Friday, November 28, 2008

किसी को देखना और किसी में होना

किसी को देखना और किसी में होना, ये किस समझ को खींचता है और उसमे आवाज़ का क्या रिश्ता है? अक्सर हम अपने सामने बैठे शख़्स को एक तात्पर्य दे देते हैं कि वो हमारे सामने है और हमसे बाहर है? वो जो सुना रहा है वो उसकी टेंशन या स्वीकृति उसमे उसका दाखिल होना और हाज़िर होना वो स्वर से, बोली से या समझ से हो सकता है। तो देखने वाली हमारी आँखे उसके बिन्दु तलाशती है और आँकती है कि वो किन शब्दों में अपनी हाज़री को बयाँ कर पा रहा है बस, नज़र का दायरा महज़ उतारे हुए तक ही सीमित रहता है। उस आवाज़ का आकार या गहराई समझ मे नहीं आती। जो किसी कंठ से निकल रही है।

आवाज़ का रिश्ता महज़ ब्यौरा या भराव के लिए नहीं होता। वो एक भाव देती है और अन्य भाव पैदा करती है। वो भाव जो वो पैदा कर रही होती है वो नियमित समय की अवधि का कोई जवाब नहीं होता। वो एक ख़ास तरह का हस्तक्षेप होता है। जिसमे हस्तक्षेप के मायने वहाँ तक होते हैं जहाँ तक हम अपने दाखिल होने की हदों को संभाल सकते हैं। संभालना इसलिये होता है कि हम अपने अनुभव के मोड़ पर है पर किसी कहानी के अन्दर जहाँ पर हम अपनी मौजूदगी का आभास कर पा रहे होते हैं। मगर मैं वहाँ तक पँहुचा कैसे उसकी जर्नी मे समय का भाव पता होना चाहिये और उसके साथ-साथ मे हस्तक्षेप किसी मे हाज़िर होने की "मैं हूँ" वाला को आँका या नियमित किया दायरा नहीं होता।

कोई अपनी ज़िन्दगी को बोल रहा है। कोई अपनी ज़िन्दगी को शब्दों मे उतार रहा है। वो सामाजिक क्रियाओं के कुछ ऐसे बटँवारे है जिसमे वो अपनी कोई अलग छवि या "मुझे अलग देखो" कि अपील लिए नहीं है वो उस सामाजिक क्रियाओ मे हस्तक्षेप करने के लिए ही उतरना होता है।

माना जाता है की दोनों तरफ़ मे अपने अनुभव से कुछ है। पर उस अनुभव मे आते दृश्य मेरे हाज़िर होने से परे नहीं है और वो पल ना ही उनकी कोई खींची गई तस्वीर जिसमे मैं अपने चेहरे को तलाशू या खोंजू। वो घूम रहा है। अब उस दायरे में जिसमे पहला कदम रखा जा चूका है। इस हाज़िर होने मे कभी एक तरफ़ा नज़र नहीं होती और ना ही अकेलेपन का अहसास। एक पहले से ही जगह, ज़िन्दगी, समा, दायरा है जिसमे "मेरे होने का आभास जितना जरूरी है उतना ही वहाँ पर जाने का पहला कदम।"

इसका होना खुद से भी होता है और समाने से भी ज्ञात होता है। इनमे अन्तर क्या है? उनकी "बोली" मे वो छवि होती है जो वो बना रहे है और हमारी हस्तक्षेपी दुनिया मे वो जमा होती जाती है। हम फिसलते नहीं उसमे। जो लैख लाता है उसमे हाज़िर का आभास उसका है। वो अलग-अलग केन्द्रों से होता है। मज़ा, जोश, टेन्शन, उलझन, कर्कसी, ख़टास का अहसास तो कभी अपनी महत्वपूर्णता यानी के एक तरह का पारिवारिक रिश्ता। पर सुनने वाले के लिए वो बहस होगी या कुछ और?

मैं उस हाज़िर मे अपने कदम रखता हूँ तो कैसे? उसके हाज़िर होने के आभास को मद्देनज़र रखते हुए या अपने कदमो को कोई दिशा देता हूँ? किस की आवाज़ मेरे हाज़िर होने को आगे की तरफ़ मे धकेलती है? लैख मे जो दुनिया है वो या जो अपनी दुनिया का एक पात्र या किनारा उसमे पहले से ही दाखिल कर चुका है?

लख्मी

जगह का बनना

इसे दक्षिण पुरी कहते हैं
लगभग बाराह या साढ़े बाराह बजे का वक़्त होगा। गाड़ी गली मे कई कपड़ों की रस्सियों को तोड़ती हुई अंदर आ घुसी थी। झुग्गी तो अभी पूरी तोड़ी भी नहीं थी और गाड़ी वाले ने सभी को अवाज लगाई की "चलों भाई किस-किस को चलना है अंदर बैठ जाओ।" सभी ने कपड़ों को साड़ियों और चादरों मे लपेटकर गठ्ठियाँ बाँध ली, पर कपड़ों के साथ-साथ लोगों ने दरवाजे, खिड़कियाँ, चौखट और टीन की छतें भी उखाड़ ली थी। वो भी तो ले जाना था। लेकिन एक ट्रक और चालीस लोग और उनका समान भी उसमे, ये बड़ा-बड़ा उखाड़ा गया समान, घरों का ढाँचा कैसे ले जाया जाए? कोई इसे छोड़कर जाना नहीं चाहता था। सभी ने जैसे-तैसे उसे भी ट्रक मे भरा और गठ्ठरियों पर बड़े समानों की तरह लद गए।

सभी सोच रहे थे कि "जाना कहाँ पर है? वो करीब ही होगी?” ट्रक मे बैठे सभी दस मिनट गाड़ी चलने के बाद मे बड़ी जोर से चिल्लाते या आवाज लगाते जिनमे से ख़ासकर आवाजे औरतों की होती "ए, भईया कहाँ ले जा रहा है और कितनी दूर है?”

वो ट्रक की ट्रोली की तरफ़ मे निकलती छोटी सी खिड़की से तेज आवाज मे कह देता "बस, आने वाला है यहीं पर है आप सब बैठ जाओ रोड खराब है।"

इतना कहकर वो चुप हो गया और थोड़ी देर के बाद उसने हमें यहाँ इस जंगल मे लाकर छोड़ दिया जिसे वो दक्षिण पूरी कह रहा था।



शुरूवाती दो दिन
दक्षिण पुरी जो अलग-अलग जगह की बस्तियों के विस्थापन से बनी है। जहाँ पर शहर की अन्य जगहों से लोगों को लाया गया। ओखला, पहाड़गंज और कितवई नगर। दक्षिण पुरी की गलियों मे जहाँ पर चालीस से पैंतालिस मकान हैं। कई गालियाँ तो एक ही जगह से आए लोगों से बनी हैं। पूरी गली एक परिवार की तरह से है। चाचा, मामा , ताया और पता नहीं क्या-क्या? सारी औरतों के चेहरे पर घूँघट हमेशा चड़ा रहता है। इन औरतों के बीच मे अक्सर दक्षिण पुरी की शुरुवाती बातों की कहानियाँ उछल पड़ती है।

कहती है, "जब हम यहाँ पर आए थे तो काफ़ी मारा-मारी होती थी। कभी घरों को घेरने के लिए तो कभी रात मे पेहरेदारी के लिए। हमारे तो सभी एक ही तरफ़ के लोगों ने एक पूरी लाइन ही घेर ली थी और किसी को अंदर ही नहीं आने दिया। रात भर सभी खाट डालकर बैठे रहते। चार सोते तो दो जागते, ऐसा ही चलता। पर शाम को बड़ा मजा आता था। हम तो चुपके से खेतों मे जाकर सब्जी तोड़कर लाते थे। ताजी-ताजी सब्जी मिलती कभी 'सेम की फली' तो कभी 'पालक' काफ़ी सब्जियाँ लगी थी। यहाँ दूध तो भैसों का मिल ही जाता था और शाम का खाना रोजाना सब्जी तौड़कर लाओ और बनाओ ऐसा रहता। जंगल तो था पर खाने को मिल जाता था सब ठीक ही था। शुरु के दो दिन मुश्किल थे पर कट गए।



दोबारा ढूँढते रहे हम तो
काम-वाम सब छूट गया था, इस घर के चक्कर मे। जैसी बातें वहाँ ओख़ला की बस्ती मे होती थी हमारे घर के आगे वैसा तो यहाँ पर कुछ भी नहीं था। मुझसे अक्सर कहते थे, "भोलू राम तू चिंता मत कर अपनी जगह और पक्के मकान मिलेगें" ऐसा सुनने से काफ़ी होसला बड़ता था। लेकिन हम जब यहाँ पर आए तो यहाँ तो खेती होती थी और कुछ पहाड़ भी थे। यहाँ पर खानपूर गाँव की तरफ़ के जाट-गूज़र लोगों के खेत थे। जो एक ही तरफ़ मे फैले थे जिस तरफ़ मे हमको जगह मिली थी वो कच्ची जमीन थी जो पता नहीं क्यों चौबिसों घण्टे गीली रहती थी। पहले दिन और रात को तो हम यूहीं उसी कच्ची जमीन पर अपने समानों पर ही लदे सोए रहे। बच्चों को हम पहले ही उनकी नानी के यहाँ पर सिकंदरा बाद मे छोड़ आए थे। बस, मैं और मेरी वाइफ ही यहाँ पर आए थे। दिन तो हमारा ये देखने मे ही निकल गया था की कितने और लोग हैं जो हमारी तरह यहाँ आए हैं और पता नहीं कहाँ के होगें? जैसे ही कोई ट्रक वहाँ आता तो यहाँ बैठे सभी की नज़रें उसी की तरफ़ जाती और समान उतारते और बैठते लोग दिखने लगते चारों तरफ़ घाँसे और खेत देख-देखकर मन ही नहीं भर रहा था। वहीं पर बार-बार नज़र घूम रही थी। फिर थोड़ी देर के बाद हमने समानों को एक तरफ़ मे रखा और चादर तानकर छाँव करने की सोची पर रात भी हमारी जागते हुए गुजरी।



शमसान तले थे सभी
"अरे यहाँ तो बड़ बुरा हाल था। ऐसी जगह दी जहाँ अगर एक छप्पर डालने के लिए डण्डा जमीन मे गाड़ते तो गड्डा खोदते ही हड्डियाँ निकलती थी। यहाँ तो ये दक्षिण पुरी पूरा शमशान था। लोग यहाँ पर लाश जलाते और दफ़नाते थे। आसपास तो पहले से ही लोग रहते थे। ये मदनगीर गाँव, खानपूर गाँव, तुगलकाबाद के लोगों का शमशान घाट था और यहाँ तो जब आए थे तो कभी भी जानवर निकल आते थे। शांप, नेवले, बिछ्छू, अरे मुझे याद है एक बार हम घर बनवाने के लिए नींव खुदवा रहे थे तो जमीन गीली थी। नींव को गहरा खोदना था। जब नींव खोदनी शुरू की तो कुछ हड्डियाँ निकलने लगी। जब तो कुछ नहीं हुआ पर जैसे ही जमीन मे से इंसानी आधी खोपड़ी निकली तो मेरी वाइफ के तो होस ही उड़ गए। वो तो बेहोस तो गई, उसे तो पता ही नहीं था की उसे तो नींव गाड़ने की पूजा करनी है। उसने तो साफ़ मना कर दिया था। यहाँ रहने के लिए उस समय वो पेट से भी थी, पप्पू होने वाला था। वो तो भागने लगी फिर काम हल्का करके उसे उसके पीहर छोड़कर आया और बाद मे खुद बनवाया ऐसा हुआ।

नेता जी अक्सर उस दिन को याद करते हैं और दक्षिण पुरी को अगर किसी को बताना हो तो शमशान घाट कहे बिना रह तो नहीं पाते।




कौने मे रहने का मज़ा
दक्षिण पुरी जहाँ-यहाँ आज मकानो की किमत बहुत है और कौने के मकानो की किमत तो दस, बराह, पन्दराह लाख तक है। कौने के मकान वाले लोग तो आज बैठे-बैठे लेन्ड लॉड हो गए है। गली मे रहने वाला हर शख़्स आज कहता है की काश हमारा कौने का मकान होता आज। लेकिन, जब यहाँ दक्षिण पूरी मे नये-नये बसे थे या जब दक्षिण पुरी बस रही थी तो कोई भी कौने का मकान लेने को राजी नहीं था क्योंकि आसपास बड़े-बड़े खेत और दूर-दूर तक दिखता जंगल तो हमेशा डर रहता था किसी जानवर के आने का कौने का मकान एक दम पिछड़ा सा लगता था तो सभी अन्दर का मकान चाहते थे। लोगों के बीच का और रात होने के बाद तो लूट-पात भी होती थी आसपास के कुछ (लठेत, शराबी-कबाबी लड़के लूटपात भी करते थे) तभी तो कोई भी अपने कमरे या छप्पर मे ही जगा खाली देखकर कुछ भी उड़ाकर ले जाते थे। हर वक़्त जान-माल ख़तरा बना रहता था पर आज तो कौने के मकानो मे लोगों ने दूकानें खोलकर किराये पर चड़ाई हुई हैं और घर बैठे-बिठाए तीन-चार हजार किराया आ जाता है साथ की साथ रोड लाइट, कलोनी लाइट अलग लगी है।




दक्षिणपुरी और अस्तबल
ओमी जी जिनके लिए यहाँ आना एक लम्बा और थोड़ा भड़कीला रहा। ओमी जी का ओख़ला बस्ती मे एक छोटा सा अस्तबल था जिसमे उनकी तीन गाये पलती थी जिनका दूध वो निकालते और बैचते थे लेकिन जब वहाँ से 1975 मे झूग्गी को हटाया गया तो अस्तबल भी टूटा। सभी तो ट्रको मे बैठकर यहाँ दक्षिण पुरी मे आ गए पर ओमी जी की गायों को लाने का ठेका नहीं लिया था सरकार ने तो उन्हें ही एक बग्गी मे गाये और घर वालों को लाना पड़ा। जब हारे-थके यहाँ दक्षिण पुरी मे आए तो खुद भी भूखे थे और गाय भी गायों को तो यहाँ खाने को एक हरा खेत मिल गया था पर ओमी जी की मुश्किले अब बड़ गई थी। क्योंकि वो गुजरों से पंगा नहीं लेना चाहते थे। गायें जब मर्जी खेतों मे घुस जाती और खेतों को खाती तो हमेशा ओमी जी गायों को बाँध कर रखते और हमेशा देख भाली करते पर उनका यहाँ दूध का काम बहुत चला था। यहाँ कोई खाने पीने का साधन नहीं था तो लोग स्टोव तो साथ ही लाये थे तो दूध लेकर चाय पानी का तो इन्तजाम कर लेते थे। लगभग सभी दस, बराग दिनो का सौदा साथ लेकर चले थे पर ओमी जी ने भी अच्छा अस्तबल सा बना लिया था एक बड़ा अस्तबल।




नई जगह के बनने का मतलब क्या होता है?
एक जगह का टूटना और कोई नई जगह का बनना इसका मतलब होता है की नये सपनों को जिन्दा करना सब अपने साथ-साथ घर बनाने का कुछ तो समान लेकर आए थे। अब एक झुग्गी तोड़कर झुग्गी मे तो वापस कोई रहना नहीं चाहता था तो लोगों ने अपना कच्चा-पक्का घरोंदा बनाने शुरू किया। लोग रोज दूर दो-छ: किलो मीटर पैदल जाते और बन रहे या टूट रही स्कूल की तरफ़ जाकर वहाँ से टूटी सिल्प, सिल्लियाँ उठा लाते और पहाड़ियों पर जाकर मिट्टी खोद-खोदकर भर-भर कर लाते। उस समय मे तो इंटे भी सस्ती आती थी तो अब लोगों ने अपने खुद से अपना घरोंदा बनाना आरम्भ किया। मिट्टी से चिनाई करते इंटे-दर-इंटे चड़ाकर कम से कम रहने लायक तो बना ही लिया। छत पर बस्ती से लाई सिमेंट और टीन की चद्दरे डाली और एक कमरे का घर तैयार किया। दिन भर मिट्टी खोदकर लाते फिर चिनाई मे लग जाते। अन्दाजे से दिवारें खड़ी करते। बस, मजबूती को देखकर और फिर जमीन को यूहीं मिट्टी का छोड़ दिया फिर उसी मे रहना भी शुरू किया।

लख्मी

जब रोशनी पड़ती है

लाल बिल्डिंग स्कूल, रमेश भाई उम्र मे 35साल के होगें और 17 सालों से मोची का काम करते आये हैं। पहले लाल बिल्डिंग स्कूल के बाहर एक 423 बस का स्टेंड हुआ करता था पर जब 423 बस का रूट चैंज हुआ तो वो बस स्टेंड अब खाली राहगीरों का अड्डा ना रहकर रमेश भाई का घर और कमाई का ज़रिया बन गया है। मतलब रमेश भाई ने उस बस स्टेंड को अपना घर बना लिया है।

एक कच्ची गीली मिट्टी से बनी ईटों की दीवारें और एक नीला और काले रंग के कड़क तिरपाल की छत। आगे खुद की मोची की एक छोटी सी दुकान। जिसे बनाये और जमाये हुए लगभग 10साल ही हुए हैं। 7 साल तक तो इन्होनें मोची का ही काम किया। पेटी लेकर गली-गली घूमते थे। लेकिन काम मे तरक्की हुई और एक ठीया डाल लिया।

18 साल पहले रमेश भाई अकेले ही राजस्थान से आये थे नौकरी की तलाश में। दिल्ली मे काम बहुत है ये सोचकर। दिल्ली से होकर जाते उनके दोस्त बताते थे "दिल्ली शहर में पैसा लुटता है बस, लुटने वाला चाहिये" तो बस, यही लूटने की उंमग लिए निकल गए अपने गाँव से लेकिन रहेगें कहाँ? ये तो बिलकुल ही नहीं सोचा था। घरवालों से पूछा तो था की क्या हमारा कोई रिश्तेदार दिल्ली मे रहता है? तो शायद, जबाब नहीं मिला। फिर भी एक ख़्याब लिए और जेब मे कुछ पैसे लिए ये जनाब दिल्ली मे आ गए। रहने को घर नहीं था, तो पहले घर ढूंढने को सोचा पर कुछ हासिल नहीं हुआ। किससे बात करते? किससे पूछते? ये तो सब दिमाग में हवा था। कोई चेहरा था ही नहीं जिससे कुछ पूछा जाये? फिर भी जहाँ चाय पीते वहीं से कभी चाय वाले से पूछ लिया करते। काम की और रहने की, लेकिन किसी को यहाँ की भागदौड मे बातें करने के लिए किसी हमसफ़र की तो तलाश है पर काम के लिए किसी हैल्पर की नहीं।

रमेश भाई दिखने मे तो ठीक-ठाक थे तो बेलदारी करने की सोची पर हिम्मत नहीं हूई। रात होते-होते जब खाने की तिलमिलाहट उठी तो मार्किट में पँहुचे जहाँ पर किराये पर रोज़गार मिलता था। मतलब वे काम जिनमे अपनी तरफ़ से कोई पैसा लगाने की जरूरत नहीं पड़ती थी। जैसे- कबाड़ी को साईकिल, सब्जी, फल, आईसर्किम बैकने वालों के लिए रेहड़ी और मोची के लिए पेटी। इतना देखकर रमेश भाई ने फौरन हिसाब लगाना चालू किया और कुछ दिनों तक इन मे से किसी काम को करने का फैसला किया मगर सस्ता। रमेश भाई ने वहाँ पर बातचीत की।
एक शख़्स से पूछा, "जी मोची की पेटी हमें चाहिये तो क्या करना होगा?”
वे शख़्स ऊपर से नीचे तक उन्हे देखते हुए, रमेश भाई से बोला, "कहाँ के हो? पहले भी कभी काम किया है? यहाँ पर किसी को जानते हो? रहते कहाँ हो?”

इतने सारे सवाल सुनकर रमेश भाई थोड़े चुप से हो गए और लरकते-लरकते हुए उगंलियों को मरोड़ते हुए बोले, "जी मैं यहाँ पर नया हूँ पर आप मुझपर भरोसा कर सकते हैं। मैं अभी तो यहीं रहता हूँ। खाना खाकर यहीं मार्किट मे सामने वाले होटल के बाहर उस सिल्ली पर सो जाता हूँ।"

न जाने उस शख़्स ने क्या देखा और पेटी देने को कह दिया पर पेटी का किराया था 20 रुपये। चाहें कमाई हो या ना हो, मंजूर है। रमेश भाई ने झट से कहा, "ठीक है, मालिक।"

रमेश भाई की जुबाँ से मालिक सुनकर तो उस शख़्स के चेहरे पर एक ललचाई सी मुस्काम छलक पड़ी बस, यहाँ से शुरू हुआ। दिल्ली मे घूमने का दौर और लोगों को, जगह को, सफ़र को, जूतों से, पैरों से, देखने का। कहते है ना 'आदमी की इज्जत उसके पैरों से होती है, इंसान की पहचान उसके जूतों से होती है। तो बस, इंसान को पहचाने का मौका यहाँ से ही मिलेगा। बस, निकल पड़े शहर को नजदीकी से देखने के लिए।

मैं रमेश भाई को वहाँ से गुजरते हुए देखता था। कभी लोगों के बीच, कभी परिवार के बीच तो कभी जूतों की भीड़ मे एक लम्बे छज्जे की छत, बाहर की दीवार पर लटके लैदर के चमड़े के नये जूते, एक तरफ़ खाली शॉल लाल, काले नीचे कट्टा बिछाकर, एक पेटी, कई चमड़े की कटे चिथड़े। उन्ही मे हमेशा घिरे रहते थे। आज जब मैं उनके पास गया तो वो एक जूते मे नया शॉल फिट कर रहे थे। एक नीचे रखा था सिलोचन लगाये हुए और दूसरे मे कील ठोक रहे थे। मैं पँहूचा उनके पास बातें करने के लिए। शाम का वक़्त था शाम भी अभी अधूरी थी यानि के तीन सवा तीन का बख़्त होगा? अब उनके बात करने के लिए वैसे तो जा नहीं सकते थे तो एक जूता लेकर गया। थोड़ी बातचीत हो कोई बहाना तो मिले।

मैंने कहा, "आपने अपने ठीये को बड़ा ही खूबसूरती से सजाया हुआ है। क्या बात है। आपने कैसे सजाया ये?”
रमेश भाई ठक-ठक करते हुए बोले, "अरे कहाँ भाई साहब, ये तो बस, इस वज़ह से है की यहाँ से आने-जाने वालों को दिखे तो सही कि यहाँ पर होता क्या है? और मिलता क्या है? अब हम शॉहकेश तो रख नहीं सकते इसलिये इन्हे ही दीवार पर कील गाड़ कर टाँग देते हैं।"
मैंने कहा, "आपने तो ये पेटी भी बड़ी ही हसीन बनाई हुई है। ये फोटो, ये स्टीकर, क्या बात है कैसे सजाते हैं आप ये?”

रमेश भाई अब जूतों को सुखने के लिए रखते हुए बोले, "इसे खूबसूरत नहीं बनायेगें तो किसे बनायेगें। हम तो इसकी पूजा भी करते हैं। भाई साहब आप क्या बात कर रहे हैं। अब इस पर जो फोटो लगी है वो क्या है की हमारी पंसद है। मैं और मेरी पत्नी की ख्याइस है की हम किसी बर्फ़ वाले इलाके मे घूमने जाये तो हमने ये तस्वीर लगाई है। बस, इसी को देखकर उस जगह के बारे मे सोचते रहते हैं कभी तो जायेगें?

उनकी जुबाँ पर जाना था कश्मीर और फोटो लगा था स्वजीलैंड का बीच-बीच मे जूतों पर उनकी नज़र थी अपनी बात को बडाते हुये, "और ये स्टीकर भाई साहब जिन रिश्तो मे हम कुछ नहीं कह पाते उनमे ये स्टीकर और हमारी पेटी बहुत कुछ कह देती है। "आज नगद कल उधार" भाई साहब इस पेटी को बारह साल हो गए है पर आप इसे देखकर ये सोच नहीं सकते की इसको कितना टाइम हो गया होगा? है ना! लगती है ना एक दम जवान।"

मैं क्या पूछता, जब वो इतने प्यार से अपनी पेटी के बारे में बता रहे थे तो मैं तो उन्हे टोक भी नहीं पाया तो पूछता क्या? मैंने उनसे कोई सवाल नहीं किया बस, मैंने कहा, "और बताइये अपनी इस हसीन पेटी के बारे मे इसकी सजावट, रूप और नाज़ुकपन के बारे में? क्या-क्या लगाते हैं इसपर इसे इतना खूबसूरत बनाने के लिए?”

रमेश भाई, बीढ़ी जलाते हुए और एक ग्राहक को 'जूते रख दो थोड़ी देर के बाद आना' कहते हुए, "मुझसे अभी तक किसी ने मेरी पेटी के बारे मे बात नहीं की थी आपने की है तो आज तो आपको बताउँगा।"

अब तो उनकी अवाज़ मे बड़ा ही शाँतपन था। लगता था की वो किसी को तो बताना चाहते थे। बीढ़ी का लम्बा कश़ और धीमी सी आवाज में बोले थे। अब तक मेरे जूतों को वो भूल ही चुके थे अंदर घर में से कुछ बनाने की आवाज आ रही थी शायद, उनकी पत्नी होगी?

"ये तो अब की पेटी है भाई साहब। जब मैं इसे लेकर घूमता था तो सभी मेरी पेटी को देखते थे हीरो-हिरोइन के पोस्ट कार्ड और उनके बीच मे छोटे-छोटे शीशे पेटी के चारों तरफ़ लगे थे। जब मैं चलता था तो शीशों की चमक रास्तों की छाँव वाली जगह, दीवार, चेहरे, कपड़े और समान सभी पर पड़ती थी तो हीरे की तरह चमकती थी। स्टीकर मैं शेरों-शायरी वाले लगाता था ताकी लोगों को मैं सड़क पर मिला तो टाइम पास करने के लिए कुछ तो हो। मुझे उस समय अजय देवगन पसंद था तो उसी के पोस्ट कार्ड लगे होते थे। पेटी के अंदर एक पोस्ट कार्ड साइज का शीशा जो ढक्कन पर ही लगा होता था। जब पेटी खुलती थी तो वो तभी दिखाई देता था। उसमे तो पेटी खुलने के बाद घरों की बालकनी ही नज़र आती थी और कभी-कभी मेरे पीछे से गुज़रते लोग ही नज़र आते थे। जिसकी खूबसूरती से तो मुझे उसका वज़न भी हल्का लगता था और मज़ा भी आता था। मेरे दोस्तों की टोली मे तो लोग मुझे चमकीले के नाम से बुलाते थे।"
मैंने पूछा, "पर आईना आपने पेटी में क्यों लगाया?”
रमेश भाई फौरन जवाब देते हुए, "मैंने तो वो सिर्फ़ सजावट के रूप मे लगाये थे। बाहर तो चमक के लिए अगर किसी के चेहरे पर लाइट पड़े तो वो मेरी तरफ़ उस चमक को देखते हुए जरूर देखेगा और अंदर तो मैंने अपने लिए और ग्राहक के लिए क्योंकि कोई भी कहीं भी लिए वो अपने आपको वहाँ पर देखना जरूर चाहता है। जैसे बस स्टेंड पर अगर हमें कोई देखकर हँसे तो हम चेहरे पर कुछ लगा तो नहीं यही सोचते हैं, कहीं ख़ास जगह या ख़ास शख़्स से मिलना तो तब या सुबह से शाम तक काम किया हो तब पर चेहरा देखते जरूर है। पर साहब मेरे पेटी के वो पोस्ट कार्ड साइज के टीवी जैसे शीशे मे तो मुझे जगह ही दिखती थी। जहाँ मैं बैठा होता था और वो चेहरे जिनके मैं सिर्फ़ जूते ही ग़ौर से देख पाता था।"

इतना कहकर रमेश भाई बीढ़ी तो ख़त्म कर ही चुके थे। अब अपना काम भी ख़त्म करना चाहते थे और इतना कहकर जूता उठाकर उसे धड़ा-धड़ ठोकने लगे। मैंने अपने जूते लिए पचास रुपये दिए और आने के लिए उठ खड़ा हुआ एक मुस्कुराहट के साथ और रमेश भाई अपनी उसी लाइन मे जुट गए जहाँ पहला नम्बर भी उन्ही का है और आखिर भी...।

रमेश भाई पुराने जूते की मरम्मत के साथ नये जूते भी बैचते हैं। रमेश भाई, "भाई साहब अगर आपको नये जूते चाहिये तो हमें मत भुलना सस्ते मे लगा देगें।"

उन्होंने पैसे बोरी के नीचे रखे और फिर काम चालू कर दिया और मैं भी वहाँ से निकला और रास्ता पार करने के बाद पीछे मुड़कर देखा तो रमेश भाई फिर से बीढ़ी जलाकर आराम से धूआँ हवा मे उड़ा रहे थे।

लख्मी

इसमे सभी शामिल है

कला का हमारे आसपास और समाज मे विभिन्न तौर का रिश्ता बना हुआ है जो मानने और जानने के बीच ही टिका रहता है और शायद इससे ही समाज चलता है। हाथो के बाँटने से उपजता है और एक हाथ से दूसरे हाथ कि लेन-देन से फैलता है। अगर यही समाज है तो फैलाव है क्या?

दो भागों के दरमियाँ ही कला का रूप उभरकर आता है। और किसी एक जीवन मे भी इसका आधार सामान्य तौर पर नहीं होता। कोई कला पैदा करता है तो कोई कला को बढ़ाता और चलाता है।
दोनो के ही महत्वपूर्ण कार्य योग हैं।

कला पैदा करने के ढाँचे हमारे आसपास ओझल हैं पर कला को चलाने और बढ़ाने के ढाँचे नज़र आते हैं। ढाँचे और कला अब भी वही हैं जो सिखने-सिखाने के दौर मे रहते हैं।

कला पैदा करना क्या है? कई लोग जो अपने जीवन के तरीकों को कोई उपकरण देते हैं जो शायद कार्यशील भी होता है पर उसका बाहर आना अपनी जगह पर रहने के दायरों से बाहर ही होता है। तो ये क्या है?

एक शख़्स से मुलाकात हुई, राजू जी जो बहुत अच्छे एक्टर हैं और कई अलग-अलग तरह के नाटक भी कर चुके हैं। एक नाटक मण्डली भी बना रखी है जिसमे वो अलग-अलग लॉकेल्टी मे जा जाकर नुक्कड़ नाटक करते हैं और अपने रॉल को खुद लिखते हैं। कैसे? और कहाँ से? उनकी एन्ट्री होगी उसे तैयार करते हैं पर कभी भी अपने ब्लॉक या इलाके मे नुक्कड़ नाटक नहीं करते। बहुत कम लोग हैं जो शायद ये जानते होंगे कि वो नुक्कड़ नाटक भी करते हैं।

अपनी जगह से बाहर मे अपनी कला को दिखाना क्या है? क्या है जो वो अपने यहाँ नहीं दिखा सकते? बाहर दिखा सकते है?

ये कोई ऐसी कला नहीं है जो किसी को खुश करने वाली हो। अपने लिए एक जीने का तरीका होता है अथवा वो किसी ढाँचे या स्पेस का इंतजार करती है? क्या हर किसी को खुलने के लिए किसी ख़ास जगह या शख़्स का इंतजार होता है?

एक और शख्स के बारे मे बताता हूँ, जो गिटार सीख रहे है अभी और काम पर से आने के बाद अपनी छत पर बैठे गिटार पर अगुंली चलाते रहते हैं। उनका रियाज़ अपनी छत पर ही चालू रहता है। गानों कि उन्होंने कॉपी बनाई है और उसी मे लगे रहते है पर आजकल उन्होंने एक टाइम बनाया हुआ है बाहर लोगों के साथ मे इसको बांटने का जैसे ही वो कोई गाना बजाने मे सक्षम हो जाते हैं रिदम, ताल, लय मे सबमे परफेक्ट हो जाते हैं तो रात मे गली मे खाट बिछाकर अपना गाना बजाने लगते हैं। जिससे शायद कोई सुने या ना सुने पर जो लोग गली मे खाट बिछाकर सोते हैं वो सुनते हैं और बड़े शौक से।

मेरे हाथों से कोई चीज़ बन रही है या आकार ले रही है वो मेरे लिए क्या है? और मैं उसे अब रोजाना बना रहा हूँ तब वो क्या है?

बस्ती के काफी पुराने शख़्स घसीटाराम जी के पास जाओ तो वो अपनी कॉपी का जिक्र करते हैं। उसके कितने पेज थे? उनपर क्या-क्या लिखा था? और किन-किन रंगो के पेनों से, सब पता है उन्हें। उसी से अक्सर बात शुरू होती है जिसका लगभग वही पेज हमेशा खुलता है जिसमे वो पहली बार 'रसिया' गए थे। वे लिखा होता है। मगर असल मे वो कॉपी है ही नहीं। वो जानते हैं हमारे सुनने कि इच्छा को और बैठने कि ललक को। हर बार वो उस माहौल को बनाने मे समक्ष हो जाते हैं।

किसी आकार और रूप को देखने कि नज़र मे कला उभरती है तो बिना आकार और रूप के वो क्या है? कोई कुछ बनाकर दिखा दे वो कला और जो अपनी बातों मे लीन कर ले या मोह ले वो जादूगर। पर इसके अलावा जानना क्या है?

लोग जानने और बनाने कि कग़ार मे कलाकार छुपाते हैं और कलाकार कि कग़ार मे गुरू। गुरू जिसका रिश्ता इनके बीच उपजने का होता है। वो उपजना जिसके अंदर कई सारी बातों का पुष्टीकरण हो।
हाजिर जवाब, शातिर, अपनी पब्लिक को समझने वाला, हर चीज पर बोलने वाला

एक छवि है और एक छवि को सोचते हुए ऑदा। जो नवाजे जाते हैं लाइनो से।
जैसे, घाट-घाट का पानी पिया है, पुराना चावल है या गुरु आदमी है।

एक जो पढ़ा लिखा है और दूसरा जो देखा दिखाया है। यानि जहाँ पर रहता है वहाँ के बारे मे हर बदलाव को देखा और समझा है पर ये क्या है समाज मे?

ज्ञानी, जिसके लिए कोई कोना या जगह बनाने कि जरुरत नहीं। वो शख़्सियत अपने आप मे एक ढाँचा पाये हुए है। उसको जीते हैं कि उसकी समझ का कोई ना कोई हिस्सा हम मे या हमारे बच्चों मे उतर जाये जिससे आने वाला समय और अभी का चलता समय बड़ी सहजता से गुजरे फिर चाहें वो किसी भी चीज का ज्ञान हो।
ये एक अन्तर ही तो है, ज्ञानी और कला मे अंतर लेकर जीते हैं लोग।

कला जो आकार या रूप लेकर कलाकार बनाती है तो ज्ञानी जो ज्ञान पाता है। वो किसी जगह, शब्द या जीवन को समझता है तो वो कला नहीं है वो तरीका है। इसमे फिर लैवल काम मे आता है। कला अटपटा लगने लगता है। यहाँ बनता है तरीका। उसके जैसे तरीके अपनाओ और अपनी लाइफ़ जीओ।
ज्ञानी जो जगह बनाने मे जूझता नहीं। वहीं कलाकार अपनी जगह बनाता है। उसकी जगह तैयार नहीं होती वो जगह तलाशता है। कला बाँटने वाले ढाँचे नज़र आते हैं।

कुछ कला अपने दायरों को बनाती हैं। लोगों मे आने को उत्सुक होती हैं। "मुझे देखो" कि अपेक्षा होती है। जिसमे किसी शख़्स कि शख़्सियत बनने और काम, रिश्तों के अलावा एक ख़ास पहचान बनाने कि लालसा होती है। एक चेहरे कि खुशी के साथ।

जानने और मानने का दौर रहता है।
मैं जानता हूँ - जन्म होना।
मैं मानता हूँ - जन्म को दोहराना।

ये खेल है, इसमे सभी शामिल है।

लख़्मी

नदी का घाट

बहुत बार देखा है की जब हम रोज़ाना घर से काम और काम से जगह में वापस घर आते हैं या यूँ कहिये की जो जहाँ है, वो वहीं घूमफिर कर आ जाते हैं। चाहें जितना भी चले, जितना भी उड़े अपनी जगह लौट आते हैं। मगर सैकड़ो पंछी आसमान मे उड़ते है कुछ घर आने के लिए उड़ते हैं कुछ उड़ने के लिए उड़ते है।

शायद हम वही है हमारी सोच नदियों की भाँति बहती रहती हैं। जो धीरे-धीरे नये पड़ाव, नये किनारों को पकड़ती है फिर भी वो थमती नहीं है। उसका पानी सर्दी, गर्मी, आँधी-तूफान मे भी गतिपूर्ण रहता है। अपना ताज़ा स्पर्श लोगों को देता है। नदी जहाँ ठहराव लेती है वहीं एक घाट बनता है। लोग जहाँ आकर धर्म से और खुद से जुड़े संबधो को आहुति दे कर चले जाते हैं। समय वहाँ बदलता रहता है तो कभी इंतजार में रहता है।

कहने को तो किनारें या घाट लोगों के लिए एक क्रियाकलाप का स्थल है। मगर इस स्थल को बनाये रखने वाले छोटे-छोटे झुंड उसे हर तरह से रचनात्मक रखते हैं कि जो भी इसे देखें ठहराव न कहे। अपने शरीर का मेल समझ कर उतार देते हैं फिर नया चोला पहन लेते हैं। समाज निरंतर चलता रहता है। इस का रुख चारों दिशाओं मे अपने पाँव पसारता रहता है। हमारी लाइफ रोज़ाने के नियमबद्ध जीने को चुनौती देती है। हमें अपनी तरह जीने का संदेश देती है।

हम देखें कि क्या-क्या हमारे आसपास संदेश मिल रहे हैं। समाज जगह को चिन्हित कर के छोड़ देता है मगर वहाँ आसपास रहने वाले लोग उस जगह को गहरा करते हैं। जिससे चिन्हित करने का सही मायनें और वज़न सामने आता है।

नदी का घाट एक संकल्प, लक्षय धारण करने की जगह है। पुरानी पोशाकों को बदल कर नई पोशाक धारण करते हैं और अपने पिछले कर्मो को विसर्जित कर के नये कर्मो का लेखा-जोखा बना लेते हैं। ये वैसा ही है, जैसे किसी पत्थर या शीला पर बने पुराने निशानों को मिटा कर दोबारा से वज़ूद को गढ़नें की शुरूआत करना।

हम ऐसा करते सकते हैं। इस के लिए संधर्भ या मौका ढूंढने की क्या जरूरत है हर पल तुम्हारा है फैसला तुम्हारा है। आज मानव कि समझ में अपने कर्मो के मेल को धोकर जो मिलता है वो उनकी कालगुजारी का वज़न है। जिससे आत्मा को शूकून मिलता है। शहरों में रहने के बावज़ूद लोग तरह-तरह के धर्मो को आहुती दिया करते हैं। आहुती तो एक दान की तरह है। किसी ने कहा है, “दान-पून्न करने से मन मे लीन घुल जाता है। जीवन हजारों बार अपने समक्ष आहुती देता ही रहता है।

राकेश

Tuesday, November 25, 2008

हर शख़्स एक पहेली है

दक्षिण पुरी मे कई जगहों व लोगों से मुलाकात करने के बाद मे कई सवाल उभरे और उनके साथ मे उभरें कुछ शख़्स जिनके जीवन के सवालों को हम चाहकर उस अहसास के साथ मे नहीं रख या समझ सकते जो किसी की ज़िन्दगी के सार हैं। जिनसे उसने अपने जीवन के कई मूल्यवान किनारों को दोबारा से समझा या बनाया है। ये कुछ लोग जिन्हे किसी ना किसी ऑदे के नीचे रखकर देखा जाता है लेकिन इनके ज़रिये बनने वाले माहौल जो हाँलाकि वो माहौल नहीं होते जिनसे हम ये कह सकते हैं कि एक नाटक जो बस्ती के बीच के दायरों को तोड़ देता है। बल्कि ये वे माहौल है जिनसे पड़ोस, आसपास, लोग, समाजिक नितियाँ और कलाए जुड़ती है।

ऐसे कई लोग हैं। जिनके किसी पल को उभार कर ये समझा जा सकता है कि ये आखिर मे कर क्या रहे हैं? अपने आसपास और समाजिक नितियों के बीच।

नाटक ही जीवन है...
राजू जी जो बहुत अच्छे एक्टर हैं और कई अलग-अलग तरह के नाटक भी कर चुके हैं। एक नाटक मंडली भी बना रखी है। जिसमे वे अलग-अलग लॉकेल्टी मे जा-जाकर नुक्कड़ नाटक करते हैं। और अपने रॉल को खुद लिखते हैं। कैसे? और कहाँ से? उनकी एन्ट्री होगी, उसे तैयार करते हैं। लेकिन एक सवाल हमेशा उनसे बात करने पर उभरा की वे कभी भी अपने ब्लॉक या इलाके मे नुक्कड़ नाटक नहीं करते। बहुत कम लोग हैं जो शायद ये जानते होगें कि वो नुक्कड़ नाटक भी करते हैं। अपनी जगह से बाहर मे अपनी कला को दिखाना क्या है? क्या है जो वे अपने यहाँ नहीं दिखा सकते मगर बाहर दिखा सकते है?

माना, ये कोई ऐसी कला नहीं है जो किसी को खुश करने वाली हो। अपने लिए जो एक जीने का तरीका बनता है। वो किसी ढाँचे या स्पेस का इंतजार नहीं करती। क्या हर किसी को खुलने के लिए किसी ख़ास जगह या शख़्स का इंतजार है?


संगीत से जुड़ी कायनात...
एक शख़्स हैं जो गिटार सीख रहे हैं अभी। अपने काम पर से आने के बाद अपनी छत पर बैठे गिटार पर अगुंली चलाते रहते हैं। उनका रियाज़ अपनी छत पर ही चालू रहता है। गानो कि उन्होनें एक कॉपी बनाई हुई है। उसी मे हमेशा मश्गुल रहते हैं। पर आजकल उन्होनें एक टाइम बनाया हुआ है जैसे ही वे कोई गाना बजाने मे सक्षम हो जाते हैं। जैसे रिद्दम, ताल, लय सबमे परफेक्ट हो जाते हैं तो रात को गली मे खाट बिछाकर अपना गाना बजाने लगते हैं। जिससे शायद कोई सुने या ना सुने पर जो लोग गली मे खाट बिछाकर सोते हैं। वो सुनते हैं और बड़े शौक से।


बीता समय बड़ा नाज़ुक होता है...
आज भी घसीटाराम जी के पास जाओ तो वो अपनी कॉपी का जिक्र करते हैं। उसके कितने पेज थे? उन पर क्या-क्या लिखा था? और किन-किन रंगो के पेनों से, सब पता है उन्हें। उसी से अक्सर बात शुरु होती है। जिसका लगभग वही पेज हमेशा खुलता है जिसमे पहली बार उनका 'रसिया जाना' लिखा है। मगर वे कॉपी है ही नहीं। वे जानते हैं किसी के सुनने कि इच्छा को और बैठने कि ललक को। हर बार वे उस माहौल को बनाने मे समक्ष हो जाते हैं।


अजी सुनते हो क्या...
अक्सर गली मे आवाजों का खेल रहता है। सभी अपने-अपने डैग तेज आवाज मे चलाकर कॉम्पटिशन करते हैं। जिसकी भी आवाज तेज होती, वो जीत जाता यानि के उसके डैग के चलने से बाकियों की आवाजें दब जाती और वे अब अपना रौब दिखा सकता है पूरी गली मे। सामने वाले घर मे भी इसी का भूत सवार है। हमेशा शान्त रहने वाले घर मे विजय जी एक सीडी प्लेयर ले आये थे। अब सीडी प्लेयर के आगे डैग क्या करेगें? विजय भाई तो अपने काम पर चले जाते मगर उनकी बीवी उसे तेज आवाज मे चलाकर अपने सुबह का काम निबटाती रहती और काम के ख
ख़त्म होने तक उसकी आवाज पूरी गली मे गूँजती। मैं अक्सर दोपहर मे अपनी छत पर बैठ जाया करता था, तो वो मुझे देखकर अपने सीडी प्लेयर को बन्द कर दिया करती थी। बस, मेरे हाथ मे एक डायरी रहती थी।


वो सामने वाला घर...
गली के कोने के घर की दीवार पर एक शख़्स फोटो स्टूडियो के लिए बैकग्राउंड पर्दे बनाया करते हैं। सभी उनकी पैन्टिग को कुछ देर तक तो देखते रहते मगर ज़्यादा देर तक वहाँ पर कोई खड़ा नहीं होता और उन्हैं पैन्टिग बनाते हुए छोड़ जाते। चॉल्स अंकल को पैन्टिग बनाने का शौक है, मगर शहर मे शौक को पैशा बनने मे ज़्यादा वक़्त ही कहाँ लगता है। मैं अक्सर उनके पैन्टिग बनाने के वक़्त मे उनके साथ बैठ जाया करता हूँ। ये गली का वो कोना है जहाँ पर गर्मियों मे भी बहुत अच्छी हवा लगती है। मैं भी वहीं पर उनको देखकर जमीन पर कुछ बना लिया करता। वो अपनी पैन्टिग बनाने मे व्यस्त रहते तो मैं कभी कुछ बनाने मे, तो कभी कुछ लिखने मे। यही सब कुछ चलता रहता था हमारे बीच। एक दिन शाम मे पाँच या छ: बजे के टाइम मे वे मेरे घर आये। उनके साथ मे एक शख़्स और थे। उनके हाथों मे एक बैग था। उन्होनें मुझे "Hello How are you?” कहा और बातचीत आगे बड़ी। वो मेरी पढ़ाई और भविष्य के बारे मे पुछते गए और देखते-देखते उन्होनें अपने बैग मे से एक पीले पन्नों की किताब निकाली और मुझे देकर चले गए।


वो पहला ख़ुमार...
जतन लाल जी ढोलक के माहिर है। उनकी ताल पर उनके थिरकते पाँव और उनकी जुबाँ से निकलते गीत किसी भी महफिल को सजा सकते हैं और लोगों को मदहोश भी कर सकते हैं। उनके गीत शादियों मे गाए गए गीतों से टक्कर भी ले सकते हैं, मगर अपने परिवार की रोक-टोक पर वो कभी भी ये जाहिर ही नहीं कर पाते। कहते है, "एक बैटो-बेटियों वाला और नाती-पोतो वाला आदमी ढोलक की थाप के साथ-साथ नाचेगा या औरतों के साथ मे गीतों मे बहस करेगा तो लोग क्या कहेगें? अज़ीब तरीके से देखेगें लोग।"

इसी डर को लेकर वो अपने गीतों को कहीं किसी कोने मे बसाए हुए हैं। वे कहते हैं, "कला कभी छूप नहीं सकती वो गुलाटियाँ मारती जरुर है।" वे कभी-कभी नशे के ख़ुमार मे निकल पड़ती है। वे दिवानापन और नाच उठता है सारे परिवार के साथ। बस, फिर क्या होता है? जिस जतन लाल जी को कोई नहीं जानता वो भी ये देखने चले आते हैं कि पहली बार के नशे का ख़ुमार है और थिरकने वाले पाँव रुकते नहीं और जुबाँ कभी अटकती नहीं। ना जाने कितनी बार पहली बार के नशे के ख़ुमार मे कितने गीत निकल गए होगें। वे सवाल लेकिन अब भी कहीं जीवन मे अटक गया है। जिसका जवाब तलाशना किसी के बस का नहीं है।


कई नक्शे बनाये हैं उनके हाथो ने...
लाला प्रसाद जी पिछले कई सालों से लोगों के घर बनाते आये हैं। पेशे से मिस्त्री हैं। पहले के कई सालों तक ये उन जगहों पर खड़े रहा करते थे जहाँ पर इन घर बनाने वालों की भीड़ रहती है। इस भीड़ को शहर की कई जगह पर देखा जा सकता है। जहाँ पर दिन के चड़ते-चड़ते इतने लोग जमा होना शुरू हो जाते हैं कि भीड़ को भीड़ कहना भी गलत लगने लगता है। कई माहिरो का मेला हो जाता है वो। जहाँ पर नौसिखया भी खड़े हैं और गुरू भी। उन्ही को चुनने चले आते हैं लोग। वे जगह हैं, चिराग दिल्ली, दक्षिण पुरी की विराट सिनेमा और आठ नम्बर मोड़, और भी कई होगीं।

अब ये ठेकेदारी मे काम करते हैं। जिसके बिनाह पर और इनके काम की मेहनत से इनको दिल्ली के बाहर भी ले जाया जाता है। घर, कोठी और ऑफिस बनाने के लिए। इन्होनें दक्षिण पुरी मे बहुत कम मकान बनाये हैं लेकिन गज़ के हिसाब को लेकर बहुत कल्पना रखते हैं। इनका अब यही काम बन गया है। इनकी गली मे अक्सर कोई भी घर बनवाने की सोचता भी है तो अक्सर यही उनके घर मे बैठे नज़र आते हैं। जमीन पर कुछ लाइने खींचते हुए या कॉपी पर कुछ बनाते हुए।
कितना पैसा लगेगा? कितना मटिरियल होगा? कितनी इन्टे होंगी या कितनी सिमेंट की बोरियाँ लगेगी। ये सब को सोचते हुए वो नक्शा बनाते नज़र आते हैं।

पैसो का अन्दाजा और जगह का अनुमान देते हुए उन्होनें, गली मे अभी तक कई ऐसे मकान हैं जिनके नक्शे इन्ही के हाथों से होकर गुजरे हैं। कई लोगों ने तो छोटे-छोटे हेर-फेर इन्ही से अपने घर मे करवाए हैं। जैसे किचन, चबूतरा और टंकी। ये सब की सब, जब बनाई जाती है या घर मे इनकी नई जगह बनानी हो तब कोई ना कोई माहौल बना होता है। वो बनाने के ये पैसे भी नहीं लेते बस, दबादब बीढ़ी और चाय पीते रहते हैं।


क्या अदा क्या ज़लवे...
राजेश भाई कभी किसी टाइम मे बहुत अच्छे बॉडी बिल्डर हुआ करते थे। कई कॉम्पटीशन मे इन्होनें हिस्सा भी लिया है पर कभी जीते हैं या नहीं, ये नहीं कहा जा सकता। ज़ीम करते-करते मे कई हड्डियों के और नशो के बारे मे इन्होनें जान लिया है और अच्छी बॉडी होने से इनको दक्षिण पुरी के एक नये ज़ीम कॉचिंग करने की जॉब मिल गई। जहाँ पर पैंतीस लड़के हैं इनके पास एक्सॉइज़ कराने के लिए और पॉज़िंग के लिए भी। हर रोज़ तो बॉडी बनाने की ही एक्सॉइज़ कराया करते हैं मगर बीच-बीच मे बॉडी दिखाने की भी। जिसे पॉज़िंग कहा जाता है। जहाँ आइने के सामने कई लड़के अपनी बॉडी को पॉज़ बना-बना कर देखते और उसमे नये तरीकों से देखने की नज़र होती साइज़, स्टाइल, तरीका, स्पेशिलिटी, बहतरीन कट और बैलेन्स।

इन सबकी अपनी एक आँख रहती है। जो राजेश भाई बखूबी जानते हैं। एक बार इनका मंडी हाऊस मे कॉम्पटीशन था और इन्होनें अपने तीन लड़के तैयार कर लिए थे। कॉम्पटीशन की वज़न कैटेग्री थी। 60 किलो, 70 किलो, 75 किलो, 80किलो, 85 किलो, 90 किलो और उसके ऊपर भी। राजेश भाई के लड़के तो 60 किलो के वज़न मे उतर रहे थे।

ये वहीं पर अपने लड़को को पॉज़िंग करके दिखा रहे है। अपने कपड़े उतार कर तो इनके एक लड़के ने कहा जो इनका बहुत चहेता था जिसको लेकर इनके दिमाग मे बहुत कुछ था वो बोला, "भईया आप भी उतरिये ना 75 किलो के वज़न मे।"

ये कुछ बोले नहीं और बस, हँसकर सारी पॉज़िंग कराते रहे।


उनका उकसाना...
काफी पहले एक जगह जो हमारे दरमियाँ थी। वहाँ पर कई लोग आया करते थे। वो जगह वैसे तो एक देसी कल्ब थी। जहाँ पर सुबह और शाम मे कई लड़के आते थे। लड़के, बुर्ज़ग हर उम्र के लोग आया करते। कई तो अपनी नौकरी ख़त्म होने के बाद मे आते थे तो कई महज़ हवा खाने के लिए ही आते थे। वहीं पर कैलाश भाई आया करते जो सरकारी नौकरी करते। शहर की सफ़ाई करने की उनकी ड्यूटी जैसे ही ख़त्म होती, वो सीधा ऑफिस से वहीं पर चले आया करते। सभी लड़के अपनी-अपनी एक्सॉइज़ मे लगे रहते। वो भी अपनी एक्सॉइज मे लग जाते। वो काफी पुराने थे एक जगह के इसलिये किसी से कुछ नहीं कहते बस, आते और अपनी एक्सॉइज़ मे लग जाते। एक वही थे जो पूरे कपड़ो मे एक्सॉइज़ किया करते, नहीं तो बाकि चाहें अभी हाल ही मे आये हो बस, हल्की सी बॉडी के टाइट होते ही अपनी कमीज़ उतारते और अपने पम्प होते शरीर को आइने मे देखते या वहीं पर नज़र मारते हुए दबादब सैट पर सैट मारते जाते।

बॉडी पर इसका कोई खासा प्रभाव नहीं पड़ता मगर दिमाग मे साइज़ बड़ता ही नज़र आता। एक बार एक लड़के ने कहा, "पता है भाईयो कैलाश उस्ताद की बॉडी क्या धांसू है, मस्त है बेटा, बाईस्कैप देख जरा नहीं तो चेस्ट देखले और सोल्डर तो भंयकर ही है। देखना है? उस्ताद जी उतारो कपड़े उस्ताद उतारो आप।"

वे जानते थे की ये लड़के उनके साथ मे क्या कर रहे हैं या क्या खेल बनाया जा रहा है मगर फिर भी वो हँसते-हँसते कपड़े उतार देते और जैसे-जैसे लड़के बोलते वे वैसे ही अपनी बॉडी को पेश करने मे लग जाते।


एक धक्के की चाहत...
गली और उसमे होने वाले अवसर, कई ऐसे चेहरों को दिखाते हैं जो कभी देखे तो थे लेकिन उनका ज़ोहर कभी आँखो के सामने नहीं आया था। जब वे सामने आ जाता तो उनको देखना अच्छा लगता है। चलो हम उन सभी अवसरों मे से एक अवसर को देखते हैं।

ढोल बज़ रहा है। दबादब... सब देख रहे हैं। एक-दूसरे को देखकर हँस भी रहे हैं। ढोल जैसे-जैसे अपनी ताल पकड़ता है वैसे-वैसे सबके पाँव उठने लगते हैं पर कोई उस घेरे मे नहीं आता। जो उस ढोल को सुनने के लिए लोगों ने बना दिया है।

सब खड़े हैं, देखे जा रहे हैं और इंतजार कर रहे हैं किसी के उस घेरे मे उतरने का।

इतने मे सब दो-दो कदम आगे हो गए। एक लड़की मे अपनी साथ वाली को उस घेरे मे धक्का मारा... पहले वो लड़की आनाकानी करती रही फिर उनमे थोड़ी खींचातानी हुई फिर धीरे-धीरे वो ढीली पडने लगी और एकदम उस घेरे मे उतरी और दबाके नाचने लगी। अब तो ढोल की भी आवाज और ताल तेज हो गई और उन पैरों से बहस करने लगी जो उस घेरे मे उतरे थे।

सभी तैयार थी। एक धक्के के लिए। बस, अब तो धक्के का रिवाज़ शुरू हो गया था। सभी एक-दूसरे को धकेलने लगी।

लख्मी

Friday, November 21, 2008

'कम्पलेन्ट' और 'इन्तजार' की दुनिया

समाज के कई खेलों मे एक खेल ये भी है। जिससे चलता है दुनिया का गोला।
कम्पलेन्ट और इन्तजार से लदा समाज कभी सिकुड़ता नहीं है वो अपने पाँव फैलाता रहता है और इसके फैलाव मे फँसे हम लोग हमेशा सोचते हैं कि इसमे हम सेफ हैं। लेकिन इसका जोर हमारे सेफ रहने के दायरों को खोख़ला कर देता है।

हमारे आसपास बने इस समाज मे कुछ लोग इन्तजार कर रहे हैं तो कुछ लोग कम्पलेन्ट कर रहे हैं मगर ये क्यों है? उसका किसी को पता नहीं है। हम अपने से ये कभी नहीं पूछते की हम किसके इन्तजार मे है? हम क्यों इन्तजार मे है? या फिर हम किससे कम्पलेन्ट कर रहे हैं? हम क्यों कम्पलेन्ट कर रहे हैं?

इन सवालों को देखा जाये तो, ना तो समाज सोचता है और ना ही उसने रहते लोग। हम तो ये भी नहीं सोचते की इन सवालों के दायरों मे हम क्या हैं? क्या सोचते हैं? बस, इसके भागीदार बनने से हम अपने आपको एक साफ़ और क़्लीन कोने मे कर लेते हैं। ये सोचकर की जिम्मेदारी अब हमारी नहीं रही।

कसूर होना, ना होना या रह जाना क्या है? और इन्तजार होना, ना होना और रह जाना क्या है?

मेरी मानों तो ये किसी फोलडर से कम नहीं होता जिसमे चीजें रखकर भूली जाती हैं। हमारे आसपास घूमते लोगों मे दो तरह के लोग और दो तरह के सवाल हैं। जैसे-

पहले शख़्स:- आज किसी से मिलो तो वो इन्तजार मे है, कोई मौके के, कोई साथी के तो कोई किसी ख़ास वक़्त के और अपने कदमों को ठोस रूप से कहीं गाड़ लेता है। अब वो तब तक नहीं हिलेगा जब तक की वो इन्तजार ख़त्म नहीं होगा। हर कोई अपने अन्दर किसी ख़ास की तस्वीर बनाकर बैठा है जिसके इन्तजार मे वो अपनी ज़िन्दगी को बिता सकता है। कई रियाज़ किसी के इन्तजार धरे हैं। जिसको खोलने वाला कोई नहीं है। या है तो वो आया नहीं है। ये इन्तजार की हद है। लेकिन इससे होगा क्या? अपने साथ या जिसका इन्तजार कर रहे है उसके साथ?

दूसरे शख़्स:- इन लोगों से मिलो, तो वो किसी ना किसी को कोस रहा होता है। कभी वक़्त को, कभी साथी को, कभी परिवार को, कभी अपने को तो कभी मेनेजमेन्ट को। इसमे वो अपने आपको किनारे पर रहने वाला एक शख़्स बना लेता है। साफ-सुथरा और कुछ ना जानने वाला। ये दनिया इतनी बड़ी है कि इसमे सब कुछ घुलने लगता है। समाज मे कई लोगों के साथ मे ये खेल चलता है। जिसमे दोष होना और ना होना भी एक बिसात की तरह से फैला है। बाकी सब किरदार हैं। काफी सारे लोगों से बात करने पर लगा की जैसे, कई रियाज़ इसी खेल ने कहीं खो गए हैं। जिसका कोई कौना नहीं बन पाया है। अब सोचो इससे होगा क्या? अपने साथ और उसके साथ जिसको कोसा जा रहा है?

सीधे लव्ज़ो मे कहे तो ये हमारे आसपास मे एक खेल की भांति ही है। जिसमे समाज से सवाल करने वाला ही अहम किरदार है। उसके बाद सब कुछ गड़े-मुर्दो की भांति उख़ाड़ना बाकि रह जाता है। जितना गहरा उख़ाड़ो खेल उतना ही मज़ेदार बनता जाता है और अपना दायरा इतना बड़ा या गहरा बना लेता है कि उसमे सारे रिश्ते-नाते ख़ोख़ले लगने लगते हैं। फिर चाहें उन रिश्तों को बनने मे जीवन के कितने ही महत्वपूर्ण साल लगे हो।

ये होता क्यों है?, इसका होना क्या लाता है? इसमे क्या ठहर जाता, क्या रूक जाता है और क्या जम जाता है? और इसका निवारण क्या है?

लख़्मी

महफ़िलनामा

महफ़िलो का दौर न रुका है न कभी रुकेगा,
बस, मंजिले मिलती रहेगी और कारवाँ बड़ता रहेगा।
हम अपने रियाज़ से किसी न किसी हुनर और कला को जिन्दा रखेगें,
और इम्तिहान-ए-ज़िन्दगी का सिलसिला यूँही चलता रहेगा।

चाहते ना चाहते हम और आप ऐसी ही महफ़िलों मे शामिल होते हैं, जहाँ मन के उड़न ख़टोले पर सवार होकर कंहकारों की जुँबा से उनकी बैचेनियाँ बयाँ होती हैं। जिसमें अपने आसपास ही से अपनी खुद की बनाई दुनिया को कविताओं, शायरियों, गीतों और किस्से-कहानियों की फुलझड़ियों को सजाने वाले शख़्सो को जानना होता है। वे अपने रियाज़ मे अपनी ज़िन्दगानी बताते हैं। उनकी ख़ासियत, उनकी पहचान का सबब है यानि वज़ह है। ये वे लोग हैं जो अपनी पारिवारिक ज़िन्दगी की सभी तरह कि जिम्मेदारियों को निभाते हैं। बर्सते इसके साथ-साथ दूसरों के लिए सौगातों की नित नई ईमारतें तैयार कर रहे हैं और अपने सच्चे स्वरूप को तलाश रहे हैं। अपनी लेखनी से दुनिया को तरह-तरह से देखने के नज़रिये बना रहे हैं। समाज की हर ज़रूरत और हर नौकरी पैशेवर शख़्स होने पर भी इनकी दुनिया का कौना बहुत बड़ा है। जहाँ ये अपने आप को मुक़्त समझते हैं और अपने ऊपर परिस्थितियों को हावी नहीं होने देते। ज़िन्दगी के कई मौड़ो, रास्तों का सफ़र तय करते हुए।

वक़्त की तेज रफ़्तार मे ये रचनाकार चंद लम्हों के अफ़सानो की चादर बुन ही लेते हैं। ये अपनी सोच और समझ के फ्रैमो से झांककर दुनिया का चित्रण करते हैं। महफ़िले इन कलाकारों का मन्च नहीं होती, ये महफ़िलों को सांझा माहौल कहते हैं और अपनी शैलियों से एक-दूसरे पर खुद को प्रकट करते हैं। इन महफ़िलों के बनने का कोई निर्धारित समय नहीं होता। बस, सुनाने की इच्छाए जगती है और ठिकाने बनने लगते हैं। शहर की कई जगहों पर ये कौने नज़र आते हैं। जो अपने बौद्धिक रूप से अपना आश़ियाना बनाये हुए हैं। कभी गली के कौनो मे, बस की सीटों मे, सड़क के किनारों मे और किसी की छत पर ना जाने कितने ऐसे माहौल सजते हैं।

वो कमरा जिसके दरवाजे पर किसी के खट-खटाने की ज़रूरत नहीं, जिसकी चौखट है लेकिन फैलाव की हद नहीं है। यहाँ अपने बौद्धिक ज़िन्दगी के पहलुओ को समझने का मन्जर बनाया जाता है। जिसमे अपना रियाज़, कलायें और सोच-विचारों की गहराइओ को समझने का प्रयास किया जाता है। हर व्यक़्ति ज़िन्दगी मे एक इवेन्ट बनाता है। अपने जुस्तजू मे मश्गुल रहने वाले शख़्सों मे घुलने-मिलने के लिए।

ऐसा ही एक समा, जिसमे वक़्त की कोई कमी नहीं थी और ना ही किसी काम की चिंता। सभी अपने मे घुले थे। दोपहर का वक़्त भी एक रंगीन रात का अहसास दिला रहा था। महफ़िल मे बैठे सुनने वालो के मुँह से "वाह-वाह" के स्वर निकलते तो माहौल मे गति आने लगती। एक-दूसरे की रचनाओं को बारी-बारी सुनकर मजा आने लगता। ऐसी ही अपनी खूबसूरत और मन पर जीत पा लेने वाली रचनाओं को लोग सुनाये जा रहे थे और शायरी की पंक्तियों मे खोते जा रहे थे। ऐसा लगता जैसे की लख़नवी मुशायरों का मन्जर उभर पड़ा हो। वो रात मे शमाओं को रोशन करने वालो की किवाड़ो पर आवाजों से दस्तक देने लगे और पल भर मे गीत या कोई शायरी ख़त्म होते ही "वाह-वाह क्या बात है, क्या बात है। बहुत बड़िया-बहुत बड़िया" माहौल के शौर मे जाने कहीं खो से जाते। कोई इश्क मे डूब कर ऊपर ना आने का मजा बयाँ करता तो कोई दर्दे-इश्क की गलियों से दिलरूबा की बे-वफाई को तक्दीर का फसाना बताता।

उस महफ़िल के जादूगर जिनको शहर एक झटके मे कहीं भूल जाता है। ना जाने कितने लोग बिना किसी की यादों मे ही ज़िन्दा रहते हैं। शहर मे वो जाने जाते है तो बस, उनके काम व रिश्तों से। उनका क्या परिचय बना या बता सकता हैं?

महेश कुमार, उम्र 35 साल वो दिल्ली के बत्रा अस्पताल मे केन्टीन का काम सम्भालते हैं।
विजय कुमार, उम्र 34 साल वे दिल्ली की सड़कों पर ऑटो चलाते हैं।
सुरेन्दर सर, उम्र 32 साल वे दक्षिण पुरी मे एक ट्यूशन टीचर हैं।
प्रमोद राज, उम्र 34 साल दक्षिण पुरी मे एक स्टेशनरी चलाते हैं।
सुभाष कुमार, उम्र 23 साल, दक्षिण पुरी मे सब्जी का काम है इनका, कभी मन कर जाता है तो फेरी लगाने के लिए भी निकल पड़ते हैं ।
सोहन पाल, उम्र 36 साल ये दिल्ली के बत्रा हॉस्पीटल मे किसी अन्य डिपाटमेन्ट मे काम करते हैं।

ये सभी अपने काम के ज़रिये दिल्ली जैसे भागते-दौड़ते शहर मे कुछ पहचान हासिल कर पाये हैं। लेकिन क्या ये जो इन छोटी-छोटी महफ़िलो मे दिखते हैं वो शहर के किसी कौने मे अपना रूप बनाये हैं? हम चाह कर भी उस पहचान व परिचय को नहीं उभार पाते हैं जो कोई शख़्स अपनी कला व रियाज़ से बनाता है। इनके रियाज़ मे कई लोग बसे हैं। ये लोग अपनी इच्छाओं व कल्पनाओं को सुनाने के लिए कई पाठकों की उम्मीदें लेकर जीते हैं।

अर्ज है, दर्दे इश्क की दवा लादे कोई,
हमें भी दो घूंट पिलादे कोई।
ज़िन्दगी मे दर्द-जख़्म तो बहुत मिले,
ज़रा मौत को समाने लादे कोई।

दक्षिण पुरी, पहली महफ़िल, दिमाँक- 27 जून 2008, समय- शाम के 4:00 बजे

राकेश

Wednesday, November 19, 2008

कोरिडोर, एक नज़र

खान पूर से मूलचन्द फ्लाई ओवर तक के सफ़र मे दिखने वाले कई लोग। जो ना तो सवारी है, ना घुमने आए लोग, ना तस्वीरे खींचने वाले हैं, ना बस चलाक है और ना ही किसी की जेब काटने वाले हैं। ये कौन है? जो सबसे ज़्यादा नज़र आते हैं।

काला रंग, मोटा खादी का कपड़ा, नारंगी रंग की जैकेट और उसी रंग की कैप पहने, ये पूरी सड़क पर भरपूर दिखाई देते हैं। कुछ प्राइवेट बस के कन्डेक्टर तो इन्हे छेड़ने के अन्दाज मे बैण्ड वाले भी कहकर पुकारते हैं। दिन भर ये उसी जगह पर खड़े दिखते है जहाँ पर सवेरे दिखे होगें। कभी जगह बदलती नहीं है। ये कौन है?

इन्हे ना तो हम ट्रफिक पुलिष वाले कह सकते हैं और ना ही कोई सिविलियन शख़्स जो ट्रफिक ज़्यादा हो जाने पर हाथ मे डंडा पकड़े खड़ा हो जाता है। चलिये इन्हे हम खुद ही एक नाम देते हैं। ट्रफिक सहायक।

ट्रफिक भरे रास्तों पर या इस रोड पर पहले नज़र आने वाली वर्दी सफेद और नीले रंग की होती थी। हर जगह, हर समय कभी तो सड़क के किनारे पर खड़े होते थे तो कभी ऐसी जगह पर जहाँ से वो सब कुछ देख सकते हैं मगर उन्हे कोई नहीं देख पायेगा। ताकि चुपके से धर लिया जाए। "ला बेटा सौ का नोट।"

बी आर टी कोरिडोर, बनने के 6 महिने तक, हर जगह छाया रहा। टीवी, न्यूज़ चैनल और लोगों की बातों मे। इसके शुरू होने से ही कई आन्दोलन भी शुरू हुए। मरने वालो की भी तादात बड़ गई। जब देखो बी आर टी को बताया गया किसी ना किसी मौत से। अब सड़क पर मरने वाले लोग सारे बी आर टी से ही मारे जा रहे थे। शायद, ऐसा हुआ भी होगा। छोटी कालोनियों मे तो ये गज़ब ही तरह से फैला था। बसों के आने से सवारियाँ कई प्राइवेट बसों कि कम हो गई थी। ये और लड़ाई शुरू हो गई सड़क पर।

कोरिडोर के आ जाने से दिल्ली के कई लोगों को नौकरी के साधन मिले। खानपूर से मूलचन्द के रास्ते मे देखा जाये तो लगभग 127 लोग हैं जो कोरिडोर के आसपास काम करते हुए नज़र आते हैं। जिनकी उम्र की कोई सीमा नहीं है। इनमे 25 साल से 45 और 50 साल से भी ज़्यादा के हैं। पूरा रोड इन्ही से भरा हुआ दिखता है। इनमे से कोई हाथ मे कॉपी व पैन लिए खड़ा होगा, कोई कार वाले से लड़ रहा होगा, कोई चुपचाप किसी का नम्बर लिख रहा होगा, कोई सड़क पार करने वालो को रोक रहा होगा, कोई बस लेन को खाली करा रहा होगा, कोई बस, खाली सड़क को निहार रहा होगा, कोई किसी से बातें कर रहा होगा तो कोई किसी को रास्ता पार करा रहा होगा। ये नज़ारे पूरे कोरिडोर मे फैले हैं।

हमारी भी कुछ इन्ही ट्रफिक सहायको से बात हुई, जिसमे उन्होनें अपने शहर के साथ रिश्ते को बताने की कोशिस कि और साथ-साथ ये भी की ये सिलसिला कहाँ से और कैसे शुरू हुआ? क्या हम जानते हैं कि जो इन कामों मे हमे सड़क के किनारे नज़र आते हैं वे लोग कौन हैं? और उनका शहर को देखने का नज़रिया क्या है?

ट्रफिक सहायक- शेख़ सराय कोरिडोर
"मैं तो ठेकेदार की वज़ह से आया हूँ। पहले तो कोई काम नहीं था मेरे पास, ठेकेदार है हमारा उसने लगवाया है मुझे। मैं आज 42 साल का हूँ । जिसके लिए शायद कोई काम नहीं होता, हाँ कभी चौकीदारी का काम जरूर मिल जाता है। लेकिन वो भी किसी की सिफ़ारिश से ही हो पाता। काम के लिए घर मे बैठा था। ठेकेदार हमारी जान-पहचान का है उसी ने लगवाया है। पहले तो मैं पुल बनवाने मे काम करता था। दिल्ली मे मेरा सबसे पहला यही काम था। जमीन की लम्बाई-चौड़ाई नापना। चौकीदारी ही करता था मैं वहाँ। तो उसमे लगातार काम तो होता नहीं था। कभी 3 महिने तो कभी 6 महिने। लेकिन जब थोड़ा अनुभव हुआ तो काम 3-3 साल का मिलने लगा। अब तो जब तक जीवन है तब तक लगे रहेगें। यहाँ से अच्छा मिल जाता है।"


चिराग दिल्ली बस स्टेंड, टाइम- रात 8:00 बजे


ट्रफिक सहायक- कृषि विहार कोरिडोर
"मेरी तो जगह ही बदलती रहती है। कोई फ़िक्स नहीं है। कभी कहीं तो कभी कहीं। ये मेरी पहली नौकरी है। मैं बहादूर गढ़ का रहने वाला हूँ। जहाँ के बहुत सारे ड्राइवन बीआरटी बस चलाते हैं। यही काम मिला पहला तो यही कर लिया। सही है पैर जमाने के लिए। लेकिन बस, दिन मे बहुत दिमाग ख़राब हो जाता है साला, ना चाहते हुए भी सिर मे ढोल से बजने लगते हैं। रात मे भी दिमाग सुन पड़ा रहता है। अगर कोरिडोर के मजे लेने है तो रात मे आओ सर, साला बाहर की कंटरी लगता है पूरा रोड। बहुत ही बड़िया लगता है।"

ट्रफिक सहायक- मूलचन्द कोरिडोर
"अपना तो काम ही यही है बोस, मजा आता है लोगों को डराने मे। एक कॉपी लेकर खड़े हो जाओ फिर देखो लोग कैसे आपसे नज़र छुपाकर निकलते हैं। हम भी तो शहर के लिए काम करते हैं। मैं तो यहाँ पर जो ठेकेदार है उसके साथ 17 साल से हूँ। पहले हम सर्वे करते थे। वैसे इस काम मे कई लोग चौकीदारी करने वाले भी हैं। जो सरकारी जगह बनने पर रखे जाते हैं। मेरा ज़्यादा काम नहीं है। पूरा दिन पुल के नीचे ही खड़ा रहता हूँ। बस, जो भी ग़ैर गाड़ी कोरिडोर मे दाखिल होती है उसे रोकता नहीं हूँ बस, नम्बर लिखकर रख लेता हूँ। शाम मे उन नम्बरों को ट्रफिक पुलिस वाले को दे देना मेरी ड्यूटी है। बस, यही अपना वर्क है मस्त...।"

ट्रफिक सहायक- अर्चना कोरिडोर
"सब अपनी मर्जी से होता है बड़े भाई। ये इतना वक़्त बचाता है कि कुछ कहा नहीं जा सकता। लेकिन यहाँ पर सबको जल्दी ही रहती है। पता नहीं क्यों लोगों जल्दी मे रहते हैं। पहले बसों का क्या हाल था बताइये जरा? घण्टो खड़े रहना होता था। मगर आज बस मे सफ़र करने वाले जल्दी घर मे पँहूचते हैं। इस रोड पर कार वालो के लिए देरी है। और उन्ही के चलान होते हैं। पता है आपको पिछले एक साल मे सबसे ज़्यादा चलान कार वालो के हुए हैं। अगर कोई दो मिनट रूके तो कोई ना मरे। पर यहाँ पर फुर्सत ही कहाँ है किसी पर। हम भी तो यहाँ पर बस को हाथ देकर रोकते हैं। हमें तो कुछ नहीं होता। लेकिन यहाँ पर लोगों का क्या हाल है आपको पता है? वो फिल्म देखी है? कालिया, उसमे वो डायलॉग है ना। हम जहाँ पर खड़े हो जाते हैं लाइन वहीं से शुरू हो जाती है। सब, सबको बस स्टेंड भी ऐसे ही चाहिये, जहाँ खड़े हो गए बस स्टेंड तैयार।"

ट्रफिक सहायक- मदनगीर कोरिडोर
"हमें तो कतई नहीं भाता बाबू की हम किसी से मूंहजोरी करें। हम तो अपना काम करते हैं। हमें पता है गर्मी मे आदमी का दिमाग गर्म हो जाता है और हमारा क्या बाबू। जब जाते हैं हम इन कपड़ो मे। मगर ये बहुत बड़िया है कि बस मे सफ़र करने वालो को आराम हो गया।"

ये इतनी आवाजों के बीच मे रहते हैं। ना जाने कितने तरह के शब्द, माहौल और घटनाए इनके सामने से गुजरती हैं हर रोज। तो ये सोचते हुए अक्सर एक सवाल दिमाग मे रहता था, "जब ये घर मे वापस लौटते होगें तो अपने घर की आवाजों को कैसे सुनते होगें? घर के माहौल को कैसे अपने मे घोलते होगें? या कैसे माहौल मे घुलते होगें?”


मूलचन्द बस स्टेंड, टाइम- दोपहर 2:00 बजे

लख्मी

ये रात कटना मुश्किल है

आसमान मे सात या आठ ही तारें नज़र आ रहे हैं। अब तो कोई तारा इतनी तेज भी नहीं चमक रहा कि आँख उसपर जम जाये। ना ही कोई तारा किसी दूसरे तारे के साथ मे होता है। तारों के बीच की दूरी बहुत बड़ गई है। एक यहाँ दिखता है तो दूसरा वहाँ। आसमान भी पूरी तरह काला नहीं दिखता बारिश तो नहीं होने वाली फिर ये तारें कहाँ गायब हो गए? पूरा आसमान खाली है कुछ भी नहीं चमक रहा। बेचारा चाँद ही अकेला चमक रहा है कोई साथ देने के लिए ही नहीं है। लग रहा है जैसे मोहल्ले मे एक ही घर मे शादी है बाकि सब सो रहे हैं। मगर ये तारें सारे गए कहाँ? पिछले कुछ सालों मे ही हुआ है ये सारा गज़ब। धीरे-धीरे सारे पता नहीं सारे उड़कर कहाँ गए? कहीं टूटकर तो नहीं गिर गए? शायद बड़ी-बड़ी बिल्डिंगो के पीछे छुप गए होगें। नहीं-नहीं दिल्ली मे ट्रफिक भी तो बहुत बड़ गया है तो छुप गए होगें धूए के पीछे। पहले तो आसमान मे तारें गिनते-गिनते ही नींद आ जाया करती थी। अब तो कितनी भी बार आँखों को ऊपर करलो तारों को ढूंढ-ढूंढकर ही आँख दुखने लगती है।

कितने त्यौहार है हमारे यहाँ पर जिनको पूरा तारों और चाँद को देखकर किया जाता है। अब बताओ कैसे कोई पूरा करेगा? तारें देखने के लिए या तो गली के बाहर जाना पड़ता है नहीं तो जाओ किसी मैदान मे। एक ये पार्क है जहाँ से आसमान देखना तो दुर्लब है ही तो तारें क्या ख़ाक दिखेगें। हटाओ ये सारा, नहीं चाहिये।

रामेश्वर जी पार्क मे खाट बिछाए आसमान की तरफ देखकर अपने मे बड़-बड़ा रहे थे और बीच-बीच मे गाना गुन-गुनाने लगते, “मैं वब की चिड़िया, वन-वन डोलू रे, मैं वन की चिड़िया।"

अपने मे खोए उसके मूह से यही गुन-गुनाहट फड़ककर निकल आती। कभी वो बौखलाहट मे तेजी पकड़ लेती तो कभी मूह मे अटक कर रह जाती। खाट पर पड़े-पड़े मचल रहे थे। आज छ: फिट लम्बी खाट भी उनके लिए छोटी पड़ रही थी। कभी सिर लटकता तो कभी पाँव और कभी मद-मस्ती मे खाट की बेड़ियों मे अपने पाँव को फंसा देते। खाट पर बिछी बिछौनी तो खाट के नीचे लटक रही थी। औढ़ावनी तो सिर के नीचे घुसी थी। अपनी वर्दी भी आज उन्होने उतारी नहीं थी। उन्ही को पहने, “मैं वन की चिड़िया, वन-वन डोलू रे।" गाए जा रहे थे।

ना जाने कौन सी फिल्म का ये गाना उनकी जूंबा पर अटक गया था। गाने की अगली लाइन क्या है वे तो आ ही नहीं रही थी। बार-बार यही बोल आते और झट से खामोशी हो जाती।

दरवाजे से सटे बक्से के ऊपर बिस्तरा करती उनकी बीवी उनकी तरफ देखकर कुछ सुनने की कोशिस करती मगर समझना उनके बस का नहीं था। वे रामेश्वर जी की तरफ आते हुए बोली, “क्या बात है जी बड़े मस्ताये रहे हो। नेक मे क्या दारू मिल गई आज को चड़ा आए।"

रामेश्वर जी उनका हाथ पकड़ते हुए बोले, “अरी तुझे तो दारू ही नज़र आती है। हमें तो अरसा हो गया मस्ताने बने हुए। याद है पिछला, दो गर्मियाँ बीत चुकी है।"

"हाँ-हाँ अच्छी तरह से याद है। आश्रम के पुल के नीचे रहते थे तब हम। वहाँ भी आसमान मे यूहीं नज़र गाड़े थे तुम, पर ये भूल गए थे कि पुल के नीचे पसरे हो। पुल के छेदो के अन्दर से दिखती रोशनी को तारें समझ रहे थे। खूब याद है मुझे।"

रामेश्वर जी अपने हाथों को खाट पर लम्बा फैलाते हुए बोले, “अरी तूने तो मुझे पागल समझ लिया। इतनी नहीं पीता मैं कि मस्तानों की टोली से बाहर हो जाऊं।"

उनकी बीवी रामेश्वर जी के सिरहाने पटले पर बैठते हुए बोली, “आज क्या हुआ है वो बताइये, काहे इतना मस्ताए रहे हो?”

रामेश्वर जी ने अपनी आँखों के ऊपर हाथ रखते हुए कहा, “आज का दिन मेरी 20 सालों के इस बहुरूपिया बनने के टाइम मे पहली बार आया है। इसे नहीं भुला सकता मैं। अरी कभी-कभी तो मुझे लगता है कि मैं लोगों के घर मे जाकर करता क्या हूँ? उनके दुख-दर्द के साथ मे कुछ मेल होता है मेरा? अगर किसी के घर मे कुछ हो जाये तो भी मैं बहुरूपिया बना फिरूंगा? बस, इसी खुशी मे चड़ाली मैंने आज। बता कुछ बूरा किया मैंने?”

उनकी बीवी रामेश्वर जी की तरफ़ अपना पूरा ध्यान लगाते हुए बोली, “जी आप तो कभी ऐसा नहीं सोचते थे, आज क्या हुआ है आपको? और मैं जाने ना हूँ क्या आपको, आप तो हमेशा सुख-दुख दोनों को खूब सोचते हैं। बात क्या है जी वे तो बताइये?”

रामेश्वर जी फिर से अपने मे खोते हुए बोले, “आज हम जिसके घर मे गए थे वहाँ पर कुछ भी नहीं था‌। ना तो टेन्ट लगा था और ना ही कुछ पंडाल था। सिर्फ़ घर के लोग थे वो भी खाट बिछा कर घर के बाहर ही बैठे थे। पूरी गली की आँखे उनके ऊपर जमी थी। ना जाने क्या हुआ था? मगर कुछ अलग सा लग रहा था। जैसे ही हमने उनके घर के सामने कदम रखा तो गली वालो की नज़र उनके ऊपर से हटकर हमारी तरफ़ मे आ गई। जैसे हमारे आने से उस घर मे कुछ होगा और उसे होता हुआ देखने के लिए गली के लोग तैयार हो रहे हैं। हम भी सबकी तरफ मे मुस्कुराते हुए वहाँ खाट पर बैठे आदमी के पास गए। वे हमे देखते ही खड़े हो गए। पर हमने कुछ कहा नहीं। बस, रजिस्टर उनके हाथ मे दे दिया। पहले तो हमने ये सोचने मे ही अपना टाइम लगा दिया था कि आखिर मे वो घर कौन सा है जहाँ पर शादी है? पर लोगों को देखकर ही लग रहा था कि यही है। उन्होंने अपनी आँखो के इशारों से ही हमे बता दिया था कि यही घर है।

वो आदमी जो हमें देखकर खड़े हो गए थे वे हमसे कुछ नहीं बोले बस, हमे देखते रहे। बहुत हल्की सी आवाज मे जैसे ही कुछ कहते इतने मे एक औरत ने उनसे कहा, “ये तो आयेगें ही इनको हम तो नहीं रोक सकते। ये तो सहना ही पड़ेगा ही सुखलाल, ये तो झेलना ही पड़ेगा।"

उनकी निगाह झुक गई थी। वो रजिस्टर हमारे हाथों मे ही घूम रहा था। गली मे खड़े सभी के चेहरे उनके घर की ही तरफ़ मे मुड़ गए थे। जैसे तमाशा दिखाने वाले को घेर लिया जाता है। मैं समझ नहीं पा रहा था की ये हो क्या रहा है? पहले तो लगा की यहाँ कुछ तो ऐसा हुआ है जो सहीं नहीं था। लेकिन हमारा भी तो कुछ फर्ज़ और काम है ना यहाँ पर। उसी को दिमाग मे लेते हुए चले जा रहे था उनके घर की तरफ़। चाह कर भी वहाँ से जाने की इच्छा नहीं हो रही थी।

उनके चेहरे को देखते-देखते ही हमने अपने लिए वहाँ पर जगह ढूंढ ली थी। बस, अब इंतजार करना बाकि रह गया था। इतने मे उनकी नज़र गली के एक कोने पर गई। गली के अन्दर कुछ लोगों ने प्रवेश किया। उनके हाथों मे बड़े-बड़े परछे थे। देखने मे तो वो हलवाई से कम नहीं लग रहे थे। वो सीधे उनके ही दरवाजे पर चले आये। फिर लगा की हम किसी गलत पते पर आ गए हैं। यहाँ पर अभी कोई प्रोग्राम शुरू ही नहीं हुआ है। यहाँ पर आज नहीं दो दिन बाद आना होगा। लेकिन फिर दुकान वाले ने हमें समान की लिस्ट क्यों दे दी थी। यहीं दिमाग मे चुभने लगा था। मैं क्या बताऊ कुछ भी खोपड़ी मे घुस ही नहीं रहा था। हम तो वहाँ पर बिना कुछ कहे बस, खामोशी से खड़े रहे। शायद, इसी मे हमारी भलाई थी।"

इतनी लम्बी बात कहकर वो अपने गाने की धुन मे फिर से खोने लगे। उनकी बीवी तो बस, मण्डली को कोसने लगी थी, "सही पता देना चाहिये। कुछ ऊंच-नीच हो जाये किसी के साथ तो क्या होगा?”

मगर उनको यह नहीं पता था कि रामेश्वर जी की ज़ुबान मे क्या अटका हुआ है? जो बाहर निकलने मे इतनी मस्सकत कर रहा है। वे ना चाहते हुए भी उसको कभी बताते तो कभी वो दिल मे ही रह जाता। रामेश्वर जी बोले, “क्या कहूँ, कभी-कभी तो जानकी यहाँ पर सबकी हालत ऐसी हो जाती है जैसे हम लेम्प मे जलती लॉह हैं, जिसे ना तो तेज किया जाता है और उम्मीद भी रखी जाती है कि वो रोशनी ज्यादा दे। क्योंकि उसे तेज कर दिया तो वो लेम्प के शीसे को काला कर देगी और रोशनी नहीं होगी। ये क्यों होता है? कुछ पता नहीं, अरे हटाओ इसे, मैं वन का चिड़िया, वन-वन डोलू रें।"

हल्की-हल्की ऑस उनके मूह पर गिरने लगी थी। पार्क मे जलते खम्बे के बल्ब मे बिलकुल भी जान नहीं थी के वो उस ऑस को नज़र अन्दाज करने मे उनकी मदद कर सकें। बस, वे बिना कुछ ऑढ़े खाट पर करवटें बदल रहे थे। कभी मुस्कुराते तो कभी आसमान मे तारों की जान के पीछे पड़ जाते। आज कमबख्त तारें नज़र भी तो नहीं आ रहे थे। एक-काद नज़र आ जाता तो वो गिनकर सो तो जाते। लेकिन आज तो वे भी नख़रों पर उतर आये थे। अब किया भी क्या जा सकता था। बड़-बड़ाना उनका चालू ही था।

उनकी बीवी ने उनको कुछ भुलवाने के लिए बात को काटते हुए कहा, “अजी परे करों ये सब, खाना लाऊ मैं? भूख नहीं लग रही है क्या तुम्हे आज? या इसी सोतन से ही पेट भर गया तुम्हारा?”

रामेश्वर जी- गाना दोहराते हुए बोले, “मैं वन का चिड़िया, वन-वन डोलू रे, अरी आज तो वो नशा है मुझमे की भूख का ख़्याल लाना ही मेरे लिए अनर्थ होगा। समझी के ना! तू खाले, मैंने आज नहीं खाना-खाना।"

उनकी बीवी ने अब कोई जोर-जबरदस्ती नहीं की थी। वे बस, उनके साथ मे बैठी रही। सोच रही थी कि क्या पूछें जिससे उनके दिमाग से वहाँ की बातें निकल जाये। लेकिन सब, इन्तजाम बेकार ही थे। अब तो उनके भी दिमाग मे ये घूमने लगा था की वहाँ क्या हुआ होगा और इस तरह से लोगों के उनके घर के आगे जमा होने का क्या कारण हो सकता है? वे अपने दिमाग मे वहाँ की तस्वीरे खींचने लगी। उस आदमी का चेहरा, लोगों की नज़रे, खाट पर बैठे परिवार वाले, बड़े-बड़े पर्छे लाने वाले वे हलवाई और ना जाने कितने तरह के चेहरे उनके दिमाग मे बनने लगे थे। पर किसी का भी वहाँ पर क्या काम है वे नहीं बना पा रही थी। तो खामोश बैठी थी। इस इंतजार मे की ये अभी उठेगें और दोबारा से वहाँ के बारे मे बोलने लगेगें।

रामेश्वर जी आँखों को बन्द किए, खाट पर सीधे लेटे थे। उनके पास कहने को तो बहुत कुछ था लेकिन जो वो कहते उस कहने से उनका कोई रिश्ता नहीं था। तो उस बात के नीचे दबना नहीं चाहते थे। क्यों उस बात को दोहराया जाये जिसके होने या ना होने से कोई फर्क नहीं पड़ने वाला था उन्हे। पर क्या सच मे कोई फर्क नहीं पड़ने वाला था! ये उनका वहम था। जो होना था वो तो हो चुका था।

रामेश्वर जी उसी अवस्था मे ही बोले, “जानकी रे, कोई बड़ी बात ना है जो तू इतना खामोश बैठी है। मेरे ना कहने पर दाना भी ना चुग रही। आज तक तो ऐसा हुआ नहीं है। खाले जाके। एक बात कहूँ हूँ मैं तुझे, मैं वहाँ के बारे मे बताना तो चाहता हूँ पर मुझे वहाँ जो माहौल रहा था। उसको बताया नहीं जा रहा। लग रहा है जैसे मैं या तो सब कुछ बता दूंगा या फिर कुछ ऐसा छोड़ दूंगा जिस से उस बात का कोई और ही मतलब बनेगा। जिसमे जो बात को आगे बड़ाता है वो उसको गलत ज़ुबान मे ले जाता है। मैं कहीं वो ना बन जाऊ। इसलिए बता नहीं पा रहा हूँ। वहाँ पर बहुत सारे लोग थे। सबके मूंह पर या तो ताले लगे थे या फिर सभी उस घर के बारे मे बोलने के लिए तैयार थे। बस, थोड़ी हवा की जरूरत थी। पिछली रात शुक्रवार की थी। इस ठंड के मौसम मे लोग जल्दी ही घरों मे घूस जाते हैं तू तो जानती ही है। उस आदमी के घर मे शादी थी। उनकी लड़की की। तो ज्यादा मेहमान तो नहीं थे। लेकिन जितने भी थे वो एक किराये के मकान मे थे। जो कि उस आदमी मे लिया हुआ था। मेहमानो के लिए। रात लगभग साढ़े दस बजे होगें। जिसकी शादी थी वे किसी लड़के के साथ मे भाग गई। गली के कुछ लोगों ने देखा मगर किसी ने रोकने की हिम्मत नहीं जुटाई। सब यूहीं देखते रहे। बस, जब उन आदमी के घर मे हल्ला मचा तो सभी बाहर खड़े हो गए। उसके बाद तो बस, रोना-धोना शुरू हो गया। ना जाने क्या-क्या नहीं हुआ होगा। सब कुछ दिमाग मे आता है तो कलेजा हिल जाता है। बस, एक बात दिमाग मे घूम रही थी कि जो भरी थाली मे लात मार के जाता है वो कभी सुख नहीं भोगता।"

उनकी बीवी ने रामेश्वर जी की तरफ मुस्कुराते हुए देखा और कहा, “अजी तो ये बताइये कि तुम इतना क्यों सोच रहे हो उनकी बातों को? ये अलग-अलग घर के मसले हैं। तुम्हे सोचने की क्या जरूरत है?”

रामेश्वर जी ये बात सुनकर कुछ बौखलाये जरूर थे लेकिन, बोले, “तुझे जो नेक के पैसे लाकर देता हूँ उसपर हमारा क्या हक है बता? वो नेक क्यों देते है बता? या ये बता कि बहुरूपिया खाली पैसे ले और निकल आये उसका कोई धर्म नहीं है? मैं भी विनोद की तरह से आ सकता था दारू पीकर सो सकता था लेकिन मेरे दिमाग से ये बात नहीं निकलती तो मैं क्या करूँ? अरी तू समझती नहीं है। तू जो वहाँ पर होती तो पता चलता। उस वक़्त वहाँ पर क्या हालात थे। नज़रों से बचना और उस मे शामिल होना दोनों ही मुश्किल थे। जैसे मुझे लग रहा था। अगर ये किसी के लिए आसान है तो होगा। लेकिन मेरे लिए नहीं था। पर तू चिंता मत कर मैंने वहाँ किसी को ये महसूस नहीं होने दिया कि मुझे भी किसी किस्म का दुख हुआ है।"

ये बात कहते हुए वे खाट पर दूसरी तरफ़ मे करवट लेते हुए चुप हो गए। उनके बड़-बड़ाने की आवाज धीमी थी। बिना मूह को खोले ही अपना गाना गुन-गुना रहे थे। आवाज, उनकी खाट के पाये तक ही रहती। खाट के नीचे भी नहीं जाती होगी। ये आवाज उनके गले की नहीं पेट की थी। जो घूम रही थी।

लख्मी

नत्थू का जूता

सड़क पर चलते स्कूटर की आवाज, उसके साईड मे साईकिल वाले की घण्टी की आवाज, आते-जाते लोगों की बोलने की आवाज, जो चाय की दुकान से आ रही है। धूप मे सिकते हुए लोगों की बिढ़ियों का धुँआ छोड़ते हुए आवाज। हाथ मे अख़बार के पन्ने पलटने की आवाज जिस के ऊपर, इलेक्शन, मँहगाई, मैट्रो ट्रेन और लॉ फ्लॉर बसों पर बहस करने की आवाज आती है।

समय, सुबह के 9:40 बज रहे हैं।
पुलिया पर बैठे लोग वहाँ पर अपनी-अपनी बातों को बड़ा-चढ़ा कर कहते रहते हैं। पास की चाय की दुकान से एक-आदा प्याली चाय नगद व उधार पीते हुए सड़क से गुजरते शख़्सों को देखते है। जैसे ही वो आता है उसे देखकर सब हँसने लगते हैं। फिर थोड़ा रुककर कहते हैं, "आओ भाई सज्जन, आओ भाई सज्जन।"

सुबह 9:45 बजे।
पुलिया पर बैठे लोगों ने कर्राहते हुए कहा,"रात की उतरी नहीं है क्या?
दूसरा बोला, "ये तो सुबहा का नशा है।"
तीसरा बोला, "अरे नशेड़ियो का क्या? चाहें ये नशे मे हो या सॉपी में हर वक़्त ऐसे ही रहते हैं।
सज्जन तीसरे वाले की आवाज को सुनकर मुँह से गुटखा थुका। उसके होठो मुँह मे चबाये हुई छालियों की ऱाल लगी हुई थी।
सज्जन, "साले तू तो दारू का कीड़ा है।"
सड़क से होकर निकलती आरटीवी बस की आवाज। आसमान मे पचास मीटर ऊँचाई पर उड़ते चील-कऊओ की आवाज।

सुबह 9:50बजे
वो बनियान को उठाकर अपनी चमड़ी को हाथ से खुजाकर बोला, "भाई जी दारू मे कीड़ा मर जाता है।"
सज्जन गुटखे मे सने पीले-पीले दातों से हँसकर नत्थू को उँगली करते हुए बोला, "मगर दारू का कीड़ा तो नहीं मरता, बाकी सारे कीड़े मर जाते हैं।"

इस बात पर सारे बैठे हुए जोर-जोर से हँसने लगे। चाय की दुकान को सज्जन ने चाय का ऑडर दिया। तेजू नाम का एक शख़्स सज्जन को गाली देकर बोला, "दल्ले तेरी शक़्ल अच्छी नहीं है तो बात तो अच्छी कर लिया कर।"

"जब देखो गाली देकर बात करता है। क्यों बे-साले तेरी खाता हूँ क्या? जो मेरे बाप की तरह चौड़ा हो रहा है।" सज्जन हाथ झटकते हुए दाढ़ी को मसलता हुआ बोला।

नत्थू गरज़कर पुलिया से उठकर उसे धमकाने के अंदाज मे उसके ऊपर सीधे सवालो कि बारिश करने लगा, "अबे नहा-धोकर आया कर? हर वक़्त नशे मे रहता है। कभी आदमी की तरह रहा कर। देख तेरी आँखों मे ढेड़ लगी हुई है।"

इस पर सज्जन ने उसकी बातों को काटते हुए, उसे नीचा दिखाने कि कोशिश मे कहा, "तू बता तेरी औकात क्या है? बोल-बोल तुझे अभी खरीद लूँ?”

"चल-चल तू क्या खरीदेगा। तू मेरे जूते के बराबर भी नहीं दरअसल दोनो ने लगा रखी थी।
सज्जन, "बता तेरे जूते की क़ीमत क्या है? अभी ले... अभी ले। अभी देता हूँ। वो तपाक से ज़ुंझला कर बोला।

नत्थू ने ये सोच कर 'हाँ' कर दी, की सुबह-सुबह कौन जैब मे नोट रखता है, "ला चार सौ रुपये दे।"

"क्या चार सौ रूपये?” नत्थू की बात पर सज्जन विश्वासपुर्ण हाँ-हाँ कर के बोला।

"बस चार सौ रुपये जूते क़ीमत है? अभी खरीदता हूँ। बेचेगा क्या?”

अख़बार पड़ते हुए शख़्सों ने नत्थू को चने के झाड़ पर चड़ा दिया।

"अबे ले-ले, चार सौ के तो तेरे जूते भी नहीं होगें। इस बेवड़े को जूतों की क़ीमत का क्या पता।"

नत्थू उनकी बातों मे आ गया और खुशी-खुशी जूते सज्जन के हवाले कर दिए।

सुबह, 10:55बजे
सड़क से होकर निकलते मोटर गाड़ियों की गर्राहट रोज की तरह ऑटो स्टेंड के पास ऑटो स्टार्ट करने की आवाजें आती। नत्थू ने जैसे ही सज्जन के हाथों मे जूते थमाये सज्जन ने अपनी कमर से तैमद मे रखे सौ-सौ के नोट निकाले नत्थू हैरान हो गया पर नत्थू का जूता तो सरे आम निलाम हो गया था। अब उस पर कोई चान्स नहीं था। सारे हँसने लगे "भई वहाँ ये हुई न बात सज्जन ढीगें मारने लगा।

पुलिया पर बैठ हुए तेजू ,पप्पू और गोपी सज्जन को पागल बोल कर उस की गुपचुप खिल्ली उड़ाने लगे। लेकिन सज्जन ने कोई घाटे का सौदा नहीं किया था। जूतों को हाथ मे लेकर सज्जन ने कहा, "ये जूते मेरे हैं। मैं चाहे जलाऊ या फैंकू।"

तेजू उठकर सज्जन के काँधे पर हाथ रख कर बोला, "यार इन्हे किशन की दुकान पर टाँग दे दुकान को बुरी नज़र नहीं लगेगी। इस से चाय वाले का तो भला होगा।"

वो दोनों जूतों को दुकान के सामने लगे बाँसो के ऊपर लगाने लगा।


सुबह11:00 बजे
सब जोर-जोर से हँसने लगे।

"और है क्या कुछ, बनिये की औलाद। पैसा बात का या स्वाद का, क्यों भाई।"

नत्थू झूठे मुँह बोला, "मुझे तो नफ़ा हो गया।

सज्जन ठहाके लगा कर हँसा, "क्या बोला नफ़ा, अबे ये तेरे जूते नहीं थे इज्जत थी। जो सब के सामने मैंने उतार ली। तू नफ़ा देख रहा है।"

सज्जन घूमा जूते बाँस पर से उतार कर सड़क पर पटकने लगा दो बार, फिर उठाए, फिर पटके फिर उठाए, फिर पटके। फिर जूतों को पैंरो से मसलने लगा और हँस-हँस कर कहता। देख दल्ले, देख।"

वो फिर जूतों को दे पटक, दे पटक, दे पटक।


सुबह 11:05बजे
वहाँ खड़े सारे ये तमाशाई मँजर देख रहे थे। सज्जन को कोई पागल कहता तो कोई सिर फिरा कहता। जब वो जूता जमीन पर देकर मारता तो सारे उसका साथ देते। मार और मार जोर से मार फाड़ दे सालों को।

जूतों के बार-बार पटकने से सड़क की धूल उड़ती और आस-पास धूल के बादल से बनने लगे। हँसते लोगों की परछाईयाँ चलने लगी। धूप ठीक चेहरे के दाँई तरफ़ पड़ रही थी। सड़क के दोनों ओर फेरी वालों की फेरीयाँ थी। फल वालो की आवाज, जूस वाले की आवाज, मेकैनिक की दुकान से हथोड़ा बजने की आवाज।

जब सज्जन जूतों को पटकता तो नत्थू के चेहरे पर उदासी सी छा जाती। लग रहा था की उसे किसी बात का मलाल था। सज्जन ज़ुझारू मिजाज से कहता, "हाँ और बोल क्या कुछ है? सज्जन मर्द है बात से फिरेगा नहीं।"

नत्थू दोनों पैंरो मे जुर्राबे पहन कर बैठा रहा। बड़ा तनहा सा महसूस कर रहा था। घर से जूते पहन कर निकला था। इसलिये उसे? बिना जूतों के दोस्तों मे बैठने मे बुरा लग रहा था। नत्थू के लिए जैसे सारी चीजें रुक गई हो। उसकी आँखे पत्थरा गई थी।

सज्जन सब की तरफ़ हाथ उठा कर बोला, क्यों भाईयो, पैसा बात का या स्वाद का? आवाज कर नत्थू औकात बता अपनी।"

उसने ये कह कर फिर जूतों को उठा कर सड़क पर पटकना शुरू कर दिया। ले, ले, फिर ले, फिर ले, ले साले, फिर दोबारा ले, वो अपना सारा गुस्सा उन पर उतारने लगा। फिर दोनों हाथों को ऊपर उठा कर बोला, "ओए है कोई, भाई ऐसो को तो सज्जन अपनी जैब मे लेकर चलता है।"

सुबह 11:10बजे
वो वहाँ से गुजरते एक बुढ़े आदमी का हाथ पकड़ कर बोला, "ताऊँ बता, पैसा बात का या स्वाद का? ये जूता उसका है वो जो पुलिया पर बैठा है। मैंने ये खरीद लिया है।" वो उँगली के इसारे से नत्थू को देखाता है।
वे बुढ़ा शख़्स सज्जन की तरफ़ मुस्कुराकर चला गया और कर भी क्या सकता था। यहाँ क्या माजरा था। ये उसे क्या पता?

सज्जन ने जूतों को अब फुट बॉल बना कर लातें मारना शुरू किया। वो जोर-जोर से जूतों को ठोकर मारता रहा। कभी आगे से, कभी पीछे से, कभी उपर से, कभी नीचे से बस, कुचले जा रहा था और नत्थू को ये देखकर पसीना आ रहा था।

अब उस ने नया तनाशा शुरू कर दिया जो भी सड़क से होकर जाता वो उसे रोकता। एक स्कूटर वाले के आगे आकर उसे रोका और बोला, "भाई जरा अपनी गाड़ी का टायर इस जूते के ऊपर चड़ाकर निकालो। वो गुजारिश करने लगा तो स्कूटर वाले ने सिर 'हाँ' मे हिला कर जूते के ऊपर से चड़ कर निकल गया।

सुबह 11:15 बजे
सज्जन मुँह फाड़कर चिल्लाया, हाँ-आ..अ..अ... हा-हा- आ मजा आया। नत्थू के बच्चे देख, भईयो ये मेरा जूता है। मुझे तो इस से खेलने मे मजा आ रहा है तो पहने कितना मजा आयेगा।

तभी उसने जोर से जूतों मे ठोकर मारी। वो ताबड़तोप ठोकर मारता गया फिर वो लोगों को रोक-रोक कर जूतों का किस्सा बता कर उनके सामने जूतों मे ठोकर मारता।

"भाई साहब, ये चार सौ का जूता है। देखो कैसे सड़क पर पिट रहा है।"

ये सुनकर सभी एक शौक सा मना कर चले जाते। वहाँ से जो भी निकलता वो उसे रोकता, जब सब्जी की फेरी वाला वहाँ से निकला तो, "उसे रूक-रूक जरा ओए भाई, जरा अपनी रेहड़ी को इन जूतों के ऊपर चड़ाकर निकाल मुझे अच्छा लगेगा।"

रेहड़ी वाला रेहड़ी को जूतों के ऊपर चड़ाने लगा। उस वक़्त नत्थू जूतों को देखे जा रहा था। एक जूता पूरब मे तो एक पश्चिम पड़ा। नत्थू को चिड़ा रहा था। सड़क से निकलने वाली गाड़ियाँ कभी जूतों के ऊपर से तो कभी जूतों के पास से होकर निकल जाती।

वहाँ से एक कूड़ा बिनने वाला कमर पर बोरा उठा कर जा रहा था। उसे सज्जन ने देखा, ओए कबाड उठाने वाले सुन जरा। इधर आ।"
तभी तेजू बोला, "यार इस कबाड़ी को ही जूते दे दे, किसी का तो भला होगा।"

"नहीं साले, इस जूते को तो कबाड़ी भी नहीं पहनेगा।"

ये सुनकर नत्थू वहाँ से उठकर चल दिया। सज्जन ऐसे ही हँसता रहा।

राकेश

Tuesday, November 11, 2008

ये अब पुरानी नहीं लगती

श्याम लाल जी, दक्षिण पुरी के उस समय को दोहराते हैं जब उन्होनें शुरूवात कि थी अपने काम के सफ़र की, शहर मे निकलना व उसके साथ मे समझौते करना। उनके लिए आसान नहीं था। किसी नई जगह में टूटकर आना और फिर उसके बाद मे वहाँ पर अपने लिए जगह बनाना बहुत मुश्किल होता है। उसके साथ मे उस बदलाव को महसूस करना जो धीरे-धीरे उनके अन्दर दाखिल हो रहा है जिसे रोका भी नहीं जा सकता। ये बोल उनके उस वक़्त के हैं जब वे काम की दुनिया से इस्तिफा देने वाले हैं और उस सफ़र को बताने की कोशिस कर रहे हैं जहाँ से वे खाली होकर ही नहीं आए बल्कि उस वक़्त मे रहे हैं।

उनके साथ बातचीत मे वे अक्सर अपने उस दौर का बख़ान करते हैं जिसमे उन्होनें दिल्ली जैसे बड़े शहर को करीब से जानने की कोशिश की। जिसमे उनके साथ मे घटते हर वाक्या उनके घर को दोहराने के कारण बने। अब घर मिट्टी का ढेर नहीं बल्की कई घटनाओं का स्थल लगता है। जिसे वे कभी बताते समय नहीं चूकते। उनके बोलों मे उनके बीते हुए समय की महक बखूबी महसूस होती है। अभी कुछ ही टाइम पहले उनके दिल का ऑपरेश्न हुआ है। जिसमे उनके काम पर बहुत गहरा असर पड़ा। पूरे 12 घण्टे साइकिल चलाने वाला इंसान अब जरा सा भी हॉफ नहीं सकता था। उनको मना थी। नौकरी से तो उनका बहुत पहले ही विश्वास उठ गया था। बस, वे अपने को बताने से पहले एक बात हमेशा कहते, “जब हाथ पैरों मे दर्द होगा तो काम की तलाश शुरू कर दूंगा।" हसंकर अपने को दबा जाते।

ये एक बार की मुलाकात मे नहीं होता था। शायद, उनके अन्दर रम गया था। जो हर बात पर उछल आता था। कभी-कभी लगता था कि ऐसा क्या होता है कि इंसान अपने अतीत को कुरेदने लगता है? कौन सा पल है जो उछट आता है? ये जानना जरूरी होता भी है और शायद नहीं भी। लेकिन उनकी ज़ुबान से ये कुछ गहराई मे चला जाता था।

आज की मुलाकात, खाली उनके ही नाम थी। अक्सर तो बातचीत मे दो आवाजें सुनाई देती थी लेकिन आज सिर्फ़ एक थी वो उनकी, वे कह रहे थे-

25 सितम्बर सन् 1975 मे हम यहाँ दक्षिण पुरी मे आये। हमारे साथ मे कई और परिवार भी थे। यहाँ पर जब कुछ भी नहीं था खाली पड़ा दूर-दूर तक मैदान ही था।

हमें यहाँ शाम के लगभग 5 बजे टैम्पो से उतारा गया था। हांलाकि यहाँ पर कई टैम्पो आये थे मगर हमें हमारी कम्पनी वालों ने टैम्पो करा कर दिये थे, हम उन्हीं मे बैठकर आये थे। जैसे ही हमने यहाँ दक्षिण पुरी मे कदम रखा तो इतनी तेज बारिस शुरू हुई के हम क्या बतायें। बहुत तेज बारिस थी उस वक़्त। पता नहीं क्या सोचकर सरकार ने हम झुग्गी वालो को मकान दिये थे। इतनी तेज बारिश थी के कुछ भी बचाना नामुमकिन था और यहाँ पर कोई जगह अथवा ऐसा कोई ठिकाना भी नहीं था कि हम अपने समान और परिवार वालो को बारिस कि तेज बून्दो से बचा सकें। लगभग तीन या चार टेन्ट से कमरे बना रखे थे उनसे क्या होता है। सिर छुपाने के लिए ले-देकर वही एक सहारा था मगर इतनी तेज बारिस मे समझो वे किसी काम के नहीं थे। अगर पैरों को बचाते तो सिर भीगता, समानो को बचाते तो बच्चे भीगते। बच्चो के सिरो को हमने कढ़ाई और पतीलो से ढ़ाककर बारिस से बचाया था। अगर बिमार पड़ जाते तो दूर तक कोई दवाईखाना भी नहीं था।

खाली यही रात नहीं थी जो हमें काटनी थी। यहाँ का तो हर दिन और रात एक कठिनाई ही बनकर हमारे सामने खड़ी हो जाती। आसपास की जगहों के बारे मे भी नहीं पता था की यहाँ सबसे पास मे कौन सी जगह है जो वहाँ पर चले जाते। बस, यहीं के होकर रह गए थे। हां, बच्चो के लिए अच्छा रहा कि खेलने के लिए बहुत जगह थी। सवेरे छोड़ो तो शाम मे ही अपनी शक़्ल दिखाते थे बच्चे। उस समय एक पैसे के सिक्के बहुत थे मेरे पास, जो चलना बन्द हो गए थे तो सारे बच्चे उसी से अपना खेल खेलते थे, कभी "कल्ली-जोट" तो कभी "खड़ी"।

दक्षिण पुरी मे सारे साधन धीरे-धीरे ही आये, जैसे हर चीज का प्लान पहले से नहीं था। बस, लोगों को डाल दिया उसके बाद मे उनके लिए चीजें मुहाइया करा दी जायेगीं। यही सिलसिला चलता रहा था आने वाले दस सालो तक। सबसे पहले देखा जाये तो यहाँ पर यतायात का साधन डाला गया। मगर, वो भी सन् 1979 मे, उसके दो साल के बाद लगभग 1981 मे यहाँ पर बिजली आई। मुझे याद है जब मेरा दूसरा लड़का हुआ था तो उसी दिन हमारे घर मे बिजली का मीटर लगा था। ले-देकर हमें चार साल तक पैदल ही काम करना होता था। जगह तो मिल गई थी मगर, यहाँ पर भूखा भी तो नहीं रहा जा सकता था ना, पेट के लिए और बच्चे अगर रोटी मांगेगे तो क्या उनसे ये कहेगें कि बेटा इस खुशी मे रोटी मत मांग की हमें हमारा घर मिल गया। ऐसा कहीं नहीं होता। यहाँ से सभी लोग लगभग चार किलोमीटर तक पैदल जाया करते थे काम करने के लिए। यहाँ से देखा जाये तो एक ग्रेटर कैलाश ही सबसे पास मे था जहाँ पर यहाँ की औरतों ने काम करना शुरू किया। घर से निकलते ही जगंल था तो उसी को पार करते और बस, पहुंच जाते और हम लोग तो चिराग दिल्ली तक पैदल जाया करते थे। पूरा तीन किलोमीटर पड़ता है वो, उस समय मे तो कोई गाड़ी नहीं थी। बस, एक बस चलती थी उसका नम्बर मुझे ठीक से याद नहीं है मगर वो विराट सिनेमा जहाँ बना है वहाँ से चलती थी और कालका जी मन्दिर, गोविन्द पुरी, ओखला और बस अड्डे तक जाती थी। फिर उसके बाद मे सन् 1982 मे यहाँ पर 580 और 521 नम्बर की बस चलाई गई। 521 नम्बर की बस यहाँ दक्षिण पुरी से प्लाजा जाती और 580 नम्बर की बस केन्द्रिय सचिवालय तक जाती। वैसे यहाँ पर आप 521 नम्बर की बस जितनी लगा दो उतनी कम है। इतनी सवारी है यहाँ पर कि लोग एक-दूसरे पर लदने के लिए तैयार हो जाते हैं।

मैं कभी नहीं भूल सकता आर.टी.वी बस का सफ़र, जिसमे मैं रोज महज़ तीन किलोमीटर का सफ़र तय करता हूँ। आर.टी.वी छोटी बस है जो महज़ मूलचन्द तक चलती है पर उसमे कोशिस होती है कि पूरी बड़ी बस की सवारी भर दी जाये। उस बस के कन्डैक्टर की ज़ुबान पर हमेशा गाली व अपशब्द रहते हैं जो कभी सवारी को इंसान नहीं समझ सकतें। हां, एक बात जरूर है वे अगर दक्षिण पुरी आने वाले को बीच सड़क पर भी खड़ा देख लेते हैं तो बीच सड़क पर ही गाड़ी रोक देते हैं उस ले आते हैं। लेकिन, गाड़ी मे ये इनका बस नहीं चलता, नहीं तो लोगों को एक के ऊपर दूसरे को तय लगाकर खड़ा कर दें।

मैं सवेरे आठ बजे घर से निकलता हूँ अगर, दो मीनट की भी देरी हो जाती है तो बस मे खड़े रहने की भी जगह नहीं मिलती और दो मीनट की देरी लगभग आधे घण्टे की देरी समझलो। कभी भी अपने टाइम पर काम पर नहीं पंहूच सकते। वैसे देखा जाये तो दो मीनट के अंतराल मे आर.टी.वी चलती है लेकिन फिर भी लोग दरवाजे पर लटके रहते हैं। ड्राइवर की सीट पर दो आदमी बैठे होते हैं और बस का कन्डेक्टर गाड़ी के पीछे वाले शीसे पर लटक कर टिकट बना रहा होता है। ये सब इसलिये नहीं है कि गाड़ी कम है बल्कि इसलिए है कि लोगों को जल्दी है। वापसी मे तो मैं हमेशा ही गेट पर लटक कर आता हूँ। शर्म भी आती है मगर अब पैदल आया-जाया नहीं जाता। एक टाइम था जब मैं बिमार पड़ा था तो मुझे होली फैमिली अस्पताल मे भर्ती कराया गया था। मुझे खून की उलटियाँ हुई थी तो मेरी बीवी और बच्चे काम करके वहाँ आते थे। ना जाने कितना पैदल चलना पड़ता होगा उन्हे। आज के वक़्त मे मेरे कुछ दोस्त कहते हैं, "दिल्ली मे जो आदमी पैदल चल रहा है वो बेवकूफ है, क्योंकि यहाँ पर हर जगह बस जाती है।" मगर उन्हे क्या पता? उस वक़्त को सोचता हूँ तो आज का वक़्त कैसा भी हो सहीं ही लगता है। आने वाला समय तो शायद ऐसा होगा की लोग एक-दूसरे से चिपक कर चलेगें शायद, भीड़ ही इतनी हो जायेगी।

जब मैं बस मे लटक कर आता हूँ तो लोग कहते होगें कि देखो बुढ्ढे को देखो कैसे जवानी छा रही हैं मगर, क्या कंरू मेरी मजबूरी है। बस, यही है दक्षिण पुरी से बस के साथ हमारा रिश्ता।

और फिर अपने आपको दोहराने का पन्ना वो एक मासूम सी हंसी के साथ मे बन्द कर देते। ना जाने कितने ही पन्ने अभी खुलने बाकि हैं। जिनका इंतजार वक़्त नहीं मगर कोई मुलाकात करती है। किसके साथ होगी? कहाँ होगी? और किस वक़्त होगी ये कुछ पता नहीं है।

लख्मी

Saturday, November 8, 2008

एक शब्द- कई कहानियाँ

एक शब्द अपने साथ कई कहानियाँ लिए चलता है
शब्दों के आलोक मे, कोई नाज़ुक सपना पलता है।

शब्दों के हैं रूप निराले,
अपने आगोश़ मे कई तस्वीरें पाले,
शब्दों के दुनिया मे माना कंगाल बहुत है
फिर भी आसपास शब्दों के जाल बहुत हैं।

हर उमंग से, ये कोई भाव लिए निकलता है
हर शब्द अपने साथ कई कहानियाँ लिए चलता है।

शब्दों का जगह से रिश्ता है अनोखा
ज़िन्दगियों के अवशेषों मे बनाता है झरोखा
कल्पनाए तड़पती है आकार पाने को
शब्दों की बाहों मे न्यौछावर हो जाने को

हर शब्द के बगल से एक नया ही मोड़ गुजरता है
हर शब्द अपने साथ कई कहानियाँ लिए चलता है।

शब्दों की शब्दों से होड़ बहुत है
कहीं शब्दों के शब्दों से तोड़ बहुत है
फिर भी शब्दों को गूथ रहा है कोई,
खींच-खींचकर सूत रहा है कोई
शब्दों की आवाज पर लग हैं ताले,
शब्द हो गए हैं अब बोलियों के हवाले।

शब्द बे-ज़ुबान है मगर फिर भी चीखता-चिल्लाता है
हर शब्द अपने साथ कई कहानियाँ लिए चलता है।

कहीं गीत, कहीं कविता तो कहीं ज़िन्दगानी है शब्द
कहीं तोहफा, कहीं शौगात तो कहीं निशानी है शब्द
तारीफों के पुलों मे बुने जाते हैं शब्द
दोस्तों की टोलियों मे सुने जाते हैं शब्द

दिलो से बाहर आने को मचलता है शब्द
अपने साथ कई कहानियाँ लिए चलता है शब्द

मगर अब, बदलाव की आग मे झौंक दिया है शब्द
नई तस्वीरें जन्म देने को रोक दिया है शब्द
शब्द तो न्यौता था ये पुकार कबसे हो गया!
कहीं टकराव, कहीं ललकार ये तलवार कब से हो गया!

शब्द- शब्द से पूछ रहा है सवाल दोस्तों
शब्दों को हो गया है हाल-बे-हाल दोस्तों

अब भी किसी मे रूपातरण होने को तरसता है शब्द
क्योंकि, अपने साथ कई कहानियाँ लिए चलता है शब्द।


लख़्मी

शहर मे खो जाने को तलाशना


17 फरवरी 2008, समय दोपहर12:40 बजे

शहर मे खो जाने को तलाशना- एक छोटी सी कहानी।
कहानियों का मसीहा कहीं खो गया है। इसलिये आकाश मे तारों की कमी नज़र आने लगी है। क्या ये ब्रह्माण्ड मे कोई विस्फोट के कारण है।

समन्दर मे कश्तियाँ तैरती हैं। कश्तियों का वज़ूद जैसे पानी मे जीना है। उसी तरह अपनी तलाश मे ही ज़िन्दगी एक सफ़र बनाती है। ज़िन्दगी हर रोज कहानी गढ़ती है। अपने वज़ूद को तलाशने के लिए।

राकेश

Wednesday, November 5, 2008

एक पर्दा जो बे-पर्दा है

पहेली, जिसको हम बहुत रोमांचक मानते हैं। जिसके अन्दर घुसने से डरते भी हैं और उसमे घुसने को इच्छुक भी रहते हैं। उसे सुलझाना भी चाहते हैं और उसमे कभी-कभी खुद भी उलझना चाहते हैं। अपने लिए एक ऑदा भी ढूंढते हैं जिसको सुलझा कर महाशय की महारत हासिल कर सकें और कभी-कभी उसको "नहीं मालुम" कहकर, ये जताना चाहते हैं कि ये तो बच्चो का खेल है।

लेकिन, इतने के बावज़ूद भी ये किस्सागोही हो या पहेलीगाथा कभी हमारे बीच मे से गायब नहीं होती। इसमे घुलते लोग कहीं ना कहीं दिख ही जाते हैं।

पहेलियाँ खाली जुबानी ही नहीं होती, वे नज़रो के साथ भी खेल खेलती हैं कई अनेको मुखौटों से, रूप बदलने से, आवाजों के खेल से, इशारों से और ना जाने कितने ऐसे रॉल हैं जिन्हे हम रोज बनाते हैं। कभी अपनी मनमर्जी से तो कभी नामर्जी से। दोनों मे कोई ख़ासा फ़र्क नहीं है बस, रॉल मे डूब जाने का या फिर रॉल को खुद मे डूबा देने जैसा है।

कभी सोचा है कि इन पहेलीनुमा ज़िन्दगियों के बीच मे क्या है ऐसा जो नज़रो को छुपा देता है? या क्या है इनके बीच मे जो हमको उन तक पहूंचने नहीं देता?

कभी लगता है कि इंसान, माहौल और समय हमारे साथ एक खेल खेलते हैं। उनके आने से और कुछ समय तक रहने से एक खेल सा होता है। रोजाना की दिनचर्या मे दिखने वाले दृश्य भी एक पहेली की ही तरह से अपने आपको प्रश्तुत करते हैं। जब एक पल के लिए नज़र किसी दृश्य पर ठहर जाती है तो वो अपने खेल मे हमको डुबा लेते हैं।

हमारे सामने हर वक़्त एक पहेली चल रही है। जिसको समझने के लिए हमे हमारे आगे चलते कई ऐसे अनकेनी पर्दो के पार जाकर उनका नज़ारा करना होगा। कभी वे नज़ारे बस की भीड़ मे होते हैं तो कभी घर के दरवाजे पर। जिनमे बस, एक पलक झपकने की ही देरी होती है और हम उसमे उलझ जाते हैं।

ये वाक्या भी कुछ ऐसा ही है। पहली बार मैं अपने घर को पर्दे की ओट से देख रहा था। ये बिलकुल ऐसा ही पल था जैसे कोई किसी का इंतजार कर रहा है और उसे हर शख़्स के चेहरे मे उस आदमी का चेहरा दिखाई दे रहा है इसके इंतजार मे वो बैठा है। मेरा एक बहुत भुख़क्कड़ दोस्त कहता था जब मैं बहुत भूखा होता हूँ तो मुझे बस भी ब्रेड का पैकेट लगती है और चलकर मुझ तक आ रही है।, खैर, ये हमारे किसी काम का नहीं है।

घर मे सब कुछ वैसा ही था जैसे रोज चलता है। माँ झाडू लगा रही थी और दरवाजा खुला हुआ था पर कुछ-कुछ पल के बाद मे देखने के लिए तो वही कुछ था लेकिन दिमाग मे कुछ और ही चल रहा था। जैसे ही कुछ बदलता तो आँखें खेल मे शामिल हो जाती। जो आज रोजाना की तरह से बितने वाला वक़्त कर रहा था।

हमारे आसपास मे कई पहेलियाँ हैं जो अपने ही घर को देखने का पूरा नज़रिया बदल देती हैं। घर मे बीत रहे हर दृश्य एक सवाल या कुछ चौंकाने वाले लगने लगते हैं। कहीं पर एक सन्नाटा है और कहीं पर एक चमक, दोनों को एक साथ घर मे देखने से कभी हम दृश्य को अपने अन्दर से नहीं निकाल पाते। वो बस, निकल जाने वाला समय लगता है। हमें पता है कि कितने दृश्य को हमने बिना देखे या महसूस किये अपने आगे से निकाल दिया है। बिना कुछ किए? दिन मे कितने दृश्य हैं जो हमें ठहरने को कहते हैं? और कितना का हम बिना अहसास किए अपनी ज़िन्दगी से बेदख़ल कर देते हैं?

मगर यहाँ आज ऐसा लगा जैसे कुछ ठहर गया है। दरवाजे से दिखने वाला हर गुजरता वक़्त इतना धीमा था के उसका अहसास खुद मे भर रहा था। जैसे हर दृश्य के बीच मे कई अनेको लेयर बन गए थे और मैं हर लेयर मे था।

किसी जगह को सिलोमोश्न मे देखना और उसी को गती मे देखना, इनमे क्या फ़र्क होता है?

जिस स्पीड से रोजाना समय बितता है वो क्या है? हमे किस स्पीड आदत हो गई है? वो हमारी है या हमे दी गई है? ऐसे कई पर्दे हैं जो पहेली बनकर हमारे सामने नाच रहे हैं। मानलो, धड़कन भी एक संगीत है और पहेली की तरह से चल रही है बस, उसकी स्पीड़ पता नहीं है।



दिनाँक 27 जुलाइ 2006 , समय रात्रि 8:00

लख्मी

Monday, November 3, 2008

शहरी डॉकोमेन्ट्ररी


5 जनवरी 2008, समय:- सुबह 10:35 बजे,

हम किसी जगह मे क्या लेकर दाखिल होते हैं? जो हमारी पहचान के लिए जरूरी है? आप किसी की नज़रों मे हो जिसका दस्तावेज आप के हाथ मे है फिर भी आप निहत्थे हो। बस, परछाईयों की एक भीड़ है। जिसमे अपने को खोजते लोग हैं। हम भी उसी की भीड़ मे खुद को खोज रहे हैं।

राकेश

लेखन का किनारा क्या है?

पिछले दो सालों मे मैं कई लोगों से मिला हूँ। उनके लेखन के ऊपर बातचीत मे और उनके अपने रियाज़ से बातचीत करने मे। सोचने के लिए कई सवाल मिलें, जिनमे उनकी अपनी समाजिक जीवन की बहस थी और वो दौर था जिसमे उन्होंने अपने आप को कभी तो सिकौड़ लिया तो कभी समाजिक जीवन से बहस मे लगा दिया। ये सोचकर की वे अपने रियाज़ से नाइंसाफी नहीं कर सकतें। ये उनके लिए काफी ठोस और बेहद नाज़ुक दौर रहा। लेखन की दुनिया को मिटाने के लिए या हम यूँ भी समझ सकते हैं कि किसी रियाज़ से सवाल करने के लिए जिन सवालो हमेशा एक स्थान पाने की मांग होती है। जो भी रियाज़ हम लेकर चल रहे हैं उसकी जगह क्या है? या वे कहाँ हैं? इस सवाल ने कई रियाज़ो को तोड़ दिया है। जिसमे लोग गुम हुए हैं।

लेकिन लेखन का सिलसिला अब भी रुका नहीं है। वे चल रहा है, टूटे हुए हर्फों मे ही सही, लेकिन उसका रूप है। इससे कोई सवाल नहीं है। जीवन के कुछ पल कहीं सिकुड़ तो सकते हैं मगर, वे ख़त्म हो गए वे नामुमकिन है। मेरा सवाल कुछ अलग है। लेखन- हम इसमे क्या खोज रहे हैं? क्या लिखने के तरीके, लेखन मे दुनिया, कल्पना कि दुनिया, सोच-जो निरंतन है या फिर लोग? हम क्या खोजते हैं?

हमारे पास दो डायरियाँ हाथ लगी, जिनमे दो लोगों ने अपने दिनो को संजोने के लिए अपनी समाजिक दुनिया से मेल किया था। ये वे मिलाप था जो उस शख़्स को जीने की तमन्ना देता है, उड़ान देता है, एक सांस भरता है। उसी से एक इच्छा जागी की ये दुनिया का एक और पहलू है। जो जल्दबाजी मे नाक के नीचे से निकल गया है या फिर इसे लोगों ने अपने जीने का अवशेष मानकर कहीं रख लिया है। दिनो को अपनी ज़िन्दगी मे दोबारा दोहराने के लिए। अपने रिश्ते, काम व उनमे होते सवालो को अपने से पुछने के लिए। जो कभी हादसो मे आये हैं या उन्ही हादसो जरिए पूछे गए हैं। ये बहुत ही बेहतरीन पल था।

सवाल यहाँ से शुरू होता है, मेरे जो दिमाग मे घूमता रहा है वे ये है की लेखन, लिखने की इच्छा, शब्दों के साथ खेल, शब्दों को पहचानना अथवा उससे कोई तस्वीर बनाना ये खुद मे डाला कैसे जाता है? या हम किसी और शख़्स मे इस अहसास को डालते कैसे हैं? शहर कैसे डाल रहा है?

इसको लेकर भी कई टिप्पणियाँ शहर मे बहुत लोगों मे घूम रही हैं। वे इसको अपने ही कारणो से साबित कर सकते हैं। जो उन्होंने जाना है, वे बोल सकते हैं। टिप्पणियाँ भी तो इतनी जानदार होगीं की उसको सुनते ही लगेगा कि हाँ बात तो सही है। पर उन टिप्पणियों से सवाल का निवारण नहीं होता, वे कुछ समय के लिए छूप जरूर जाता है। कहने वाले शब्द है, या कहिए की इसको दबाने वाले शब्द हैं, 'हर शख़्स अपने बीत रहे समय को दर्ज करना चाहता है।', 'शहर ने इतने बदलाव किए हैं कि उनमे कई ज़िन्दगियों को तबाह कर दिया है', 'कोई हमारे साथ खेल खेले और उसे दोहराया भी ना जाये', अपने अनुभव को दोहराने के लिए लिखा जाता है, और भी कई टिप्पणियाँ है जिसे खोल कर बताया जा सकता है। मगर, इस वक़्त मैं उसको रखना नहीं चाहता। क्योंकि उससे सवाल की अहमियत ख़त्म हो जायेगी।

सीधी सी बात ये है कि, मैं अभी तक जिन लोगों से मिला, मेरे संदर्भ के बाहर- मुझे लोग लिखने वाले कई मिले, जो अपनी ज़िन्दगी के निचौड़ को बखूबी सम्भालना जानते हैं। लेकिन उनकी उम्र क्या है? 36 साल, 40 साल, 45 साल, 50साल, 57साल शायद उससे भी ज़्यादा होगी। ये लेखन कब का है? आज के शहर से कई साल पहले का, जब ये शहर, अपने शहर होने का नाम ले रहा था। जिसको हम बौद्धिक जीवन के नाम से नवाज़ते हैं। उनमे लोग वो हैं जो अपने लिए एक स्थान बना चुके हैं। नये लेखक कहाँ है? यानि के मुझे अपने दो साल के सफ़र मे कोई लेखन करना वाला शख़्स नहीं मिला। जो इस उम्र से कम है। लोग बहुत मिले जो रियाज़ करते हैं लेकिन वे रियाज़ हैं। गानो के, संगीत के, डांस के, टेक्निकल चीजों के, ड्राइविगं के, राजमिस्त्रियों के और इनमे सबसे ज़्यादा है पेन्टिग के यानि के चित्रकला।

पेन्टिग करने वाले रियाज़कर्ताओ की यहाँ पर भरमार है। कोई नया शख़्स जब भी मिलता है तो अपनी पेन्टिग दिखाता है। रंगो से खेलता है। स्कूल मे बच्चो से बात करो तो उन्हे पेन्टिग करना पंसद है। कम्पयूटर पर पेन्टिग, ग्राफिक्स बनाना बेहद भाता है। मौहल्लो के कॉम्पटिशनो मे लोग पेन्टिग मे सबसे ज़्यादा भाग लेते हैं। ये सब क्या है? क्या कोई नई दुनिया की तरफ़ हम जा रहे हैं या फिर कुछ छोड़ रहे हैं?

फिल्मों मे भी लेखन गायब सा दिखता है। कल्पना मे लेखक के कमरे का हाल कुछ यूँ होता है। एक बड़ा सा कमरा होगा, उसमे बहुत सारी किताबें रखी होगी। कमरे के एक कोने मे एक टेबल होगी। उसपर एक टेबल लेम्प, कुछ पेपर, पेन स्टेंड, पेपर वेट रखा होगा। बस। इसके अलावा क्या?

पेन्टर का कमरा, बताने की जरूरत ही नहीं है। फिल्मों मे पेन्टर ही तो छाये हुए हैं। एक बड़ा सा कमरा होगा। उसमे पूरे मे काल्पनिक जबरदस्त वॉलपेन्टिग हो रखी होगी। उससे देखते ही पब्लिक उसके बौद्धिक होने के ढाँचे को समझ जायेगी। फिल्म- "तारे जमीन पर” मे होता चित्रकारी मेला इसका सबूत है।, फिल्म- "जाने तू जाने ना" मे हिरोइन के भाई का कमरा ऐसे खोला गया है जैसे बस, पूरी फिल्म मे सबसे ज़्यादा रचनात्मक आदमी वही है। और अगर किसी लेखन को दिखाया जायेगा तो, एक दिवाना लड़का या लड़की जिसको कमरे मे बन्द कर दिया गया है उसने अपने प्यार का नाम पूरे कमरे मे लिख दिया है। फिल्म- “एक-दूजे के लिए" और फिल्म- “कुली"। आप शायद मुझसे भी ज़्यादा फिल्मों बता सकते हैं जिसमे लेखन ज़्यादा दिखाया गया हो। लेकिन उन्हे बताने से होगा क्या?

फिर जब गौर किया तो समझ मे ये आया कि दिक्कत किसी स्कूल, फिल्म या समाज मे नहीं है। दिक्कत शायद हममे उपज रही है। लगता है जैसे हाथों के साइज के हिसाब से हमने अनुभव को माप लिया है। नहीं तो-

बच्चा जब छोटा होता है तो घर मे उसको रंगो भरी चीजें दी जाती हैं। खेल मे भी बच्चा पेन्टिग कर रहा होता है। बच्चो को पेन व कॉपी क्यों नहीं दी जाती? बच्चा अगर किसी खाली पेज पर पेन से कुछ लिखने की कोशिस करता है तो उसको क्या डिजाइन है कहकर बोला जाता है? बच्चा हमेशा अपनी ड्राइंग की कॉपी से बहुत लगाव रखता है। उसी को सबको दिखाता है। कोई घर मे आता है तो वो भी उसकी पेन्टिग देखकर उसको "शबास" कहकर एक ताज दे देता है। ये खेल ही उपजता है। मैं ऐसा नहीं कह रहा ही ये करना गलत है। इस तराजू मे मैं जाना ही नहीं चाहता। लेकिन कुछ खेल हम कर रहे हैं वे समझना होगा।

पेन्टिग और लेखन, इनके ढाँचे क्या हैं? और कहाँ हैं?

मैंने जब ये एक पेन्टिग करने वाले से बात की तो वे बोले, “पेन्टिग का एक सफ़र दिखता है। अगर कहीं नहीं कुछ हुआ तो पेन्टिग एक हाथ का काम बन जाता है। इससे हम अपनी रोजी रोटी चला सकते हैं। कहीं भी दुकान खोल कर बैठ सकते हैं। ये बहुत आसान लगता है।"

शहर मे लेखन की कोई दुकान क्यों नहीं दिखती? ये मैं बहुत अच्छे स्वभाव से कह रहा हूँ। जैसे- लोग पेन्टर के पास आकर अपनी पेन्टिग बनवाते हैं। वैसे किसी लेखक के पास मे जाकर अपने जीवन के बारे मे बातचीत करके उससे कुछ लिखवाते क्यों नहीं? ये क्यों नहीं होता कि कोई आये और कहें कि ये अपने बारे मे मैंने लिखा है इसको जरा आप पढ़कर मुझसे बातचीत किजिये?

लेखन के ढाँचे कोने मे या किन्ही पन्नो तक क्यों सिमित हो जाते हैं। वे इस तरह से शहर से संवाद क्यों नहीं करते? ज़्यादा से ज़्यादा किताब, पर्चे, पोस्टर या कोई पत्रिका। उसके अलावा क्या?

कई सवाल तो, मेरे खुद के ऊपर चले आते हैं। जिसमे मैं सामने वाले को तो समझा सकता हूँ मगर अपने आपको नहीं। वे सवाल मेरे अन्दर रह जाते हैं। लेखन, क्या है? कहाँ है? और कहाँ तक जायेगा? क्या शहर मे कोई हिन्दी विवाद, बहस, बदलाव या दंगा होगा क्या तभी लिखा जायेगा? या कुछ और भी उसके साथ मे सोचा जायेगा? या खुद को बुलंद किया जायेगा या किसी को तैयार किया जायेगा? मैं अपने शब्दों को मजबूत करता जाऊंगा या किसी और के बहकते शब्दों को आकार देने की कोशिस करूंगा?

ये सभी सवाल, बेहद अटपटे से लगते हैं मगर इनमे कुछ छुपा हुआ है। जो गहराई से हमसे संवाद करता है।

लख्मी

रीमिक्स दिल्ली


16 दिसम्बर 2007, समय:- सुबह 11:40 बजे,

राम एक चाय की दुकान पर चाय बांटने वाला 18 साल का लड़का है। जो नये शहर की रीमिक्स होती रूप-सज्जा की नई पहचान के साथ इतिहासिक चीजों व समय को सोचता है। जब आप शहर मे रास्ता भुल जाते हैं तो आप के आसपास तेजी मे घूमते-फिरते लोग आप को रास्तों का परिचय देते हैं। ये भी कई ऐसी मुलाकातों के दौर मे रहता है।

राकेश