Saturday, October 18, 2008

ये हक की पर्ची है

पर्चियाँ ही पर्चियाँ, जहां देखो पर्चियाँ ही पर्चियाँ।
कहीं राशन की है पर्ची तो कहीं तेल की पर्ची,
कहीं नम्बर लगाती है पर्ची तो कहीं इनाम पाती है पर्ची
मकान टुड़वाती है पर्ची तो कहीं मकान दिलवाती है पर्ची।

जहां देखो आज पर्ची का ख़ुमार है
आज लगा लोगों को पर्ची का बुखार है
फंसा है इसमे सब, वो शतरंज है पर्ची
टीवी, रेड़ियो भी बन गए हैं, मनोरंजन की पर्ची।


दक्षिण पुरी मे पर्चियाँ कटने का माहिना। बस, अब सुबह हो शाम पर्ची काटने वालो की लाइन लगी रहेगी जिसमे हर उम्र के लोग होगें।

आजकल दक्षिण पुरी मे बच्चो की रेज़गारी बहुत ज़्यादा है। जब देखो 10 से 15 बच्चे उतर आते हैं गलियों मे। उन 15 के 15 बच्चो मे जिसको थोड़ा लिखना आता है उसको पर्ची बनाने का काम सौंपा जाता है और जो जोड़ने मे दुरूस्त है उसको पैसे का कलैक्शन करने को दिया जाता है बाकि तो सारे भीड़ जमा करने के लिए चले आते हैं। जब तक दस का नोट न दे दो तब तक घर के आगे से टस से मस नहीं होते। "जय कारा" भरते रहते हैं, कभी श्री राम चन्द्र जी की जय तो कभी सीता माता की जय और थोड़ी सी देर मे ही इतना श़ौर मचा देगें की हार-थक कर या परेशान होकर कोई ना कोई अन्दर से पैसे लेकर आ ही जायेगा। एक बार तो देखा जाए ये सस्ते भी पड़ते हैं नहीं तो बड़ी उम्र के लोग तो 21 रुपये से कम मे नहीं मानते। वैसे कहते हैं कि आप अपनी श्रद्धा से जो देना चाहें दे सकते हैं और 5 का सिक्का दिखा दो तो ऐसा मूंह बनाते हैं कि पता नहीं क्या दिखा दिया हो। पर्चियों पर पहले से ही सबसे कम राशि 21 रुपये लिखकर रखते हैं बस, नाम लिखना बाकि रह जाता है। नाम लिखा और काम ख़त्म।

इन लोगों की मात्रा कम नहीं होती, ये भी 15 से 20 लोग होते हैं और 15 मीनट मे पूरी गली कवर करने की कोशिस करते हैं। लेकिन मौके पर इनमे से कोई भी नहीं दिखता। पता नहीं किस रॉल मे होते हैं। कभी-कभी तो ऐसा लगता है कि जिसे हमने चढ़ावा दिया था क्या ये वही रामलीला है या वो लोग यहां के नहीं थे।

अब पहले जैसी बात भी नहीं रही। पूरी दक्षिण पुरी मे गिनी-चुनी 3 या 4 ही रामलीला होती थी। जिसे देखने के लिए लोग 8 बजे ही तैयार हो जाते। कोई चारपाई उठाकर चला आता तो कोई कुर्सी, और गली की औरतें तो हाथों मे घर की पायदान बनाई बोरी दबाती और रामलीला के स्टेज के बाहर कोई अच्छी सी जगह चुनकर बैठ जाती। जहां से साफ़ नज़र आता हो। अब, इन्हे यहां से तब तक कोई नहीं हिला सकता जब तक के रामलीला ख़त्म नहीं हो जाती।

रामलील के भीड़ वाले दिन जो कलोनियों मे बहुत फैमस होते थे। जिनमे दबाकर भीड़ होती और चढ़ावा भी बहुत आता। 4 या 5 दिन का खेल ही जबरदस्त होता। जिसमे बैठने, चलने व खड़े रहने वालो तक को अपने मन के मुताबिक जगह नहीं मिलती थी। लोग दीवारों पर चढ़कर देखा करते। पहला दिन होता- ताड़िका वद्ध, दूसरा दिन- सीता स्वम्बर, तीसरा दिन- सीता हरन और चौथा दिन होता- कुम्भकरन का जागना और फिर उसके साथ मे युद्ध के सीन। इनमे तो बे-इन्तिहा चढ़ावा आता। सीता स्वम्बर के दिन तो लोग कन्यादान तक बहुत देते और ताड़िका वद्ध के समय तो देखने आई पब्लिक को भी रामलीला के पात्रो मे शामिल कर लिया जाता। ये खेल किसी मदारी की तरह से होता या ये समझ लिजिये की कोई तमाशाही के जाल हम फंस गए है। जिसमे फंसने का लुफ्त हमेशा उठाया जाता है।

जैसे- मान लेते हैं, दृश्य तैयार है।

रामलीला के स्टेज मे गुप अंधेरा है। सिर्फ़ नीले रंग की रोशनी इधर से उधर घूम रही है। हल्का-हल्का धूंआ पूरे स्टेज मे उस रोशनी से खेल रहा है। कुछ भी देख पाना मुश्किल है। सभी लोग महसूस कर रहे हैं अपने साथ मे बैठे शख़्स को कि ये ही है ताड़िका। दो लोग काले रंग के तिरपाल का सूट पहने स्टेज पर दिखाई देते हैं मगर धूंए की मे गायब हो जाते हैं। ऐसा खेल दबाकर चलता रहता है। लोगों के अन्दर आने वाले दृश्य के लिए जगह बनाने के लिए। विराना और पुराना मन्दिर फिल्म का बैकग्राउंड म्यूज़िक बहुत तेज आवाज मे चल रहा है। इतने मे किसी लड़की के चीखने की आवाज बहुत जोरों से आती है। लोग अपनी जगहों से उछल पड़ते हैं। लगातार तीन मीनट के इस अंधेरे मे सभी खोए हैं ये देखने की लालसा मे कि कुछ दिखे। सबकी निगाह स्टेज पर टीकी है।

स्टेज़ मे अब सफेद पर्दे के पीछे किसी के जाने की परछाई नज़र आती है। लोग उनके हाथों मे धनुष-बाण देखकर ये अन्दाजा लगा लेते हैं कि ये श्री राम हैं। मगर चीखती आवाजों मे ताड़िका का चेहरा नज़र नहीं आ रहा है। बस, सकबकाये से लोग अपने पीछे ही महसूस करते किसी को।

कोई माइक पर हर दम ये कहता रहता है, “वो देखिये आपके पीछे ही है वो डायन, जो रातों को आपके सपनो मे आती है और सदियों से ना जाने कितनो का खून पी चुकी है, वो रही आपके पीछे।"

सभी अपने पीछे देखकर हंसते रहते।

अब म्यूज़िक एक दम बन्द है, हर तरफ़ मे एक गहरी और ठहरी खामोशी छा गई है। इतने मे एक काले रंग की औरत काले रंग का बड़ा सा घाघरा और नीबूंओ की माला पहने स्टेज के अन्दर से बहुत तेजी से भागकर आती है और पब्लिक मे बैठे एक पतले-दुबले लड़के को उठा कर ले जाती है। रास्ते मे बैठे लोग तो डर कर भाग ही जाते हैं। स्टेज पर हल्की रोशनी छाई है। वो औरत उस उठाये लड़के के पेट को फाड़ती है और उसकी अंतड़ियों को खा जाती है। बाकि के बचे हुए इंसान को उस औरत के साथ मे नाच रहे छोटे शैतान खा जाते हैं।

एक बार फिर से सन्नाटा छा जाता है, सीन ख़त्म। अब वो दोबारा आयेगी तब तक वो पर्दे के पीछे से दिखते रामचन्द्र जी सामने आ जायेगें।

बस, इस रात उस डर से मिलने हर कोई चला आता। इतने लोग देखने को मिलते थे ऐसा लगता था कि पूरी दक्षिण पुरी यहीं पर उतर आई हो। हर कोई लुफ्त का अहसास करता था। वाह!-वाह! मगर, क्या करें ये सब अब यादें बनकर रह गई हैं। इसे बार-बार दोहराने से क्या होगा? ये याद कोई रावण का पुतला तो नहीं है कि उसे हर साल एक बड़े से मैदान मे हजारों लोगों के सामने फूंका जाए। या ये वो भी नहीं है कि घर के बड़े अपने बच्चो को कांधो पर बैठाए याद के होते टूकड़ों को दिखाने चले आए। ये तो सूखी है, जो कभी-कभी अपने मन के मुताबिक हवा पाने पर उड़ती हुई आँखों के आगे उतर आती है। पल भर के लिए दिखती है उसके बाद मे कहीं सिमट जाती है। वैसे ही जैसे आज के वक़्त मे ये लुफ्त कहीं सिमट गया है।

दरवाजे पर जोरों से ठक-ठक हुई और उसके साथ मे एक भारी सी आवाज भी।
"हां रे भाई, बाहर आईयों, भगवान ने याद किया है।"

बहुत अजीब शब्द थे, लेकिन कोई बाहर नहीं आया बस, एक आवाज आई।
"ओ भईया कोई नहीं है यहां, आगे जाओ।"

"अरे ओ मेडम हम बिखारी है के, भले काम से आए हैं यहां। जो भी कहना है नीचे आकर कहो।"

नीचे दो लड़के खड़े थे, बड़ी-बड़ी मूंछे और कठ-काठी एक दम रावण के जैसी, वैसे यहां इन साहब को रावण के नाम से ही जाना व पूकारा जाता है। रामलीला के दिन शुरू हुए नहीं कि ये अपनी दाढ़ी को बढ़ाना शुरू कर देते हैं। ताकि रामलीला के दिनों तक रावण की मूंछे असली की मूंछे बन जाए।

वो नीचे उतर आई और कहने लगी, “भईया अभी यहां कोई है तो नहीं तो पर्ची तो हम नहीं कटवा सकते।"

"बहन जी ये तो कोई बात नहीं हुई, भगवान के नाम पर तो देना ही चाहिये ना, साल मे एक बार तो आते हैं।"

"वो तो ठीक है भईया, मगर क्या करें? घर मे कोई भी नहीं है।"

"हमें घर मे कोई हो या ना हो क्या लेना, चल रे भाई तू बना 101 रूपये की पर्ची।"

"अरे भईया, सुनते क्यों नहीं है आप मैं नहीं दे पाउगीं।"

रावण साहब अब अपने अन्दाज मे आने लगे, बिना कला देखे ये अन्दाजा नहीं होगा की रामलीला मे क्या होगा? वो अपनी मूंछो पर ताव कसते तो कभी अपनी पट पर हाथ मारते, “जय शंकर की" हम पिछले सात सालो से रामलीला कर रहे हैं आप लोगों के लिए। मगर, हर बार हमें ऐसे ही कहा जाता है, ये तो कोई बात नहीं हुई। हर बार रामलीला के बारे मे केबल टीवी पर सीधा प्रशारण करवाते हैं, बड़े-बड़े नेताओ को बुलवाते हैं, ताकि उनको भी पता चले की यहां पर लोग अब भी बीते समय को मानते हैं। उसके बाद भी हम 51 रुपये के हकदार नहीं है। ला भाई ला 51 रुपये की पर्ची काट।"

"भईया हम वहीं पर आकर आरती मे चढ़ा आयेगें। हम तो हर बार देखने के लिए आते हैं, हर बार चढ़ाते हैं।"

"वो तो आपकी श्रद्धा है बहन जी, भगवान से कुछ मांगोगे तो आपको ही फल मिलेगा। हम तो कला के पुजारी है, कला के लिए क्या-क्या नहीं करते। दक्षिण पुरी मे नाचने वाले और गीतकारों को हम लाते हैं और तो और हम तो नेताओ को इसलिए भी बुलाते हैं कि उनके आगे आप लोग अपनी बात रख सकों। ये ही तो मौका होता है। "जय शंकर की" चलिए कलाकारों के नाम पर 21 रुपये तो दिजिये।"

"हमने सारी रामलीलाए देखी हैं, कोई भी रामलीला दस बजे से पहले शुरू ही नहीं होती इसलिए पर्ची कटवाने का कोई फायदा ही नहीं होता। आरती तक के दर्शन तो नहीं हो पाते। पहले तो आठ बजे शुरू हो जाता करती थी। अब तो दस के बाद होती है।"

"कहां से शुरू होगी आप ही बताइये, साढ़े दस बजे से तो लोग आना शुरू होते हैं। तब कहीं जाकर ग्यारह बजे भीड़ होती है। साढ़े आठ बजे से लोग नाटको मे ऐसे घुस जाते हैं कि उन्हे ये तक याद नहीं रहता कि कहीं कोई प्रोग्राम भी हो रहा है। हम लोग आप लोगो के लिए तो रामलीला करते हैं जब कोई आयेगा ही नहीं तो कहां से रामलीला शुरू करेगें हम। कभी-कभी तो हम ही लाइट कटवाते हैं ताकि कोई आए तो सही।"

"भईया जब कोई आता नहीं है तो क्यों करते हो आप रामलीला? मत करों, अब लोगों को टाइम कहां है? काम पर से रात मे आते हैं, खाना खाते हैं और बिस्तर पकड़ लेते हैं। काम मे निचौड़ देते हैं।"

"बहन जी, रामलीला मे जो कलाकार हैं वो भी तो नौकरी करते हैं, काम पर से आने के बाद मे आप लोगों के लिए एक जगह बनाते हैं। उनका क्या शौक है भला बताइये आप? सबके सब बीवी-बच्चो वाले हैं। उनमे बस, कोई चीज बाकि रह गई है जिसे वो दिखाना चाहते हैं। अब आप लोग देखने नहीं आयेगें तो वो भी अपने-अपने परिवार मे घुस जायेगें। काम ख़त्म। चलिये बहन जी, जय शंकर की बोलिए और 21 रुपये की पर्ची कटवा लिजिये।"

"तुम भी तो आधे से ज़्यादा तो डांस दिखाते रहते हैं, रामलीला तो खाली नाम की रह गई है अब तो।"

"ऐसी बात मत किजिये बहन जी, उसी की वज़ह से तो भीड़ रहती है। लोग तो वो डांस देखने ही तो आते हैं। कोई इसलिए आता है कि उसके घर का कोई डांस कर रहा है तो कोई इसलिए आता है कि रामलीला मे मैं भी अगली बार मे डांस करूगां। आपको मालूम है कि लोग रामलीला से पहले ही नाम देकर चले जाते हैं डांस करने का। जल्दी जाइये बहन जी, 21 रुपये लेकर आईये। अभी तो कई घरों मे जाना है।"

"कहां जाना है भाई, सारी गली तो यहीं पर जमा है। यहीं मागं ले लो आप सभी से।"

"जय शंकर की, लाइये सभी यहीं दे-दो और हां रामलीला मे आप सबका आना जरूरी है। अगर नहीं आए तो अगली बार से ये होगी भी नहीं।"


लाइन मे लगे हैं लोग हाथ मे लिए पर्ची,
स्कूल मे भी मिलती है दाखिले की पर्ची
कहते हैं, भगवान दूर नहीं है इसी जीवन मे सभी को हिसाब मिलता है
उसी भगवान के घर मे आज, पर्चियों से उसका प्रसाद मिलता है।

हाथों से छूट जाए तो अन्जान है पर्ची,
आदमी से पहले उसकी पहचान है पर्ची
किसी एक की ही नहीं, सब की है ये पर्ची
कोई भी घर के सामने आकर कहता है,
हमारे हक की है ये पर्ची।


लख्मी

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