Wednesday, November 19, 2008

ये रात कटना मुश्किल है

आसमान मे सात या आठ ही तारें नज़र आ रहे हैं। अब तो कोई तारा इतनी तेज भी नहीं चमक रहा कि आँख उसपर जम जाये। ना ही कोई तारा किसी दूसरे तारे के साथ मे होता है। तारों के बीच की दूरी बहुत बड़ गई है। एक यहाँ दिखता है तो दूसरा वहाँ। आसमान भी पूरी तरह काला नहीं दिखता बारिश तो नहीं होने वाली फिर ये तारें कहाँ गायब हो गए? पूरा आसमान खाली है कुछ भी नहीं चमक रहा। बेचारा चाँद ही अकेला चमक रहा है कोई साथ देने के लिए ही नहीं है। लग रहा है जैसे मोहल्ले मे एक ही घर मे शादी है बाकि सब सो रहे हैं। मगर ये तारें सारे गए कहाँ? पिछले कुछ सालों मे ही हुआ है ये सारा गज़ब। धीरे-धीरे सारे पता नहीं सारे उड़कर कहाँ गए? कहीं टूटकर तो नहीं गिर गए? शायद बड़ी-बड़ी बिल्डिंगो के पीछे छुप गए होगें। नहीं-नहीं दिल्ली मे ट्रफिक भी तो बहुत बड़ गया है तो छुप गए होगें धूए के पीछे। पहले तो आसमान मे तारें गिनते-गिनते ही नींद आ जाया करती थी। अब तो कितनी भी बार आँखों को ऊपर करलो तारों को ढूंढ-ढूंढकर ही आँख दुखने लगती है।

कितने त्यौहार है हमारे यहाँ पर जिनको पूरा तारों और चाँद को देखकर किया जाता है। अब बताओ कैसे कोई पूरा करेगा? तारें देखने के लिए या तो गली के बाहर जाना पड़ता है नहीं तो जाओ किसी मैदान मे। एक ये पार्क है जहाँ से आसमान देखना तो दुर्लब है ही तो तारें क्या ख़ाक दिखेगें। हटाओ ये सारा, नहीं चाहिये।

रामेश्वर जी पार्क मे खाट बिछाए आसमान की तरफ देखकर अपने मे बड़-बड़ा रहे थे और बीच-बीच मे गाना गुन-गुनाने लगते, “मैं वब की चिड़िया, वन-वन डोलू रे, मैं वन की चिड़िया।"

अपने मे खोए उसके मूह से यही गुन-गुनाहट फड़ककर निकल आती। कभी वो बौखलाहट मे तेजी पकड़ लेती तो कभी मूह मे अटक कर रह जाती। खाट पर पड़े-पड़े मचल रहे थे। आज छ: फिट लम्बी खाट भी उनके लिए छोटी पड़ रही थी। कभी सिर लटकता तो कभी पाँव और कभी मद-मस्ती मे खाट की बेड़ियों मे अपने पाँव को फंसा देते। खाट पर बिछी बिछौनी तो खाट के नीचे लटक रही थी। औढ़ावनी तो सिर के नीचे घुसी थी। अपनी वर्दी भी आज उन्होने उतारी नहीं थी। उन्ही को पहने, “मैं वन की चिड़िया, वन-वन डोलू रे।" गाए जा रहे थे।

ना जाने कौन सी फिल्म का ये गाना उनकी जूंबा पर अटक गया था। गाने की अगली लाइन क्या है वे तो आ ही नहीं रही थी। बार-बार यही बोल आते और झट से खामोशी हो जाती।

दरवाजे से सटे बक्से के ऊपर बिस्तरा करती उनकी बीवी उनकी तरफ देखकर कुछ सुनने की कोशिस करती मगर समझना उनके बस का नहीं था। वे रामेश्वर जी की तरफ आते हुए बोली, “क्या बात है जी बड़े मस्ताये रहे हो। नेक मे क्या दारू मिल गई आज को चड़ा आए।"

रामेश्वर जी उनका हाथ पकड़ते हुए बोले, “अरी तुझे तो दारू ही नज़र आती है। हमें तो अरसा हो गया मस्ताने बने हुए। याद है पिछला, दो गर्मियाँ बीत चुकी है।"

"हाँ-हाँ अच्छी तरह से याद है। आश्रम के पुल के नीचे रहते थे तब हम। वहाँ भी आसमान मे यूहीं नज़र गाड़े थे तुम, पर ये भूल गए थे कि पुल के नीचे पसरे हो। पुल के छेदो के अन्दर से दिखती रोशनी को तारें समझ रहे थे। खूब याद है मुझे।"

रामेश्वर जी अपने हाथों को खाट पर लम्बा फैलाते हुए बोले, “अरी तूने तो मुझे पागल समझ लिया। इतनी नहीं पीता मैं कि मस्तानों की टोली से बाहर हो जाऊं।"

उनकी बीवी रामेश्वर जी के सिरहाने पटले पर बैठते हुए बोली, “आज क्या हुआ है वो बताइये, काहे इतना मस्ताए रहे हो?”

रामेश्वर जी ने अपनी आँखों के ऊपर हाथ रखते हुए कहा, “आज का दिन मेरी 20 सालों के इस बहुरूपिया बनने के टाइम मे पहली बार आया है। इसे नहीं भुला सकता मैं। अरी कभी-कभी तो मुझे लगता है कि मैं लोगों के घर मे जाकर करता क्या हूँ? उनके दुख-दर्द के साथ मे कुछ मेल होता है मेरा? अगर किसी के घर मे कुछ हो जाये तो भी मैं बहुरूपिया बना फिरूंगा? बस, इसी खुशी मे चड़ाली मैंने आज। बता कुछ बूरा किया मैंने?”

उनकी बीवी रामेश्वर जी की तरफ़ अपना पूरा ध्यान लगाते हुए बोली, “जी आप तो कभी ऐसा नहीं सोचते थे, आज क्या हुआ है आपको? और मैं जाने ना हूँ क्या आपको, आप तो हमेशा सुख-दुख दोनों को खूब सोचते हैं। बात क्या है जी वे तो बताइये?”

रामेश्वर जी फिर से अपने मे खोते हुए बोले, “आज हम जिसके घर मे गए थे वहाँ पर कुछ भी नहीं था‌। ना तो टेन्ट लगा था और ना ही कुछ पंडाल था। सिर्फ़ घर के लोग थे वो भी खाट बिछा कर घर के बाहर ही बैठे थे। पूरी गली की आँखे उनके ऊपर जमी थी। ना जाने क्या हुआ था? मगर कुछ अलग सा लग रहा था। जैसे ही हमने उनके घर के सामने कदम रखा तो गली वालो की नज़र उनके ऊपर से हटकर हमारी तरफ़ मे आ गई। जैसे हमारे आने से उस घर मे कुछ होगा और उसे होता हुआ देखने के लिए गली के लोग तैयार हो रहे हैं। हम भी सबकी तरफ मे मुस्कुराते हुए वहाँ खाट पर बैठे आदमी के पास गए। वे हमे देखते ही खड़े हो गए। पर हमने कुछ कहा नहीं। बस, रजिस्टर उनके हाथ मे दे दिया। पहले तो हमने ये सोचने मे ही अपना टाइम लगा दिया था कि आखिर मे वो घर कौन सा है जहाँ पर शादी है? पर लोगों को देखकर ही लग रहा था कि यही है। उन्होंने अपनी आँखो के इशारों से ही हमे बता दिया था कि यही घर है।

वो आदमी जो हमें देखकर खड़े हो गए थे वे हमसे कुछ नहीं बोले बस, हमे देखते रहे। बहुत हल्की सी आवाज मे जैसे ही कुछ कहते इतने मे एक औरत ने उनसे कहा, “ये तो आयेगें ही इनको हम तो नहीं रोक सकते। ये तो सहना ही पड़ेगा ही सुखलाल, ये तो झेलना ही पड़ेगा।"

उनकी निगाह झुक गई थी। वो रजिस्टर हमारे हाथों मे ही घूम रहा था। गली मे खड़े सभी के चेहरे उनके घर की ही तरफ़ मे मुड़ गए थे। जैसे तमाशा दिखाने वाले को घेर लिया जाता है। मैं समझ नहीं पा रहा था की ये हो क्या रहा है? पहले तो लगा की यहाँ कुछ तो ऐसा हुआ है जो सहीं नहीं था। लेकिन हमारा भी तो कुछ फर्ज़ और काम है ना यहाँ पर। उसी को दिमाग मे लेते हुए चले जा रहे था उनके घर की तरफ़। चाह कर भी वहाँ से जाने की इच्छा नहीं हो रही थी।

उनके चेहरे को देखते-देखते ही हमने अपने लिए वहाँ पर जगह ढूंढ ली थी। बस, अब इंतजार करना बाकि रह गया था। इतने मे उनकी नज़र गली के एक कोने पर गई। गली के अन्दर कुछ लोगों ने प्रवेश किया। उनके हाथों मे बड़े-बड़े परछे थे। देखने मे तो वो हलवाई से कम नहीं लग रहे थे। वो सीधे उनके ही दरवाजे पर चले आये। फिर लगा की हम किसी गलत पते पर आ गए हैं। यहाँ पर अभी कोई प्रोग्राम शुरू ही नहीं हुआ है। यहाँ पर आज नहीं दो दिन बाद आना होगा। लेकिन फिर दुकान वाले ने हमें समान की लिस्ट क्यों दे दी थी। यहीं दिमाग मे चुभने लगा था। मैं क्या बताऊ कुछ भी खोपड़ी मे घुस ही नहीं रहा था। हम तो वहाँ पर बिना कुछ कहे बस, खामोशी से खड़े रहे। शायद, इसी मे हमारी भलाई थी।"

इतनी लम्बी बात कहकर वो अपने गाने की धुन मे फिर से खोने लगे। उनकी बीवी तो बस, मण्डली को कोसने लगी थी, "सही पता देना चाहिये। कुछ ऊंच-नीच हो जाये किसी के साथ तो क्या होगा?”

मगर उनको यह नहीं पता था कि रामेश्वर जी की ज़ुबान मे क्या अटका हुआ है? जो बाहर निकलने मे इतनी मस्सकत कर रहा है। वे ना चाहते हुए भी उसको कभी बताते तो कभी वो दिल मे ही रह जाता। रामेश्वर जी बोले, “क्या कहूँ, कभी-कभी तो जानकी यहाँ पर सबकी हालत ऐसी हो जाती है जैसे हम लेम्प मे जलती लॉह हैं, जिसे ना तो तेज किया जाता है और उम्मीद भी रखी जाती है कि वो रोशनी ज्यादा दे। क्योंकि उसे तेज कर दिया तो वो लेम्प के शीसे को काला कर देगी और रोशनी नहीं होगी। ये क्यों होता है? कुछ पता नहीं, अरे हटाओ इसे, मैं वन का चिड़िया, वन-वन डोलू रें।"

हल्की-हल्की ऑस उनके मूह पर गिरने लगी थी। पार्क मे जलते खम्बे के बल्ब मे बिलकुल भी जान नहीं थी के वो उस ऑस को नज़र अन्दाज करने मे उनकी मदद कर सकें। बस, वे बिना कुछ ऑढ़े खाट पर करवटें बदल रहे थे। कभी मुस्कुराते तो कभी आसमान मे तारों की जान के पीछे पड़ जाते। आज कमबख्त तारें नज़र भी तो नहीं आ रहे थे। एक-काद नज़र आ जाता तो वो गिनकर सो तो जाते। लेकिन आज तो वे भी नख़रों पर उतर आये थे। अब किया भी क्या जा सकता था। बड़-बड़ाना उनका चालू ही था।

उनकी बीवी ने उनको कुछ भुलवाने के लिए बात को काटते हुए कहा, “अजी परे करों ये सब, खाना लाऊ मैं? भूख नहीं लग रही है क्या तुम्हे आज? या इसी सोतन से ही पेट भर गया तुम्हारा?”

रामेश्वर जी- गाना दोहराते हुए बोले, “मैं वन का चिड़िया, वन-वन डोलू रे, अरी आज तो वो नशा है मुझमे की भूख का ख़्याल लाना ही मेरे लिए अनर्थ होगा। समझी के ना! तू खाले, मैंने आज नहीं खाना-खाना।"

उनकी बीवी ने अब कोई जोर-जबरदस्ती नहीं की थी। वे बस, उनके साथ मे बैठी रही। सोच रही थी कि क्या पूछें जिससे उनके दिमाग से वहाँ की बातें निकल जाये। लेकिन सब, इन्तजाम बेकार ही थे। अब तो उनके भी दिमाग मे ये घूमने लगा था की वहाँ क्या हुआ होगा और इस तरह से लोगों के उनके घर के आगे जमा होने का क्या कारण हो सकता है? वे अपने दिमाग मे वहाँ की तस्वीरे खींचने लगी। उस आदमी का चेहरा, लोगों की नज़रे, खाट पर बैठे परिवार वाले, बड़े-बड़े पर्छे लाने वाले वे हलवाई और ना जाने कितने तरह के चेहरे उनके दिमाग मे बनने लगे थे। पर किसी का भी वहाँ पर क्या काम है वे नहीं बना पा रही थी। तो खामोश बैठी थी। इस इंतजार मे की ये अभी उठेगें और दोबारा से वहाँ के बारे मे बोलने लगेगें।

रामेश्वर जी आँखों को बन्द किए, खाट पर सीधे लेटे थे। उनके पास कहने को तो बहुत कुछ था लेकिन जो वो कहते उस कहने से उनका कोई रिश्ता नहीं था। तो उस बात के नीचे दबना नहीं चाहते थे। क्यों उस बात को दोहराया जाये जिसके होने या ना होने से कोई फर्क नहीं पड़ने वाला था उन्हे। पर क्या सच मे कोई फर्क नहीं पड़ने वाला था! ये उनका वहम था। जो होना था वो तो हो चुका था।

रामेश्वर जी उसी अवस्था मे ही बोले, “जानकी रे, कोई बड़ी बात ना है जो तू इतना खामोश बैठी है। मेरे ना कहने पर दाना भी ना चुग रही। आज तक तो ऐसा हुआ नहीं है। खाले जाके। एक बात कहूँ हूँ मैं तुझे, मैं वहाँ के बारे मे बताना तो चाहता हूँ पर मुझे वहाँ जो माहौल रहा था। उसको बताया नहीं जा रहा। लग रहा है जैसे मैं या तो सब कुछ बता दूंगा या फिर कुछ ऐसा छोड़ दूंगा जिस से उस बात का कोई और ही मतलब बनेगा। जिसमे जो बात को आगे बड़ाता है वो उसको गलत ज़ुबान मे ले जाता है। मैं कहीं वो ना बन जाऊ। इसलिए बता नहीं पा रहा हूँ। वहाँ पर बहुत सारे लोग थे। सबके मूंह पर या तो ताले लगे थे या फिर सभी उस घर के बारे मे बोलने के लिए तैयार थे। बस, थोड़ी हवा की जरूरत थी। पिछली रात शुक्रवार की थी। इस ठंड के मौसम मे लोग जल्दी ही घरों मे घूस जाते हैं तू तो जानती ही है। उस आदमी के घर मे शादी थी। उनकी लड़की की। तो ज्यादा मेहमान तो नहीं थे। लेकिन जितने भी थे वो एक किराये के मकान मे थे। जो कि उस आदमी मे लिया हुआ था। मेहमानो के लिए। रात लगभग साढ़े दस बजे होगें। जिसकी शादी थी वे किसी लड़के के साथ मे भाग गई। गली के कुछ लोगों ने देखा मगर किसी ने रोकने की हिम्मत नहीं जुटाई। सब यूहीं देखते रहे। बस, जब उन आदमी के घर मे हल्ला मचा तो सभी बाहर खड़े हो गए। उसके बाद तो बस, रोना-धोना शुरू हो गया। ना जाने क्या-क्या नहीं हुआ होगा। सब कुछ दिमाग मे आता है तो कलेजा हिल जाता है। बस, एक बात दिमाग मे घूम रही थी कि जो भरी थाली मे लात मार के जाता है वो कभी सुख नहीं भोगता।"

उनकी बीवी ने रामेश्वर जी की तरफ मुस्कुराते हुए देखा और कहा, “अजी तो ये बताइये कि तुम इतना क्यों सोच रहे हो उनकी बातों को? ये अलग-अलग घर के मसले हैं। तुम्हे सोचने की क्या जरूरत है?”

रामेश्वर जी ये बात सुनकर कुछ बौखलाये जरूर थे लेकिन, बोले, “तुझे जो नेक के पैसे लाकर देता हूँ उसपर हमारा क्या हक है बता? वो नेक क्यों देते है बता? या ये बता कि बहुरूपिया खाली पैसे ले और निकल आये उसका कोई धर्म नहीं है? मैं भी विनोद की तरह से आ सकता था दारू पीकर सो सकता था लेकिन मेरे दिमाग से ये बात नहीं निकलती तो मैं क्या करूँ? अरी तू समझती नहीं है। तू जो वहाँ पर होती तो पता चलता। उस वक़्त वहाँ पर क्या हालात थे। नज़रों से बचना और उस मे शामिल होना दोनों ही मुश्किल थे। जैसे मुझे लग रहा था। अगर ये किसी के लिए आसान है तो होगा। लेकिन मेरे लिए नहीं था। पर तू चिंता मत कर मैंने वहाँ किसी को ये महसूस नहीं होने दिया कि मुझे भी किसी किस्म का दुख हुआ है।"

ये बात कहते हुए वे खाट पर दूसरी तरफ़ मे करवट लेते हुए चुप हो गए। उनके बड़-बड़ाने की आवाज धीमी थी। बिना मूह को खोले ही अपना गाना गुन-गुना रहे थे। आवाज, उनकी खाट के पाये तक ही रहती। खाट के नीचे भी नहीं जाती होगी। ये आवाज उनके गले की नहीं पेट की थी। जो घूम रही थी।

लख्मी

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