Friday, September 19, 2008

जरूरतो की परछाई क्या हैं?

डाकघर दोपहर के 2 बजे थे। डाकघर की खिड़की खुलने से लगभग 5 मीनट पहले। इस समय डाकघर एक दम खाली रहता है। पंखे की हवा से टेबल पर रखे पन्ने फड़फड़ाते रहते है। मैं दरवाजे पर खड़ा इन्तजार कर रहा था वहां पर किसी के आने का। वहीं कोने मे रखी एक बड़ी सी टेबल के नीचे की तरफ़ एक शख्स कुछ फाईलों मे कुछ टटोल रहे थे। साथ के साथ मोहर लगाने की आवाजें भी आ रही थी।

इज़ाज़त मांगता हुआ मैं अन्दर दाखिल हुआ, वे वहां से खड़े हो गये। बड़ी-बड़ी मूंछे, लम्बे-चौड़ै वे देखने मे किसी पुलिस वाले की की कठ-काठी के जैसे ही दिखते हैं। लाल चन्द नाम है इनका, दक्षिण पुरी के एक इकलौते डाकघर के ये सबसे पुराने काम करने वाले हैं। पिछले 5 सालों से ये यहीं पर अपनी पोस्टिंग सम्भाल रहे हैं। लाल चन्द जी यहां दक्षिण पुरी के रहने वाले नहीं है। वे आर.के.पुरम के रहने वाले है। सरकारी क़्वाटरों मे इनका भी एक घर है। जो सरकारी नौकरी से मिला है।

उन्होनें ऊपर उठते ही कहा, “हां, क्या चाहिये?” फाइल को बन्द कर दिया था उन्होनें।

मैंने उनसे बात करने को कहा, “सर क्या मैं आपसे कुछ बात कर सकता हूं? कुछ जरूरी बात है।"

"जरूर कर बेटा, मगर क्या बात करनी है?”

मैंने कहा, “एक सवाल करना था आपसे, मुझे लगा उसे आप सही से समझा पायेगें।"

"क्या सवाल है?” ( वे बोले मेरी तरफ़ देखते हुए)

"आज के टाइम मे लोगों की जरूरतों की जगह कहां है उनके जीवन में?” (मैंने उनसे सवाल किया।)

वे मेरी तरफ़ मे देखते हुए बहुत सोचकर बोले, “यह सवाल करने की क्या जरूरत पड़ गई तुम्हारे को?”
मैंने कहा, “सर मैं जब भी अपने घर या दोस्तों मे कोई बात करता हूं या किसी भी चीज़ को लेकर बात करता हूं तो बात शूरु भले ही कहीं से भी हो पर ख़त्म जरूरत पर होती है। मैं समझना चाहता हूँ इसे। क्या आप समझा सकते हैं?”

"और कितने लोगों से बात कि है तुमने इसके बारे में?” ( वे बोले कुछ समझने के लिए)

"नहीं, मगर ये बात जरूर है की मैं जरूरत के पहाड़ो को बहुत बार सुन चुका हूं घर में, दोस्तों मे, स्कूलों मे मगर कभी ठीक से समझ नहीं पाया। शूरुवात आपसे करना चाहता हूँ क्योंकि मैंने सुना है की यहां पर जरूरतों को सोचते हुए या आने वाले समय को सोचते हुए। कुछ रास्ते लोग खोजते हुए चले आते हैं।"

वे कुर्सी पर बैठते हुए बोले, "मैं क्या बता सकता हूँ तुम्हें बस, यही बता सकता हूं कि मैंने यहां से क्या अनुमान लिया है। उसके आलावा क्या? मुझे देखो कभी पाला नहीं पड़ा था मेरा किसी के भी जीवन की कहानियों से और ना ही कभी मैंने इस काम की लाइन मे किसी के घर के बारे मे जानने की कोशिस भी की है। मगर, फिर भी यहां के बारे मे बहुत कुछ जान चुका हूँ मैं। यहां जरूरतें कभी तो कठिन परिस्थिती है तो कभी बचत के साथ जुड़ी है। अपने 35 साल के अनुभव मे मैंने अनेकों खाते खोले मगर यहां दक्षिण पुरी मे सबसे ज्यादा खाते 60 साल की उम्र वालो के हैं और उसके साथ मे सुनी है मैंने यहां कई कहानियां। यहां तो बहुत किस्से हैं जो जरूरत की मार खाये हैं। कई लोग तो यहां घण्टों बैठे रहे हैं और कईयों ने तो अपना घर का सारा समान लिए रात बिताई है यहां पर। मैं इतने डाकखानो मे रहा या तो मैं वहां नौकरी कर रहा था या फिर यहां कुछ और कर रहा हूँ। आज के समय मे तो जरूरत ही तय करती है सब।"

"जहां आप पहले रहे, वहां पर क्या मालुम होता था जरूरतों को लेकर?” ( मैंने उनसे पुछा)

उन्होनें एक रजिस्टर निकाला और दिखाने लगे। कहने लगे की "ये वे रजिस्टर है जिसमे कई जरूरते जमा है। बताओ अब इसे कैसे देखोगें? लोगों ने अपना 3,3 हजार रूपये तक 8 साल के लिए फिक्स कराया हुआ है जो 8 साल के बाद मे डबल मिलेगा। जानते हो जिसने ये कराया है उसकी उम्र कितनी है? 65 साल और उन्होनें ये अपनी पोती की शादी मे कुछ अपनी तरफ से देने के लिए करवाया है। उनकी पोती 8 साल के बाद मे 20 साल की हो जायेगी और नोमिनेट भी उसी को किया है। मगर, जहां पर मैं पहले था वहां पर तो ऐसा कुछ भी नहीं था। मेरा अनुभव 28 साल की उम्र मे शुरू हुआ। कई तबादलों मे मैं अपनी ज़िन्दगी के 36 साल दिये है। मैं पहले जिन डाकघरों में रहा वहां डाकखाने का मतलब था, वे ख़बर जो जमा रखना जो महज़ सरकारी चिठ्ठियों मे ही आती थी। जैसे, रिज़ल्ट, नौकरी, सम्मन और बील वगैरह। किसी के नाम का ख़त आना या देखना बेहद मुश्किल होता। सन 1970 मे मैं आर.के.पुरम के डाकखाने मे था। वहीं पर मेरा क़्वाटर भी है, उसके बाद मुझे कालका जी भेजा गया, 4 साल के बाद मालविया नगर, उसके 3 साल के बाद ओखला, उसके फोरन 2 साल के बाद ही कोटला मुबारक पुर फिर दोबारा से आर.के.पुरम, उसके 3 साल के बाद नेहरूप्लेस फिर ओखला पार्ट-2, उसके बाद मुझे यहां दक्षिण पुरी मे भेजा गया। वहां जरूरत का मतलब जल्दबाजी और बैचेनी था बस। असल मे वहां किसी को किसी का नाम जानने की भी कोई जरूरत नहीं होती थी और मैं यहा अपनी 5 साल की नौकरी मे लगभग 500 लोगों के नाम जानता हूँ और ना जाने कितने घरों की कहानियों को मैं सुन चुका हूँ।"

"क्या आपने किसी का ख़त पढ़ा या पढ़कर सुनाया है?” मैंने उनसे पुछा।

वे अपने चेहरे पर एक हठ वाला भाव लाते हुए बोले, “हां, बहुत से लोगों का पढ़कर सुनाया है। मेरा तो सबसे पहले काम ही यही था यानि कई साल तक ख़तों को पोस्टऑफिस लाने का काम किया है। तब बहुत सुनाता था।"

"कुछ याद है सर?” मैंने उनसे पुछा।

वे कुछ याद करने की कोशिस मे बोले, “याद तो कुछ नहीं है मगर हां, जिन लोगों को पढ़कर सुनाया उनका हसंना और रोना याद रह जाता था।"

मैंने पुछा, “क्यों सर वही क्यों याद रह जाता था?”

वे बोले, “उन लिखे शब्दों मे जान ही वही फूकतें थे। चाहे उनमे कोई मौत की ख़बर, बिमारी, जरूरत या खुशी कोई सी भी ख़बर लिखी हो मगर बिना पढ़ने या सुनने वाले के वे बेजान ही रहती हैं। उसके साथ जुड़ा हसंना या रोना ही उसमे जान डालता है। तो वही याद रह जाता था।"

मैंने पुछा, “कितने तरह के लोग याद है आपको सर?”

वे हसंकर मेरी तरफ मे देखते हुए बोले, “मुझे तरह तो याद नहीं मगर, यहां आये लोगो के किसी चीज को जानने से उसे अपनाने, करवाने तक जो सवाल करते थे वो और जल्दी रखते थे कि क्या बताये? कोई भी प्लान सुनते तो फौरन करने की कह देते। आई थी एक बुढ़िया, वो खिड़की के सामने ही बैठी थी। मैं उनकी आवाज सुन सकता था मगर, देख नहीं सकता था। वे नीचे बैठे-बैठे खाता खुलवाने की कह रही थी। शायद वे सुनती भी कम थी। मैं उचक-उचक कर देख रहा था। "अम्मा अन्दर चली आ" उन्होनें सुना भी नहीं फिर मैं ही उन्हे बाहर जाकर उठा कर लाया। वो अपनी पैन्सन शूरू करवाने आई थी। महिने के 300 के हिसाब से उन्हे 3 महिने के 900 रुपये मिलने थे। वे अपना खाता खुलवाने आई थी। बस, हाथों मे फोटो और 500 रुपये लेकर वो चली आई थी। जब तक मै उनका फोर्म भरता रहा तब तक वो अपने घर, परिवार और बेटो-बहुओ की बातें बताने लगी। मुझे वो इसलिए याद नहीं है कि वे बुढ़िया अपने घरवालो से छुपकर कुछ करवाने आई थी बल्कि वो पूरा दिन यहीं बैठी रही थी। कॉपी के लिए।
इतना तो पता चला है कि यहां पर कोई किसी भी चीज को आसानी से जाने नहीं देना चाहता। अब बताओ इसमे क्या है? कुछ भी तो नहीं मगर, फिर भी एक दौड़ है जरूरत के रेस मे। बस, मुझे तो इतना पता है कि जरूरत यहां की नीव मे है।"

लख्मी कोहली

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