Friday, November 28, 2008

जब रोशनी पड़ती है

लाल बिल्डिंग स्कूल, रमेश भाई उम्र मे 35साल के होगें और 17 सालों से मोची का काम करते आये हैं। पहले लाल बिल्डिंग स्कूल के बाहर एक 423 बस का स्टेंड हुआ करता था पर जब 423 बस का रूट चैंज हुआ तो वो बस स्टेंड अब खाली राहगीरों का अड्डा ना रहकर रमेश भाई का घर और कमाई का ज़रिया बन गया है। मतलब रमेश भाई ने उस बस स्टेंड को अपना घर बना लिया है।

एक कच्ची गीली मिट्टी से बनी ईटों की दीवारें और एक नीला और काले रंग के कड़क तिरपाल की छत। आगे खुद की मोची की एक छोटी सी दुकान। जिसे बनाये और जमाये हुए लगभग 10साल ही हुए हैं। 7 साल तक तो इन्होनें मोची का ही काम किया। पेटी लेकर गली-गली घूमते थे। लेकिन काम मे तरक्की हुई और एक ठीया डाल लिया।

18 साल पहले रमेश भाई अकेले ही राजस्थान से आये थे नौकरी की तलाश में। दिल्ली मे काम बहुत है ये सोचकर। दिल्ली से होकर जाते उनके दोस्त बताते थे "दिल्ली शहर में पैसा लुटता है बस, लुटने वाला चाहिये" तो बस, यही लूटने की उंमग लिए निकल गए अपने गाँव से लेकिन रहेगें कहाँ? ये तो बिलकुल ही नहीं सोचा था। घरवालों से पूछा तो था की क्या हमारा कोई रिश्तेदार दिल्ली मे रहता है? तो शायद, जबाब नहीं मिला। फिर भी एक ख़्याब लिए और जेब मे कुछ पैसे लिए ये जनाब दिल्ली मे आ गए। रहने को घर नहीं था, तो पहले घर ढूंढने को सोचा पर कुछ हासिल नहीं हुआ। किससे बात करते? किससे पूछते? ये तो सब दिमाग में हवा था। कोई चेहरा था ही नहीं जिससे कुछ पूछा जाये? फिर भी जहाँ चाय पीते वहीं से कभी चाय वाले से पूछ लिया करते। काम की और रहने की, लेकिन किसी को यहाँ की भागदौड मे बातें करने के लिए किसी हमसफ़र की तो तलाश है पर काम के लिए किसी हैल्पर की नहीं।

रमेश भाई दिखने मे तो ठीक-ठाक थे तो बेलदारी करने की सोची पर हिम्मत नहीं हूई। रात होते-होते जब खाने की तिलमिलाहट उठी तो मार्किट में पँहुचे जहाँ पर किराये पर रोज़गार मिलता था। मतलब वे काम जिनमे अपनी तरफ़ से कोई पैसा लगाने की जरूरत नहीं पड़ती थी। जैसे- कबाड़ी को साईकिल, सब्जी, फल, आईसर्किम बैकने वालों के लिए रेहड़ी और मोची के लिए पेटी। इतना देखकर रमेश भाई ने फौरन हिसाब लगाना चालू किया और कुछ दिनों तक इन मे से किसी काम को करने का फैसला किया मगर सस्ता। रमेश भाई ने वहाँ पर बातचीत की।
एक शख़्स से पूछा, "जी मोची की पेटी हमें चाहिये तो क्या करना होगा?”
वे शख़्स ऊपर से नीचे तक उन्हे देखते हुए, रमेश भाई से बोला, "कहाँ के हो? पहले भी कभी काम किया है? यहाँ पर किसी को जानते हो? रहते कहाँ हो?”

इतने सारे सवाल सुनकर रमेश भाई थोड़े चुप से हो गए और लरकते-लरकते हुए उगंलियों को मरोड़ते हुए बोले, "जी मैं यहाँ पर नया हूँ पर आप मुझपर भरोसा कर सकते हैं। मैं अभी तो यहीं रहता हूँ। खाना खाकर यहीं मार्किट मे सामने वाले होटल के बाहर उस सिल्ली पर सो जाता हूँ।"

न जाने उस शख़्स ने क्या देखा और पेटी देने को कह दिया पर पेटी का किराया था 20 रुपये। चाहें कमाई हो या ना हो, मंजूर है। रमेश भाई ने झट से कहा, "ठीक है, मालिक।"

रमेश भाई की जुबाँ से मालिक सुनकर तो उस शख़्स के चेहरे पर एक ललचाई सी मुस्काम छलक पड़ी बस, यहाँ से शुरू हुआ। दिल्ली मे घूमने का दौर और लोगों को, जगह को, सफ़र को, जूतों से, पैरों से, देखने का। कहते है ना 'आदमी की इज्जत उसके पैरों से होती है, इंसान की पहचान उसके जूतों से होती है। तो बस, इंसान को पहचाने का मौका यहाँ से ही मिलेगा। बस, निकल पड़े शहर को नजदीकी से देखने के लिए।

मैं रमेश भाई को वहाँ से गुजरते हुए देखता था। कभी लोगों के बीच, कभी परिवार के बीच तो कभी जूतों की भीड़ मे एक लम्बे छज्जे की छत, बाहर की दीवार पर लटके लैदर के चमड़े के नये जूते, एक तरफ़ खाली शॉल लाल, काले नीचे कट्टा बिछाकर, एक पेटी, कई चमड़े की कटे चिथड़े। उन्ही मे हमेशा घिरे रहते थे। आज जब मैं उनके पास गया तो वो एक जूते मे नया शॉल फिट कर रहे थे। एक नीचे रखा था सिलोचन लगाये हुए और दूसरे मे कील ठोक रहे थे। मैं पँहूचा उनके पास बातें करने के लिए। शाम का वक़्त था शाम भी अभी अधूरी थी यानि के तीन सवा तीन का बख़्त होगा? अब उनके बात करने के लिए वैसे तो जा नहीं सकते थे तो एक जूता लेकर गया। थोड़ी बातचीत हो कोई बहाना तो मिले।

मैंने कहा, "आपने अपने ठीये को बड़ा ही खूबसूरती से सजाया हुआ है। क्या बात है। आपने कैसे सजाया ये?”
रमेश भाई ठक-ठक करते हुए बोले, "अरे कहाँ भाई साहब, ये तो बस, इस वज़ह से है की यहाँ से आने-जाने वालों को दिखे तो सही कि यहाँ पर होता क्या है? और मिलता क्या है? अब हम शॉहकेश तो रख नहीं सकते इसलिये इन्हे ही दीवार पर कील गाड़ कर टाँग देते हैं।"
मैंने कहा, "आपने तो ये पेटी भी बड़ी ही हसीन बनाई हुई है। ये फोटो, ये स्टीकर, क्या बात है कैसे सजाते हैं आप ये?”

रमेश भाई अब जूतों को सुखने के लिए रखते हुए बोले, "इसे खूबसूरत नहीं बनायेगें तो किसे बनायेगें। हम तो इसकी पूजा भी करते हैं। भाई साहब आप क्या बात कर रहे हैं। अब इस पर जो फोटो लगी है वो क्या है की हमारी पंसद है। मैं और मेरी पत्नी की ख्याइस है की हम किसी बर्फ़ वाले इलाके मे घूमने जाये तो हमने ये तस्वीर लगाई है। बस, इसी को देखकर उस जगह के बारे मे सोचते रहते हैं कभी तो जायेगें?

उनकी जुबाँ पर जाना था कश्मीर और फोटो लगा था स्वजीलैंड का बीच-बीच मे जूतों पर उनकी नज़र थी अपनी बात को बडाते हुये, "और ये स्टीकर भाई साहब जिन रिश्तो मे हम कुछ नहीं कह पाते उनमे ये स्टीकर और हमारी पेटी बहुत कुछ कह देती है। "आज नगद कल उधार" भाई साहब इस पेटी को बारह साल हो गए है पर आप इसे देखकर ये सोच नहीं सकते की इसको कितना टाइम हो गया होगा? है ना! लगती है ना एक दम जवान।"

मैं क्या पूछता, जब वो इतने प्यार से अपनी पेटी के बारे में बता रहे थे तो मैं तो उन्हे टोक भी नहीं पाया तो पूछता क्या? मैंने उनसे कोई सवाल नहीं किया बस, मैंने कहा, "और बताइये अपनी इस हसीन पेटी के बारे मे इसकी सजावट, रूप और नाज़ुकपन के बारे में? क्या-क्या लगाते हैं इसपर इसे इतना खूबसूरत बनाने के लिए?”

रमेश भाई, बीढ़ी जलाते हुए और एक ग्राहक को 'जूते रख दो थोड़ी देर के बाद आना' कहते हुए, "मुझसे अभी तक किसी ने मेरी पेटी के बारे मे बात नहीं की थी आपने की है तो आज तो आपको बताउँगा।"

अब तो उनकी अवाज़ मे बड़ा ही शाँतपन था। लगता था की वो किसी को तो बताना चाहते थे। बीढ़ी का लम्बा कश़ और धीमी सी आवाज में बोले थे। अब तक मेरे जूतों को वो भूल ही चुके थे अंदर घर में से कुछ बनाने की आवाज आ रही थी शायद, उनकी पत्नी होगी?

"ये तो अब की पेटी है भाई साहब। जब मैं इसे लेकर घूमता था तो सभी मेरी पेटी को देखते थे हीरो-हिरोइन के पोस्ट कार्ड और उनके बीच मे छोटे-छोटे शीशे पेटी के चारों तरफ़ लगे थे। जब मैं चलता था तो शीशों की चमक रास्तों की छाँव वाली जगह, दीवार, चेहरे, कपड़े और समान सभी पर पड़ती थी तो हीरे की तरह चमकती थी। स्टीकर मैं शेरों-शायरी वाले लगाता था ताकी लोगों को मैं सड़क पर मिला तो टाइम पास करने के लिए कुछ तो हो। मुझे उस समय अजय देवगन पसंद था तो उसी के पोस्ट कार्ड लगे होते थे। पेटी के अंदर एक पोस्ट कार्ड साइज का शीशा जो ढक्कन पर ही लगा होता था। जब पेटी खुलती थी तो वो तभी दिखाई देता था। उसमे तो पेटी खुलने के बाद घरों की बालकनी ही नज़र आती थी और कभी-कभी मेरे पीछे से गुज़रते लोग ही नज़र आते थे। जिसकी खूबसूरती से तो मुझे उसका वज़न भी हल्का लगता था और मज़ा भी आता था। मेरे दोस्तों की टोली मे तो लोग मुझे चमकीले के नाम से बुलाते थे।"
मैंने पूछा, "पर आईना आपने पेटी में क्यों लगाया?”
रमेश भाई फौरन जवाब देते हुए, "मैंने तो वो सिर्फ़ सजावट के रूप मे लगाये थे। बाहर तो चमक के लिए अगर किसी के चेहरे पर लाइट पड़े तो वो मेरी तरफ़ उस चमक को देखते हुए जरूर देखेगा और अंदर तो मैंने अपने लिए और ग्राहक के लिए क्योंकि कोई भी कहीं भी लिए वो अपने आपको वहाँ पर देखना जरूर चाहता है। जैसे बस स्टेंड पर अगर हमें कोई देखकर हँसे तो हम चेहरे पर कुछ लगा तो नहीं यही सोचते हैं, कहीं ख़ास जगह या ख़ास शख़्स से मिलना तो तब या सुबह से शाम तक काम किया हो तब पर चेहरा देखते जरूर है। पर साहब मेरे पेटी के वो पोस्ट कार्ड साइज के टीवी जैसे शीशे मे तो मुझे जगह ही दिखती थी। जहाँ मैं बैठा होता था और वो चेहरे जिनके मैं सिर्फ़ जूते ही ग़ौर से देख पाता था।"

इतना कहकर रमेश भाई बीढ़ी तो ख़त्म कर ही चुके थे। अब अपना काम भी ख़त्म करना चाहते थे और इतना कहकर जूता उठाकर उसे धड़ा-धड़ ठोकने लगे। मैंने अपने जूते लिए पचास रुपये दिए और आने के लिए उठ खड़ा हुआ एक मुस्कुराहट के साथ और रमेश भाई अपनी उसी लाइन मे जुट गए जहाँ पहला नम्बर भी उन्ही का है और आखिर भी...।

रमेश भाई पुराने जूते की मरम्मत के साथ नये जूते भी बैचते हैं। रमेश भाई, "भाई साहब अगर आपको नये जूते चाहिये तो हमें मत भुलना सस्ते मे लगा देगें।"

उन्होंने पैसे बोरी के नीचे रखे और फिर काम चालू कर दिया और मैं भी वहाँ से निकला और रास्ता पार करने के बाद पीछे मुड़कर देखा तो रमेश भाई फिर से बीढ़ी जलाकर आराम से धूआँ हवा मे उड़ा रहे थे।

लख्मी

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