Saturday, September 27, 2008

टेलिफोन की करकश

सोहन लाल जी ने अपना गीत पकड़ा दिया ये कहकर "अभी कच्चा है, काफी समय दिया मगर अब भी ताज़गी नहीं ला पाया हूं। लग रहा है कि थोड़ा फिका छोड़ दिया है। जरा तुम हाथ लगाकर देखो, क्या पता पक जाये।"

घर मे इतनी रोशनी होने के बाद भी आँखों मे नमी रहती लगता है जैसे अंधेरा अब भी गहराया है पुतलियों पर, लो दिमाग में फिर से शायरों कि मुलाकातो का असर होने लगा। पसीनो में अगर बदन तर हो तो पंखे की हवा भी बड़ी सुहावनी लगती है और हमारे घर का ये खैतान का पंखा पिछले 30 सालो से बिना कुछ खाए-पीए हमें हवा खिलाता आ रहा है। वैसे इसके नीचे बैठने से लगता है कि जैसे किसी राजा-महाराजा के यहां पंखे चला करते थे जो हवा देने के लिए नहीं बल्कि खाली मक्ख़ियां उड़ाने के लिए रखे जाते थे। मगर, पसीनो की तराई ने आज तो इस पंखे की हवा को भी किसी टॉपक़्लास कम्पनी के कूलर की तरह से कर दिया था।

इतने मे फोन की घण्टी ने आवाज लगाई। ये मोबाइल फोन भी कमाल है जब हाथों मे नहीं था तो ठीक था मगर, जब से आया है बस, यही दिल की धड़कन बन गया है। आधे से ज़्यादा काम तो इसी पर हल हो जाते हैं या ये कहिये कि इसी की वज़ह से कई लोग मिलते नहीं है मगर, फिर भी कहते है कि मिला था। ये मिलना भी कोई मिलना है। नम्बर दिल्ली का नहीं था और ना ही किसी जानने वाले था। लगता था कि आज किसी नये शख्स कि आवाज सुनने को मिलेगी।

हमने फोन उठाया और कहा,

"हैलो!”

"हैलो!, जी आप सुरेश बोल रहे हैं?”

"हां जी, बोल रहा हूं मगर आप कौन मैंने पहचाना नहीं?”

"जी आप मुझे नहीं जानते मगर मैं आपको जानती हूं। मुझे आपका नम्बर मेरे एक दोस्त ने दिया था। क्या आप विजय को जानते है?”

"कौन सा विजय? मैं दो विजय को जानता हूं। एक तो एक अस्पताल मे काम करते हैं। मगर वे बहुत अच्छे गीतकार हैं। कई दोस्त हैं उनके जो गीत व कवितायें लिखते हैं। विजय जी उन्ही के गीतों को गाते हैं। दूसरे विजय हैं, जिनकी बातों मे ही हर बार एक नई ही बात सुनाई देती है। हर वक़्त कुछ ना कुछ करने की बात करते रहते हैं। कभी ये सीखुंगा तो कभी ये। जितना भी कमाते हैं वे सारा का सारा नये संगीत के इंस्ट्रुमेन्ट खरीदने मे ही जाता है। चाहे बजाना आये या ना आये बस, उन्हे लाना जरूर है। एक बार ड्रम सेट ले आया था और दबादब उसे बजाने लगा। पूरी गली वाले उससे दुखी से रहते है मगर, उसके हाथ नहीं रुकते। वे जागरण मे भी जाते हैं ड्रम सेट को बजाने के पैतरें सीखने और उनके छोटे भाई साहब जो हैं वे बस, उन नई चीजों के साथ मे एक तस्वीर जरूर खिचंवाते हैं।"

" हां, वही विजय! आजकल ये अपने घर में रखी तस्वीरो की एक डायरी बना रहे हैं। काफी पुरानी टाइम की तस्वीरे हैं इनके पास।"

"हां जी, यही है! अब आप कहिये कैसे फोन किया आपने?”

"जी क्या मैं आपसे थोड़ा और देर बात कर सकती हूं? आप अगर कुछ काम है तो पहले कर लिजिये, मैं फिर एक घण्टे के बाद मे फोन कर लुगीं।"

"नहीं, जी आप कहिये आपको क्या बात करनी है? वैसे आप बोल कहां से रही हैं? ये नम्बर दिल्ली का तो नहीं है।"

" जी, मैं अलीगढ़ से बोल रही हूं। मुझे आपके बारे में थोड़ा बहुत विजय ने बताया था। सीधे लफ़्जों मे कहूं तो मुझे आपसे कुछ अपने लिए बात करनी थी। मैं आपसे कुछ मदद चाहती हूं और विजय की बातों से मुझे लगा की सिर्फ़ आप ही हैं जो मेरी कुछ मदद कर सकते हैं या कुछ बातचीत कर सकते हैं जिससे मुझे कुछ आइडिया दे सकते हैं। क्या मैं आपको अपने बारे मे बता सकती हूं?”

"जरूर कहिये, मैं सुन रहा हूं।"

"इस समय मैं एक ऐसे वक़्त से गुजर रही हूं कि मुझे किसी भी बात या पल का पता नहीं चल रहा है। जो भी वक़्त इस दौरान मेरे आगे से गुजर रहा है और उस समय में चलते सारे वाक्या मेरे बिलकुल भी समझ नहीं आ रहे हैं। मैं बुथ बनी बस, देखती जा रही हूं, कुछ भी कह नहीं पाती। क्या करूं मैं इस वक़्त मे वो भी समझ से बाहर है। यहां होते हर वाक्या या हर बात मेरे बहुत ही नजदीक से जुड़े हैं। मेरे पापा से, जो कि अब नहीं रहे। जो वक़्त मेरे सामने है उसमे लोगों की बातें मे और मुझे समझाने मे पापा कही तक नज़र नहीं आते। मैं एक तरफ़ मे अपने पापा की बॉडी को देख रही हूं तो दूसरी ओर लोगों की बातों को सुन रही हूं। दोनों मे कहीं तक भी कोई मेल नहीं है। मेरे पापा ऐसे नहीं है !, मैं ये कैसे समझाऊ? मैं खाली अपने पापा के बारे मे ही नहीं, मैं एक ऐसे शख्स के बारे मे बताना चाहती हूं जो कभी अपने बारे मे नहीं सोचता था, उसके लिए उसके दोस्त, रिश्ते, काम और उनका अकेलापन ही उनका खुद था। उन्होनें जो भी किया आज वे खाली बातों मे था। वे भी ऐसी बातें जो अभी कुछ ही देर की है, उसके बाद मे सब ख़त्म हो जायेगी। क्या करूं सकती हूं मै? मैं लिखना चाहती हूं उनके बारे में?”

"माफ़ किजियेगा, सुनकर दुख हुआ! वैसे क्या लिखना चाहती हैं आप अपने पापा के बारे में?”

" मैं अपने पापा से 4 साल दूर रही हूं। मगर, ऐसा नहीं है कि मेरा और उनका रिश्ता बेगानों के जैसा था। मैं अपने घर से, बड़े होते ही बॉर्डिगं स्कूल मे भेज दी गई। हम घर मे सिर्फ़ तीन ही लोग थे। मैं, पापा और मम्मी। मगर, हमेशा पापा अपने काम और अपने बनाये रिश्तों मे ही गुम रहा करते थे। उनका कभी अपने पारिवारिक रिश्तो मे कसाव महसूस होता था इसलिये उनके घर के बाहर बहुत रिश्ते थे। उन्ही वे बहुत खुश रहते थे। काफी दोस्त थे उनके। हमेशा दोस्तों के किस्से उनकी जुबान पर रखे रहते थे। मेरे से वे बहुत कम मिलने आते थे पर जब भी मिलने के लिए तो बस, दोस्तो के बारे मे ही बताते रहते थे या क्या करवाना है अपने घर के लिए वे ही बोलते रहते थे। मैंने कभी उनको अपने बारे मे बोलते हुए नहीं सुना था। जब भी बोलते तो कभी मुझे लेकर तो कभी औरो को लेकर। मैं हमेशा उनका मुंह ही ताकती रहती थी और देखती रहती थी की ये शख्स क्या है? मुझसे मिलने आये हैं मगर मेरे बारे अभी का कुछ नहीं पुछ रहे बस, दोस्तो का ही जिक्र कर रहे हैं। कभी-कभी उनके ऊपर बहुत गुस्सा भी आता था। पर वो जब चले जाते थे तो मन मे आता था कि वो चाहे किसी और की ही बात क्यों ना करें मगर बस, वे पास में रहे तो कितना अच्छा हो। कभी-कभी बहुत मिस करती थी मैं उनको, उनकी बातों को, जैसे आज बहुत कमी महसूस हो रही है मुझे उनकी लेकिन आज वो सामने होने के बाद भी नहीं है। क्या करू मैं? और यहां पर सारे उनके बारे मे बुरा ही बोल रहे है। लग रहा है की जैसे ये जो शख्स मुझे दिखाया जा रहा है उन्हे तो मैं जानती ही नहीं हूं। मैं सबको बता देना चाहती हूं की जो आप सब मुझसे कह रहे हो मेरे पापा के बारे मे, वो सब गलत है। जो हमेशा आपकी ही बातें करते थे। दोस्तो मे रहते थे, वे ये तो नहीं हो सकते। मैं वो सब मुलाकातें लिखना चाहती हूं जो उन्होने मेरे साथ मे बिताई। जिसमे वो एक पापा नहीं होते थे कोई और ही बने होते थे।"

" एक बात पुछना चाहूंगा मैं आपसे, क्या आपके साथ मे बिताया समय आपके पापा के बारे में बताने के लिए पूरा है? क्या आपके पापा के बोलने और आपके साथ बिताये समय में जो वो शख्स थे, वही यहां घर मे आने के बाद मे भी थे?”

"मैंने अपने पापा के बारे में यहां जो सुना उसको सुनकर तो मैं भी हैरान हूं और मन मे सवाल उठ रहे हैं कि क्या यहां पर पापा कुछ और थे? अगर वो यहां ऐसे थे तो मेरे साथ मे क्या थे? पर हम अगर किसी के साथ मे घण्टो बात करते हैं और उसको सुनते है। सालो मे, महिनो या हफ्तो मे ही सही तो उसके बारे मे कुछ तो बना पाते है ना! ऐसा ही मैंने किया है। मैने उनको सुनकर जो अपने लिए कुछ बनाया है वो मेरे लिए ज्यादा मूल्यवान है। जिसमे कम से कम मे किसी के खराब होने, कोसने व किस को कितने दुख दिये को सोचने से दूर तो हूं। सभी किसी ना किसी को कुछ ना कुछ दुख देते ही आये है। शायद, कभी मैंने और आपने भी किसी ना किसी को दुख तो दिया होगा तो क्या सभी हमें उसी से देखने लगे? बाकि सब गायब हो जाता है क्या?”

"आपकी यादों और उनके बोल में नजर आने वाला शख्स कहीं खो तो नहीं गया है? शायद, हो पर दिखाई नहीं दे रहा हो? आपकी यादें और आपके साथ मे एक शख्स की बातचीत उसके कई ऐसे रूप उभारती है जिसको बताने के लिए शायद उस वक़्त मे किसी के पास शब्द ना हो।"

"कोई क्यों नहीं दिखाई देता? अगर देखने के शब्द होते है तो वो फिर यहां पर क्यों नहीं है? मैं दूंगी शब्द वो जिससे उनका कोई तो रूप नज़र आये। मैंने शुरूवात कि है अपनी उन मुलाकातों को लिखने की। मगर, आंसू पीछा नहीं छोड़ रहे। हंसी खिलती है तो आंसू बनकर छलक जाती है। मैं चाहती हूं की आप वो सब पढ़े और देखे जो मैं किसी के बारे मे बता रही हूं वो कौन है और कैसे है? क्योंकि यहां जितने भी लोग है उनके ऑखों पर एक पर्दा है जो उस शख्स को देखने नहीं देगा। आप देखें। मैं कैसे पढ़ा सकती हूं आपको वो सब?”

"मैं जरूर पढ़ूंगा! मैं आपको अपनी मेल आई.डी देता हूं। lakhmi_cm2005@yahoo.co.in आप मुझे इसपर मेल कर सकती हैं। आपने कहा था ना की दुख, दर्द और कोसने से दूर हूं तो आँसूओं को काबू करना होगा। बहुत नजदीक का रिश्ता है तो थोडा मुश्किल होगा मगर, यही चुनौती है जो आप खुद ले सकती हो। मैं अपने एक दोस्त का लेख आपको भेजूंगा जो उन्होने अपने पापा को लिखा है। बहुत गहरा समय है उस लेख मे। आप मुझे अपना आई. डी. भेज दिजियेगा। आपका नाम क्या है?”

"मेरा नाम नेहा है। मैं अपनी आई.डी भेज दूगीं। मुझे प्लीज़ जरूर भेजियेगा। अपने दोस्त का लेख। थेंक्यू सुरेश जी। बहुत अच्छा लगा मुझे आपसे बात करके। विजय को आज दिल से थेंक्यू कहूगीं जो उसने मेरी आपसे बात कराई।"

"मुझे भी बहुत अच्छा लगा आपसे बात करके। आज पहली बार टेलिफोन पर मैंने किसी के अहसास को सुना है। आप लिखियेगा जरूर। चाहे कितने ही ऑसूं आये मगर, रूकना नहीं। बस, लिखते रहियेगा और हां, मेल करते रहियेगा। ठीक है, फिर से बात होगी। बॉये टेक केयर।"

"बॉये सुरेश जी।"


इस बातचीत में पहली बार मैंने अपने को हकिकत के बहुत नजदीक पाया। ये कोई लेख की बात नहीं हो रही थी। ये कोई खास अहसास था। जिसे खाली बातचीत करके छोड़ा नहीं जा सकता था। कोई क्यों नहीं दिखाई देता?, कोई क्यों गायब है?, कोई बातों मे है मगर रू-ब-रू नहीं है, ऐसा क्यों?

लख्मी

Friday, September 26, 2008

जख़्मी जूतों का डॉकटर

दक्षिण पुरी में 17 ब्लॉक के बस स्टेंड के पास एक मोची रहता था। जिसे वहां के लोग डॉक्टर कह कर पुकारते थे। किसी ने कह दिया था की "भई तुम कमाल के डॉक्टर हो, क्या खूब मेरे जुतों का ईलाज किया है।"
बस, उसे तभी से मोची के बजाये डॉक्टर कहने लगे। वैसे उसका नाम रमेश है। उस की दुकान मे एक बुर्ज़ुग मकड़ा उसके साथ रहता था। बुर्ज़ुग मकड़े को वह गिरधर दादाजी कहता था। उनके दिन हंसी-खुशी व्यतित हो रहे थे। कब सुबह होती और कब एक-दुसरे के बारे में बतियाते शाम हो जाती। ये पता ही नहीं चलता था।

जहां रमेश की दुकान थी वहां से मोहल्ले के लोग काम के लिये निकलते थे । यानी पूरे दिन रास्ते पर आवाज़ाही रहती थी।

एक दिन रमेश की दुकान पर एक लड़का आया।

"अरे अंकल मेरे पापा के जुतों मे ज़रा सिलाई करदो।"
तभी "औ..हो ये क्या?”

"तुम्हारी दुकान में इतना बड़ा मकड़ी का जाला, इसे तोड़ दो वरना यहां बिमारी फैल जायेगी। पता है इस मे रहने वाली मकड़ी का ज़हर बिमारी कर सकता है।"

उसे चीखता हुआ सुन एक आवाज आई ..

"अबे कौन है बे तु?, जो अपुन के मोहल्ले में अपुन को बिमारी बोलता है। साला अपुन तुम्हारे लिये कितना बड़ा काम करता है।"

"अरे ये कौन सी बला है, ये डरावना बोना कौन है?”

"क्या बकवास करते हो? मुझे तो ख़तरनाक दिखाई देते हो।"
"अच्छा बच्चू, पता है! हम मकड़े प्रतिदिन बिमारी फैलाने वाले मक्खियों-मच्छरों को मार कर खाते हैं ताकि तुम स्वास्थ रहो!”

वो लड़का गिरधर की बात को सुनकर सोच में पड़ गया और बोला, "आप तो कमाल के आदमी है!”
गिरधर, "माफ कीजिये, मै आदमी नहीं हूँ।"

रमेश ने तपाक से पुछा, "दादाजी आप आदमियो पर उंगली क्यों करते हो?”
जब गिरधर ने अपने बीते समय में जाते हुये कहा, ”ये एक लम्बी कहानी है। उस वक़्त तुम भी पैदा नहीं हुये थे। मैं अपने दोस्त शम्भूनाथ यानी तुम्हारे पिता के साथ साईकिल पर उसके कैरीयल पर बैठकर जा रहा था। सड़क पर भारी तादात मे गाड़ियां आजा रही थी। ट्रफिक सिगनल पर सड़क पर ही रहने और जीने वाले लोगों के बच्चे तमाशा दिखा रहे थे। चन्द मिन्टो मे जब उनका खेल ख़त्म हुआ तो वो अपना महनताना लेने कार में बैठे आदमी के पास गये तो । उसने उन्हे गाली दी।
"हराम के जने! ये ले" और एक सिक्का हवा मे उछाल दिया। वो दोनो बच्चे, मुंह ऊपर उठाये देखते रहे फिर क्या था लाईट होते ही "चलो ड्राईवर" इन भिखारियों को मुंह नहीं लगाते। वो निकल गया पर मुझे आश्चार्य हुआ की एक इंसान दुसरे इंसान की जरुरत को नहीं समझता। कुछ देर ही में लगा की ये सारा शहर उन बच्चों की चुप्पी में कहीं खो गया हो। मगर फिर सिगनल हुआ और ये बच्चे फिर से अपनी कला-बाजी दिखाने सड़क पर उतर आये।

रमेश गिरधर की बातों से असहमती दिखाता हुआ बोला, "लेकिन दादाजी इस दुनिया मे हर तरह के लोग हैं। आप सब को एक ही ड़न्डे से नहीं हॉक सकते।"

गिरधर, "मैं कहां हॉक रहा हूँ, दुनिया तो खुद ही चले जा रही है।"

दुकान में बैठा रमेश कीलो को जुते मे ठोकता और दादा जी को हुंकारा भरता ..
तभी दबे पांव उन दोनो के कानों मे कुछ किरकिरी आवाजें आने लगी। चटाक-चटाक, झन्नाती हुई। वही आवाज धीरे-धीरे उनकी ओर बड़ती जा रही थी। कपड़े की गुधड़ी में छोटा सा बच्ची कमर से बांधकर अपने गले में ढोलक लेकर वो बजा रही थी। उस के साथ जो था वो अपनी पीठ पर मोटा चाबुक मार रहा था। रमेश तो उसे देखने लगा उसे कोई हैरत नहीं हो रही थी पर गिरदर ये नजारा समझने का प्रयत्न कर रहा था। वो आदमियों की दुनिया को जानता तो था। उसे हमारी दुनिया में सब कुछ बता कर भेजा था की आदमी क्या है? कैसा दिखता है?उस का रहन-सहन कैसा है? पर जमीन पर आने के बाद उसे आदमी कुछ और ही बनावटों मे दिखा। अपनी उधेड़बुन से जैसे ही वो निकला। उसके सामने बड़े-बड़े पांव थे। रंग-बिरंगे फूलों वाला गोटा लगा हुआ, लहगा पहने वो शख्स खड़ा हुआ था। जिस का आदा शरीर ढ़का हुआ था और आदा उघड़ा हुआ था। गिरधर रमेश से पुछने लगा, ”अब ये क्या है जो बेदर्दी से अपने आप को चाबुकों से जख्मी कर रहा है?"

"ओह भगवान, तुने कैसे-कैसे विचित्र लोग बनाये हैं। "
रमेश बोला, "चौंको मत दादा जी, ये तो काली माई है।
कमर से मोटे घुंगरूओं की बजने की, चाबुक के साथ ढोलक बजने की आवाज मे उनकी आवाज कहीं दम तोड़ जाती। आँखों के नीचे लाल रंग की लकीरें बनी थी। मुंह पर लाल रंग ही लगा था। सिर के बालों का जूड़ा बंधा था
और गले मे बड़े-बड़े रूद्राक्ष की माला डाली हुई थी। उसकी कलाईयों चाकूओं से काटने के निशान साफ़ दिख रहे थे और खुरन्ट जमा हुआ था। उसका चेहरा डरावना था पर वहां कोई इतना संकोच नहीं कर रहा था जितना गिरधर को था। सब बड़ी सरलता से उस दृश्य को ले रहे थे। खुद को चाबुक मारते हुये वो शख्स नाच रहा था। गली मे खडे बच्चे उस से ड़र कर अपने बड़ो के पीछे दुबक गये थे। कोई अपनी माँ की साड़ी के पल्लु को दातों तले चबाता तो कोई गोद मे अपना मुंह छुपाकर बैठ जाता। सच कहा था यमदेव ने इस दुनिया में तमाशेबाज़ बहुत है।

राकेश खैरालिया

Tuesday, September 23, 2008

एक शहर है

माना कि यहां हर किसी के दिल में बसता
अपना ही एक शहर है।
जहां न ख़त्म होने वाली कई ऐसी पहर हैं,
जिसमे कोई डूबा तो कोई किनारे खड़ा है।
बस, अपने बनाए रिश्तों के आंचल में पड़ा है।

ये वो एक शहर है, जहां रातों को जागता है कोई,
अपनी इच्छाओं की तस्वीरों के पीछे भागता है कोई,
इन्ही दौड़ में मन्जिलों को पा गया है कोई,
नहीं तो अपनी ही राहों मे खो गया है कोई ।

चाहतों का भूखापन यहां बेसब्र है,
थककर ठहर गया है कहीं, ये वो एक शहर है।

हाथों में समय बांधे घर से निकलते हैं लोग,
दोस्तों की कहानियों को सुनकर पिघलते हैं लोग,
ऑखों के इशारों से, किसी को बुला रहा है कोई,
बेख़बर होकर अपनी यादों मे, किसी को झुला रहा है कोई,

कच्ची कहानियों से महकती, यहां हर डगर है,
बिना रूके सुनता है वो सब, ये वो एक शहर है।

एक शहर है, जो सड़क के किनारो पर नज़र आता है,
एक शहर है, जो अपनी कहानियों से रिश्ते फैलाता है,
कहीं अपने अन्दाज़-ए-बयां से नये माहौल सजाता है,
अन्जान और अजनबी जैसे रिश्तों को हमसफ़र बनाता है,

हम जिसमे और जो हम में डूब गया है,
ये वो शहर है, जो हर किसी के दिल में बसा है,
कल्पना बनकर जो उड़ रहा है, ये वो परिन्दा है।
यही एक शहर है, जो कहानियों मे जिन्दा है।

लख्मी कोहली

Saturday, September 20, 2008

वो दुनिया बुन रहे हैं

दरवाजे पर टिके रहने के कारण उनकी आँखें खुली रहती थी।

उन्होंने कमरे के अन्दर हमारे घुसते ही आव देखा ना ताव सीधी एक लम्बी सी आवाज मे कहा, "आईये बाबूजी।"
वे हमारे अन्दर आते-आते इसी लाइन को दोहराते रहे। आज फ़िर से उन्होंने हमारी परीक्षा ली जिसमे आज फ़िर से हम कुछ कह नहीं पाये। वे हमे अपनी दुनिया मे खींचे ले गये। उस हल्के से इशारो से यादों के हादसे मे। हर तरह के भाव को उन्होंने अपने उस वक़्त की छवि में बसाया हुआ था जिसका बाहर आना खाली हमारे लिए सुनना मात्र नहीं था। वे ज़िन्दगी के उन ख़ास पलों और भावों से हमे अवगत करा रहे थे जिन्हे वे सुनाकर अपनी यादों मे खो रहे थे। यह हमारे ज़िन्दगी के लिए एक नया मौका था।

उन्होंने अपना हाथ अपने पीछे रखी टेबल के नीचे घुसाया जहां पीले रंग की एक पन्नी रखी थी। उसे बाहर खींचा और पलकों को झुका कर पन्नी हमारी ओर बढ़ा दी। मुस्कुराते हुए हल्के स्वर में कहा, “इसे उठाना ज़रा बाबूजी।"

मन ही मन लगा कि ये क्या है? इसमें क्या होगा? उनके चेहरे पर फैली खुशी को देखकर मेरा हाथ एक दम से उस पन्नी की तरफ़ बढ़ गया। लगा जैसे एक बार फिर से हमारी परीक्षा शुरू हो चुकी है। देखना था कि इसमें है क्या और ये क्यों हमे इसे उठाने को कह रहे है? जरूर कोई ख़ास अहसास था जो ये हमें दिलाना चाहते थे। पिछले काफ़ी दिनों से हम उनके पास जा रहे थे। उन्होंने कई बार हमसे वादा किया था कि वे हमें अपनी कुछ ख़ास चीजों को दिखायेगें। शायद, खाली किसी की सुनकर और अपनी सुनाकर ही ज़िन्दगी को दोहराया नहीं जाता उसकी छुअन से भी उसका अहसास कराया जाता है। हिचकिचाते हुए हमने उस पन्नी को उठाया। ज़्यादा भारी नहीं थी पर चार किलो से कम भी नहीं थी।

उन्होंने हमारे आगे पन्नी को नीचे रखते ही पुछा, “कितना भारी है?”
उनकी तरफ़ देखते हुए मैंने कहा, “लगभग चार-पाँच किलो का तो वज़न होगा।”
हंसते हुए वे बोले, “जानते हैं इसमें क्या है?”

उनकी जब भी यह हंसी निकलती हमे थोड़ी सी खुशी होती और दिल मे थोड़ी घबराहट भी रहती। उनकी हंसी हमेशा हमारे सामने सवाल खड़े करती। उनकी उस पन्नी में जो कुछ था। वह हमारे लिए एक जादू के समान था। हम उसे देखकर चौंकने को बेकरार जरूर थे। बस, हम उस पन्नी के खुलने से पहले उथल-पुथल की दुनिया में थे। यही मथ्था-खोरी करने में लगे थे कि लोग क्या-क्या जमा करते रहते हैं? कुछ जेवर-गहने होंगे, बट्टे भी हो सकते हैं, क्या पता पैन हो, मैडल भी हो सकते हैं और ना जानें कितनी तरह की तस्वीरें हमने अपने मन मे बना ली थी। हलांकि उन तस्वीरों का उनके ऊपर कोई असर नहीं था। वे उस पन्नी की गांठ खोलने में व्यस्त थे और उनके चेहरे से हंसी नहीं छूट रही थी। वे हमें देखकर लगातार मुस्कुरा रहे थे और हम उन्हें लगातार देखते रहे। लेकिन उनकी पूछी बातों पर हम कुछ भी कहने मे असमर्थ थे। जवाब पाने की चाह मे वे हमारी तरफ़ देखकर हंसते रहे। शायद ये अपने सामने वाले को चकित करने के लिये एक दुनिया बुन रहे हैं।

बड़े प्यार से उन्होंने कहा, “इसमें सिक्के हैं।"

सिक्के यानी पैसे। ये सिर्फ़ सिक्के ही नहीं थे। 5 पैसे, 10 पैसे, 20 पैसे, 1 रुपया और 5 रुपये, ये कहते हुए उन्होंने सारे सिक्के हमारे आगे बिछे बिछौने पर डाल दिये। 5 पैसे, 10 पैसे और 20 पैसे के सिक्के तो उन्होंने मुट्ठी मे ही भरकर हमारे सामने डाले। मगर 1 रुपये के सिक्कों को उन्होंने अख़बार मे लपेटा हुआ था। 20-20 सिक्को का एक बंडल बनाकर। उन्होंने पहले तो उन 1 के सिक्कों को यूहीं हमारे सामने रख दिया। पहली बार देखने मे तो लगा ही नहीं कि वे एक रुपये के सिक्के है। अख़बार मे लपेटे हुए वे किसी बंदूक कि गोली या किसी डिब्बी से कम नहीं लग रहे थे। वे बड़े आराम से उस लिपटे हुए अख़बार को खोल रहे थे। बहुत ही प्यार से उनके हाथ हरकत कर रहे थे। धीरे-धीरे उन्होंने उन सभी सिक्कों को अख़बार से खोलकर बाहर वैसे ही रख दिया जैसे वह अख़बार मे तह करके रखे हुए थे। इसी तरह उन्होंने धीरे-धीरे करके पूरे बिछौने पर सिक्के ही सिक्के डाल दिये। सिक्कों को बिछौने पर रखकर वे पन्नी को अपने घुटनों के नीचे दबाकर चुपचाप बैठ गये और हमारे चेहरे को देखने लगे। कम से कम दो ही मिनट तक वे चुपचाप बैठे रहे। उस दो मिनट मे हम उन सिक्कों को अपने हाथों में ले-लेकर देख रहे थे। कभी दोनों मुट्ठियों मे भर कर उठा लेते तो कभी उन्हें उलट-पलट कर देखते। कुछ सोचना तो फ़िलहाल थम ही गया था। उनके कमरे में जलती लाइट फ़र्श पर पड़े उन सिक्कों पर पड़ रही थी। हम उन सिक्कों को उठाकर ये देखने की कोशिश करते की इनमें सबसे बाद का सिक्का कौन सा है? इस समय बस, इतना था कि हमारे सामने सिक्के ही सिक्के थे और हम उनमे खोये हुए थे ।

जब हमने उन सिक्कों को उठाया था तब उसका वज़न 4 से 5 किलो था मगर जैसे इन दो ही मिनट में उनका वज़न बढ़ गया था। वे भी शायद हमारी जुबां से कुछ सुनना चाहते थे पर हमारी आँखों, चेहरों और हरकतों को देखकर सब-कुछ समझ चुके थे। कुछ देर की चुप्पी के बाद वे बोले, “ये एक-एक सिक्का मेरा एक-एक दिन है यूं समझ लीजिये आप।"

उनकी इस बात मे बहुत ठहराव था। कुछ और समय तक सिक्कों की अवाज़ हमारे दर्मियां रही। पैसा जिससे बच्चो को बहलाया जाता है और उसी पैसे को बचत के ज़रिये सम्भाल कर रखा जाता है। लेकिन हमारे आगे जो यह पड़ा था वह क्या था? ये किसी बचत के तहत नहीं था। लगता था जैसे ये पैसा नहीं है कुछ और ही है मगर, मालुम नहीं क्या? क्या ये उनका, पैसा था या कोई समय बिछा पड़ा था। जिन्होंने हमारे आगे वह पन्नी खोल कर रखी थी क्या यह वही शख्स थे जिन्होंने कभी इस पैसे से कोई कल की कल्पना नहीं की थी? कई तरह के सवाल दिमाग मे घूम रहे थे और नज़र सामने पड़े सिक्को पर थी हमारे आगे पड़े सिक्को की गिनती पांच हजार थी। वो हाथों मे इन सिक्को को पकड़र कर बैठे थे मगर अपनी किसी और ही दुनिया के बारे मे हमे सुना रहे थे। जिसकी गूंज मे उनके जन्म सन् 1952 का वर्णन था। वे हमेशा जब भी अपने बीते कल का जिक्र करते तो उसमें अपना वह समय बताते जब वह नौकरी पर पहली बार गए थे। तब वे भारत के प्रधान मंत्री के साथ मे काम करते थे। उस वक़्त बड़े-बडे नाम उनकी बातों मे छलक उठते। यूहीं कहानी सन् 1952 से अक्सर शुरू होकर धीरे-धीरे सन् 1998 तक आती और फिर उस तरफ़ चली जाती जहां से मागों की दुनिया शुरू होती है। जहां पर घर और परिवार के वे काम और रिश्ते होते है जो हमेशा कुछ न कुछ मांगते ही रहते हैं। चाहें बेटा, माँ, बहू, पोते, बीवी और भी कई रिश्ते। मगर इनके बीच में उनका खुद का होना क्या है? बेटों की हरकतें और मांग पूरी हो जाने के बाद में क्या? कोई उम्मीद रखना भी बे-मायने है। आज जो हमारे सामने बिछी थी वो क्या थी? क्या कह सकते थे हम उन शख्स को जिनका कहानियों से रिश्ता था।

आज उन दिनों का दोहराना उसी कहानी को टुकड़ों में भी कर देता। उनकी चुप्पी देखा जाये तो इस समय की ताकत और जान दोनों थीं, जो न बाहर जाने दे रही थी और न ही उस पल में रहने दे रही थी। "मैंने अपने टाइम में जीने लायक चीजें तो बहुत सी की हैं जैसे घूमना, खाना, पीना, सोना और काम करना पर अब आकर लगता है कि इंसान जिस चीज के पीछे सारी उम्र भागता-फिरता रहता है वह मिल जाने के बाद भी उसकी मागें कभी ख़त्म नहीं होती। अपनी तनख्वाह को हम जैसा चाहें खर्च कर सकते हैं, रख सकते हैं। एक का दो करना चाहें वो भी कर सकते है। लेकिन हमारा शरीर भी कुछ मांग करता है। उसे पूरी कैसे करें? हमने की है।"

गर्वीली आँखों से उन्होंने बोला, "मैंने अपनी आखिरी तनख्वाह रखी है। इस काम-धन्धे की दुनिया से मुक़्ति पाने के लिए। उफ़! हमारा शरीर बहुत तरह के कामों से निज़ात चाहता है। आज भी कभी देखता हूं अपनी आखिरी तनख्वाह को तो आँखें भर आती हैं। एकदम से अपना सब कुछ वापस दिमाग मे घूम जाता है। जाने कहां-कहां जाते थे हम। वो सब घूमना और काम पर जाना। तरह-तरह के शख्सों से मिलते थे। अब तो उन दिनों को याद करना जैसे एक आदत सी बन गई है। इन सिक्कों से दिल लगा रहता है कभी निकाल लेता हूँ कभी वापस रख देता हूँ लेकिन अभी तक कहीं खर्च नहीं किया है। मगर थोड़ा डर रहता है कि अगर ये भी बन्द हो गये तो इसकी वैल्यू इस शहर में ख़त्म हो जाएगी। इसलिये मैं अपने दरवाजे पर बैठकर हर रोज़ गली के बच्चो को एक-एक सिक्का बांटता रहता हूँ।"

लख्मी कोहली

कहते हैं, हम मुसाफिर हैं

किसी को एकतरफ़ा समझा नहीं जा सकता। सबकी अपनी पसंद है और ख्वाहिशें हैं जिसकी तलाश को हर कोई अपनी आँखों में आवारगी लिए रास्तों व मंजिलों को तय किये चलता है। कहते हैं, 'हम मुसाफ़िर हैं' जो ज़िन्दगी के आम या खास मौकों मे जीते हैं और वहीं पर चाहतों के मानों जैसे खेमे बना लेते हैं। ये मुसाफ़िर अपनी बहुत सी चीजों का प्रमाण न दे पाये हों मगर हां अक्सर किसी न किसी खास तरह से अपनी कलाओं और विधा में ज्ञानी होने के प्रमाण देने के लम्बे समय से परि‌श्रम करते आ रहे हैं।

आज वह शख्स हमारे आस-पास, हमारे किसी न किसी करीबी रिश्ते में हैं।
वक़्त की अलग-अलग परिधियों मे जूझकर उन्होंने अपनी लगन और विश्वास का पैमाना बनाया है और अपने समाज की नई कल्पना की है। आप भी इस तरह के मनमौजी और जुनून के साथ जीते बहुत से शख्सों को जानते और पहचानते होंगे। ये वही शख्स हैं जिन्होंने अपनी खुद से बनाई पहचान को अपना वज़ूद माना है और जीवनशैली को वक़्त की खुरदरी पगडंडियों पर अपने हाथों से खींची रेखाओं के आधार पर जीया हैं। मुलाकातों के दौर में ये मुलाकातें कभी पुरानी कही नहीं जा सकती थी। जहां पर वह अपनी मुंह ज़ुबानी अपने जीवन के किसी सफ़र का बख़ान करते हैं।

ऐसे ही एक शख्स ने हमें इस दौर मे रहने और अपनी कई अनेकों पहचानो से रू-ब-रू होने का अवसर दिया। वे जब भी कुछ कहते तो उसमें वो एक ऐसी लड़ाई का जिक्र होता जिसमें वे खुद ही खुद से लड़ रहे होते। उनका कोई जाना-माना परिचय नहीं है और न ही हम उनका कोई परिचय तैयार कर रहे हैं। ये वे ही शख्स है जो अपनी पहचान की मुहिम को खुद से जुझकर तैयार करते हैं।

जब स्कूल से पढाई ख़त्म की तो इनके हाथों में एक स्कूल का सर्टीफिकेट ही था इसके अलावा और कुछ नहीं। कामकाज के लिए तैयार होकर उतरे श्रीमान को हर फिल्ड मे बड़ी निराशा मिली लेकिन फिर भी मन असंतुलित नहीं हुआ। अपने दिमाग में उठी विचारधाराओं को कहीं रखने की जगह ही नहीं मिली। श्रीमान की ज़िन्दगी में प्रयोग ही चलता रहता था। वे खुद से खुद को तैयार करने की एक मुहिम ही थी। शायद ये तुम मान सकते हो। उन्हें ऐसा लगता कि कोई उन के बारे में जानना नहीं चाहता।

वे अपनी निगाहें झुकाकर कहने लगे, "तुम जानते हो श्रीमान योग्यता तो सिर्फ़ प्याज़ की स्याही से काग़ज पर लिखे न दिखने वाले शब्दों की तरह होती है। वैसे योग्यता भी क्या है? एक बार को तो ये भी ज़िन्दगी पर हावी हो जाती। हां मुझे भी लाखों मशालों मे कहीं अपने लिए चिराग की ही तलाश रहती थी। जिसके छोटे से उजाले में श्रीमान मैं अपनी धुंधली छवि को देख पाता। मुझे डर एक ऐसी बात का होता जो सामने आती तो मैं चाहकर भी अपनी पुकार नहीं सुना पाऊंगा। मेरे बोल मेरे नहीं। वो तो बहती नदियों की लहरों से टकराये किनारों की छुअन का अहसास मात्र थे जो मेरे पास आ जाते थे। मेरे मायने मेरे नहीं। ये बहुमुखी रूप की परतें थी। लेकिन ये सब कुछ साबित करने के कठघरे में मैं नहीं था। जो अपनी विधा का कोई ठोस प्रमाण भी नहीं बना पाया पर मुझे इसका अफ़सोस बिल्कुल नहीं रहा। श्रीमान कई कहानियां मेरे साथ जुड़ती चली गई और बोलियां भी। हर जिले के लोगों से मैं मुख़ातिब होता चला गया। एक हूक सी लिए जैसे ज़िन्दगी में बेसब्र भूखापन। जहां जैसे लोग मिले वैसी मेरी भाषा मिलावटी रूप लेती चली गई। सब कुछ आपस मे मिलता जा रहा था। फलां-फलां कि संगतों में बैठकर जो सीखा वो मेरी याददाश्त का एक हिस्सा बन गई और ज़रिया भी। श्रीमान जो मेरे पास नहीं था। वो था नाम। उसका जिससे मैं अपने कर्मकाडों को प्रत्यक्ष रूप से रख सकता। जिसकी असीम अनुकम्पा को मैं समझ नहीं पाया। वह जिसे वास्तव मे मैं पहचान नहीं पाया। कौन था मेरे सामने जो मेरे पास था? कौन था मेरी जिज्ञासाओं में? इसका मुझे पता नहीं। तो वो नाम कैसे मेरे लिये कोई निर्धारित छवि बन सकता था?
मेरे अनेकों अहसासों को स्थान दिया। मेरे प्रति अपना सम्बन्ध रख सका। मेरी परिस्थितियों के दबाव से मुझे बहुत सीखने को मिला। मन में बिठाई उस सरसरी निगाह ने जीवन के हर अंदाज को अपने अन्दर लिया और दूसरों में बांटा। समाज के प्रचलित दौर के दौरान मेरी कलपनाओं ने कई नई करवटें ली। श्रीमान जिससे फाटक खुले।"

राकेश खैरालिया

Friday, September 19, 2008

एक विराट मनोरंजन

धीरे-धीरे करके जगहें सिकुड़ती जा रही हैं। इसके बावजूद भी शायद ही कोई ऐसी जगह भी बची होगी जो किसी की याद ना दिलाती हो?

इस दौरान दक्षिण पुरी मे एक ख़बर बहुत जोरो पर है। जो एक पीले रंग का बोर्ड बनकर दक्षिण पुरी में ठुक गई है। हर दिन कोई ना कोई उस बोर्ड के सामने खड़ा ही दिखता है। कभी कोई रेहड़ी वाला तो कभी कोई खिलौने वाला। वहां से बस पकड़ने वाले भी उसी बोर्ड पर अपनी निगाहें जमाये रखते हैं। कभी तो लगता है कि शायद बाहर शहर मे कोई और बोर्ड, बेनर या पोस्टर बचा ही नहीं है पढ़ने के लिए। जो सभी घूमफिर कर यहीं पर आकर खड़े हो जाते हैं।

उस बोर्ड पर लिखा है,

दिल्ली विकास प्रधिकरण,
अस्पताल कार्य स्थल, (200 बिस्तर वाला)

इसमें ज्यादा कुछ और नहीं है पढ़ने के लिए फिर भी ना जाने क्यों लोग घण्टो इसके सामने खड़े रहते हैं।

एक शख्स काफी देर से उस बोर्ड के सामने खड़ा था और उस बोर्ड को बड़े ध्यान से देख रहा था। कभी तो उसी बोर्ड पर उसकी निगाह टिकी रहती तो कभी वो अपनी तरफ देखने लगता। मिट्टी से लथपथ उसके कपड़े और उसने अपने हाथों मे कुछ उठाया हुआ था। साथ मे ही एक रेहड़ी खड़ी थी, वे शायद उसी की थी। वह रेहड़ी आलू के पकौडों से भरी हुई थी। वह शख्स उसी बोर्ड पर अपनी निगाह जमाये हुए अपनी रेहड़ी पर आया और रेहडी के नीचे झुककर उसने एक काले रंग की बोरी निकाली और उसे उस बोर्ड पर डाल दिया। वहां के बस स्टेंड पर खड़े सभी लोग उसे देख रहे थे। थोडी देर के बाद मे जो बोरी उसने उस बोर्ड पर डाली थी वो उसे उस बोर्ड पर रगड़ने लगा। वह जैसे-जैसे उस बोरी को उस बोर्ड पर रगड़ता वैसे-वैसे वे बोर्ड काला पड़ने लगता और वो शख्स गालियां बकता हुआ उस बोर्ड पर उस कालिख को पोत कर चला गया।

वहां पर खड़े कुछ लोगों ने उसे डांटा भी मगर वे किसी की सुनने को तैयार ही नहीं था। बस, अपना पूरा ध्यान उस कालिख पर रखे वे उस बोरी को रगड़ता चला गया। जब वह बोर्ड पूरी तरह से काला पड़ गया तो वे अपनी रेहड़ी खिसकाकर आगे चला गया। वो शख्स इतनी तेजी से वहां से गया की पीछे मुड़कर भी उसने एक पल के लिए भी नहीं देखा। लोग वहां खड़े उसे देखते रहे। कुछ लोगों ने वहां एक-दूसरे से पुछने की कोशिस भी की मगर यहां सभी अन्जान ही थे।

वहीं बोर्ड के नीचे एक भुट्टे वाली बैठती हैं जो उस शख्स के जाते ही अपने भुट्टो का हवा देती हुई बोली, “किसी की जगह छीन लोगे जहां से उसे आमदनी मिलती है, उसके घर की रोटी चलती है और घर चलता है तो वो ऐसे ही अपना गुस्सा उतारेगा और कर भी क्या सकता है या हम ही क्या कर लेगें?”

पहले विराट सिनेमा के सामने कई इस तरह के रेहड़ी वाले खड़े हुआ करते थे। जब भी कभी वहां पर कोई नई फ़िल्म लगती थी तो सवेरे से ही लोगों की भीड़ का ठिकाना नहीं रहता था। लोग देखा जाये तो वहीं सिनेमा के सामने ही लन्च किया करते थे। इतना रश़ हुआ करता था कि सड़क नज़र नहीं आती थी। बस, पूरा रोड इन्ही दुकानों से रोशन दिखता था। ये उन्ही रेहड़ी वालो के बीच मे अपना एक कोना बनाये हुए थे। सुबह 8 बजे से रात के 10 बजे ये रेहडी लगाया करते थे। चार-चार लड़के रखे हुए थे इन्होने अपनी रेहड़ी पर। सिनेमा हॉल मे काम करने वाले से इनकी जान-पहचान थी तो उससे फिल्म के पोस्टर मांग लिया करते थे और अपनी रेहडी पर लगा दिया करते थे ताकि बाकि और रेहड़ियों में एक खास पहचान बना सकें। पूरे दिन इनकी रेहडी भरी रहती थी और आज देखों ! 5 किलो आलू के पकौडे भी नहीं बिकते। सिनेमा हॉल के बन्द होने के बाद ना जाने वो सारे रेहडी वाले कहां चले गये? वो तो किसी को भी नहीं मालुम था। वो भुट्टे वाली कह रही थी, “हम यहां पर पिछले 5 सालों से बैठे हैं जैसे ही हमें लोग जानने लगते है या हमारा ठिया पहचानने लगते हैं तो जगह ही बदल जाती है। अब कहां जाये?”

वो ये कहती हुई चुप हो गई। वहां पर खड़े लोगों मे से किसी को भी नहीं मालुम था की ये सावल किसके लिए है और किससे है। मगर यहां सब ये जरूर जानते थे कि जिस मैदान के आगे ये बोर्ड लगा है उस मैदान के साथ जुड़े अवसर यहां कि यादों मे बस गये हैं। दक्षिण पुरी के कई परिवार इसी मैदान मे गठबंधन मे बंधे हैं और कई परिवारों की फोटों एल्बम मे दर्ज हो गये हैं तो कई लहकते हाथों को यहां पर मजबूती मिली है। चाहे वे ड्राईवर हो या ढोल बजाने वाले शाहग्रिद।

टैक्सी स्टेंड वाले भाई साहब भी अपना कोना थोड़ा कम कर रहे हैं। जो क्यॉरियां लगाकर उन्होनें जगह को खुबसूरत बनाया हुआ था वे ये कहकर सिकुडी जा रही थी कि आपने जगह को घेरा हुआ है। वे अपनी खाट उसी आंगन मे बिछाकर पूरे मैदान मे अपनी नज़रे घुमा रहे थे। धूप मे चमकता मैदान शायद कई बीते-गुज़रे लम्हों को यादों मे ताजा कर रहा था। शायद आने वाला समय अपनी तस्वीर बनाने की कोशिस कर रहा हो। उन्हीं दोनों तस्वीरों के बीच मे बैठे वे अपने आपको मजबूत करने की कोशिस करने में जुटे थे। इनकी यादों मे इस मैदान से जुड़े हर समय के पहलू जमा हैं जो कभी भी अपना ताज़ापन बयां कर जाते हैं फिर चाहें वो छुट्टी का ही दिन क्यों ना हो, जब यहां सुबह 6 बजे से शाम के 7 बजे तक कई खेलों की आवाजें आती रहती हैं। ऐसा लगता है जैसे दक्षिण पुरी के सारे बच्चे और खेल इस मैदान मे जिन्दा रहते हैं। इस मैदान की मिट्टी मे छपे पैरों के निशान उनके जाने के बाद भी उनका अहसास हर वक़्त कायम रखते हैं और उसमे घुले रहने को मजबूर करते हैं। ये सभी यादें कभी तो चेहरे पर हंसी ले आती हैं तो कभी गुस्सा, डर ले आती है तो कभी आंसू। मगर लगता है कि जैसे ये सब अपने साथ भावनाओ का ही खेल है। जो अपने से बाहर के वाक्यों को भी खुद मे ले आता है और हम कहीं और के हो जाते हैं।


मैदान के साथ लगे खोकों मे दुकान लगाये टैन्ट व ढोल वाले अपनी जगह बनाने की कोशिस मे हैं। टैन्ट वाले अक्सर अपने टैन्ट की दरी, कारपेट और सोफे यहीं मैदान की मुण्डेरी पर लगा देता हैं सुखाने के लिए। जो वहां आते राहगिरो के लिए एक खास तरह का आमंत्रण बन जाते हैं। जैसे-जैसे अंधेरा होता है लोग वहीं बिछे कारपेटो पर बैठ जाते हैं और आती-जाती गाड़ियों को निहारते रहते हैं। ये वक़्त भी यहां के लोगो के लिए एक खास तरह का होता है। जहां पर लोग शाम मे काम पर से घर लौटने के बाद यहां की मुण्डेरी पर बैठे आसपास देखकर अपना वक़्त बिताते हैं। कभी मैदान मे खेलते बच्चो को देखकर तो कभी बाहर चलती गाड़ियों को देखकर। वैसे देखा जाये तो बहुत कम होता है कि कोई जगह हमारे रोज़मर्रा मे बस जाये। मगर इस जगह ने वो स्थान पा लिया है लोगो की ज़िन्दगी मे।

रोशन लाल जी एक कॉरियर कम्पनी मे काम करते हैं वे इस जगह को अपने शब्दो में कुछ अलग ही तरह से उभारते हैं। वे कहते हैं, “हमें आदत हो गई है काम की। शाम मे जब घर वापस आते है तो एक बैचेनी सी होती है। मन कहता है कि कहीं चला जाये मगर कहां? वो ही पता नहीं होता। तो कदम निकल पड़ते हैं। हमे तो इस वक़्त मे जितना आसान यहां आने मे लगता है उतना ही मुश्किल किसी रिश्तेदार के यहां जाने मे लगता है। यहां पर आने के बाद मे थोड़ा अपने मे रहने को मिलता है। जहां पर कोई ये कहने वाला नहीं होगा कि 'अबे तू यहां बैठा है।' इसलिये यहां कितनी भी देर बैठ जाओ, पता ही नहीं चलता।"

कभी-कभी तो लगता है कि किसी जगह को दूर से देखने में हम उसकी बनावट मे ही अटक जाते हैं। मगर उस जगह के साथ मे किस तरह की यादें, जीवन और रोज़मर्रा जुड़ी है उसे कहीं गायब कर देते हैं जबकी यही तीन चीजें उस जगह की जान होती हैं जो उस जगह को जिन्दा रखती हैं, सांसे लेती हैं। ये मैदान भी इन्ही रिश्तों, कामों जीवन और रोज़मर्राओं मे सांसे लेती है और अपने जिन्दा रहने के अंदेसे देती हैं। ये सांसे पैदा होती हैं लोगों से, गुटों से, उनकी कहानियों से, उनकी यादों से और उनके किस्सो से। जो किसी जगह से जुड़ने से पहले उनके अपने होते हैं। लेकिन किसी जगह से जुड़ते ही वे आजाद हो जाते हैं और उड़ान भरने लगते हैं कई ज़ुबानो और माहोलो में।

इस मैदान के हर वक़्त बदलते चित्रण ने इसकी यादों को और भी पुख्ता कर दिया है। जो वाक्या बनकर छलक उठती हैं।

दशहरे के वो दस दिन, जब ये मैदान और दक्षिण पुरी दोनों को खास लिबास मे देखने के लिए हर ऑख तैयार रहती है। जिन दिनों मे दक्षिण पुरी दिल्ली की कोई पुर्नवास कॉलोनी ही नहीं रहती। बल्कि छुट्टियां बिताने की एक खुबसूरत बन जाती है। हर घर यहां नानी का घर, दादी का घर, मामा का घर और ना जाने कितने नामों की पहचान से जाना जाता है। पिछले 34 सालों से तो यही होता आ रहा है। विराट का ये मैदान रामलीला और रा‌वंड़ के पुतले फूंकता आ रहा है। जहां पर दिल्ली के प्रधान मंत्री तक आये हुए हैं रावंड़ के पुतले को मुखागनी देने के लिए। दस दिनों तक लगने वाले मैले को कई छोटे राज्यों से लोग देखने के आते हैं। कई रोज़गारो, कलाकारो को यहां पर अपनी कला को आज़माने का अवसर मिलता रहा है। यहां हर साल पूरी दक्षिण पुरी सड़क पर उतर आती है और मैले मे अपने रिश्तों को खोजने का लुफ्त उठाती है। हर दुकान पर जहां रस रहता है।

मगर, शायद सब ये सभी कहानियां बनकर इतिहास के पन्नो में कहीं खो जायेगी। वाक्या बनकर दोहों मे सुनाई जायेगीं। इसी बोर्ड के नीचे बैठा एक शख्स जो शाम होते ही पतंग की दुकान लगा लेता है। वे अपनी पन्नी के अन्दर से पतंगे निकलाता हुआ भुट्टे वाली अम्मा से बोला, “अरी अम्मा ये मैदान तो दो चीजों मे मुद्दा बना था। एक तो खेल का मैदान और दूसरा अस्पताल। एक ने कहा, 'यहां दक्षिण पुरी मे खेलने की जगह नहीं है तो यहां पर खेल का मैदान बनना चाहिये।' तो दूसरा बोला, 'यहां अस्पताल भी नहीं है दक्षिण पुरी से अस्पताल 23 किलोमिटर दूर पड़ता है। यहां पर अस्पताल बनना चाहिये। तो ऑर्डर देने वाले ने यहां पर जरूरत समझी अस्पताल की तो अब यहां पर अस्पताल बनेगा।"

भूट्टे वाली अम्मा ने कहा, “फिर तो यहां पर ना तो बाजार लगेगा और ना ही मेला?”

पतंग वाले ने कहा, “हां, वो तो नहीं लगेगा।"

भूट्टे वाली अम्मा ने कहा, “कितनो की रोजी-रोटी पर लात लगेगी।"

पतंग वाले ने कहा, “सो तो है, मैं तो ये सोच रहा हूं की बच्चे कहां खेलेगे? इतने पार्क हैं वैसे यहां मगर जिसके भी घर के आगे हैं उसने उस पार्क को अपनी जागिर बना लिया है। अब कोई खेलने की जगह रह ही कहां गई हैं? एक जंगल है पर वहां भी 6 फुट की दी‌वार उठा दी है तो कोई जा ही नहीं पाता तो खेलेगा कहां से? पता नहीं क्या होगा?”

भूट्टे वाली अम्मा ने कहा, “कुछ भी हो मगर बदल जायेगा यहां पर सब। बच्चे कुछ ना कुछ तो करेगें ही पर ये नहीं कहा जा सकता की क्या करेगे?”


ख़बर ज़ुबानो के तहत अपना आकार बना रही है जो और बड़ा होता जा रहा है। बहुत कुछ बदला यहां इस मैदान मे पहले बाजार लगा फिर सिनेमा हॉल बना और उसके बाद मैला लगा। लेकिन अबकी बार जो बना वो कभी नहीं हटेगा। इसके बावज़ूद कई ज़ुबानों मे अटक गया है एक यही सवाल "कहां जाये?”

लख्मी कोहली

बिल-विल, तार-वार

सिलसिला आजतक ख़त्म नहीं हुआ है । वह यौं का त्यौं चले जा रहा है । वे जब भी अपने घर कि कभी सफ़ाई करते तो उनके दिमाग मे कभी वह कौना नहीं आता । जैसे उन्होनें उस कौने में सदियों को बसाया हुआ है वैसे ही उस कौने ने उनके हर बचत के सिलसिले को । 1973 से लेकर 2008 तक उनके घर के उस कोने में कई सरकारी दफ़्तरों की मोहर पड़ी है ।

सन 1960 से घूम रहे जनाब को दिल्ली जैसे बड़े शहर मे सिर छुपाना के मौके तो बहुत से मिले मगर कहीं ऐसा ठिकाना नहीं मिला जिसमें वे बड़े गर्व से कह सकें कि ये मेरा पता है । बस, शहर के कई कौनों मे अपने नाम की तख़्ती लगाने का कोई अवसर प्रदान नहीं हुआ । ऐसा नहीं था कि सन 1960 से कई सालों तक वे दर-दर भटकते रहे । कौन है जो इतने टाइम मे अपने लिए कुछ ठिकाने ना बना पाया हो? शायद कोई नहीं । दिल्ली शहर में इतनी तो जगह है कि दर-दर भटकने जैसा कोई भी जवाब नहीं है । ऐसे ही उन्होनें भी अपना वज़ूद रखने के लिए एक कोना चुन लिया । दिल्ली की ये जगह ओखला मण्डी के नाम से मसहूर होने वाली थी । मगर, 1960 में ये जगह एक ओखला बस्ती थी जिसका कोई निर्धारित पता या नाम नहीं था । शायद हो भी पर किसी को पूरा नहीं मालुम था । ओखला बस्ती की शुरूवात सन 1955 मे हो चुकी थी । मगर उसके भराव का सिलसिला 1960 से आरम्भ हुआ। लोगों का आना 1960, 1961, 1965, 1970 तक खूब दबाकर हुआ । यहां पर ज़्यादातर लोग यूपी, हरियाणा और बड़े शहरों के थे । ये जनाब भी 1960 में वहां के रहने वाले बने ।

जनाब के मन में हमेशा दिल्ली में पहले कदम से ही उसको दर्ज करने कि इच्छा जागी रहती थी । लेकिन कोई भी साधन नहीं थे और न ही कोई भरपुर तरीके थे कि जो भी बीत रहा है उसे दर्ज कैसे किया जाये । बस, ये अपनी ऑखों से ही सब का दर्शन करते चलते और जो याद रह जाता उसे शाम मे कहीं सुना दिया जाता । यह हाथ कि हाथ देखने और सुनने का परिणाम या यह कह सकते हैं कि हल था जो उन्होनें खुद निकाला था ।
सन 1973 में जीवन ने करवट बदली और इन्हें वहां से टूटकर यहां दक्षिण पुरी मे आना पड़ा । ये बदलाव उस समय मे एक बड़े स्थर पर था । दिल्ली के नक्शे बदले जा रहे थे । दिल्ली में कई नई योजनाए बनाई जा रही थी । बस्तियों को ख़त्म किया जा रहा था । लोगों को अपना घर बनाने के लिए जगह दी जा रही थी । इस नक्शे, रूट, दिनचर्या बदलने के साथ-साथ इन जनाब ने भी अपने सभी रूट बदल लिए थे । इन बदलते रूटों मे कई शुरूवाती दिन तो कहीं दिखाई भी दिये मगर कुछ ही समय के बाद मे वह सभी दिन कहीं खोते गये । वैसे ही इनमें अपना दिन खोजते लोग भी ।

इन जनाब के लिए ये बदलाव किसी नई जगह पर जाने के ही जैसा था । ये जगह भी कहीं नोट होनी चाहिये थी । नोट होकर कहीं बताई या दिखाई जानी थी । मगर, ये कैसे हो पाता? ये चाहते थे कि ये कहीं भी जाये या किसी नई जगह पर ये पहला कदम रखें या आखिरी बस, वह कहीं नोट होना चाहिये । इसलिए नहीं कि ये कुछ लिखते या तस्वीरें खींचते । इनका हमेशा ये कहना रहता कि वह जगह हमें कहीं दर्ज करती है? जैसे वहां कि चीजों से मै कैसे अपने को ये कहलवा सकता हूं कि मैं यहां पर दर्ज हुआ हूं । सब कुछ अभी तक तो बस, देखने और सुनाने के जैसा ही मात्र होता था । कोई ऐसी मजबूत चीज नहीं थी जिसे हमेशा के लिए जमाकर लिया जाता । जिसमें बरसों बाद कभी उस जगह कि महक आती । कोई उसके रूप को देखकर ही कहता कि यहां पर इतना वक़्त हो गया है तुम्हें? ये अहसास कैसे कराया जा सकता था? ये सभी गायब ही था ।

सन 1973, 1975, 1976 से लेकर सन 1980 तक ये सिलसिला बस, बटंता गया । अभी तक उनका घर भी तैयार हो गया था । मगर कुछ भी ऐसा नहीं था जिसे वह रख सकते। ये ज़्यादा दिन तक नहीं रहा। उनकी जगह सरकारी दस्तावेज़ों मे आ गई थी और बिजली भी लग चुकी थी । सरकार वहां पर कई चक्कर लगाने किसी भी दिन आने लगी थी । जब उनका नाम किसी किताब, रजिस्टर या बहिखातों मे चढ़ता तो उन्हे लगता कि वे अन्जान नहीं है । कहीं गायब नहीं है । कहीं कोई कौना तो है जहां उनको देखा जा सकता है । बस, अब उनके दिन दर्ज होने लगे। अब उनके मन में एक यही कशमस थी कि ये तो कोई और है जो उन्हे अपने मे दर्ज कर रहा है मगर मैं क्या दर्ज कर रहा हूं? क्या है मेरे पास जो मैंने किया है? शहर में आना, यहां बसना, काम करना और उससे भी ज्यादा था कि इन सब को मैं अपने मे कैसे बता पाऊगां? शहर मे आया तो उन्होनें कार्ड बना दिये, यहां इस जगह में आया तो इसमे सर्वे मे डाल दिया, काम मे गया तो कम्पनी ने दिखा दिया मगर मैं जो कहीं घूमने गया, कोई जगह खोजने गया वे सब कहां पर जमा होगा । इस बात पर वे कहते है कि क्या करता कोई तरीका नहीं था और न ही कोई साधन था।

चार-चार किलो के बन्डल, जिन्हें कई कलावो से और डोरियों से बन्धा हुआ है । एक नहीं थे लगभग पांच या छ: थे । पीले हुए रखे इन बन्डलो में बिजली के बिल थे । जिन्हें जन्मपत्रियों कि तरह अटेची में रखा हुआ है । हर साल के छ:-छ: बिल थे । सन 1981, 1982, 1983, 1985 से लेकर सन2008 तक । हर साल में उनके घर के बदलते दौर को देखा जा सकता है । 1981 मे आया उनका पहला बिल जो दो महिने का 50 रुपये था, सन 1985 का बिल 130 रुपये था और सन 2008 मे आया बिल 2000 रुपये का था । उन बिलो में खाली उनके घर का ही नहीं बल्की कई चीजों को देखा जा सकता था । वे अक्सर जब भी अपने बारे मे बतलाते तो बस, उन बिलो को खोलकर सामने डाल देते और बड़े प्यार से उनको खोलते जाते । ये दिखाने कि कोशिस करते कि देखो मैंने जो बदलाव देखा है वह ये है । जो कहीं बाहर का नहीं है ये वह बदलाव है जिसे इस घर ने जिया है और हर आने वाला महिना तय किया है । उनके उन बिलो में बदलते यूनिट का खेल था, बिजली के इस्तमाल का माप था, टेक्स का दण्ड था । यह सब तो वह था जो किसी सरकारी नियमों के तहत हो रहा था । मगर जनाब तो कुछ ही दर्ज कर रहे थे । उनके हर बिलों पर उनके किसी ना किसी पल को दर्ज करने कि कोशिस थी । यानि के वे जब भी कोई बिल भरते तो उस बिल पर ये जरूर लिखते कि ये बिल कैसे भरा गया है?, पैसा कितना फालतु या जोड़ा गया है?, किसी-किसी पर तो यह तक लिखा होता कि इस बिल को उनके अलावा कोई और भरने गया था जिसको इतना किराया देना पड़ा था ।

पहले तो दिमाग मे आया कि कोई क्यों अपने बिलो को जमा करके रखता है? या अगर अपने बारे मे बताता है तो बिलो को दिखाने कि क्या जरूरत है? लेकिन ये खेल समझना अब मुश्किल नहीं था । जनाब बिजली के इन बिलों को अपना दिल्ली शहर मे आना दर्ज करवाते है । कहते है "यहां आने के बाद मे दस्तावेज़ तो काफी बने मगर वे सब सम्भाल कर रखने के लिए ही थे । वे मेरे लिए नहीं थे । वे सब दिखाने के लिए थे । जिन्हे खुद से ज्यादा सम्भालकर रखना होता था । मगर इनके अलावा भी कुछ ऐसा था यहां जो किसी गिनती मे नहीं था । जो मेरे लिए था या तो रखलो या इसे फैंक दो । वह था बिजली का ये बिल । ये मेरे पास हर दो महिने मे आता । जिसकी जरूरत खाली एक महिने तक रहती बाद मे इसकी कोई जरूरत नहीं होती । मगर इसकी इस जरूरत में ही मेरे लिए बहुत कुछ जुटाना होता । इसलिए मैंने इसे रखा ।"

जनाब के बोल मे वह जगह और उसमे रखे ये सभी बिजली के बिल जन्मपत्रियों कि ही तरह से बयां होते । कितनी ही सफ़ाई हो जाती घर की, कमरे की मगर उस कोने की सफ़ाई करना उसके वज़न को ख़त्म करने के समान होता । अगर वहां पर धूल है तो भरने दो ।

लख्मी कोहली

दैनिक जीवन

जगह कैसे अपने अतित को याद करेगी? या अब याद करने का तरीका बनाना होगा? कोई ऐसी निशानी बची है क्या? जिससे यादों के फ्रैमों मे बसे समय को बैसाखियों के बिना सोचें? समय चलते-फिरते नज़र के फ्रैमों में कैद होकर रह जाता है बस, बचा हुआ वो सुक्षम जीवन फिर से समय के गर्भ से जन्म लेता हुआ अपने कौने बना लेगा । मलवा जो तटपर होकर एक रुपक बन जाता है फिर वापस अपने होने की मांग करता है । हम जहां जीते हैं उस जगह मे सांस लेने के साथ सांस छोड़ते भी हैं । हम इस तरह अपने साथ बहुत कुछ रखते हैं तो उसकी ऊर्जा से उबली हवा को बाहर निकालते हैं । जैसे सांप कुछ महीने के अंतराल मे अपने शरीर से एक बारीक परत को छोड़ जाता हैं । समय के साथ जैसे सब कुछ रूपांतरण होता रहता है । यही तरिका है जो एक नष्ट हुए तत्व हो एक बार फिर जीवनदान देता है । एक ख़त्म तो दूसरा चरण शुरू, अनंनतता का फैलाव होता जाता है । आज भी बाज़ारों में चीज़े किसी ना किसी रूप या मोडल को त्याग कर एक नया रंग या आकर्षण लेकर घुम रही है ।

एक शख्स है विनोद जो अपने घर से कुछ इसी इरादे से बची हुई चीज़ों को उठा लाता है । अब तक वो कई सो चीज़ों को अपने घर मे लाकर रख चुके हैं । अपने मन से ही वो मलवे मे से ऐसी टूटी-फूटी चीज़ों को अक्सर उठा लाते हैं । कभी टूटे खिलोने, कोई तस्वीर पेन्टीग लेम्प, चटकी हुई किनारियों से टूटी हुई मूर्तियां अन्य सजावट के सामान । ये सब कुछ घर से निकाले बेमोल चीजों मे से निकलता है । जो किसी न किसी खास मौके का हिस्सा होते हैं । जो विनोद के घर की रोनक बन जाते हैं ।

राकेश खैरालिया

जरूरतो की परछाई क्या हैं?

डाकघर दोपहर के 2 बजे थे। डाकघर की खिड़की खुलने से लगभग 5 मीनट पहले। इस समय डाकघर एक दम खाली रहता है। पंखे की हवा से टेबल पर रखे पन्ने फड़फड़ाते रहते है। मैं दरवाजे पर खड़ा इन्तजार कर रहा था वहां पर किसी के आने का। वहीं कोने मे रखी एक बड़ी सी टेबल के नीचे की तरफ़ एक शख्स कुछ फाईलों मे कुछ टटोल रहे थे। साथ के साथ मोहर लगाने की आवाजें भी आ रही थी।

इज़ाज़त मांगता हुआ मैं अन्दर दाखिल हुआ, वे वहां से खड़े हो गये। बड़ी-बड़ी मूंछे, लम्बे-चौड़ै वे देखने मे किसी पुलिस वाले की की कठ-काठी के जैसे ही दिखते हैं। लाल चन्द नाम है इनका, दक्षिण पुरी के एक इकलौते डाकघर के ये सबसे पुराने काम करने वाले हैं। पिछले 5 सालों से ये यहीं पर अपनी पोस्टिंग सम्भाल रहे हैं। लाल चन्द जी यहां दक्षिण पुरी के रहने वाले नहीं है। वे आर.के.पुरम के रहने वाले है। सरकारी क़्वाटरों मे इनका भी एक घर है। जो सरकारी नौकरी से मिला है।

उन्होनें ऊपर उठते ही कहा, “हां, क्या चाहिये?” फाइल को बन्द कर दिया था उन्होनें।

मैंने उनसे बात करने को कहा, “सर क्या मैं आपसे कुछ बात कर सकता हूं? कुछ जरूरी बात है।"

"जरूर कर बेटा, मगर क्या बात करनी है?”

मैंने कहा, “एक सवाल करना था आपसे, मुझे लगा उसे आप सही से समझा पायेगें।"

"क्या सवाल है?” ( वे बोले मेरी तरफ़ देखते हुए)

"आज के टाइम मे लोगों की जरूरतों की जगह कहां है उनके जीवन में?” (मैंने उनसे सवाल किया।)

वे मेरी तरफ़ मे देखते हुए बहुत सोचकर बोले, “यह सवाल करने की क्या जरूरत पड़ गई तुम्हारे को?”
मैंने कहा, “सर मैं जब भी अपने घर या दोस्तों मे कोई बात करता हूं या किसी भी चीज़ को लेकर बात करता हूं तो बात शूरु भले ही कहीं से भी हो पर ख़त्म जरूरत पर होती है। मैं समझना चाहता हूँ इसे। क्या आप समझा सकते हैं?”

"और कितने लोगों से बात कि है तुमने इसके बारे में?” ( वे बोले कुछ समझने के लिए)

"नहीं, मगर ये बात जरूर है की मैं जरूरत के पहाड़ो को बहुत बार सुन चुका हूं घर में, दोस्तों मे, स्कूलों मे मगर कभी ठीक से समझ नहीं पाया। शूरुवात आपसे करना चाहता हूँ क्योंकि मैंने सुना है की यहां पर जरूरतों को सोचते हुए या आने वाले समय को सोचते हुए। कुछ रास्ते लोग खोजते हुए चले आते हैं।"

वे कुर्सी पर बैठते हुए बोले, "मैं क्या बता सकता हूँ तुम्हें बस, यही बता सकता हूं कि मैंने यहां से क्या अनुमान लिया है। उसके आलावा क्या? मुझे देखो कभी पाला नहीं पड़ा था मेरा किसी के भी जीवन की कहानियों से और ना ही कभी मैंने इस काम की लाइन मे किसी के घर के बारे मे जानने की कोशिस भी की है। मगर, फिर भी यहां के बारे मे बहुत कुछ जान चुका हूँ मैं। यहां जरूरतें कभी तो कठिन परिस्थिती है तो कभी बचत के साथ जुड़ी है। अपने 35 साल के अनुभव मे मैंने अनेकों खाते खोले मगर यहां दक्षिण पुरी मे सबसे ज्यादा खाते 60 साल की उम्र वालो के हैं और उसके साथ मे सुनी है मैंने यहां कई कहानियां। यहां तो बहुत किस्से हैं जो जरूरत की मार खाये हैं। कई लोग तो यहां घण्टों बैठे रहे हैं और कईयों ने तो अपना घर का सारा समान लिए रात बिताई है यहां पर। मैं इतने डाकखानो मे रहा या तो मैं वहां नौकरी कर रहा था या फिर यहां कुछ और कर रहा हूँ। आज के समय मे तो जरूरत ही तय करती है सब।"

"जहां आप पहले रहे, वहां पर क्या मालुम होता था जरूरतों को लेकर?” ( मैंने उनसे पुछा)

उन्होनें एक रजिस्टर निकाला और दिखाने लगे। कहने लगे की "ये वे रजिस्टर है जिसमे कई जरूरते जमा है। बताओ अब इसे कैसे देखोगें? लोगों ने अपना 3,3 हजार रूपये तक 8 साल के लिए फिक्स कराया हुआ है जो 8 साल के बाद मे डबल मिलेगा। जानते हो जिसने ये कराया है उसकी उम्र कितनी है? 65 साल और उन्होनें ये अपनी पोती की शादी मे कुछ अपनी तरफ से देने के लिए करवाया है। उनकी पोती 8 साल के बाद मे 20 साल की हो जायेगी और नोमिनेट भी उसी को किया है। मगर, जहां पर मैं पहले था वहां पर तो ऐसा कुछ भी नहीं था। मेरा अनुभव 28 साल की उम्र मे शुरू हुआ। कई तबादलों मे मैं अपनी ज़िन्दगी के 36 साल दिये है। मैं पहले जिन डाकघरों में रहा वहां डाकखाने का मतलब था, वे ख़बर जो जमा रखना जो महज़ सरकारी चिठ्ठियों मे ही आती थी। जैसे, रिज़ल्ट, नौकरी, सम्मन और बील वगैरह। किसी के नाम का ख़त आना या देखना बेहद मुश्किल होता। सन 1970 मे मैं आर.के.पुरम के डाकखाने मे था। वहीं पर मेरा क़्वाटर भी है, उसके बाद मुझे कालका जी भेजा गया, 4 साल के बाद मालविया नगर, उसके 3 साल के बाद ओखला, उसके फोरन 2 साल के बाद ही कोटला मुबारक पुर फिर दोबारा से आर.के.पुरम, उसके 3 साल के बाद नेहरूप्लेस फिर ओखला पार्ट-2, उसके बाद मुझे यहां दक्षिण पुरी मे भेजा गया। वहां जरूरत का मतलब जल्दबाजी और बैचेनी था बस। असल मे वहां किसी को किसी का नाम जानने की भी कोई जरूरत नहीं होती थी और मैं यहा अपनी 5 साल की नौकरी मे लगभग 500 लोगों के नाम जानता हूँ और ना जाने कितने घरों की कहानियों को मैं सुन चुका हूँ।"

"क्या आपने किसी का ख़त पढ़ा या पढ़कर सुनाया है?” मैंने उनसे पुछा।

वे अपने चेहरे पर एक हठ वाला भाव लाते हुए बोले, “हां, बहुत से लोगों का पढ़कर सुनाया है। मेरा तो सबसे पहले काम ही यही था यानि कई साल तक ख़तों को पोस्टऑफिस लाने का काम किया है। तब बहुत सुनाता था।"

"कुछ याद है सर?” मैंने उनसे पुछा।

वे कुछ याद करने की कोशिस मे बोले, “याद तो कुछ नहीं है मगर हां, जिन लोगों को पढ़कर सुनाया उनका हसंना और रोना याद रह जाता था।"

मैंने पुछा, “क्यों सर वही क्यों याद रह जाता था?”

वे बोले, “उन लिखे शब्दों मे जान ही वही फूकतें थे। चाहे उनमे कोई मौत की ख़बर, बिमारी, जरूरत या खुशी कोई सी भी ख़बर लिखी हो मगर बिना पढ़ने या सुनने वाले के वे बेजान ही रहती हैं। उसके साथ जुड़ा हसंना या रोना ही उसमे जान डालता है। तो वही याद रह जाता था।"

मैंने पुछा, “कितने तरह के लोग याद है आपको सर?”

वे हसंकर मेरी तरफ मे देखते हुए बोले, “मुझे तरह तो याद नहीं मगर, यहां आये लोगो के किसी चीज को जानने से उसे अपनाने, करवाने तक जो सवाल करते थे वो और जल्दी रखते थे कि क्या बताये? कोई भी प्लान सुनते तो फौरन करने की कह देते। आई थी एक बुढ़िया, वो खिड़की के सामने ही बैठी थी। मैं उनकी आवाज सुन सकता था मगर, देख नहीं सकता था। वे नीचे बैठे-बैठे खाता खुलवाने की कह रही थी। शायद वे सुनती भी कम थी। मैं उचक-उचक कर देख रहा था। "अम्मा अन्दर चली आ" उन्होनें सुना भी नहीं फिर मैं ही उन्हे बाहर जाकर उठा कर लाया। वो अपनी पैन्सन शूरू करवाने आई थी। महिने के 300 के हिसाब से उन्हे 3 महिने के 900 रुपये मिलने थे। वे अपना खाता खुलवाने आई थी। बस, हाथों मे फोटो और 500 रुपये लेकर वो चली आई थी। जब तक मै उनका फोर्म भरता रहा तब तक वो अपने घर, परिवार और बेटो-बहुओ की बातें बताने लगी। मुझे वो इसलिए याद नहीं है कि वे बुढ़िया अपने घरवालो से छुपकर कुछ करवाने आई थी बल्कि वो पूरा दिन यहीं बैठी रही थी। कॉपी के लिए।
इतना तो पता चला है कि यहां पर कोई किसी भी चीज को आसानी से जाने नहीं देना चाहता। अब बताओ इसमे क्या है? कुछ भी तो नहीं मगर, फिर भी एक दौड़ है जरूरत के रेस मे। बस, मुझे तो इतना पता है कि जरूरत यहां की नीव मे है।"

लख्मी कोहली

आधी पी हुई बीड़ियाँ

एक आवाज को काटती दूसरी आवाज और दूसरी आवाज को दबाती तीसरी आवाज। दम भर-भर कर बोलना शुरू हो गया था। बीस से पच्चीस आदमी जो अपने बदन पर हल्के और ढीले कपड़े पहने हुए थे। तहमत, कुर्ता-पजाना, गमछा। हर कोई किसी ना किसी ताक मे बैठा था। बड़े से कमरे में रोशनी के नाम पर दो मोटे-मोटे वॉट के बल्ब जल रहे थे। दीवारों पर ठीक वैसे ही सींगरी और कॅलेन्डर टंगे हुए थे जैसे हर सजावट को सोचकर लगाये जाते हैं। बीच की दीवार के नीचे जहां से फर्स का किनारा दिखता है वहां धीरे-धीरे सुलघते कन्डे के टुकड़े इकट्ठे किये हुए थे। जिनसे उठने वाली लपटों मे पास बैठा एक उलझे बाल और सांवला रंग, जिसने कमर से तहमत बाधां हुआ था। वो बार-बार बड़े मूंह वाली कटोरी से चम्मच से घी निकालकर आग में डाल रहा था ।

ठीक तरह से किसी की बोली समझना मुश्किल था। क्योंकि रूक-रूक कर गाने के साथ वे आदमी ढोलक भी बजा रहे थे। ले-देकर यहां सब किसी एक बड़ी मथ्था-पच्ची करने में लगे थे। फिर से जोर से कोई उठकर बोलता, “ अगर है इसी बख़त से तो दुहाई है तुझे, हे माई बचनों को मानकर चलेगी।" ये बोल बार-बार कुछ उलट-पलट कर सुनने मे आ रहे थे। इतनी भीड़ के बीच में बैठा चुपचाप अपने बदन को साधे हुए, वो काले रंग वाला आदमी जिसके बाल घुंघराले थे। उसके सिर को एक जनानी कपड़े से ढाक रखा था। वो आदमी तेजी से कँपकँपाता फिर हल्के-हल्के रूक जाता। जैसे ही दुहाई के गाने ऊंचे-ऊंचे होते और ढोलक भी अपनी थाप पर थाप लगाती तो इस आदमी के बदन मे एक गर्मी सी पैदा हो जाती। पीठ के हिस्से पर पसीना बूंद-बूंद करके बहे जा रहा था। उसे देखकर पास बैठे सभी लोगों को भी जोश आता और वो तरह-तरह के देवी-देवताओं की दुहाई लगाकर उस आदमी को जिसके सिर के ऊपर कपड़ा उड़ाकर बैठा रखा था उसे डोली कहकर पुकारते। देवी-देवताओं से प्रार्थना करते की इस मानस मे से होकर निकल जाओ। दीवारों से टेक लगाये हुए आदमी ढेहरों बीड़ियों को अब तक पी चूके थे। कुछ एक हुक्के मे गुड़गुड़ाते हुए दम मार रहे थे। फर्श पर आधी पी हुई बीड़ियां हल्की बुझी हुई थी। जो धूंए के छोटे-छोटे रेशे बनाकर बुझ जाती।

गाने बजाने मे यहां हर कोई निपुणता हासिल किए हुए था। तभी तो एक के साथ दूसरा ताल मिलाता और सुर मिलाकर गाने लगता। देवी-देवताओं को मनाने का यही एक इकलौता माध्यम था।

चारों तरफ से एक घेरा लगाये आदमी बीच मे उस कपड़ा ओड़े हुए आदमी के सिर पर हाथ रखते और फिर हटा लेते। सबकुछ बड़ा अलग लग रहा था। उन्हीं मे से एक आदमी जिसके पास मैं बैठा था वो भी उन सभी की तरह जोर-जोर से आँखों को फाड़े और चेहरे मे आक्रमकता लिए बैठा था । सब कुछ जैसे जानबूझ कर किया जा रहा था। इस पंचायती बैठक मे हर तरह के भूत, पिसाचर, निसाचर और देवी-देवताओं को इस्तमाल किया जा रहा था। जैसे यहां इस दंगल मे कुश्ती दिखाकर अपनी योग्यताओं का जोहर दिखाने का प्रयास किया जा रहा हो। अच्छे और बूरे का, सत्य और असत्य को आपस मे रगड़ा जा रहा था।

जैसे ही गाना-बजाना तेज होता वैसे ही इस आदमी के शरीर का तापमान किसी थर्मामीटर के जैसे बड़ता जाता। वहीं सामने दीवार पर लाल रंग के सिंदूर से फूल और त्रिषूल से एक चौका बना हुआ था। जिसके बीच मे ओम: नम: शिवाये: लिखा हुआ था। ये देवी-देवताओं का स्थान होता है, उसे चौका बोला जाता है। उस चौके के दूसरी तरफ़ बैठा वह आदमी बहुत देर से अपने होठों को हिलाता तो बीच मे जनाना कपड़ा औढ़े हुए वही आदमी आटे की तरह मे गिर पड़ता। ऐसा कई बार हो चूका था।

कुछ मिनट के बाद एक भगत जी उठे, “ला जरा मुझे लोहे का चिमटा लादे, फिर देखता हूं की इसके अन्दर का भूत कैसे बाहर नहीं आता।" घूटनों को मोड़े हुए, दोंनो हाथों को जोड़कर बैठा था। तभी उसके ऊपर एक भगत जी ने राख को हाथ मे लेकर फूंक मारी। अभी जो चूपचाप बैठा था वो तो हाथ – पैर फैंकने लगा।

इसी बैठक मे वो लोग भी थे जो इस देवीयें शक्तियों और झाड़फूंक की विद्या से अन्जान नहीं थे लेकिन वो खामोश होकर तमाशा देख रहे थे। जहां आँखों के आगे हर कोई एक छलावा कर रहा था। तो दूसरा उस छल को मात देने के लिए गुप्त राजनीति कर रहा था।

तंग पेन्ट पहने और बनियान पहने हुए, लम्बे बाल वाले एक व्यक़्ति ने कहा उसमे कच्चे सूत की माला बनाकर दोंनो हथेलियों मे लेकर बार-बार अपने मूंह से सिद्ध किए मंत्रो का उच्चारण करके नीचे बैठे हुए आदमी के सिर के नीचे डाल दिया। ऐसा वो बार-बार कर रहा था। सबकी आँख उस आदमी को अपने आप ही हिलते हुए देख रही थी। जो कमरे मे इकट्ठा हुई भीड़ के बीच मे बैठा देवी-देवताओं को सुमर रहा था। कमरे मे गर्मी होने का कोई मतलब नहीं था। छत पर पंखा भी तेज चल रहा था। बाहर की तरफ़ चौखट के साथ ही बड़ा सा कूलर जो मुमकिन हवा अन्दर फैंक रहा था। इतना होने के बावज़ूद उस डोली को कपड़ा उड़ाने से पसीना बहुत आ रहा था। नाम तो उसका पता नहीं था पर सब उसे प्रेम कहकर समझा रहे थे। कुछ देर इतना सब देखने के बाद मुझे भी अब उनमे से दो चार लोंगो के नाम याद हो गए । उनकी अपनी बातचीत मे वो एक-दूसरे का नाम लेकर ही काम कर रहे थे। मैं थोड़ा और ध्यान देता कि उस माहौल मे एकाएक उथल-पुथल शुरू हो जाती। जहां बैठकर वहां से ढोलक की आवाज आ रही थी। लोग अपने गले से लम्बे-लम्बे अलाप लेकर दुहाई के गाने गा रहे थे। देवताओं को खुश करने और मनाने-परचाने के लिए। ऐसा माहौल बनाना जरूरी था किसी रोग को मारने के लिए। उसे दोबारा सबके बीच बुलवाने का तरीका ढूंढा जा रहा था। दूर-दराज से आए भगत जीयों को बुलाया गया था। जब समा सुर ताल के साथ बनने लगता तो जोरो से मेरे साथ में बैठा ही एक नौजवान किसी का नाम लेकर खड़ा होकर बोला, “अरे ये सासु का ऐसे नहीं मानेगा। याए तो मैं भ्रमफांस मे डाल दूगां।"

इस तरह से वहां आए सभी शख्सों में एक तरह की गाली-गलोच शुरू होने लगी। ये माहौल भी बड़ा प्रभावशाली बनता जा रहा था।

कन्डों के उपर जोत जल रही थी, जिसके ऊपर एक अजीब सी बू छोड़ता हुआ धूंआ लहरा रहा था। वहीं एक कांच की बोतल जिसमे देसी शराब भी और काम आने वाले लोंग, घी, तेल, जायेफल, नींबू, लाल सिंदूर, काला कपड़ा, पीली सरसों, देवी का सिंगार और तांबे के लोटे में रखा गंगा जल, पचंमिस्ठान जैसी चीजें मौजूद थी। दिमागी शक़्ति ये सब देखकर कुछ समझ नहीं पा रही थी। गानों की आवाजें तेज और तेज होने लगी। ढोलक-मन्जिरे भी जोर-जोर से बज रहे थे। सबके चेहरे पर जोश और उत्साह के घने बादल छाये हुए थे। अपने गले मे गमछा डाले हुए एक और भगत उठा जो दिखने मे जवान था। यानि बीस से पच्चीस साल की उम्र होगी। उम्र का नया-नया जोश खून बनकर उसकी रगो में दौड़ रहा था। दूसरे ने उसे चने के झाड़ पर चड़ाते हुए कहा, “अरे देखता क्या है सुरेश, मार दे मूंह।" इसका मतलब ये था की जो आदमी जनानी कपड़े ओड़ कर बैठा था उसके ऊपर कोई रोग है जो अब उसके सिर पर मंडरा रहा था। ये हरकत सी देखकर दूसरे ने उससे कहा, “सुरेश डर मत। यहां तो सब चलता है।" लेकिन सुरेश अपने को कच्ची उम्र का खिलाड़ी समझ कर आगे कदम उठाने से डर रहा था। कहीं धोखा ना हो जाए और लेने के देने ना पड़ जाए । उसको हिम्मत दिलाते हुए वही व्यक़्ति फिर से बोला, “का सोच रहे हो यार मेरे, वो कहावत है ना ! कि छोटा बड़ा ना जानिये जो गुणवन्ता होए। तुम ये काम करदो, सब यहां पर देखते रह जायेगें।"

गाने बजाने का सिलसिला अभी जारी था। मुझे ये पूरा माजरा समझने मे मुश्किल हो रही थी। लेकिन वहां पर आए कई नौकरी पैशेवर शख्सों को अलग से रूप मे उभरता देख आश्चर्य भी हो रहा था। कमरे के बाहर अन्धेरा हो गया था। चौखट के साथ दरवाजे से पीठ लगाकर चार-पांच महिलाये भी घूंघट की ओट से ये सारी गुथ्थम-गुथ्थी का मन्जर देख रही थी।

सुरेश ने अपनी काबलियत के बल पर उस रोग को वश़ मे करने की कोशिस की। अपने देवी-देवताओं का उच्चारण करते हुए उसने कई फन्दे बनाकर फैंके पर सब तुर्की फन्दे व्यर्थ हो गए। सुरेश ने अपना हाथ उठाया और उस बीच मे बैठे आदमी के सिर पर रख दिया। जिसका मतलब था कि देवता की चौकी देना। इस चौकी को रोगी के सिर पर रखते हुए बोला, “अब चौकी की जिम्मेदारी तेरी है।" यानि देवता जो चौकी मे रखकर दिया गया था वो इस समस्या का हल ढूंढेगा। ये सब एक पहेली की तरह की रहस्य लग रहा था। जिसमे बहुत कुछ अभी छुपा हुआ था। जिसको समझने की हर कोई ताबड़तोड़ मेहनत कर रहे थे। हर एक की अपनी-अपनी नज़र को पहचानने का पैमाना था जो कभी पूरा तो कभी अधूरा होता।

मैं सोचने लगा कि कोई है जो इन्सानों की इस बस्तियों मे अपने होने सूचना देता है। गहरी रहस्य कि गुफाओं की ओर जाता हुआ रास्ता जिसका अन्त नहीं दिखता। जब सोचते-सोचते मैं इस माहौल से अलग होने की कोशिस कर रहा था। मुझे ये माहौल से उठने वाली अदृश्य भूताज़ोन कि चितकारियां वापस इसी माहौल मे धक्का दे रही थी पर मुझे मेरा नामों निशान नहीं मिल रहा था। ठीक वैसे ही जैसे अन्जान जगह पर जमीन के ऊपरी सतह के ऊपर कीडें-मकौड़ो और सांप – बिछ्छुओं के बीच में मैं बार-बार बोखलाता हुआ कुछ ढूंढ रहा हूं। क्या है वो ये मुझे याद नहीं आता? लेकिन उस जमीन पर पेड़-पौधे और टूटी चीजें जो मैं कभी इस्तमाल किया करता था। ये बिखरा तामझाम मे शायद मैं अपने आपको देखने का आईना ढूंढ रहा था। जिससे ये जान सकूं कि मैं कौन हूं और मेरी शक़्ल कैसी है? ये कैसे विड़मबना थी। जिसमे मैं चाहकर भी नहीं अपने को मैं रोकने मे सफ़ल नहीं हो पा रहा था। उस आदमियों से भरी पंचायत मे मैं चुपचाप था। इसके मेरे पास कई कारण थे और एक भी कारण उतना मुश्किल नहीं था। जितना की मैंने खूद ही समझ लिया था।

अब परमेश्वर को याद करके एक बुर्ज़ुग आदमी ने अपने सिर की पगड़ी उतारकर दोनों हाथों को जोड़े बैठे हुए उस आदमी के सामने रख दी। अब कोई चमत्कार देखने कि उम्मीद सी लग रही थी और हुआ भी वैसे ही। मेरी भी आवाज हलक मे ही फंसी रह गई। जब पगड़ी को समाने देखकर देवता अपनी पूरी ताकत के साथ उजागर हुआ तो पूरे माहौल मे जैसे खुशी और राहत की लहर सी दौड़ गई। इससे कुछ फायदा तो हुआ था। इससे पहले बात इतनी नहीं बड़ पाई थी। जोत मे जलते बतासे और घी के साथ जलती लोंगो की महक पूरे कमरे मे छा गई थी। तभी वो आदमी ददकार मारकर तेजी से घूटनों के बल आगे गिरा। उसके साथ दूसरा जो गले मे काले धागे की डोरी पहने हुए था उसका नाम रामसिंह था। रामसिंह ने अपने बालों को सहलाया और हथेली फैलाकर अपने पास ही बैठे प्रेम के साथ देवीये मन्त्रो से देवताओं को प्रकट करने लगा। रामसिंह भी अभी भगत बना था। उसके गूरू मुरारी लाल से मेरी अच्छी बोलचाल थी। दूर का रिश्ता तो था ही और एक कर्म को करने वाले यानि भूताज़ोन के हम साथी थे। इस जन्म मे एक भूताज़ोन मे पड़ने से मेरे पारीवारिक रिश्ते बिलकुल करीब नहीं थे। घर के लोगों ने तो इस काम को अपनाने के बाद ही मुझे ठूकरा सा दिया था। बस, नाम के लिए परिवार वाले घर मे इज्जत थोड़ा रोटी खिला दिया करते थे, वही बहुत था। इसमे उनका भी कोई दोश नहीं था। मैंने अपने राह खुद जो चुनली थी। घर की अधिकत्तर जिम्मेदारियों से मैं धीरे-धीरे दूर होता जा रहा था। मेरी बीवी भी मेरे आने से डर जाती थी। वो गुस्से मे मुझे ताने भी मारा करती थी। लेकिन मुझे इस बात की परवाह नहीं होती थी। मुझे जो करना था वो मैं करने के लिए निकल चूका था। इस विद्या को सीखने के लिए जिसकी मुझे लत सी लग गई थी। वो जादूई विद्या थी। मैं किसी भी हालात मे उसको सिखना चाहता था। मेरे ननिहाल मे मेरी माता कि चचेरे भाई इस विद्या मे निर्पुण थे। उनके पास जाकर मैंने उनसे गुज़ारिश की। उस दिन रात के दस बज रहे थे। बादलों ने आसमान के तारों को अपनी करवट मे छूपा रखा था। थोड़ा झेपतें हुए मैंने उनके घर मे बैठकर अपनी इच्छा रखी तो उन्होंने साफ़ इन्कार कर दिया। वे बोले कि अब मैंने ये रागमाला उतार कर रखदी है। अब इसमे कुछ नहीं बचा।

वे मेरे कन्धों को थपथपा कर फिर बोले, "बेकार है इस जादू मे फंसना।" मेरी सांसे ओर तेज हो गई । उन्होने तिबारा और कहा, “छोड़ दो ये हट, बेकार है और बेकार मे वक़्त बर्बाद कर डालोगें। " उनके बातें मेरे सिर से गुजर रही थी और चोट दिल पर लग रही थी। अब आन्धी भी आ चूकी थी। मूझे अब लगने लगा की यहां कुछ हासिल नहीं होने वाला। जो करना है वो मुझ ही को करना होगा। ज़िन्दगी कितनी भी बेहरहम क्यों ना हो मगर, उसके बनाये हालातों से लड़ना ही पड़ता है।

ऐसा ही प्रेम के साथ कुछ हो रहा था। वो दो घण्टो से इसी उम्मीद मे भीड़ के बीचों-बीच बैठा था। कुछ चीज की उसे जरूरत थी वो उसे मिल नहीं रही थी। शराब की बोतल अब आधी हो चुकी थी। एक दो पैक बनाकर गाने-बजाने वाले आदमी अपने गले की तराई कर रहे थे। ताकि तेज आवाज मे गाने से जो फांस गले मे चुभ रही थी उस फांस को गला दिया जाये। प्रेम सब के मूंह को घून्ना कर देख रहा था ओर कुछ ना कह पाता। उसे लगता की मैं घण्टो बैठे-बैठे परेशान हो रहा हूं और ये आदमी रंग ले रहे हैं। वो चीज जो स्पष्ट रूप से ना आती दिखाई दे और ना जाती। एक ऐसा ही अन्धविश्वास इन भगतों के बीच की दुनिया बना हुआ है। जिसमे हम ज़िन्दगी के सत्य से लड़ते रहते हैं। ये मेरी या इन भगतों कि ज़िन्दगी से ही वासता नहीं रखता। इस जमीन के ऊपर भी कोई है जो जमीन पर रहने वाले हर प्राणी को उसके कर्म अनुसार उसका फल देता है।

मैंने शायद बहुत पाप किए होगें। जब से होश सम्भाला तब से तो नहीं मगर, अन्जाने मे जरूर कोई पाप हुआ होगा। तभी तो ये भूताज़ोन मे मुझे डाल दिया। मैंने ज़िन्दगी से बहुत प्यार किया है और करता भी हूं इसलिये शायद हर तरह से वक़्त के आगे अर्लट रहता हूं। मैं अपनी यादों मे घूम कर जैसे ही वापस आया कि देख अभी का समय सुबह का तीन बज कर चालीस मिनट हो रहे थे। जो मेरे साथ आकर अखाड़े मे बैठे थे। अब तक उनकी आँखें भी पत्थरा गई थी। दीवार से टेक लगाये सुरेश, दयाराम, रामसिंह अब मीठी-मीठी नींद ले रहे थे। देशी दारू पीने की वजह से उनके मूंह से खर्राटों की आवाज आ रही थी। मूंह तो ऐसे खूले हुए थे जैसे ना आने वाली ट्रेन के फाटक खूले हो और मख्खियां-मच्छर जिसमे दौड़ लगाकर वापस बाहर आ जाते। लेकिन नशे मे धुत, इनमे से किसी को इस बात का पता नहीं चल रहा था। प्रेम जगे हुए आदमियों के चेहरे पर नींद की चादर फैली देख रहा था। उनकी आँखों की पलकें झपकते देखकर उसका भी मन आलस से भर रहा था। रात लगभग कर चुकी थी। बस, कुछ देर और सवेरे का इन्तजार करना था। क्षण भर की बात थी फिर पंछी जाग जायेगें और अपनी चहचहाटों की आवाजों से वातावरण को खिला कर रख देगें। लेकिन ये क्षण बिताना मुश्किल हो रहा था।

शायद मुझे कुछ याद आ रहा था। मैंने अपनी पारीवारिक जिम्मेदारियों का त्याग करके उनसे मूंह मोड़ लिया। अपनी खुद की इच्छा पूर्ती के लिए। अन्धो कि भांति मैं बिना कुछ देखे समझे अपने आगे आने वाले हर काम, हर चीज, हर रिश्तों को नज़र अन्दाज करता रहा। अपनी चाहत से बनी दुनिया को पाने के लिए। मैंने शायद कई गुनाह भी किए होगें। मैं घर को छोड़ ही चुका था। मेरा सम्पर्क घर के हर रिश्तों से टूट चुका था। बस, कुछ न कुछ करके ही घर लौटने की कसम खा ली थी मैंने। जगह-जगह घाट-घाट का पानी, कई तरह के मुल्लाह, फकीरों और ओझाओ के साथ रहकर मैंने समय बिताया। अपनी बिरादरी मे जो भी जादूगरी से ताल्लुक रखता था। मैं उसके साथ समय बिता लिया करता था। जहां शाम हुई वहीं डेरा डाल लिया। समय के चक्कर को रोकना मेरे बस के बाहर था। धर्म रीती-रिवाजों से अलग बैठना और तरह-तरह की संगतो मे बैठकर शिक्षा प्राप्त करते हुए मुझे जीवन के आन्नद भी महसूस होते। इससे ये पता चला की जीवन का आन्नद हर जगह, हर कण मे है। उसके लिए इतनी दूर सब कुछ छोड़ कर आने का मतलब कुछ खोना ही था। मैं मेरे अन्दर वो शख्स रहता था जिसे तलाशने मे मैं गांव-गांव, शहर-शहर भटकता रहा। उसकी शक़्ल देखनी थी वो ही मेरी पहचान है। मैं उसे किसी भी तरह से सबके सामने लाना चाहता था। वो पहचान जिसका मैं मरते दम तक तलबगार था। यूं तरह-तरह के लोगों के दरमियां रहकर मुझे कई धर्म और समाजो मे जीने वाले जीवन को जीने के तरीको की जानकारी अच्छे से हो गई। पता लग गया था की लोग धर्म क्यों चुनते हैं? और वर्गाकार जीवन क्यों अपना लेते हैं? जिससे की दूसरे को चोट पंहूचने नहीं देती। मैंने लोगों के पास रात-दिन बिताए और बारह साल तक जैसे एक जंगल नामक स्थान पर वनवास पूरा किया। ये दुनिया मेरे लिए एक तरफा समाज मे, समाज के ही गठबधंनों मे ही बन्ध कर जीना थी और दूसरी तरफ बियावान जंगलों मे जगह-जगह, पत्ता-पत्ता, डाल-डाल का बोध दिलाती कोई साथीदार थी। जिसके उगंली थामे मैं अध्यात्मिक गुणों को एक-एक करके आत्मसाथ के रू-ब-रू करवाता गया। मेरे जीवन का जैसे एक नया धरातल बन गया हो। एक नये जन्म का आभास मुझे होने लगा था और मैं पिछले जन्म के कर्मकाण्डो को भूल गया। मेरे दिमाग की नसो पर आध्यत्मिक बोध का ऐसा प्रहार हुआ कि मैंने अपने शरीर के पुराने वस्त्रो को उतारकर रख दिया और नये वस्त्रो को धारण किया। अब मेरी ज़िन्दगी और कई शुस्त्रो से बन्ध चुकी थी। मगर फिर भी मुझे कहीं से अधूरापन आकर एक अहसास सा आकर छोड़ जाता। मैंने अपने जीवन के पिछवाड़े देखने की कोशिस की मगर एक फीकापन सा लग रहा था।

फिर वही उसने तेजी से डांट मारते हुए उसमे प्रेम की आँखों मे बसने वाली नीन्द को नौंच डाला। "मैंने तुमसे कितनी बार कहा मन लगाकर याद करो आखिर देवी कैसे नहीं आयेगी, हम भी तो उसकी पूजा-आर्धना करते हैं।"

प्रेम अपने पैरों के पन्जों को हिलाकर उन्हे आराम पंहूचा रहा था। काफी देर बैठे-बैठे उसके पैर सुन्न: हो गए। उसे फिक्र थी की वो भगत बन पायेगा या नहीं ! पूरी रात मक्का की तरह रखाते हुए काट दी थी। अब बीते समय के गाने-बजाने की गूंज तक मेरे कानो मे बाकि बची थी। जो खुद एक रस़ बनकर मेरे दिलो-दिमाग पर भी छा चुकी थी। प्रेम के अब कानो को कोई संदेशा देकर भुल गया। उसे नीन्द ने अपनी आगोश़ मे ले लिया। उसके साथ दूसरे आदमी भी अपनी थकान उतारने के लिए बिना बिस्तर के ही वहीं पैर-पसारे सो गए। कोई नतीजा निकला नहीं पूरी रात खिंचातानी होती रही थी। करवटों को लेकर सोने का विचार प्रेम को भी आया, लेकिन उसका बदन आग से फुंक रहा था जिसकी वज़ह से उसे रह-रहकर गुस्सा भी आ रहा था। मैंने उसकी पीठ को सहलाकर कहा, “हिम्मत रखो दोस्त, यूं गुस्सा करने से कुछ नहीं होगा।" उसमे कहा, “तुम ही कोई करतब क्यों नहीं दिखाते?” उसकी बातों को सुनकर मैं थोड़ा सोचकर और जानबूझ कर मैं खामोश रहा। मेरी जुबान से जवाब हां मे निकलने को होता मगर मैं अन्दर ही अन्दर ही अपनी जीभा को खींच लेता

राकेश खैरालिया

ताल

आज वे वक़्त है जब अपने बारे में सोचा ही नहीं जाता, पता ही नहीं चलता हम किस दौड़ में शामिल हो गए हैं। बस, भागे जा रहे हैं और यह भी पता नहीं है कि ये दौड़ भी कब रूकने वाली है? एक ये वक़्त है और एक वो वक़्त था जब हाथों मे हमेशा एक बैचेनी सी रहती थी। बस, कितना और हल्का और नाज़ुक बनाया जा सकता है अपने हाथों को? वही ख़ुमार चड़ा रहता था। जहां देखो वहीं पर इनकी बैचेनी बाहर निकल पड़ती थी। कभी गली में रखी टंकी पर हाथ चलने लगते थे तो कभी घर के पतीलों पर। इतना होने के बाद भी वह बात नहीं आ पाती थी जिससे दिल को सुकून पंहुचे और यह सुकून तभी पहुँचता था जब पहली ही ताल पर नचेता अपने पाँव उठा लेता था।

सन 1980 मे जब किदवई नगर में रहते थे। वहां सिखाने वाला कोई नहीं था। उस समय हमारे यहां से कोई भी संगीतो में जाता तो मैं भी उन्ही के साथ में चल दिया करता था। वहां के माहौल को सजाने और संगीत बजाने वालो की मदद करने। उनके आने से पहले उनके लिए जगह बनाना, उनके म्यूज़िकल स्टूमेंटो को सही और साफ़ करके उनकी जगह पर रखना, पानी का गिलास और रूमाल सब रखकर मैं उनके साथ मे बैठ जाता था। उस समय मैं जिनके साथ था वे बड़ी-बड़ी पार्टियों व उत्सवों मे जाया करते थे। मुझे जो वहां अच्छा लगता था वे था उनका कोई लम्बी और सुरूली ताल को बजाना जो वे अक्सर शूरु मे ही बजाया करते थे। जब तक कोई भी गाने वाला कलाकार नहीं हुआ करता था उनके सामने और मैं उनके उस समय में बहुत खो जाया करता था समझों। बस, उनके ताल के साथ में अपने हाथों को ताल से ताल मिलाकर बजाया करता था। कभी उलटा तो कभी सीधा। जब उनकी ताल ज़्यादा तेज हो जाती तो मेरे हाथो की वे ताल भी। जब वे बजाने वाले मेरी तरफ़ देखकर अपनी ताल बजाते तो मुझे बहुत अच्छा लगता। ऐसा लगता था की जैसे मैं जो हाथों से बजा रहा हूं वे उसकी ताल से ताल से मिला रहे हैं। वे भी वही कर रहे हैं जो मैं उनके साथ मे करता रहा हूं।

ये सिलसिला यहीं पर रूकता नहीं था। घर आने के बाद मे जब मैं अपने हाथों को देखता तो यही दिमाग में रहता की कैसे इनको हल्का और नाज़ुक बनाया जा सकता है। इसके लिए मैंने कई टोटके भी आज़माये थे। आसपास से या वहां उन महफ़िलों में किसी को उंगली चटकाते हुए देखता तो दिमाग मे वही रहता था कि उंगली चटकाने से हाथ हल्के होते हैं। मगर, मैं सुबह चार बजे अपनी उंगली चटकाया करता था। घर में सभी कहते थे कि सुबह चार बजे किया काम सफ़ल रहता है। उसके साथ-साथ मैं गर्म पानी की भाप से उंगलियों पर सेक भी लगया करता था। ये काम मैंने लगभग 2 साल तक किया।


लोग इन्हें चाचा कहकर पुकारते व जानते हैं। ये अपने 26 साल के अनुभव में यहां दक्षिण पुरी के जगत चाचा बन गए हैं। दक्षिण पुरी मे ये नाम या रिश्ता काफी समय मे बनता है। कभी तो किसी रिश्ते के तहत होता है तो कभी उस शख्स के मिलनसार होने से। चाहें वे "चाचा, मामा, मामी, भाभी, दादा ये सभी जगत के लिए हो जाते हैं। यहां पर इनका नाम जानना इतना जरूरी नहीं रहता। इनसे बात करने वाले इन्हें चाचा ही कहते हैं। चाहे कोई बड़ा हो या छोटा और ये भी उनका उतने ही प्यार से जवाब देते हैं। घण्टों के हिसाब से लोग इनके पास बैठे रहते हैं। कभी तो खाली बातें होती तो कभी ना जाने कितने पुराने गीतों को छेड़ दिया जाता है। उनकी हथेली से उनकी उंगलियों का रिश्ता काफ़ी महत्वपुर्ण है। जैसे किसी ताल के साथ ईमानदारी बरतने के समान रहता है। उनके हाथ आज ढोलक पर ऐसे पड़ते हैं जैसे कोई किसी लचकिली चीज़ को किसी पर खींचकर मारता है। कौन सी उंगली कब पटकनी है उसका भी एक टाइमिंग होता है।

वे जमीन पर बैठे हैं अपना एक पांव सीधा और दूसरे पांव को उन्होंने मोड़ा हुआ है जिसके नीचे ढोलक फसाई हुई है। कभी मुहं से "ना-दीन, दीनना" करते हैं तो कभी हाथों से। इस बीच वे ढोलक सिर्फ़ आवाज करती है और उनके मुंह से निलकने वाली ताल से कभी तो मिलती तो कभी ज़ुगाली करने मे लग जाती है। एक हाथ की उंगली पड़ी हैं तो दूसरे हाथ की हथेली, फिर हथेली पहले आती और उंगलियां बाद में, फिर दोनो साथ में, फिर उंगली ही उंगली पड़ती जाती। जिससे एक लम्बी ताल छिड जाती। उसे रोका या मोड़ा हथेली से जाता। फिर तो पूरा हाथ ही ढोलक की दोनों तरफ़ में पड़ता और ढोलक खिल उठती। ये सब खेल मुंह से निकलती आवाज ही करवाती। ढोलक जो सुर निकालती वे सभी उनके मुंह से निकल रहे होते। ढोलक पर हाथ पड़ता और एक खींच निकलती फिर तो संगीत बज उठता। जो भी सुनता उसके लिए वहां से जाना कठिन हो जाता। जो दूर से सुनता उसका पलटना तय था। बहुत ही तरल(सोफ़्ट) आवाज का अहसास होता। बजाने वाले वे उस संगीत के अन्दर ऐसे डूब जाते हैं कि कौन उनके सामने बैठा है उसका भी उनको ध्यान रखना ना के बराबर है। "न-दीन, दीनना, धूम्म्म-धूम्मम" एक लय बाहर निकल आती। उनका चेहरा उसी लय और ताल के साथ मे मटकता रहता है। कभी गर्दन नीचे जाती तो कभी दायें तो कभी बायें, कभी ऑखे बन्द हो जाती और दबादब हाथ थाप पर पड़ते ही जाते। उनके घुटनों के नीचे दबी वे ढोलक कहीं खिसक नहीं रही है। वे वहीं जमी है। कभी-कभार उनका सिर उस ढोलक पर पूरा झुक जाता है और वे बिलकुल लीन हो जाते हैं। बस, उनकी उंगलियां और उनकी हथेली ही बहस मे लगी हैं। वह बहस जब आवाज में तब्दील होकर बाहर निकलती है तो वतावरण में मानों कितने खुशियों के फूल बिखरने लगते हैं। हर सुनने वाले कान के लिए है ये पल, ये वे पल हैं जो अकेले नहीं हैं। अब उनका चेहरा सूखे रेत पर पड़ती धूप की तरह चमक रहा है। वे जब भी एक लय मे खो जाते हैं तो उनके चेहरे पर आते भाव को महसूस करना कठिन होता है।

पतला शरीर और लम्बें बाल जो आगे से हल्के हो गए हैं। उनके हाथ लम्बे हैं। ऐसा लगता है वे हर वक़्त हरकत में रहते हैं। उनका चलना और बैठना किसी हरकत कि ही फ़िराक में रहता है। जब उनपर नज़र जाती है तो उनका रूप किसी संगीतकार की ही छवि देता है।

वे कभी भी अपनी ढोलक को चुप कराकर अपने वक़्त को दोहराते रहे हैं। जिन शब्दों के सामने बैठना अपने मुंह पर भी चुप्पी लेकर बैठने के जैसा ही होता। वे जब अपनी ताल में खो जाते रहे हैं तो दिल में एक बैचेनी रही है कि क्या है ऐसा जो इनसे इनके अन्दर को देखा जा सकता है? बैठने वाला खाली सुन सकता है। सुनकर चला जाता है। बस, उनकी ऑखों में देखकर, मुस्कुराकर उसके आवाला क्या? वे हमेशा अपनी ढोलक को चुप कराकर जब भी सुनने वाले की ऑखों में देखते तो अपने मे वापस देखना बहुत मुश्किल जान पड़ता। क्या निकाले अपने मे से? क्या कहें? मन मे तो आता की और सुना जाये उनकी तालों को, मगर वे सब किसी कलाकर के वे रूप को देखने के सामन होता जो उसकी सीखी विद्या है, वे कैसे देखे जब वे अपने मे खो रहे होते हैं? बस, मुस्कुराते हुए खड़े हो जाते हैं सब। ऐसे ही जैसे किसी दावत में से खाकर उठा जाता है।

ये वक़्त आ भी गया है। उन्होंने अपनी ढोलक को खमोश करा दिया है।

मैं घर में होकर भी घर का नहीं था। अपनी ज़िन्दगी के 6 साल मैंने एक ऐसी जगह को दिए जहां पर रहना इतना मुश्किल नहीं था जितना की वहां से वापस अपने घर आना। थोड़े से ही वक़्त में नज़रियों का बदलना कितनी जल्दी मालुम हो जाता है और कितना हद तक बदल गया था नज़रिया सबका, जिसमे आदमी फिर आदमी नहीं रहता वो कुछ और ही हो जाता है। अगर जहां रहे हो वहां की संगत का एक हिस्सा भी अपने अन्दर ले आओं तो समझो फिर के जो बचा-कुचा था वे भी नहीं रहा। उस जगह पर बिताए 6 सालों को भुलाने में मुझे 6 साल ही और लगे। मैं तो शायद भुलाता भी नहीं मगर कुछ चीजें यहां रहकर भुलानी जरूरी होती हैं।

सन 1984 से 1990 तक मैं किन्नरों के घर में ढोलक बजाने का काम करता था। क्योंकि शायद कहीं और मैं नहीं सीख सकता था। कहां बजाता?, कौन सिखाता मुझे? या अगर सीख भी जाता तो कहां बजाता? मुझे तो कोई उत्सवों में ले जाने वाला नहीं था और जागरणों मे बजाने के लिए किसी ग्रुप की जरूरत पड़ती। वो मैं कहां से लाता? एक यही जगह थी जहां पर मैं रोज़ बजा सकता था। रोज़ाना नये-पुराने गानो पर। उसके साथ-साथ किसी को नचाने के लिए भी। जहां देखने, नाचने और बजाने वाले दोनों हुआ करते थे। सुबह जाना और शाम में वापस आना। मगर मैं अपने इन 6 सालो के अनुभव मे अपने मोहल्ले व गली में कभी टोली के साथ नहीं आया और ना ही मैं यहां कभी बजाता था। लेकिन ये छुपा भी नहीं था किसी से। लोग मुझे देखकर ताली बजाकर नमस्ते व राम राम करते थे। मुझे नहीं मालुम था कि ये ऐसे क्यों कर रहे हैं? मुझे सब मालुम था। बस, मेरे अन्दर एक यही तमन्ना रही की मेरे हाथों मे वो लचक आ जाये जिससे ढोलक नाचे मेरे कहने पर। जिसको लाने के लिए मैं कुछ भी करने को तैयार रहता था। कहीं भी जा सकता था मैं। मेरे हाथों मे अब भी एक मर्दाना ताकत थी जिससे खाली ढोल ही बज सकते थे ढोलक नहीं जिससे वे आवाज निकलती थी जिसे सुनना बहुत मदहोस करता था। जानते हो मैंने खाली किन्नरो की टोली मे ढोलक ही नहीं बजाई उसके साथ-साथ मैं अपने घर मे पूरे परिवार के खाने का आटा गूंदता था। सुबह का भी और शाम का भी। 5 किलो आटा गूंदा करता था मैं। 3 साल तक मैनें अपने घर का आटा गूंदा है। तभी तो ये निखार ला पाया हूं मै। आज देखलो कैसे पड़ते हैं हाथ ढोलक पर। भगवान मेरे वो 6 साल खराब नहीं गए। मै शुक्रगुज़ार हूं ऊपर वाले का।

ढोलक एक फिर से बोलने लगी। वतावरण एक बार फिर से नाचने लगा। वे एक बार फिर से उसमे खोने के लिए तैयार हो गए। कौन कहता है की वे अपने वे 6 साल भूल गए? उन्हे तो सब कुछ याद है। वे माहौल भी, वहां सीखी कला भी, वे घर भी, उनका साथ भी, वे जगहे भी जहां पर उन्होनें ढोलक बजाई हैं। सब कुछ तो याद है उन्हें। फिर क्या भूले हैं वे?

लख्मी कोहली