Monday, October 13, 2008

उनका दुनियाना, फिर वापस लौटना

हमारे साथ घटते हर वाक्या चाहें वे बड़े हो या छोटे मगर, उनके साथ जुड़े कई ऐसे निर्णय होते हैं जो किसी समय के गवाह हैं। क्या हमारे निर्णयो के पीछे कुछ ऐसे सवाल हैं जो फिर से जीवन में लौटते हैं? या कोई ऐसा समय भी गुज़रा है जिसे सवालों ने नहीं घेरा हो?

अभी तक जिन किसी छुटे हुए समय या अहसास को जाना था तो उसमे निर्णय कम मगर कारण ज़्यादा था। जिसका रिश्ता जरूरत व ऐसे मौड़ से था जिसमे ज़बरदस्ती या फिर अपने परिवार को नियोजित करने की मांग थी। मगर श्री राजबीर जी से मुलाकात करने के बाद में लगा कि कारण बताने व तलाशने की सीमायें ख़त्म हैं। बस, खाली अपनी नियोजित समझ को कारण कहकर अपने से परे किया जाता है। जिसको "यही जीवन है" कहकर टाल दिया जाता है।

श्री राजबीर जी के खुद को दोहराने का ढांचा किसी नियोजित दुनिया कि तरफ़ इशारा करना नहीं था। जिसमे अगर हाथ डाला भी जाये तो ज़्यादा से ज़्यादा परिवार और जरूरत के ही अवशेष नज़र आयेगें। उनका अपने को अधछुपी ज़ुबान मे दुनियाने का ढांचा किसी ख़ास तरह के सवाल की तरफ़ धकेलता है, जो वापस लौटता है और अपने से बाहर किसी दुनिया में फैंकने से कोसता है। जो दो अलग-अलग जीवन को एक ही सवाल के नीचे रखने की कोशिस करता है, तलाश मे रहता है, जीने की इच्छा रखता है। मगर, शायद उसका वज़ूद कहीं सिमट कर रह गया है।

वे कहते हैं, “सन् 1970 मे मैं श्री श्याम नरायण जी के साथ में हनुमान चालिसा, भजन व किर्तन का रियाज़ किया करता था। सुबह से लेकर शाम तक हमारा नाता उन भज़नो व संगीत की धुनों से ही रहता था। श्री श्याम नारायण जी का परिवार एक महान आत्मा की तरह है। उनके घर व परिवार में दाखिल होते ही उन्ही गीतों, भजनों व संगीत की आवाज हमेशा सुनाई देती। जिसका अहसास एक मन्दिर की तरह होता। मन तृप्त हो जाता। मन मे मानो कितना आराम भर गया हो। मैं उनके साथ में हारमोनियम व घुनों मे अपनी ताल को मिलाया करता था।

एक टाइम आया जब घर ने मुझे अपनी ओर खिंचने की मांग की। हमारी कुछ नैतिक जिम्मेदारियां भी होती हैं ये शायद मैं भूल गया था। जब उनका मुझे अहसास हुआ तो मेरे आगे दो चीजें खड़ी थी जिनमे मेरे लिए बहुत समय था। मगर, उन नैतिक जिम्मेदारियों का क्या? जो अपने घर, परिवार , रिश्ते व समाज मे प्रति थी उससे मुहं नहीं फेरा जा सकता था। उस दौर में जब हम इन नैतिकता और अपने मनभावुक जीवन दोनों को एक साथ लेकर चलने की कोशिस करते हैं तो, नहीं चल पाते। बेहद नामुमकिन होता है। यहां पर चुनाव होता है। जिसमे हमारी नैतिक जिम्मेदारियां हमपर हावी रहती हैं। हमारा एक निर्णय पल भर के बाद ही सब कुछ साफ़ कर देता है। जब हम ये निर्णय ले रहे होते हैं तो हमारे आगे चुनाव की शक़्ल होनी जरूरी होती है मगर, वहां पर हमारे मनभावुक जीवन की कोई शक़्ल नहीं होती पर हमारी जिम्मेदारियों का चेहरा होता है। बच्चो, परिवार, रिश्ते व समाज की शक़्ल मे। सब कुछ जैसे नज़र आने लगता है। तब एक ही सवाल दिमाग में रहता है की हमारा मनभावुक जीवन हमारी नैतिकता मे स्थान नहीं पाता? या हमारी नैतिकता मे हमारे मनभावुक जीवन की कोई जगह ही नहीं है? यहीं पर दो तरह की राहें सामने खड़ी हो जाती हैं। अब कर भी क्या सकते हैं? चुनाव हो गया। हांलाकि सब कुछ सिमट कर छोटा सा हो जाता है। यहां पर आकर सारे हौसलें पस्त पड़ने लगते हैं?

आज काफी वक़्त हो गया है मुझे ये निर्णय लिए। आज भी जब मैं श्री श्याम नारायण जी के पास जाता हूँ और ये सारे हालात सुनाता हूं तो वे कुछ नहीं कहते खाली हंस पड़ते हैं।

जब ये बात श्री राजबीर जी सुना रहे थे तो दिमाग में कई सवाल और चीजें चल रही थी। हमारी नैतिकता मान-लो या फिर वो जीवन जिसकी कोई शक़्ल नहीं है उसे अपने मे कितने समय तक रख पाते हैं? आदमी कुछ किए जाता है, कोई कुछ किए को पूंजी मानता है, कोई जो किया उसे बीता हुआ समय मानता है तो इसमे वो निकला हुआ समय कहां गया जिसमे वो रहा? क्या वो गायब हो जाता है? कुछ सवाल जीवन मे वापस लौटते हैं। बस, उन सवालो पर हमने क्या किया और उन्ही सवालो को दोहराने पर हमें मिला क्या? के बीच की बहस ही हमें कई नये चेहरे दिखाती है। "करना और मिलना" किसी वस्तु, रकम व इनाम के भांति नहीं हैं। ये उस जवाब की भांति हैं जिसे चाहकर भी अपनी ज़ुबान पर लाया नहीं जाता।

नैतिक जीवन में बौद्धिक जीवन की जगह बनाने की उमंग या फिर इन दोनों के बीच की संधि।

कोई शायर है तब वे कोई पिता, मुखिया व कोई काम करने वाला नहीं है अगर, ये है तो वे शायर नहीं है। ये दो अलग तरह की पोजिशन क्यों है? या ये बनानी जरूरी है? श्री राजबीर जी की अपनी शारीरिक व्यवस्था अथवा अपने शरीर के साथ जुड़े हर काम व जिम्मेदारी को खींचना कोई मुश्किल काम नहीं था और अपने रियाज़ व गीतों की महफिलों के साथ अपनी कोई नई व असाधारण पहचान बनाना भी कोई जोरिक काम नहीं था। मुश्किल था तो वे सवाल व हालात जिसमे वे उनकी ज़िन्दगी मे उतरा पर, जब वे वापस लौटता है तो बहस खुद के साथ चलती है। वे कारण नहीं था वे एक स्थिति थी जिसमे चुनाव जरूरी था।

हमे लगता है कि हम अभी इन नैतिकता और उसकी जिम्मेदारियों, हालातों, ज़ज़्बातों व चितरणों मे काफी पीछे हैं। ये कुछ ऐसी सभायें हैं जो बैठाई नहीं जाती बल्कि अचानक बनकर उभरती हैं किसी ख़ास चित्र के साथ।

यहां पर भी श्री राजबीर जी का दुनियाना किसी ख़ास चितरण का ही अंग था।

लख्मी

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