Friday, November 28, 2008

किसी को देखना और किसी में होना

किसी को देखना और किसी में होना, ये किस समझ को खींचता है और उसमे आवाज़ का क्या रिश्ता है? अक्सर हम अपने सामने बैठे शख़्स को एक तात्पर्य दे देते हैं कि वो हमारे सामने है और हमसे बाहर है? वो जो सुना रहा है वो उसकी टेंशन या स्वीकृति उसमे उसका दाखिल होना और हाज़िर होना वो स्वर से, बोली से या समझ से हो सकता है। तो देखने वाली हमारी आँखे उसके बिन्दु तलाशती है और आँकती है कि वो किन शब्दों में अपनी हाज़री को बयाँ कर पा रहा है बस, नज़र का दायरा महज़ उतारे हुए तक ही सीमित रहता है। उस आवाज़ का आकार या गहराई समझ मे नहीं आती। जो किसी कंठ से निकल रही है।

आवाज़ का रिश्ता महज़ ब्यौरा या भराव के लिए नहीं होता। वो एक भाव देती है और अन्य भाव पैदा करती है। वो भाव जो वो पैदा कर रही होती है वो नियमित समय की अवधि का कोई जवाब नहीं होता। वो एक ख़ास तरह का हस्तक्षेप होता है। जिसमे हस्तक्षेप के मायने वहाँ तक होते हैं जहाँ तक हम अपने दाखिल होने की हदों को संभाल सकते हैं। संभालना इसलिये होता है कि हम अपने अनुभव के मोड़ पर है पर किसी कहानी के अन्दर जहाँ पर हम अपनी मौजूदगी का आभास कर पा रहे होते हैं। मगर मैं वहाँ तक पँहुचा कैसे उसकी जर्नी मे समय का भाव पता होना चाहिये और उसके साथ-साथ मे हस्तक्षेप किसी मे हाज़िर होने की "मैं हूँ" वाला को आँका या नियमित किया दायरा नहीं होता।

कोई अपनी ज़िन्दगी को बोल रहा है। कोई अपनी ज़िन्दगी को शब्दों मे उतार रहा है। वो सामाजिक क्रियाओं के कुछ ऐसे बटँवारे है जिसमे वो अपनी कोई अलग छवि या "मुझे अलग देखो" कि अपील लिए नहीं है वो उस सामाजिक क्रियाओ मे हस्तक्षेप करने के लिए ही उतरना होता है।

माना जाता है की दोनों तरफ़ मे अपने अनुभव से कुछ है। पर उस अनुभव मे आते दृश्य मेरे हाज़िर होने से परे नहीं है और वो पल ना ही उनकी कोई खींची गई तस्वीर जिसमे मैं अपने चेहरे को तलाशू या खोंजू। वो घूम रहा है। अब उस दायरे में जिसमे पहला कदम रखा जा चूका है। इस हाज़िर होने मे कभी एक तरफ़ा नज़र नहीं होती और ना ही अकेलेपन का अहसास। एक पहले से ही जगह, ज़िन्दगी, समा, दायरा है जिसमे "मेरे होने का आभास जितना जरूरी है उतना ही वहाँ पर जाने का पहला कदम।"

इसका होना खुद से भी होता है और समाने से भी ज्ञात होता है। इनमे अन्तर क्या है? उनकी "बोली" मे वो छवि होती है जो वो बना रहे है और हमारी हस्तक्षेपी दुनिया मे वो जमा होती जाती है। हम फिसलते नहीं उसमे। जो लैख लाता है उसमे हाज़िर का आभास उसका है। वो अलग-अलग केन्द्रों से होता है। मज़ा, जोश, टेन्शन, उलझन, कर्कसी, ख़टास का अहसास तो कभी अपनी महत्वपूर्णता यानी के एक तरह का पारिवारिक रिश्ता। पर सुनने वाले के लिए वो बहस होगी या कुछ और?

मैं उस हाज़िर मे अपने कदम रखता हूँ तो कैसे? उसके हाज़िर होने के आभास को मद्देनज़र रखते हुए या अपने कदमो को कोई दिशा देता हूँ? किस की आवाज़ मेरे हाज़िर होने को आगे की तरफ़ मे धकेलती है? लैख मे जो दुनिया है वो या जो अपनी दुनिया का एक पात्र या किनारा उसमे पहले से ही दाखिल कर चुका है?

लख्मी

No comments: