज भूत-प्रेत की नहीं थी। किसी की साड़ी या किसी का कोई भी कपड़ा हो फिर कोई खिलौना वो सब इनके लिए खेलने के ही आभूषण बन जाते। जिनसे अपने खेलो को सजाया और नाम दिया जाता। वो भी अब नज़र नहीं आएगे। धीरे-धीरे वहाँ कि सफ़ाई भी होने लगी है। वहाँ के पैशाब घर से लेकर लकड़ी की दूकान तक। शमशान घर की बाऊंडरी की दीवार में जितने आने-जाने के अनचाहें द्वार बने हुए थे। जो ज़्यादातर सुअर अपना आने-जाने के रास्ते बनाये हुए थे उसको भी बन्द कर दिया गया है।


ये काम पिछले 3 महिनो से चल रहा है। एमसीडी के कुछ काम करने वाले लोग वहाँ पर हर रोज आते है और सफ़ाई शुरु कर देते है। पंडित जी जिस कोने में अपना आसरा बनाया हुआ था उस जगह की भी सफ़ाई कर दी गई है। पंडित जी ने अपने घर के सामने एक दीवार बनाई हुई थी। अर्थी में आई लकड़ियों से और वहाँ पर पड़ी रहती चीजों से। वो भी वहाँ से हटा देने से इतना खुला-खुला लगता है की शमशान घाट लगता ही नहीं की किसी कालोनी के किनारे का हिस्सा है। वो दीवार ना होने से कालोनी के पार्क का एक छोर शमशानघाट से मिल जाता है और शमशान घाट बहुत बड़ा नज़र आता है।

पंडित जी पूरी सरकार को गालियाँ देते हुए अब अपना बोरिया-बिस्तरा समेट चुके थे। बस, रजिस्टरों पर उनके हस्ताक्षर लेने बाकि थे। मगर वो तो मदिरा में इतने धुत थे कि उनके हस्ताक्षर कैसे कराये जाए ये सोचना पहले जरूरी था। उनको शिवराम जी ने और उनकी घरवाली ने पकड़ा हुआ था वो बहुत नशे में थे।


सफ़ाई हो जाने के बाद भी वहाँ पर एक ही आदमी ने अपना दब-दबा बनाया हुआ था। वो था लकड़ी वाला। लकड़ियों का काम इतना बड़ गया है कि अब शमशान घाट मे लकड़ियाँ ही लकड़ियाँ नज़र आती है। अब वहाँ पर लकड़ी नहीं बल्की अर्थियाँ बिकती है। वो अब लकड़ियों को पहले से ही मोक्षस्थल पर अर्थियाँ बनाकर तैयार रखते है और वही बिकता है। शमशान घाट के गेट के ऊपर एक लाइन जो लिखी है की 'बाहर की कोई भी चीज को अन्दर नहीं लिया जाएगा। कृप्या लकड़ी व क्रियाक्रम का सारा समान अन्दर से ही ले।' हर मोक्षस्थल पर पहले ही अर्थी का सारा समान तैयार होता है तो मुर्दा आता है और उन लकड़ियों पर लेटा दिया जाता है बस, मुखागनी दे जाती है और कार्य समपन्न।


एक-एक अर्थी की कीमत लगा दी जाती है। कीमत होती है 1200, 1500, 2000, 3000 रुपये तक लगा दी जाती है बस, उसी का सौदा किया जाता है। 1200 रुपये में लकड़ियाँ कम और बचा-कुचा माल ज़्यादा होता है। जिसमे चलने के बाद में मुर्दे के खिसकने का डर ज़्यादा रहता है। कई बार तो गीली-गीली लकड़ियाँ रख दी जाती है। जिन्हे जलाने में कई किलो देशी घी लग जाता है तो लोग ऐसा काम ही नहीं करते। वो तो चाहते है की मरने के बाद तो उसे कोई दुख ना हो और मिट्टी का तेल डाला नहीं जा सकता। बस, 2000 रुपये तक में सौदा करने के लिए तैयार हो जाते हैं लोग।

लकड़ी वाले ने कई टन लकड़ियाँ मंगाई हुई है और शमशान घाट मे चारों तरफ़ में अपनी लकड़ियों को फैला हुआ है। देखने मे तो शमशान घाट किसी पार्क से कम नहीं लगता। अब देखा जाए तो डर जैसी हवा दूर तक नहीं भटकती। शाम मे तो शायद वहाँ कई तरह की रोनक बन जाती होगीं। हर वक़्त वहाँ पर लाउडस्पीकर मे गायत्री मन्त्र की कैसेट चलती रहती है और वहाँ आए अर्थी के साथ में लोग उस मन्त्र का आन्नद लेते हैं।


शिवराम जी भी उन्ही पंडित जी के साथ मे शमशान घाट से जाने की कह रहे थे। शायद आगे बनने वाले शमशान घाट मे किसी शिवराम जी की जरूरत नहीं होगी। जो अपनी मर्जी से किसी भी अर्थी के साथ मे लग जाया करते। जो उसे पहले पुन्य का काम मानते और उसके बाद मे कुछ पाने की तमन्ना रखते। अब तो वहाँ पर कोई सरकारी नौकरी करने वाला आएगा जो सारे काम सरकारी नियमों के अनुसार करेगा। शायद अर्थी में होने वाले कामो को भी और रिवाज़ो को भी वो नौकरी मान कर ही करेगा। अब तो सारे काम नियम अनुसार ही होगें। कब क्या करना है वो सब अब कागज़ो में लिखा-पढ़ी के बाद ही आगे बढ़ाया जाएगा।


इन शब्दों में पंडित जी के बोल ज़्यादा थे। शिवराम जी तो बस उन्हे सम्भाले हुए थे और उलटे पाँव जाते-जाते शमशान घाट को ताक रहे थे।

शायद ये उनका आखिरी दिन था।

लख्मी 

Thursday, June 13, 2019

मोहल्ले का पहला घर


हवा जैसे उनके इस कमरे में बिना किसी बंदिश के सफर करती और धूप कोनों में से आकर उनको चूम जाती। मटको को एक के ऊपर एक रखकर उन्होने एक कमरा बनाया हुआ था। तीन तरफ मटको की दीवार बनाकर उसपर हल्की चटाई के साथ तिरपाल डालकर उसे छत का नाम दे रखा था जिसमें बाहर की हर चीज़ शामिल हो जाती तो दूसरी तरफ कमरे के अन्दर का हर माहौल और समय बाहर की दरो - दीवारों को खुद में मिला लेता। ये ऐसा रोशनदान था जो दीवारें होने के बाद भी दीवारे नहीं थी और रोशनदान होने के बाद भी रोशनदान नहीं था। सभी कुछ एक – दूसरे की तस्वीरों में निगाह जमाने जैसा कोई ख़ास पहलू। दीवारें, सुनते ही जैसे दिमाग में मजबूती और महफूज़ियत का दम भरने लगती हैं। जो अगर बाँटती है किन्ही से तो दूसरी तरफ एक और तरफ बनाने का आसरा देती हैं। मगर यहाँ जैसे दीवारें कम और खिड़कियाँ ज्यादा थी। हर छेद एक झरोखा जो यहाँ के हर हिस्से को एक – दूसरे से जोड़कर एक ही बना देता है। इसका कोई एक तरफ नहीं है। कभी कोई किरदार दरवाजे नहीं बल्कि किसी दीवार से कुछ मांग लेता तो कभी कोई बच्चा वहीं से कोई चीज़ पकड़ा देता। दीवार छूकर पकड़ लेने का खेल खेलती जिसमें उन्हे भी तो मज़ा आता था। जब चाहे वो उन्ही मटको की दूरी से बने छेदों से किसी को आवाज़ लगाकर बुला लेती। वहीं एक अन्दर खड़ी हो जाती और एक बाहर बस, बातें होना शुरू हो जाती। उन्हे बातें करते हुए लगता जैसे न तो यहाँ किसी का अन्दर है और न ही बाहर।

कई पहरेदारों और सरकारी कर्मियों का ये जमावड़ा थी। हर लाइन के बन्दे यहाँ पर आकर टकराते थे। किसी से भी कुछ भी करवालों, हाँ बस, थोड़ा सा खर्चा करना होगा। ये रीत बड़ी दिलचस्प सी बनती जा रही थी। कहीं पर दो लोग रात में अपने आप ही चौकीदारी का काम करने के लिए खड़े हो जाते थे तो कोई दो लोग सबका कूड़ा सकेरने तो कोई दो लोग गलियों की सफाई करने के लिए काम का महीना पूरा होते ही सब पँहुच जाते अपने - अपने हिस्से के पैसे मांगने। कम से कम एक रुपया हर घर से या ज़्यादा से ज़्यादा दो रुपया, अच्छे खासे पैसे उनकी जैबों मे बन जाते।

Friday, June 7, 2019

थोड़ा और इंतजार



भरी दोपहरी में जैसे सब कुछ शांत पड़ा है। सारी आवाजें जैसे यहां से होकर गुज़र चुकी हैं। लेकिन यहां पर कोई भी नहीं रूकी है। पूरी जगह ने सारी आवाजों को अपने शोख़ लिया है। जहां पर अस्पताल बिमार को सिर्फ बिमारी से जानता है और अस्पताल की कुछ जगहें बिमार को पेपरों से तो कुछ सिर्फ दवाइयों से। वहीं पर कुछ कोने ऐसे भी होते हैं जहां पर बिमार सिर्फ बिमार होता है।

फोटोस्टेट की मशीन सुबह से चल रही है। दुकानवाला कई बार उसे बंद कर चुका है। एमरजेंसी के गेट के साथ ही में इस दुकान से ही मालुम पड़ रहा है की आज कितनी भीड़ है। जितनी बाहर दिखाई दे रही है उससे कई ज़्यादा शायद अंदर होगी। बाहर वाले बाहर ही बैठे सुस्ता रहे हैं और अंदर वाले अंदर ही रूके हैं। ना तो कई समय से, बाहर से अंदर जा रहा है और ना ही कोई बाहर आ रहा है। कई पर्चे दुकान के बाहर ही बिखरे पड़े हैं। हर पर्चा जैसे अपनी अहमियत खो चुका है। दवाइयों के छिले हुए लिफाफे और पत्ते ज़मीन को छुपाये हवा से यहां से वहां नाच रहे हैं। कई गोलियां, केपशूल, इंजेक्शन और बोतलें खाली हो चुकी हैं। कुछ तो ज़मीन पर बिछी चटाई के हवाले हो गई है। इस चटाई का मालिक कौन है, वे कहां गया है, ये उसके काम की थी या गलती से भूल गया है? ये सोचते हुये और उन्हे देखते हुए निकलना कोई बड़ी बात नहीं है।

दोनों हाथों की कलाइयों में गुलुकोश की सुइयां लगाए एक लगभग साठ साल की बुर्जुग औरत उस चटाई पर आकर बैठी। हाथों में दो लीटर की बड़ी पानी की बोतल और उसी हाथ में अपने पेपरों की थैली पकड़े वो वहीं पर आकर बैठ गई। वो बोतल को अपनी पुरी कोशिश से खोल रही है। हाथ कांप रहे हैं। पतले पतले हाथों की नसों को उस जोर से उभरते हुये देखा जा सकता है। धूप की चमक जैसे ही उसके उन हाथों पर पड़ती तो सुई की जगह पर लगा लाल रंग चमक उठता। हल्का-हल्का खून जैसे उस जगह पर जम चुका है। उन्हे कोई नहीं देख रहा बस, एक कुत्ता उनकी ओर पूरी से तरह ध्यान दिये हुए है। लेकिन वो किसी की ओर नहीं देख रही है। बड़ी जोर आजमाइश के साथ उन्होनें अपनी उस बोतल का ढक्कन खोल लिया और दोनों हाथों की पूरी ताकत से उस दो लीटर की बोतल को उठाया। मगर उनकी ये पहली कोशिश पुरी तरह से कारगर नहीं हो पाई। उन्होने फिर से कोशिश की। इस बार मुंह तक बोतल तो गई लेकिन पानी मुंह तक नहीं जा पाया। कुछ बूंदे मुंह में ज़रूर गिरी होगी लेकिन बाकी का सारा पानी उनके कपड़ों पर गिर गया। उनकी प्यास नहीं भुजी। उन्होनें अपनी थैली को खोला और उसमें से एक प्लासटिक का गिलास निकाला। वो शायद गंदा था। उन्होने उस गिलास में थोड़ा सा पानी भरा और उस गिलास को खंगाल कर पानी फेंक दिया। फिर उसमें दोबारा से पानी और उस कुत्ते की ओर खिसका दिया।

कुछ देर के लिये वो उस कुत्ते को देखती रही और वहीं बैठी रही।

दूसरी तरफ से एक औरत अपने तीन छोटे बच्चों के साथ में बैठ गई। एक बड़ी सी पन्नी ज़मीन पर बिछाकर। उसके तीनों बच्चे उसकी ओर देख रहे हैं। इस तरह से जैसे वो अभी ही कुछ ही देर में गिर पड़ेगी। वो अपने दोनों हाथों से ख़ुद को रोके हुए है। ज़मीन पर उसने अपने दोनों हाथों को जमाया हुआ है। कुछ देर तक वो इसी तरह से बैठी रही। उसके तीनों बच्चे उसी की ओर देखते रहे।

"आपने सुना नहीं है क्या आपको एक्शरा करवाकर लाना है।" एक जोर दार आवाज़ उनके कानों में पड़ी। एक आदमी जिसने अपने मुंह को ढक रखा था और हाथों में प्लासटिक के दस्ताने पहने हुए थे। वो एक टक लगाये उस शख़्स को देखती रही। उन्होनें जल्दी से अपने कागज़ों की पन्नी में से एक बड़ा मिटिया रंग का लिफ़ाफ़ा निकाला और उस शख़्स के हाथों में थमा दिया।

ये पुराना है। आपकों समझ में नहीं आता है क्या?” उस लिफ़ाफ़े को बिना खोले ही उस शख़्स नें उस औरत को वापस दे दिया। वो औरत वहीं पर बैठी उन एक्शरों में कुछ झांकने लगी और वो आदमी आगे की ओर बड़ गया। साथ वाली चटाई पर एक पूरा परिवार बैठा है। अपने बीच में अपने पेपरों को बिछाए। उसे नम्बरबारी से लगाते हुये वो उस आदमी को देख रहे हैं।

हां जी आपका क्या है?” वो आदमी उनकी ओर देखते हुए बोला।
उनमें एक शख़्स अपने पेपर उनको पकड़ाते हुये बोला, “जी इनको टीबी की शिकायत बताई है।"
वो आदमी पूरे पेपर देखते हुये बोला, “तुम्हे कैसे पता की इनको टीबी की शिकायत है?”
जी वो हमारे मोहल्ले के डाक्टर ने बोला था।" वो आदमी नज़र चुराते हुये बोला।
वो आदमी इस नज़र को भांपते हुये बोला, “भाई साहब टेस्ट तो इसमे एक भी नहीं है और आप सीधा सीधा टीबी बोल रहे हैं। मैं क्या देखकर समझूं की इनको क्या है? पहले पूरे टेस्ट तो कराइये ना।"

वो आदमी आगे बड़ गया।

जिस-जिस ओर वो आदमी जाता सभी की नज़र उस ओर ही हो जाती। मगर कुछ हिस्सा अब भी अपने में ही लीन था। इस सब क्रिया से अंजान था। पूरी जगह में जैसे गुट बने थे। कोई किसी का इंतज़ार करता दिख रहा था तो कोई पहली बार आया। कोई किसी के साथ आया था तो कोई सिर्फ सुस्ता रहा था। कोई खुद ही मरीज़ था तो कोई मरीज़ के बाहर आने का इंतज़ार कर रहा था। कोई दवाइयां लेने के लिये बैठा था तो कोई फोर्म भरने के लिये। कोई कुछ बेच रहा था तो कोई खुद ही नौकरी पर था। कोई सोने के लिये आया था तो कोई जैसे कई रातों से सोया ही नहीं था। कोई खाना खाने लिये तैयार हो रहा था तो कोई खाना खाकर भागने के लिये तैयार था। कई लोग, कई गुट, कई परिवार, कई मरीज़, कई साथी, कई कामगार सभी एक-दूसरे के करीब आकर दूर हो जाते। कोई जैसे किसी को नहीं जानता था और ना ही जानना चाहता था फिर भी एक ही धूप से बच रहे थे और एक ही छांव में बैठे थे। एक ही हवा खा रहे थे और एक ही ज़मीन के हिस्सेदार थे। हर कोई अपने शरीर में कोई ना कोई बिमारी लिये हुए बस, उसकी समाप्ती के लिये दुआ करने के लिये इस अस्पताल में हाज़री भरने के लिये आया हुआ था।



लख्मी 

Friday, May 31, 2019

इंतज़ार कक्ष


कोई एम्बूलेंस की आवाज़ नहीं। धूप के साथ जैसे इंतज़ार करते बिमारों के रिश्तेदार अब ख़ुद भी सुस्ताने लगे हैं। छुट्टी का दिन है। बड़े डाक्टरों के बिना चलते अस्पताल का इंतज़ारिया कमरा भी बिना किसी रोकटोक के सुस्ता रहा है। छोटे डाक्टर भी दिखना बंद है। अस्पताल के कर्मचारी ही यहां से वहां भागते दौड़ते दिख रहे हैं। कम्बल, शॉल, पतली रजाइयां व पतली चादरों से देखती आंखे उन्हे ही निहार रही हैं। शायद जैसे कोई ख़बर उन्ही के हाथों मिल जाये। कमरे में इतनी कुर्सियां नहीं है जितना की जमीन पर अपने बिस्तर लगाये लोग पड़े हैं। कमरे के बाहर तीन से चार स्ट्रेक्चर खड़े हैं। उनमें से तीन भरे हैं। हाथ में अपना ही गुलूकोस पकड़े कोई लेटा हुआ है। उसके बगल में खड़ी एक औरत उससे कुछ पूछ रही है। बाहर स्ट्रेक्चर हैं और कमरे के अन्दर कई बिमार लोग। कोई कमर में गर्मपट्टी बंधाये कमर की तकलीफ से परेशान है तो कोई पैशाब की जगह एक नली पकड़े लेटा है। कोई मुंह को कपड़े से धका हुआ है तो कोई आंख के दर्द से परेशान है। ये वेटिंगरूम ही इनका अपना वार्ड है और बिस्तर अपना बेड। बस, यहां पर कोई बेड नम्बर नहीं है। बस, अपने पर्चे अपने सिरहाने पर लेटे है। खुद से अपना बेड तलाशते व बनाये ये लोग डाक्टर का इंतजार करते हैं और यह भी मालूम यहां कब तक रहना है। हां, मगर यह जरूर पता है कि यहां कबसे है। बस, ख़ुश हैं कि इलाज हो रहा है। पैसा बच रहा है। यहां पर कोई मिलने का टाइम नहीं है। जब मर्जी रिश्तेदार आ जा सकते हैं। अस्पताल के कर्मचारी भी इससे संतुष्ट दिख रहे हैं।

यह वेटिंगरूम दिल्ली से बाहर से आये लोगों से भरा है। गुड़गांव, फरिदाबाद, दादरी, बलम्भगड़, गाजियाबाद लोगों से तो बाहर एमरजेंसी के सामने की खाली जगह में दिल्ली में ही रहने वालों की भीड़ जमा है। पुरानी दिल्ली, नई दिल्ली, बेग़मपुर, कटवारिया सराय और खानपुर। यहां पर एक जन से जब यह मालुम किया तो वह बोला कि पुरानी दिल्ली वालों का तो यह अपना अस्पताल है। वे तो यहां पर बुखार, पेट दर्द, कब्ज़ और तो और एसीडिटी की दवाई भी लेने आ जाते हैं। यह बात उन्होने बोली और जोर जोर से हंसने लगे। शायद यहां पर उनका अपना कोई नहीं था। अभी फिलहाल धूप इस जगह में चली रही है। ख़त्म होने के साथ आगे की ओर बड रही है और लोग उसके साथ साथ अपना बैठने का ठिकाना तलाशते व बनाते लोग आराम कर रहे हैं। यह जगह बिमारों से भरी हुई है। एम्बूलेंस, चौकीदार की सीटी, भारी स्ट्रेक्चर खींचने आवाज़ जैसे यहां के लिये आम सी आवाज़ है और उसके साथ साथ किसी के रोने, दर्द में चिल्लाने की भी। लेकिन फिर भी इस आवाज़ के होते ही सभी उसी ओर देखने लगते हैं। वेटिंगरूम में एक दूसरे से अपनी बिमारी / तकलीफ बांटते लोग इसी में संतुष्ट दिखे की उनके जैसे यहां कई हैं। एक दूसरे की छुट्टी की खबर सुनते ही उनको यह लगता दिखता की अब उनको भी जल्दी ही छुट्टी मिल जायेगी।

लेकिन आज सरकारी छुट्टी होने से कईओ की जैसे छुट्टी केंसल हो गई।




लख्मी 

Tuesday, May 14, 2019

नया शमशानघाट

पंडित जी ने अपना कमन्डल उठाया और शमशानघाट से विदा लेने के लिए तैयार हो गए। बहुत ही नराज़ थे दिल्ली की सरकार से। अब शमशान घाट नये तरीके बनाया जा रहा है। जिसमे उसको बैठने के लायक बनाया जाएगा। जहाँ पर गन्दगी और कोई जानवर ना तो आएगा और ना ही दिखाई देगा। इसलिए पंडित जी की भी विदाई कर दी गई है। सबसे ज़्यादा जानवर पालने वाले ये ही शख़्स थे। जो अपना काम जानवरों से कराते आए है। चाहें वो अन्य जानवरों को भगाना हो या फालतू बच्चों को जो वहाँ से चीजों को बीन कर ले जाया करते थे। जिनके लिए यहाँ की कोई भी चीज भूत-प्रेत की नहीं थी। किसी की साड़ी या किसी का कोई भी कपड़ा हो फिर कोई खिलौना वो सब इनके लिए खेलने के ही आभूषण बन जाते। जिनसे अपने खेलो को सजाया और नाम दिया जाता। वो भी अब नज़र नहीं आएगे। धीरे-धीरे वहाँ कि सफ़ाई भी होने लगी है। वहाँ के पैशाब घर से लेकर लकड़ी की दूकान तक। शमशान घर की बाऊंडरी की दीवार में जितने आने-जाने के अनचाहें द्वार बने हुए थे। जो ज़्यादातर सुअर अपना आने-जाने के रास्ते बनाये हुए थे उसको भी बन्द कर दिया गया है।

ये काम पिछले 3 महिनो से चल रहा है। MCD के कुछ काम करने वाले लोग वहाँ पर हर रोज आते है और सफ़ाई शुरु कर देते है। पंडित जी जिस कोने में अपना आसरा बनाया हुआ था उस जगह की भी सफ़ाई कर दी गई है। पंडित जी ने अपने घर के सामने एक दीवार बनाई हुई थी। अर्थी में आई लकड़ियों से और वहाँ पर पड़ी रहती चीजों से। वो भी वहाँ से हटा देने से इतना खुला-खुला लगता है की शमशान घाट लगता ही नहीं की किसी कालोनी के किनारे का हिस्सा है। वो दीवार ना होने से कालोनी के पार्क का एक छोर शमशानघाट से मिल जाता है और शमशान घाट बहुत बड़ा नज़र आता है।

पंडित जी पूरी सरकार को गालियाँ देते हुए अब अपना बोरिया-बिस्तरा समेट चुके थे। बस, रजिस्टरों पर उनके हस्ताक्षर लेने बाकि थे। मगर वो तो मदिरा में इतने धुत थे कि उनके हस्ताक्षर कैसे कराये जाए ये सोचना पहले जरूरी था। उनको शिवराम जी ने और उनकी घरवाली ने पकड़ा हुआ था वो बहुत नशे में थे।

सफ़ाई हो जाने के बाद भी वहाँ पर एक ही आदमी ने अपना दब-दबा बनाया हुआ था। वो था लकड़ी वाला। लकड़ियों का काम इतना बड़ गया है कि अब शमशान घाट मे लकड़ियाँ ही लकड़ियाँ नज़र आती है। अब वहाँ पर लकड़ी नहीं बल्की अर्थियाँ बिकती है। वो अब लकड़ियों को पहले से ही मोक्षस्थल पर अर्थियाँ बनाकर तैयार रखते है और वही बिकता है। शमशान घाट के गेट के ऊपर एक लाइन जो लिखी है की 'बाहर की कोई भी चीज को अन्दर नहीं लिया जाएगा। कृप्या लकड़ी व क्रियाक्रम का सारा समान अन्दर से ही ले।' हर मोक्षस्थल पर पहले ही अर्थी का सारा समान तैयार होता है तो मुर्दा आता है और उन लकड़ियों पर लेटा दिया जाता है बस, मुखागनी दे जाती है और कार्य समपन्न।

एक-एक अर्थी की कीमत लगा दी जाती है। कीमत होती है 1200, 1500, 2000, 3000 रुपये तक लगा दी जाती है बस, उसी का सौदा किया जाता है। 1200 रुपये में लकड़ियाँ कम और बचा-कुचा माल ज़्यादा होता है। जिसमे चलने के बाद में मुर्दे के खिसकने का डर ज़्यादा रहता है। कई बार तो गीली-गीली लकड़ियाँ रख दी जाती है। जिन्हे जलाने में कई किलो देशी घी लग जाता है तो लोग ऐसा काम ही नहीं करते। वो तो चाहते है की मरने के बाद तो उसे कोई दुख ना हो और मिट्टी का तेल डाला नहीं जा सकता। बस, 2000 रुपये तक में सौदा करने के लिए तैयार हो जाते हैं लोग।

लकड़ी वाले ने कई टन लकड़ियाँ मंगाई हुई है और शमशान घाट मे चारों तरफ़ में अपनी लकड़ियों को फैला हुआ है। देखने मे तो शमशान घाट किसी पार्क से कम नहीं लगता। अब देखा जाए तो डर जैसी हवा दूर तक नहीं भटकती। शाम मे तो शायद वहाँ कई तरह की रोनक बन जाती होगीं। हर वक़्त वहाँ पर लाउडस्पीकर मे गायत्री मन्त्र की कैसेट चलती रहती है और वहाँ आए अर्थी के साथ में लोग उस मन्त्र का आन्नद लेते हैं।

शिवराम जी भी उन्ही पंडित जी के साथ मे शमशान घाट से जाने की कह रहे थे। शायद आगे बनने वाले शमशान घाट मे किसी शिवराम जी की जरूरत नहीं होगी। जो अपनी मर्जी से किसी भी अर्थी के साथ मे लग जाया करते। जो उसे पहले पुन्य का काम मानते और उसके बाद मे कुछ पाने की तमन्ना रखते। अब तो वहाँ पर कोई सरकारी नौकरी करने वाला आएगा जो सारे काम सरकारी नियमों के अनुसार करेगा। शायद अर्थी में होने वाले कामो को भी और रिवाज़ो को भी वो नौकरी मान कर ही करेगा। अब तो सारे काम नियम अनुसार ही होगें। कब क्या करना है वो सब अब कागज़ो में लिखा-पढ़ी के बाद ही आगे बढ़ाया जाएगा।

इन शब्दों में पंडित जी के बोल ज़्यादा थे। शिवराम जी तो बस उन्हे सम्भाले हुए थे और उलटे पाँव जाते-जाते शमशान घाट को ताक रहे थे। शायद ये उनका आखिरी दिन था।

लकड़ी वाले ने सारी लकड़ियों को उस अस्थियों वाले कमरे में लाद दिया था। जहाँ पर अब किसी आदमी का जाना न मुमकिन था। कई अस्थियों की थैलियाँ ज्यों की त्यों लटक रही थी। मगर अब वहाँ तक किसी का हाथ नहीं पँहुच सकता था। कोई अगर आ गया अपने किसी को लेने के लिए तो वो इन्हे कैसे लेकर जाएग? ये तो यहीं पर रह जाएगी। शिवराम जी उसी कमरे के सामने खड़े बस, वहाँ पर टंगी उन थैलियों को देख रहे थे। सोच रहे थे की उन लकड़ियों को कैसे हटाया जाए जो वहाँ पर टंगी कई थैलियों को फाड़ रही थी। कई लकड़ियों के ताज (अर्थी के ऊपर झंडियों और गुब्बारों से सजाया हुआ) भी उन लकड़ियों मे फंस कर महज लकडी ही बन गए थे। आज से पहले वो अर्थियों के ताज हुआ करते थे। ये ताज़ उन पर चढ़ाया जाता था जो मरने से पहले अपनी तीन या चार पीढ़ी को देख जाया करते थे। यानि जो अपना पोता और पोते की भी औलाद देख लेता है। जिसको बैण्ड-बाजे के साथ में लाया जाता है और उसे इस कमरे की रौनक बना दिया जाता है। सारी रंगीन झंडियाँ तो अब उनमे नहीं नज़र आ रही थी बस, बाँस के डंडे ही दिखाई दे रहे थे।

लकड़ी वाला शिवराम जी जो अपने यहाँ पर नौकरी रखने के लिए कह रहा था। 2500 रुपये महिना दे देगा। बस, मोक्षस्थल पर 1500 रुपये वाली में जो लकड़ियाँ रखी जाती है उनमे से वो लकड़ियाँ कम लगे और पैसा भी पूरा मिले। लकड़ियाँ भी कम लगाई जाए और वो ऊंची भी नज़र आए। लगे की जैसे 1500 की अर्थी है मगर वो बनी हो 1200 मे लगी लकड़ियों से। ये काम खाली वहाँ पर शिवराम जी के अलावा कोई दूसरा नहीं कर सकता था। वो इतनी ठोस अर्थी लगाते थे की लकड़ियाँ भी कम लगती थी और वो कहीं से भी कमजोर नहीं पड़ती। मुर्दे का भी खिसकने का कोई डर नहीं होता था। बहुत मजबूत बनाते थे शिवराम जी अर्थी।

लकड़ी वाला ऐसे आदमी को क्यों हाथ से जाने देखा?

शिवराम जी का दिमाग अभी दो भागों में बट गया था। जिस काम को वो गालियाँ देते आए थे वो ही काम उन्हे अपनी तरफ़ में खींच रहा था जिससे वो अपना परिवार भी चला सकते थे और जिसे वो पुन्य का काम मानते थे वो भी उनके करीब ही रहता। जिस काम को करना चाहते है या करते आए है वो अब किसी सरकारी नौकरी मे तबदील हो गया है। अब तो जैसे कोई ऐसा काम ही नहीं बचा की जिसको अपनी मर्जी से किया जाए और वहाँ से कोई सौगात मिल जाए। एक ये ही काम था पर ये भी अब सरकारी नौकरी बन गया है। बस, यहीं पर उनका दिमाग उलझा हुआ था।

वो उस कमरे में से सारी चीजों को खींच रहे थे। आज से पहले कभी इतना गौर से नहीं देखा था उन चीजों को उन्होनें। कई तो बीढ़ी-माचिस, हुक्के की चिल्म, बक्से (गल्ले के जैसे) और कुछ बर्तन थे। बर्तनो पर तो तारीख़ें भी लिखी हुई थी जिन्हे गुदवा कर लिखा गया था। किसी पर 1981 कि तारीख़ थी तो किसी 1990 कि। ये तारीख़ें सन के हिसाब से 1980से शुरू होती और 1999 तक जाती थी। बर्तनो पर ज़ंग लग गई थी। कई पोटलियाँ निकली जिनमे कई पुराने कपड़े बन्धे हुए थे। जिनकी गिनती करना आसान नहीं था।

वो लकड़ियों पर खड़े हुए थे और अपना संतुलन बनाकर सारे सामानों को एक जगह पर लेकर खड़े थे। अभी तो कई समान और था जिस तक हाथ नहीं पँहुच रहा था।

यहाँ पर कोई भी ऐसा नहीं था जिसे इन चीजों का आसरा भी हो। लकड़ी वाले के लिए ये जगह कोई शमशानघाट नहीं थी। ये जगह तो एक ऐसा कार्यस्थल थी की जहाँ पर आने वाला ग्राहक कहीं और से कुछ ले ही नहीं सकता। यहाँ पर आने वाला यहीं से ही चीजों को खरीद सकता है और कोई है भी नहीं यहाँ पर उसके आलावा। पंडित जी के लिए ये जगह एक बसेरा थी जिसको छोड़ने पर अपनी सारी पहचान की पत्रियों को बदलना होगा और लोगों से दोबारा से एक और नये रिश्ते की बुनियाद रखनी होगी।

आज कई और अन्य भागों में बट गया था ये शमशान घाट।

शिवराम जी अगर अब यहाँ से गए तो क्या करेगें और अब इस उम्र में कौन नौकरी देगा इस पर ही वो अपना सारा दिमाग ख़र्च करने मे लगे थे। अब तो सारे शमशान घाट में ये काम ख़त्म हो गया होगा।

लख्मी 

Thursday, May 9, 2019

स्ट्रीट फूड - कहानी भाग तीन


एक दिन मिड्डे-मील थोड़ा देरी से आया। स्कूल में सभी बच्चे अपने बर्तन लेकर यहां से वहां घुम रहे थे। स्कूल में आधे से ज्यादा बच्चे तो इसलिये आधी छुट्टी के बाद टिकते थे क्योंकि खाने को खाना मिलता था। स्कूल का बड़ा गेट खोला गया। एक सफेद रंग का आटो रिक्सा अंदर दाखिल हुआ। सभी बच्चे लाइन लगाकर खड़े हो गये। खाना बांटने वाले टीचर भी आ गये। आटो का दरवाजा खुला और बच्चों में खुद होने की चहलकदमी दिखने लगी। बड़े - बड़े बर्तनों को नीचे रखा गया। जैसे ही उसका ढक्कन खोला गया तो उसमें से गर्म महक बाहर निकली। बच्चों मे और ज्यादा खुशी की लहर दोड़ गई। मोन्टू सबसे पीछे खड़ा था। उस तक जैसे ही वो महक गई तो वो आगे की ओर दौड़ा। इतने में टीचर ने चमचा सब्जी में चला दिया। मोन्टू बहुत तेज दौड़ा और टीचर का हाथ पकड़ लिया। टीचर ने गुस्से में मोन्टू की ओर देखा और जोर से कहा "किस क्लास के हो तुम, अपनी जगह पर जाओ।" मोन्टू ने हाथ नहीं छोड़ा। टीचर ने फिर से गुस्से में पूछा "हाथ छोड़ो, क्या बात है?” मोन्टू ने कहा "सर ये सब्जी बुस गई है, खराब हो गई है। इसे खाया तो सब बिमार हो जायेगे।" टीचर ने भी सूंघा। उन्हे ऐसा कुछ नहीं लगा। उन्होने कहा "तुम्हे कैसे मालूम?” मोन्टू बोला "सर देखिये इसमें झाक हो रहे हैं।" टीचर जी ने उस खाना लाने वाले को बुलाया और पूछा "ये खाना खराब है और तुम बच्चों को यह खिला रहे हो?” खाना लाने वाले ने कहा "हमें नहीं मालूम होता सर। जो हमारी गाड़ी में रख दिया जाता है हम उठा लाते हैं।" टीचर जी ने वो सारा खाना वापस लौटाया और मोन्टू के नाम की पूरे स्कूल में ताली बजवाई। मोन्टू बेहद खुश हुआ। और वो स्कूल से निकलकर फिर से उसी जगह पर जाकर बैठ गया। वहां पर आज का पूरा दिन दोहराने लगा। उन कॉपी को देखता रहता जिसमें उन रेहड़ी वालों ने उसे मसालो व स्वादिस्ट खानों की लिस्ट बनवाई थी। वे उन्हे देखता और पढ़ता रहता।

घर पर भी उसका मन नहीं लगता था। घण्टों खामोश बैठा रहता। एक दिन उसके पिताजी ने उससे पूछा "क्या हुआ मोन्टू तुम इतने चुप चुप क्यों बैठे रहते हो? दोस्तों से झगड़ा हुआ है क्या?” मोन्टू कुछ ना कहता। बस, ना में गर्दन हिला देता। पिताजी ने फिर से पूछा "मुझे नहीं बताओंगे? मैं तो तुम्हारा दोस्त भी हूँ ना!” मोन्टू उनकी गोद में लेट जाता है और पूछता है "पापा जब को हमसे दूर हो जाता है तो हम उसे याद कैसे करते हैं?” उसके पिताजी यह बात कुछ समझ नहीं पाये। वे थोड़ा रुके और सोचे की वो अपनी मम्मी को याद करके दुखी है। उन्होनें उन्ही को सोचते हुए जवाब देना बेहतर समझा और कहा "उनकी कही हुई बातों को दोहराकर और आधी बातों को पूरा करके। मालूम है बेटा तुम्हारी मम्मी हमेशा मुझे आधी बात बताती नहीं थी। हमेशा या तो अपने में ही छुपा लेती तो कभी अपनी डायरी में लिख लेती। मैं आज भी उसकी डायरी को पढ़ता हूँ। ऐसा लगता है जैसे तेरी मां से ही बात कर रहा हूँ।" मोन्टू उन्हे देखकर मुस्कुराने लगा। उसने फिर से पूछा "क्या मम्मी की डायरी भी आपसे बात करती है पापा?” पिताजी बोले "नहीं, वो तो नहीं करती मगर मैं ही कभी तेरी मम्मी बन जाता हूँ तो कभी तेरा पापा।" मोन्टू चौंक कर बोला "अच्छा! कैसे पापा?” पिताजी बोले "मैं तेरी मम्मी का लिखा पढ़ता हूँ और उसे पीछे खाली पेज पर उस बात का जवाब लिख देता हूँ। और कभी इस बात पर तेरी मम्मी क्या कहती ये सोचकर उसका भी जवाब लिख देता हूँ।" मोन्टू हंसने लगा। पिताजी भी हंसने लगे। ऐसा लगा जैसे मोन्टू की मम्मी उन्ही के बीच में बैठी हंस रही है। मोन्टू ये महसूस कर सकता था।

दूसरे दिन मोन्टू एक घण्टा पहले ही स्कूल चल दिया। बसते में कुछ कोरे कागज भी भर लिये। और पहुँच गया उसी जगह पर जहां पर वो रेहड़ियां लगा करती थी। वहां पर बैठ कर उनकी बताई खाने की लिस्ट उन कोरे कागज पर लिखने लगा। साथ ही मसालों की भी। और वहीं पेड़ पर चिपका देता। ऐसा वो रोज करता। वहां पर क्या मिलता था। और वो कैसे बनता था। यह सब लिखकर टांग देता। शुरूआत में तो लोग उसे देखकर बच्चे का खेल समझकर चले जाते। लेकिन जब वो पेड़ उन कोरे कागजों से भरने लगा तो लोगों की भीड़ वहां पर लगने लगी। लोग उन सबको पढ़कर खुश होते, हंसते - खिलखिलाते और वहीं कुछ देर टिक जाते। पेड़ का चबूतरा साफ रहने लगा। जो लोग यहां - वहां दुकानों पर काम करते थे वे वहीं पर आकर अपना टिफिन खाने लगे। धीरे - धीरे लगा की जैसे वही माहौल वापस लौट आया हो। मोन्टू के लिये एक वही जगह उसका स्कूल तो नहीं, ना ही क्लास बनी लेकिन लंच टाइम की जगह जरूर बन गई।

आज स्कूल में 14 नवम्बर मनाया जा रहा था। जिसकी तैयारी काफी दिनों से चल रही थी। वे सभी बच्चे पूरी तरह से तैयार थे जिन्हे टीचरों ने बोल दिया था कि उन्हे क्या सुनाना है। टीचरों ने खुद ही उनकी तैयारी कराई थी। मोन्टू भी इस खास दिन में हिस्सा लेना चाहता था। उसने अपने दोस्तों से, अपनी क्लास टीचर से कहा लेकिन बिना तैयारी के उन्होनें मना कर दिया। क्योंकि इलाके के बड़े नेता आ रहे थे। उनके सामने कोई बिना तैयारी के गया तो पूरे स्कूल का नाम खराब हो जायेगा। मोन्टू ने सबसे पीछे खड़ा हो गया। खाना बांटने वाले टीचर उसके पास गये और कहा "तुम आगे क्यों नहीं जाते?” मोन्टू बोला "मैं कुछ सुनाना चाहता हूँ मगर कोई सुनाने ही नहीं देता।" वो टीचर ने मोन्टू का हाथ पकड़ा और आगे ले जाकर कहा "सुनाओ जो सुनाना है?”

मोन्टू सहमा सा सबके सामने खड़ा हो गया। टीचर की जगह पर खड़ा होकर पूरे स्कूल के बच्चों को देखना उसके लिये पहला अवसर था। जो टीचर उसको हाथ पकड़कर लाये थे उन्होने बिना आवाज़ किये कहा "बोलो।" मोन्टू फिर शुरू हुआ। उसने एक कविता सुनाई जो "खाना" पर लिखी थी। जिसमें स्ट्रीट पर लगने वाले स्वाद का जिक्र था।

स्कूल के बाहर हैं लगती रेहड़ी।
                  नई – पुरानी, लंबी रेहड़ी।

लख्मी