Monday, October 13, 2008

क्या पुर्ण है और क्या अपुर्ण

कोई माहौल या जगह किसी के लिए पुर्ण-अपुर्ण कैसे है?

हर जगह अपनी एक लिमिटेशन में जीती है। परिवार जिसके अन्दर कई ज़िन्दगियां अपना-अपना लक्ष्य बनाकर जीती हैं। जिसमे सभी की धारायें अलग-अलग ही दिशाओ मे चलती है मगर, उन्ही दिशाओं मे आने वाली कमाई इसी परिवार की बनावट मे इज़ाफ़ा करती है। हर रोज या महिना यह चलता चला जाता है और इस रिद्धम से एक परिवार वाकिफ़ भी हो जाता है और अलग विभिन्न तरह के रूटीनों मे इसी इज़ाफ़े को बनाता और बढ़ाता चलता है। ये तो ठहरा एक मात्र वो पहलू जो किसी अन्य समझ या शख़्स के बिना भी चल सकता है। एक ऐसी धारा जिसने हम कई परिवारो को एक चैन स्सिटम की तरह रखा है जिससे हम एक घर को अनुमान मे भर सकते हैं और, अपने ही जहां इसकी लिमिटेशन से बाहर जाते हैं तब और, जब वहीं वापस भी आते हैं तब? जिसमे किसी भी चीज के किनारे नहीं होते। बस, उस सफ़र के नामी चिन्हित कौने बनने लगते हैं । जहां हर किसी के अपने होने का अहसास दिख जाता है। वहां पर एक घर के अन्दर घूसने वाले बदलाव व नई दिशाओ को कैसे समेटा जाता है?

इन्ही स्सिटम मे चलने वाला घर कितनी सारी चीजों को अपनाता है और कितनी ही चीजों को अपनाने के लिए छोड़ देता है? यहीं से मानकर अगर हम चले तो?

कुछ क्षण के लिए इसे देखते है... प्रदीप जिसके कई विभिन्न तरह के काम रहे हैं पर कभी भी अपनी चीज को रखने पर उनका विश्वास नहीं था पर जब अपने बने-बनाये दिनचर्या और माहौल से बाहर निकले तो हर जगह डांस करने जाने का मतलब समझ मे आया। "आपने कहां-कहां शोह किया है?” जब ये सवाल शहर में कई जगहों पर सुना तो अपने आने-जाने के बीच का सफ़र कितना महत्वपुर्ण होता है वो समझ मे आने लगा। लोग जब भी कहीं जाते हैं तो क्यों वो सोचते है की एक कैमरा होना चाहिये? ताकि उन रास्तों और जगहों की तस्वीरे खीचं सकें। शायद उन्हे कहीं पर कोई कौना मिल जाये। अब शायद, उनको उस सफ़र का ज्ञान और मुल्य ज्ञात होने लगा था और फिर एक दिन बैठ गए अपने कई अलग-अलग जगह से मिले आई-कार्ड, पर्चे और अख़बार मे छपी तस्वीरों को लेकर और उन्हे समेटने। घर मे अपनी मां कि साड़ियों का एक बक्सा खाली करवाया और उसमे ये सब की सब चीजें रख दी। वो खुद सब कुछ देखकर हैरान थे कि कितने सारे आई-कार्ड है और उनपर क्या-क्या छपा है? किसी पर कोई चेहरा छपा था तो किसी पर बस, नाम लिखा था। कोई रेडियम का बना था रात मे चमकने वाला। वो उन्हे देखने लगे। घर वाले भी उसी मे सब के सब देखते रहे की इनका ये करेगा क्या मगर वो उन्हे सम्भाल कर रखने मे लगे थे।

धीरे-धीरे हमें हर चीज का ज्ञान जब होने लगता है तो हमारे अनुमान भी गहरे होने लगते हैं। यह तो एक घर की बनावट मे एक मात्र कौना था मगर यह कौना और चीजें निर्मला जी के लिए खाली वो समान नहीं था जिसको सफाई करते समय खिसकाया भी जा सकता था। ये तो एक ताव-खूबसूरत हठ और दिखाने की शक़्ति बनकर रहता। पूरी गली मे वो एक-एक अख़बार को दिखाती जिमने उनके बैटे की तस्वीर छपी थी। उस जोश और ताव से जिसको दिखाने के आसपास मे बहुत कम मौके मिलते हैं तो ये अवसर क्यों वो अपने हाथों से जाने देती?

ये तो एक अपने लिए नज़र बनाने का सिलसिला है जो अक्सर शहर मे चलता रहता है। देखने और सुनने के बीच मे यही ऐसी सामग्री होती है जो ढांचे बनाती है। अब देखा जाये तो क्या ये दिखाना और बनाना एक परिवार के बीच मे घूमते माहौल मे क्या कोई नये नक्से खीचेगां? पता नहीं या इसे क्यों सोचे? मगर जब हम एक परिवार की बात करते हैं तो कहना हमेशा लोगो से शुरु होता है और उनके जरिये बाहर निकल जाता है। वो कैसे अन्दर आता और बाहर जाता है वो दिखने लगता है। कोई परिवार, कोई खेल करके कुछ तैयार कर रहा है वो थोड़ा आँखों से ओझल है।

जहां घर मे जाने के बाद चीजें दिनचर्या मे गुम हो जाती है। सफ़र घूम जाता है तो यह चीजों का बाहर निकलना क्या है? एक घर, परिवार, नज़र बनावट सुनने के बीच मे?

मान लेते हैं।... निर्मला जी कई ऐसे माहौल अपने घर मे खुद ही बना लेती हैं जिसमे एक-एक सफ़र अपनी जुबानी समेत बाहर निकलता है। कई सारी औरतों को कभी अख़बार, तस्वीरे या तोहफे सब कुछ दिखा देती है और वो उन्हे छू-छूकर देखती और कुछ पुछना शुरु कर देती हैं जो कभी इधर होती हैं तो कभी उधर। यानि के सफ़र मे कई ऐसे और सफ़र जुड़ जाते हैं। सुनाने के बीच मे माहौल का खुलना भी आरम्भ हो जाता है और बड़ी हसंकर कहती है, "अरे एक तो मिला नहीं वो वाला अख़बार देखती जिसमे ये बिलकुल साफ़ दिख रहा था और वहां के हीरो के साथ मे था इसका फ़ोटो।"

ये कहकर वो उसना बने अख़बार को भी बना देती। उस समय यह झूठ एक और रूपरेखा को जन्म दे देता।

लख्मी

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