Tuesday, December 30, 2008

हमें मंच नहीं मचान चाहिये

रास्ते हमसफ़र होते हैं। ज़िन्दगी के इस सफ़र में घूमती-फिरती किस्से-कहानियों की टोलियाँ हमारी हमजोली होती हैं जो एक नज़र देखने पर हमें अपनी तरफ खींच लेती है।

दक्षिणपुरी मे भी एक जगह ऐसा माहौल उभरा। जहाँ शख़्सों की रोज़ की आवाजाही में इस वास्तविक जीवन से हट कर एक काल्पनिक ढ़ाँचा नज़र आया। चारों तरफ सन्नाटे से बनी दिवारों को तोड़ता ये किस्सागोही का माहौल अपने आप में एक मेला ही था। जो दुरियों को भी नजदीकियों मे तबदील कर देता। इस माहौल की हवाओं से बेरूखी भी तौबा कर लेती। जब ज़िन्दगी अपने आप से नाट्कीयता करती तो चेहरों के हाव-भाव भी फूलों की तरह खिल उठते।

जे ब्लॉक के रास्ते पर बनी परर्चून दुकान है और मकान के पेड़ के साथ कबाड़ी की दुकान भी है। ये रास्ता कभी रुकता नहीं। पेड़ के पास वो किस्सागोही का माहौल हर सुन्ने वाले के कानों को दावत देता है। इस किस्सागोही में शामिल होने वाले शख़्स अपने आप को इस माहौल में खुश पाते हैं। जे ब्लॉक के अन्दर वाले पार्क से जुड़ा ये रास्ता समय-समय पर अपने रूप को बदलता रहता। कहानी सुनाने का ये अड्डा भी है जो अपनी रोज़ की रफ़्तार मे व्यस्त रहता है। इस अड्डे पर बने मचान पर कहानी सुनाने और सुनने वालों की बस, यही आवाज़ आती है , "हमें मंच नहीं मचान चाहिये।"

फिर ये घुमक्कड़ कहानी किसी दिवानों की तरह हर आँख को अपनी तस्वीर दिखाने लगती है और हर कानों को अपना साज़ सुनाने लगती। तब समय जैसे वहीं ओस की बूँद बन कर ठहर जाता। तब, दिल कहें रूक जा रे रूक जा यहीं पे कहीं। जो बात इस जगह वो कहीं पर नहीं।

हम अपने आसपास मे कई ऐसी जगहें खुद से बनाते हैं जिनमे हम अपने जीवन की कई घटनाओं को, अनुभवों को, आपबितियों को और न जाने कितने ऐसे किस्से सुनाते हैं जिनको हम अपने जीवन के मुल्य मानते हैं। वे जगहें हमारे जीवन मे क्या करती हैं या उनकी अहमियत क्या है?

छोटे-छोटे माहौल मे वे जगहें खूब खिलती हैं, महकती हैं और बनाई जाती हैं। दक्षिणपुरी मे ये माहौल किसी ऐसे ही माहौल से कम नहीं था। जिसमे आने वाले, सुनाने वाले और सुनने वाले लोग अपने अनुभव मे इसे शामिल ना कर रहे हो। शाम के 4 बजे से ये माहौल शुरू होता और रात के 7 बजे तक एक ऐसा माहौल बना लेता जिसमे अपनी जगह को देखने का नज़रिया ही बदल जाता। लोग अपनी गली, नुक्कड़, छत और पार्क से देखने चले आते। कुछ देर सुनते फिर ये पूछने की चेष्टा लिए उस शख़्स को तलाशते जो इस माहौल मे पहले से ही खड़ा दिखता।

कई सवाल इस माहौल मे घूम रहे होते। ये माहौल कोई रामलीला का स्टेज़ या किसी नाटक का मंच नहीं था। ये मचान था लोगों के अन्दर चलते किसी ऐसे रूप का न्यौता जिसमे खुद से बाहर जाने, निकलने और बहने की जिद्द छुपी होती है।

कहानियाँ, हम कहानियों को अक्सर सुनते हैं, कहते हैं, दोहराते हैं और कभी-कभी तो बनाते भी हैं। लेकिन उसके भागीदार कौन होते हैं? और वे कहानियाँ बाँटी कहाँ जाती हैं?

ये मचान वे ठिकाना था, जहाँ पर ऐसी ही कई कहानियों का बसेरा बन पाया था। दक्षिणपुरी का ये कौना किसी घर का था पर ये जगह किसी ऐसे रूप मे थी जो किसी की अपनी होने के बावज़ूद भी अपनी नहीं थी। इसमे कोई भी आ सकता था, गा सकता था, सुना सकता था, बैठ सकता था।

ये माहौल उस बैठक का रूप था। जिसकी मांग मे अक्सर हम जीते हैं।

दिनॉक:- 26-01-2008, समय:- शाम 4:30 बजे

राकेश

भाई का प्यार

चारों तरफ शौर ही शौर था। कुछ भी बदला हुआ नहीं था ना तो बाहर का नज़ारा और ना ही अपने साथ में बितता समय। सब कुछ वैसा का वैसा ही था। बस, लोगों के आने-जाने मे नज़र लोगों से छुपने का ठिकाना ढूँढ रही थी।

तभी किसी ने जोर से आवाज लगाई, “क्या हुआ भाई बाहर क्यों बैठे हो?”

ये बोल क्यों निकल रहे थे इसका पूरा अन्दाजा था भाई को। वे उसकी तरफ में देखते हुए बोले, “बेटा मज़े मत ले, तने भी खूब पता है कि क्यों बैठा हूँ मैं यहाँ!”

अपने डराने और समझाने वाले अन्दाज में उन्होंने इशारा कर दिया था। ये आज की ही बात नहीं थी। भाई से इस तरह के मज़े लेने के लिए कई लड़के अक्सर तैयार रहते हैं। बस, किसी दिन भाई को गली के कोने पर बैठा हुआ देखले बस। समझों भाई से आज बेइन्तहा मज़े लिए जा सकते हैं। आज का दिन उनका ऐसे ही कटने वाला था। इससे पहले की कोई और आकर मज़े ले जाये उससे पहले कहीं चले जाये तो अच्छा है। वे गली के कोने पर बैठे बस, यही सोचने मे अपना टाइम निकाल रहे थे। कभी-कभी तो अपने में बुड़-बुड़ाने लगते, “क्या ज़िन्दगी है, साला हम तो कुंवारे ही ठीक थे। क्या रौब था अपना, अब देखो लानत है।"

ये दोहराते हुए गली के बाहर की दूसरे कोने पर मुरारी जी की एसटीडी की दुकान पर चले जाते। मुराजी जी इस वक़्त मे बहुत व्यस्त रहते हैं। मोबाइल से भरी इस दुनिया में लोकल फोन की भरमार अब भी कम नहीं है। एसटीडी तो नहीं लेकिन लोकल फोन बहुत होते हैं। वैसे भी लोगों को बूथ चाहिये। वो मिला तो बस, बातें शुरू। भाई तो हमेशा इससे बहुत गुस्सा खाते हैं। कभी-कभी तो मुरारी जी को धमका भी देते हैं कि, “मुरारी तू ये बूथ हटा दे, क्या साला आशिकों की लाइन लगवा कर रखता है हमेशा।"

मुरारी जी भाई से हमेशा कहते, “यही तो हमारे देव हैं। इन्ही से ही तो रोजी-रोटी चलती है हमारी और भाई तुम तो ऐसे बोल रहे हो जैसे तुम तो कभी गए ही नहीं इस दुनिया मे, भूल गए क्या भाई?”

"अरे, मन्ने याद मत दिला। जीवन में एक यो ही तो गलती से मैंने, इब तक भुगत रहा हूँ। जाने है, जिससे मैंन्ने बात कि थी फोन पर वो ही सिर चड़के बैठी से म्हारे सिर पे।" भाई बिना रूके हुए बोले थे। नज़र कहीं रूक ही नहीं रही थी।"

मुरारी जी कहते, “क्या भाई तुम तो वैसे ही बदनाम करते हो हमारी भाभी को।"

भाई इस बात पर फिर से अपने डराने वाला अन्दाज मे बोले, “हाँ बेट्टे, तू भी ले-ले मज़े। पता है ना तन्ने कोन हूँ मैं?”

"क्या कह रहे हो भाई, तुम तो जानते ही हो, मैं तो कभी मज़े नहीं लेता आपसे। अच्छा भाई ये बताओ, फिर से चौकी कब लगवा रहे हो अब? सुना है, पुलीस वाले आजकल मना करते हैं चौकी लगाने के लिए?” मुरारी जी ने कुछ सुनने के लिए कहा।

भाई अपनी भवों को ऊपर चड़ाते हुए बोले, “हमें भी मना करेगा कोई, के बात कर रहे हो मुरारी जी?”

ये कहते हुए भाई बाहर में आकर खड़े हो गए। बाहर मे आते-जाते लोगों को देखने लगे। अन्दर आकर कहने लगे, “मुरारी यो अपनी ही गली बाहर ही लगा दे चौकी तो कैसे रहवेगा?”

मुरारी जी उस तरफ मे देखते हुए बोले, “भाई ठीक है, पर पर्मिशन तो लेनी पड़ेगी ना!”

भाई उसकी दुकान से फोन करने लगे। उन्होंने जल्दी से एक नम्बर मिलाया और फोन पर बात करने लगे, “हाँ, सरजी मैं बोल रहा हूँ, एक बात कहनी से, के माता की चौकी लगाने के लिए भी अब पर्मिशन लेनी पड़ेगी के?”

उस तरफ की बात के जवाब देते हुए बोले, “अरे सरजी हमारी पर्मिशन तो आप हैं। समझ रहे हैं ना सरजी, तो मैं तो लगा रहा हूँ, और हाँ, आप भी आ जाना परिवार समित, मैं बंजारा भाई और नरेंद्र चंचल जी को बुलावा लेता हूँ।"

मुरारी जी की तरफ मे देखते हुए वे फिर से बोले, “ले मिल गई पर्मिशन, बाबू ये समाज अभी हमारी पावर ने जाने ना है, के चीज से हम। इब लगा चौकी और देख के धमाल करे हूँ मैं।"

मुरारी जी बोले, “भाई मुझे तो पहले से ही पता था की आप करवा दोगें ये सारा काम। तभी तो आपको कहा मैंने। अबकी करेगें बहुत ही जोर-शौर से माता का जागरण।"

"बेट्टे यो ऐसे ही ना हो जाता, घंड़ी मार खानी पड़े है। हमने भी बहुत मार खाई से इन सभी की, और कई रातें वो काली कोठरी मे बिताई से। मगर इब सब समझ मे आ गया है। यो के चाहवें हैं और हमें के करना से। ऐसे ही चले हैं खेल। मगर भाई यो भी घंड़े चालु होवे हैं एक काम करेगें तो ना जाने कितने हमसे करवा लेवे हैं। जब हम मना ना करते इनके काम की तो इनका भी तो कोई फ़र्ज़ बने हैं ना।" भाई मुरारी जी की तरफ मे अपनी पूरी निगाह को गड़ाते हुए ये बोले थे।

मुरारी जी उनकी तरफ मे देखते हुए बोले, “भाई एक बात कहूँ, सब कुछ बदल गया लेकिन एक बात नहीं बदली आपके अन्दर। आपका फोन पर बात करने का तरीका, वैसा का ही वैसा ही है। याद है ना भाभी से कैसे बात की थी आपने!”

भाई मुस्कुराते हुए मुरारी जी की तरफ मे देखने लगे और थोड़ा बाहर की तरफ मे देखते हुए बोले, “उज्जड़ तरीका है ना मेरा? यही कहना चाहवे है ना तू। ले-ले फिर से मज़े। पर देखले यही तरीका काम आवे है, चाहे लव हो या काम। यही तरीका करवाये है पूरा उसने। देखले चौकी भी लग गई और कैसी तितली सी भाभी है तेरी।"

मुरारी जी उनकी तरफ छेड़ने के अन्दाज मे बोले, “हैं सच्ची तितली सी है मेरी भाभी। भाई उस दिन के बारे मे हमें तो कुछ बताओ ना।"

"ले-ले फिर से मज़े, बेट्टे बहुत मज़े ले रहा है तू आज। पर कोई ना। तेरी कसम बहुत याद आवे वे दिन। मेरे साथ मे लाले था। हमने तेरी कसम, भाई पूरी रात पी थी। सारे ब्रांड खींच लिये थे हमने। वे मन्ने बार-बार अपनी बन्दी का फोन स्पीकर ऑन करके बात सुनवा रहा था। मेरा दिमाग ख़राब हो रहा था। साला, हमेशा ही जब भी उसकी बन्दी का फोन आता वे स्पीकर ऑन कर लेता और मन्ने सुनाता। मैंने भी एक पटियाला डकारा और पँहुच गया वो पीछे वाली एसटीडी की दुकान पर। लाले भी था मेरे साथ मे और भाई तेरे भाई ने मिला दिया फोन, मेरे भाई के ससुराल मे एक पड़ोस की बन्दी थी मेरे से बहुत मजे लेती थी वे, मैंने उसको ही फोन कर दिया।"

लड़की ने फोन उठाया, “हैलो कौन?”

भाई, “मैं बोल रहा सूँ तेरी सहेली का देवर, पहचान लिया के?”

लड़की ने कहा, “कौन सी सहेली के देवर हैं आप? मैंने पहचाना नहीं।"

भाई ने कहा, “अरे तेरे साथ वाली सहेली, सुनैना का देवर बोल रहा सूँ मैं। इब पहचाना के?”

लड़की ने कहा, “जी नहीं, मैंने नहीं पहचाना।"

भाई ने कहा, “अरे ओ, पहचान गई चूल्हे मे, तू मेरी बात सुन। बहुत दिनों से कहना चाहूँ हूँ, सुन रही है के?”

लड़की ने कहा, “हाँ, सुन रही हूँ मगर आप कहना क्या चाहते हैं?”

भाई ने कहा, “अरे मैं यो कहना चाहूँ, मन्ने रात मे नींद ना आती, साला पानी पीवे हूँ तो तू ही नज़र आवे है मन्ने। म्हारा काम मे जी ना लगता। मैं पागल सा हो गया हूँ, रोटी खावे हूँ तो मन्ने तेरा ही चेहरा दीखे है, के करूँ मैं। मन्ने लागे है मन्ने इश्क हो गया है तेरे से। सुन रही है के?”

लड़की ने कहा, “अच्छा जी, इश्क हो गया है, किससे?”

भाई ने कहा, “अरी वावली तेरे से हुआ है मन्ने इश्क।"

लड़की ने कहा, “तुम जानते हो ना मेरे भाई क्या हैं यहाँ के?”

भाई ने कहा, “अरी छोरी तेरे भाई मन्ने ना जानते, मैं वो हूँ जो बन्दो के घर मे घुसकर फैसला करे हूँ। मन्ने धमका मती।"

लड़की ने कहा, “अच्छा, देखलो कहीं तुम्हें ही ना उठवा ले घर से।"

भाई ने कहा, “ओए लाले ये कह रही है जरा देखिओ, मेरे से कह रही है इसके भाई मन्ने उठवा लेगें घर से, जरा समझइयों इसने।"

लाने ने कहा, “हाँ भाभी जी, भाई सही कह रहा है, इसको प्यार हो गया है आपसे, पूरी रात आपके बारे मे ही बात करता है और भाभी जी भाई को धमकाओ मत ये बहुत गुस्से वाला बन्दा है। बस, ये आज सच कह रहा है। बात मानलो इसकी।"

लड़की ने कहा, “हैलो भाई, मैं भाभी नहीं हूँ आपकी।"

भाई ने कहा, “सही कह रहा है लाले, अरे तू समझे क्यों ना है, अरी मैं तेरे से सच्चा प्यार करे हूँ, आज मैंन्ने इतने प्यार से किसी से बात की है और मैंन्ने किसी की तरफ मे यो निगाह भी नहीं डाली है। मन्ने सच्ची मे इश्क हो गया है तेरे से। म्हारा काम छूट गया है तेरे चक्कर मे। जिब जी ही नहीं लगता था तो साले मालिक ने कह दिया कि जाओ इश्क करो काम करने की क्या जरूरत है। इब बता यो पता है तेरे को, कोई बन्दी के लिए काम छोड़े है भला। मन्ने सच मे इश्क हो गया है तेरे से। समझ जल्दी।"

लड़की ने कहा, “क्यों पैसे ख़त्म हो गए हैं क्या कॉल के? चलो अब तो मैं अपने भाईओ को बता कर ही रहूंगी। जब देखती हूँ कितना दम है तुममे।”

भाई ने कहा, “ऐसा है कहदे अपने भाईओ से, ले म्हारा पता लिखले। म्हारा दम देखना चाहवे है ना तो यो ही रहा। मैं भी तेरे घर के बाहर मे आकर ना खड़ा हुआ तो म्हारा भी नाम ना। चल इब फोन काट।"

मुरारी जी अब चुप थे। भाई भी बाहर की तरफ मे चले गए थे। थोड़ी देर के बाद मे एक लड़का दुकान मे आया और सीधा टेलीफोन बूथ मे घुसते हुए बोला, भाई साहब फोन मत कटने देना।"

भाई उसकी तरफ मे देखने लगे और उसको पूरा ऊपर से नीचे देखते हुए उसकी तरफ देखकर हंसने लगे। मुरारी जी उनकी हंसी को समझ गए थे। मगर कुछ बोले नहीं। भाई बाहर आकर खड़े हो गए। एक लड़का दोबारा दुकान के बाहर से निकलता हुआ बोला, "क्या हुआ भाई अभी तक गए नहीं घर?” भाई हंसने लगे।

लख्मी

Friday, December 26, 2008

जगह का बनना और पकड़े रहना

इन दिनों घर मे कुछ सोचने को मिला। जो शायद काफी दिनों के कारण था। जिसमे एक बदलाव था और एक ऐसा समय जिसके आने से कुछ सवालों के मायने बदल जाते हैं। लोगों के देखने के मायने, चीजों को समझने के मायने, रिश्तों के मायने और ना जाने कितनी वे बातें भी जिनका जुड़ाव हमारे जीवन से आसानी से नहीं होता। इन दिनों घर मे ये देखने को मिला। साथ-साथ एक सवाल भी जिसे मैं एक स्थिती कहूँगा।

अपनी जगह बनाना और उस जगह को पकड़े रहना इसे हम कैसे जीते हैं?

घर इस स्थिती को सोचने के लिए वैसे एक आसान सी जगह है। मगर इसकी शुरूआत असल मे वहीं से होती है।
एक दौर बताने की कोशिस करता हूँ।

घर मे एक जरूरत बन गई थी और वे थी कि किसी दो हाथों से कुछ आ रहा है। जो घर की माँगों के हिसाब से बिलकुल ठीक है। जब तक वे हाथ खाली थे तो तब तक वे घर की छत के नीचे पलने वाला एक साधारण सा रिश्ता के छवि में होता। लेकिन जब वे कमाऊ हो जाते हैं तो उनका वज़न बड़ जाता। ये वज़न बड़ने की महत्वपूर्णता उन हाथों के लिए भी बेहद जरूरी होती।

वैसे कुछ जगहें होती हैं जो समय के सार के साथ या बदलाव के साथ खुद-ब-खुद बन जाती हैं। उसके बाद में उनको बनाये रखने का काम जारी रहता है। जो हमारी करनी में होता है। लेकिन घर के अन्दर ये जगह बनाना कोई ढाँचा बनाना नहीं हुआ था। अभी तक देखा जाये तो लोगों के बीच में मुझे अपनी मौज़ुदगी और हाज़िर होने तक का अहसास था और असल मे ये मौज़ुदगी व हाज़िर होना मेरे शरीर से ही था। ये भी पता नहीं था मुझे। जब तक मैं घर मे था तो अपनी मौज़ुदगी व हाज़िर होने को बाहर की दुनिया में फैलाना जरूरी नहीं समझता था। बस, इस चार दीवारी में आपकी एक जगह है उसे समझना था। पर शायद ये कोई जगह नहीं थी ये तो एक ऑदा था और पारिवारिक रिश्ता जो निभाने को जगह का नाम देता है। या तो आप घर के किसी कोने मे अपने रिश्ते को नवाजों लेकिन वे किसी अन्य सोच को आपके अन्दर आने की इज़ाजत नहीं देगा।

"हर चीज समय पर" एक खम्बा सा खड़ा हो गया था मेरे नाम का। बस, अब उसमे सिमेंट डाल-डालकर मजबूत करना था। ताकि वे इस समय यहाँ पर मौज़ुद है उसका आभाष देता रहे। इतना होने के बाद में जब कुछ वक़्त अपनी इस दिनचर्या से बच जाता या आँखें अपने में उलझ जाती तो कुछ नया देखने की चाहत में निकल आता बाहर सड़क के किनारे। जहाँ पर कई मेरी उम्र के लोग और मेरे से बड़े लोग बैठकर बातें किया करते। वहाँ भी सभी वही जानते थे मेरे बारे मे जो घरवाले जानते थे कि लड़का कमाता है। उसके अलावा कुछ नहीं। लेकिन वे जगह जहाँ ये बातें हुआ करती थी वे इतनी भी सख़्त नहीं थी के वहाँ पर वे सब ही बताया जाये जो घर की दीवारों की याद दिलाता है। ये जगह कुछ और होने की चाहत रखती थी। वहाँ सबसे पहले मुझे मेरे कामों के अलावा कुछ नया नाम मिला। यहाँ पर कुछ समय के बाद ही मुझे मेरी यादों व अनुभव से जाना गया। एक ऐसा माहौल बना जिसमें कोई किसी के हाथों की तरफ नहीं देखता या माँगता। यहाँ पर कोई शर्त नहीं थी। यहाँ पर भी रिश्ते थे, बातें थी, सुनना था लेकिन जो मायने यहाँ पर थे वे घर मे क्यों नहीं होते? ये मैं रोजाना सोचता था। क्या परिवार को और बाहर को जीने के लिए हमारे पास अलग-अलग दिशायें होती हैं?

अपना जीना और लोगों के बीच में अपनी मौज़ुदगी को हम दो अलग-अलग भागों मे क्यों जीते हैं? अपने कोने को हम अपनी ज़िन्दगी मे वे जगह देते हैं जिसमें हम खुलकर जी पाते हैं। वहाँ पर हर कोई चीज खुद से लाते हैं, अपने माहौल खुद से बनाते हैं। ये कोना और बाहर लोगों के बीच मे अपने लिए जगह बनाना इन दोनों मे क्या फ़र्क होता है? क्या कोई दूरी है?

मेरे पास मेरे घर के कोने को बताने के लिए बहुत सी यादें हैं लेकिन उस कोने मे अन्य अनुभव कम हैं। इसमे कैसे हम अपने अलावा लोगों की भूमिका को देखते हैं? किसी जगह को चलाना और किसी जगह को बनाना क्या फ़र्क लाता है सोच में? बिलकुल वैसे ही, एक शख़्स के बारे मे बताता हूँ, वे कहते हैं, “मेरा रोज रियाज़ करना और रोज प्रदर्शन करना इन दोनों मे क्या फ़र्क लाता है?”

ये उनका सवाल होता। मेरे शरीर का उस कोने मे होना जरूरी होता है मगर वो क्या छोड़कर हम आते हैं जिसमें हमारे जाने के बाद भी वे अहसास हो जो हमारे होने का आभाष करा सके?

अपनी जगह को बनाना और उस जगह को पकड़े रहना मे एक तरह की बहस नज़र आती जो हम अपने से बाहर के लोगों के साथ मे करते हैं। मगर अपने से क्या बहस है? हमारी जगह में कितने लोग नज़र आते हैं और मेरी जगह में कितने? अपनी जगह को बताने के लिए मेरे पास मे यादें कितनी है और लोग कितने? क्या ज़ुबान है मेरे पास?

लख्मी

पुर्नवास पुस्तकालय की गाथाएं

जे ब्लाक की मार्किट और एच ब्लाक के शुरूआत के बीच में दक्षिण पूरी का बस स्टेंड। जहाँ 521-580-512 बस खड़ी होती है। वहाँ उसके सामने ही ये पुस्तकालय पिछले 40 सालों से बनी हुआ है। एक बारात घर जो लगभग200 गज मे फैला हुआ है। उसी मे ये पुस्तकालय, टीवी सैन्टर और डिसपेन्सरी है।

मगर हम बात कर रहे हैं सरकारी पुस्तकालय की...
जिस पुस्तकालय को देखने व सम्भालने वाले उसे पुर्नवास पुस्तकालय कहते हैं। सरकारी महकमे मे इसे प्रस्तूत पुर्नवास पुस्तकालय के नाम से ही किया जाता है। जो लगभग 40 साल से एक ही जगह, एक ही कमरे मे जमी हुई है। दक्षिण पूरी इलाके के बनने के साथ-साथ कई सरकारी दस्ते भी बनाये गए थे। जहाँ बस स्टॉप के सामने कि जगह मे ये सरकारी कार्यालय बनाया गया था।

जहाँ अब तक टिके रहे हैं। पुस्तकालय और डिस्पेन्सरी। बाकि के कोनों मे ताले लगे गए हैं। ये पुस्तकालय लगभग 25 गज के कमरे मे है। जिसमे लगभग एक हजार से ज़्यादा किताबें होगीं। जिनको यहाँ पर रखे हुए भी10 से 20 साल हो गए हैं। मगर हर दिन ये साफ होती है और लोगों के घरों तक जाती है।

कमरा छोटा है मगर छोटा लगता नहीं है। तीन दिवारों से सटकर यहाँ पर तीन किताबों की अलमारी रखी है। जहाँ दरवाजे के साथ मे रखी अलमारी मे कई कहानियों की किताबें हैं। जिमने किसी मे भी कवर पेज नहीं है। सभी मे बाँइड कि गई ज़िल्त चड़ी हुई है। इन्ही से ही वो अलमारी इतनी भरी हुई लगती है की ना जाने कितनी किताबें रखी हुई हैं जिनमें किस किताब को पढ़ना है या क्या तलाशना है वो पहचानना मुश्किल है। कौन सी किताब कहाँ पर रखी है वो निकालना मुश्किल लगता है।

तैनालीराम और बीरबल से लेकर ना जाने और कितने लेखकों की कहानियों की किताबे वहाँ हैं। पुस्तकाअध्क्षक जी से बात की तो वो बोले, "इनमे सभी मे एक ही कहानी कि किताब है। इस अलमारी को ज़्यादातर बच्चे ही इस्तमाल करते हैं। वो आते हैं और जहाँ चाहों हाथ मारते हैं। फिर जब वो आधी कहानी को छोड़ते हैं तो अपनी पहचान वाली जगह पर रख देते हैं। दूसरे-तीसरे दिन वहाँ से निकाल लेते हैं।"

दूसरी दीवार जिसमे साहित्य और डिक्सनरी की किताबें भरी हुई हैं। साहित्य मे भाषा से लेकर नोबल सब हैं। उनको को देखकर ही ये बता दिया जा सकता है की उनकी उम्र क्या होगी। कपड़े के कवरों मे रखी गई किताबें अपनी पुरानी होने की गवाही दे रही थी। नोबल थे कत्ल और साजिस, दो चेहरे, घर और संसार, मेरी भाषा।

कुछ इस तरह के नोबलों की भरमार थी। कई नोबल तो एक ही लेखक के थे। उन्ही को वो सबसे नीचे लगाये हुए थे। भाग एक, भाग दो, भाग तीन और भाग चार करके वो एक ही कतार मे रखे हुए थे।

तीसरी दीवार मे कई लेखकों की किताबें थी। कहानियाँ, साहित्य, रचना, मुहावरें, दोहे, दर्शन, शहर और जीवनशैली। जिसमे कई लेखक थे। जैसे, प्रेमचन्द जी, गुलजार और कृष्णासोबती। इनके अलावा उसी मे कढ़ाई, सफ़ाई, बुनाई, कुकिंग और सिलाई की भी किताबें रखी हुई थी। जो कला के मुताबिक थी। इसपर पुस्तकाअध्क्षक जी कह रहे थे, "यहाँ पर ये किताबें खाली औरतें ही पढ़ती हैं। वो दोपहर मे या शाम मे आती हैं और इन्ही किताबों को उठाती है और बड़े चाव से पढ़ती हैं। कुछ तो यहाँ पर स्कूल की टीचर भी आती हैं और वो भी इन किताबों को पढ़ती है। सिलाई, कढ़ाई और खाना बनाना सीखने वाली भी लड़कियाँ आती हैं और इन्हे पढ़ती हैं।"

और वहीं पर एक कोने में एक अलमारी रखी हुई थी। जिसमे इतिहास की किताबें थी। जो देखा जाये तो यहाँ पर स्कूल के बच्चे ही पढ़ते होगें। नेताओं के बारे मे, बड़ी-बड़ी हस्तियों के बारे में लिखी गई किताबें। जगह के बारे में और दिल्ली में रैलियों के बारे में थी। उनको उस अलमारी में रखा गया था। मगर ऐसा कुछ भी नहीं था की कहीं पर भी हाथ ना डाला जा सके। आप कुछ भी पढ़ सकते हैं। वहीं पर बैठकर और कुछ भी निकाल सकते हैं।

बीच की जगह मे दो टेबल रखी हुई थी और छ: कुर्सियाँ। पढ़ने का कमरा बनाने के लिए। मातादीन जी जो यहाँ के करता धरता हैं। अभी फरवरी मे ही ये यहाँ पर शिफ़्ट हुए हैं। पहले ये डिफेन्स कालोनी मे थे। वहाँ पर एक ब्लाइंड पुस्तकालय है। सुबह दस बजे ये पुस्तकालय खुलता है और शाम मे पाँच बजे बन्द होता।

मातादीन जी पुस्कालय के बारे मे बता रहे थे। इस पुस्तकालय कि शुरूआत तो लगभग 40 साल पहले ही हुई थी। जिसको कहते हैं की पुर्नवास पुस्तकालय। जो पुर्नवास कलोनियों मे ही बनाया जाता है। लगभग 3 हजार किताबें हैं हमारे पास। और हर साल नई किताबें आती हैं। अभी तक हम लोगों ने इस पुस्तकालय से लगभग 20 हजार से भी ज़्यादा कार्ड बनाये हैं। यहाँ पर हर दिन मे बताये तो ज़्यादा से ज़्यादा एक दिन मे 30 लोग आते हैं और कम से कम 5। देखा जाये तो हर उम्र के लोगों का यहाँ पर आना रहता है। "हाँ' बच्चे, बड़े, औरतें सभी आते हैं। बच्चे अपनी कहानियों कि किताबें पढ़ते हैं और औरतें कुकिंग, सिलाई और कढ़ाई की किताबें पढ़ती हैं। सबसे ज़्यादा यहाँ पर आप अगर देखे तो मुंशी प्रेमचन्द की किताबें ज़्यादा ही है। क्योंकि यहाँ पर उनकी कहानी को ज़्यादा पढ़ा जाता है। शायद इसलिए भी की उन्होंने हर चीज लिखा है। हर तरह की किताबें लिखी हैं।"

यहाँ पर कुछ नियम भी हैं जैसे, किताबों मे पुस्तकालय का नाम और पता लिखा हुआ है। साथ-साथ किताब का सिरियल नम्बर भी है। किताब के शुरू के पेज मे पुस्तकालय कि मोहर है और एक कार्ड नम्बर सहित उसी किताब के कोने में फसाया हुआ है। छोटा सा पेज नोटिस की भांति हर किताब के साथ मे दिया गया है। खोने और फट जाने पर क्या भुगतान करना होगा।

यहाँ पर हर किताब की एक संख़्या है। हर संख़्या पर उसकी भाषा को परिभासित किया गया है। रजिस्टर मे उसकी एन्ट्री और पुस्तकालय का पता भी है।

उसी के साथ कुछ शर्ते हैं जैसे, एक कार्ड जिसकी किमत 2 रुपये है। जिससे पुस्तकालय का सदस्य बना जायेगा। जिसमे लिखा होगा, नाम-पता और अपने किसी जिला अधिकारी के हस्ताक्षर और मोहर के साथ मे अपना कोई स्थाई पता देना होगा। उसी कार्ड के जरिये यहाँ से किताब लेकर जा सकते हैं। नहीं तो यहाँ पर बैठकर पढ़ सकते हैं मगर लेकर नहीं जा सकते।

घर पर किताब ले जाने से पहले किताब के बारे मे और अपने बारे मे पूरा लिखवाना होगा। जो आपको 14 दिन के लिए दी जायेगी। अगर 14 दिन के बाद मे आप एक दिन भी देर करते हैं तो आपको एक दिन का 50 पैसे हरजाना देना होगा। और अगर आप से किसी भी कारण वो किताब खो जाती है या फट जाती है तो आपको उस किताब की पूरी कीमत देनी होगी।

आप अगर कोई किताब को पढ़ने मे अपेक्षा रखते हैं जो पुस्तकालय मे है नहीं तो आप अपने अपेक्षा पुस्तकालय के अध्यक्ष के पास लिखवा सकते हैं। वो कोशिश करेगें की वो किताब कैसे लाई जा सकती है या नहीं।

मातादीन जी बता रहे थे कि यहाँ पर कुछ आगे का प्लान भी बनाया गया है। जैसे, हर शख़्स के लिए 5 किताबें रखी जायेगी। ये उनके हिसाब से है। ताकी अगर हमारे सदस्य 500 हो जाते हैं तो हमारे पास मे 5000 किताबें हो जायेगीं। ये नया नियम शुरू हुआ है हर पुर्नवास पुस्तकालय में।

यहाँ दक्षिण पूरी के इस पुस्तकालय मे मातादीन जी के अन्डर मे सन 2006 से सन 2007 तक लोगों के कार्ड बनाने वालों की संख़्या 4000 हो गई है। जिसमे छ: रजिस्टर भर चुके हैं। हाँ ये बात और है की उन रजिस्टरों मे किताबें ले जाने वालों के नामों के आगे वो पैसे लिख रहे थे। किसी के आगे 5 रुपये तो किसी के आगे 20 रुपये। जब लगभग 30 रुपये तक हो जाते हैं तो ये खुद उनके घर जाते है किताब लेने।

वहाँ पर एक किताब को मैंने उठाया, उसमे कुछ पन्ने अलग से लगे हुए थे। किसी ने उन पन्नों मे अपने बारे मे कुछ लिखा हुआ था। उस किताब के हर तीसरे पन्ने पर एक सफ़ेद पन्ना लगा था। पहले पन्ने पर लिखा था। "मेरा दोस्त है राजू, जो मुझसे नराज हो गया है। जो भी इस किताब को पढ़े"
उसके बाद मे किताब कि कहानी चल रही थी। दूसरे पन्ने मे था।
"उसका नम्बर मे आखिर के पन्ने मे लिख रहा हूँ, कृप्या आप उसको मेरी तरफ से फोन करके कहना की अंजली बहुत प्यार करती है तुमसे।"
उसमे लिखा टेलिफोन नम्बर बहुत पूराना था। लगभग ये सन 1995 का होगा। क्योंकि उसी के बाद मे टेलिफोन के आगे 2 नम्बर लगाया गया था। नम्बर यहीं का था। 643432 अब इस नम्बर मैं क्या बात करता?
अगले पेज पर लिखा था।
"चलिये रहने दिजिये मैं खुद बात कर लुगीं लेकिन हो सके तो आप उसके घर जाकर बात कर लेना उसका पता मैंने लिख दिया है।"
लेकिन उस घर को काटा हुआ था। हम चाहकर भी ये नहीं पता कर सकते थे कि ये कहाँ का है? जब मैंने ये किताब मातादीन जी को दिखाई तो वे हँसने लगे। कहने लगे, "यहाँ के बच्चे बहुत शैतान है। ऐसी हरकतें तो आपको हर किताब मे दिखाई देगी। किसी-किसी मे तो उन्हे किताब कि कहानी के नीचे अपनी ही कहानी लिखी हुई है।"
ना जाने कितने ऐसे मैसेज़ उन किताबों मे भरे हुए थे। एक जगह से दूसरी जगह पर और एक किताब से दूसरी किताब तक ये मैसेज़ पँहुचने का काम करते। कहीं पर लाइनों के अन्दर ही किसी मैसेज़ को पहेली की भांति रखा गया था तो कहीं पर कुछ और। कभी-कभी तो ऐसा लग रहा था कि हम किताब की कहानी पढ़ रहे हैं या किसी का गुमनाम ख़त। हर लम्हे मे मज़ा था और थोड़ी हैरानी भी। वो तो उस बात को कहकर बस, हँसे जा रहे थे। अब उनको ये कौन बताता की ये किसी बच्चे का काम नहीं है किसी जवान का है। बहुत ही इश्क-मुश्क वाली बातें लिखी थी उसमे। खैर, ये जगह दक्षिण पुरी के एक मात्र ऐसी जगह थी जिसे हम पढ़ने की जगह कह सकते हैं। या शायद कुछ और भी।

लख्मी

जूता देव चालिसा।

मारो लात न लगे जब घूसा
शुरू करो कोई चालिसा

भूत-पिसाच निकट नहीं आवे
जूता देव जब नाम सूनावे
मिर्गी, दौरे ये भगावे
चमड़ा जो इस का सुंघावे
बुरी नज़र से सब को बचाता
जूता देव कलयूग में दाता

जूता देव का ये गावो चालीसा
जय-जय-जय जूता देव चालीसा।

जिसको चरणो में धारण किया
जिसको बार-बार प्रणाम किया
समाज में उछला वो जूता देव
जूता देव तेरी सून्दर गाथा।

सभी की औकात है सब का तोहफ़ा
सबका हमराही जूता देव
जीवनपथ पर देता साथ
चाहें गर्मी हो या बरसात
ऐसा मनमौजी जूता देव
जूता देव तेरी सून्दर गाथा।

कभी स्वागत करता जूता देव
तो कभी हार बन के गले मे चढ़ता जूता भेंट
इसका मारा न पानी माँगे
साँप से तेज ये जूता देव
जूता देव तेरी सून्दर गाथा।

भारत में जो चरण पादूका कहलाता
यूरोप मे वो अपना नाम शूज़ बतलाता
पर स्थान वहीं है जहाँ हर कोई सिर झुकाता
तेरी लीला तूही दोहराता
जूता देव तेरी सून्दर गाथा।

तूने बनाया लाखों को विधाता
राम-कृष्ण के चरणों मे तू भाता
जो पापी प्रजा पर अन्याय करे
उसके मुँह को तू चाट जाता
जूता देव तेरी सून्दर गाथा।

तेरी ठोकरों मे जमाना हिल जाता
ऑनलाईन वेबसाइटों पर भी तू जाता
अपनी करामातें बतलाता
तेरी कहानी आज का दौर सुनाता
राजा-रंक या हो आम इंसान
करता तेरी महिमा को सलाम
तू ही सब के पैरों में जाता
जूता देव तेरी सून्दर गाथा।

ज़िन्दगी का हो कोई भी ऐशो-आराम
बिना तेरे कुछ नहीं भाता
पैदल यात्रा में तू काम है आता
कदमों को हानि से बचाता
पगड़न्डियों पर तू इतराता
बुराई को तू मुँह चिड़ाता
जूता देव तेरी सून्दर गाथा।

था इंसानों को कभी जूतों से पहचाना जाता
अब तो कोई चेहरा भी समझ नहीं आता
"मुँह में राम बगल मे छूरी" ये समाज कहलाता
आज के दौर का तू हीरो, ये हल्ला हो जाता
जूता देव तेरी सून्दर गाथा।

राकेश

सम्मोहित करते अवसर

घर का सारा समान बाहर पार्क में रखा सूख रहा था। एक तरफ कई सारे कपड़े खाट पर पड़े थे तो एक कोने में कई सारी तस्वीरें। कहीं पर कई सारी फाईलें बिखरी थी तो कहीं पर बक्सा, अटैची और घर का सारा मोटा-मोटा समान एक किनारे पर रखा था। आज कोई इतनी अच्छी धूप भी नहीं निकली थी के सभी चीजों को इस तरह से धूप लगाने के लिए पार्क मे अकेला छोड़ दिया जाये। पार्क मे कई लोग खड़े थे, वे सभी उन बाहर रखे समानों को एक झलक देखते उसके बाद वहाँ से सरक लेते। उनके घर के छोटे से कोने मे बने घुसलखाने मे उनके रात के खाने के बर्तनों का ढेर लगा हुआ था। रात की बची सब्जी पर मक्ख़ियाँ भिनक रही थी।

आज पार्क की सफ़ाई एक कोने में ही चल रही थी। झाड़ू मारने वाली इन बर्तनों से अपनी झाड़ू को दूर रखती। कोशिश करती की झाड़ू उन समानों को छुए ना। मिट्टी की परत उन समानों पर चड़ जाती। जैसे ही झाड़ू पार्क की जमीन को कुरेदती तो मिट्टी की मोटी सी परत पूरे पार्क मे फैल जाती। पार्क में खड़े सभी लोग झाड़ू मारने वाली के पीछे-पीछे रहते। वे जहाँ-जहाँ पर झाड़ू मारने के लिए आती वे वहाँ से उसके पीछे की तरफ हो जाते। बस, एक वही जगह थी जहाँ मिट्टी की परत उनसे दूर रहती। लेकिन ये सब देखकर झाड़ू मारना बन्द नहीं होता। वे तो पूरे पार्क का था। वे भी अपने हाथों मे लम्बी सी झाड़ू पकड़े पूरे पार्क पर लकींरे खींचे जा रही थी।

रामेश्वर जी के लिए उनके घर का समान घर के बाहर रखा हो या अन्दर कुछ ज़्यादा फ़र्क नहीं पँहुचाता। वे तो अक्सर अपनी बीवी से ये कहकर लड़ते हैं की चाहें सर्दी हो या गर्मी समानों को धूप जरूर लगवायाकर। लेकिन ये बात उनकी बीवी बहुत कम सुनती है। इसी कारण उनके घर की आवाज़ों से पार्क में हमेशा शौर रहता है। सारे कपड़ो की तह लगाकर वे खाट पर पसा देते हैं। पहनने वाले कपड़ो से लेकर ओड़ने वाले कपड़ो तक। वे सभी को धूप में छोड़ देते हैं।

इन दिनों ओस काफ़ी पड़ रही है। टैन्ट और टीन से बनी दीवारें पानी से दबादब टपकती है। ओस मे सभी दीवारें गीली तोलिया की तरह बन जाती हैं, पानी जैसे उनपर चिपक जाता हो। इस मौसम मे उनकी बीवी कमरे मे अक्सर चूल्हा जलाए रखती है। उसकी भाप से अन्दर का माहौल ठण्ड की चपेट से बच जाता है। बाकि तो वे दोनों ही रजाई मे अपने पाँव को घुसाये बैठे रहते हैं। रामेश्वर जी के मुँह से कई ऐसी कहानियाँ हर रोज़ निकलती हैं जो कभी ख़त्म ही नहीं होती।

लेकिन, आज शायद कुछ और ही दिन था। रामेश्वर जी घर के एक कोने मे रखे तीन बक्सों को उठाने मे लगे थे? वे इतने हल्के भी नहीं थे कि उन्हे एक ही हाथ से उठाया जा सकता हो। तीनों मे ना जाने क्या-क्या रखा था। इनता वज़न था कि वे किसी पुराने किले मे लगे पत्थरों की तरह ठोस हो गए थे। किसी मे बर्तन भरे थे तो किसी मे मूर्तियाँ तो किसी मे ना जाने क्या-क्या? उनको उतारना तो दूर उन्हे खिसकाना तक मुश्किल था। घर की एक दीवार तो उन्ही बक्सों से बनी थी। वे एक के ऊपर एक रखे थे।

रामेश्वर जी उन्ही मे लगे थे। बक्से को खिसकाने की बेइन्तहा कोशिश करते मगर ये काम उनके अकेले के बस का नहीं था। उनकी बीवी भी उनके साथ ही थी मगर वे खाली उन्हे देख रही थी। और समानों को इधर-उधर करने की वज़ह पूछ रही थी।

“क्या चाहिये जी, वे तो बताइये ना!”

रामेश्वर जी की जुबाँ पर कोई शब्द नहीं थे। उनका सारा ध्यान उन तीनो बक्सों पर टिका था। उन्हे ये पता था कि जो भी वे तलाश रहे हैं वे इन तीनों मे से किसी एक में है। इसलिए उन तीनो बक्सों को खोलना जरूरी था। उन्होंने कैसे ना कैसे करके सबसे ऊपर वाला बक्सा उठा ही लिया। मगर दिमाग मे उनके कुछ और ही था। उन्होंने उठाये हुए बक्से को एक तरफ मे रखा और दूसरे बक्से को खोलने लगे। ये बक्सा लकड़ी का था जिसके अन्दर के हिस्से मे किसी कम्पनी का नाम लिखा था जो मिट गया था बस, उसका नम्बर रह गया था। बक्सा नम्बर 35। चादर से उसे ढका हुआ था। ऊपर वाले बक्से के हटते ही चूहे मारने वाली गोलियों की महक फैल गई थी। बक्से के अन्दर चूहे मारने वाली गोलियाँ बहुत छोटी हो गई थी और चूहे की मेगनी भी पड़ी थी। बन्द बक्से को चुहों ने शौचालय बना दिया था। उनको अपने हाथ से एक तरफ करते हुए उन्होंने उस चादर को हटाया। चादर मे कई चूहों की लाशें भी चिपकी हुई थी। उनकी बीवी नाक को अपनी साड़ी के एक कोने से ढकती हुई उस चादर को बाहर ले गई। बक्से मे कई सारे बेलन, चकले, चम्मच और परछे रखे थे। वे सभी लकड़ी के थे। जिनको उठाते ही सफ़ेद रंग का बरूदा झड़ रहा था। कइओ मे तो छोटे-छोटे छेद भी हो गए थे। उसमे से कुछ बाकि थे। रामेश्वर जी ने उन सभी पर गौर ना करते हुए। उनको अपने दोनों से हाथों से इधर-उधर धकेलते और उनके नीचे कुछ और देखने की कोशिश करते। जब वे नहीं मिली तो वे उस बक्से को वैसा का वैसा ही छोड़कर चले जाते दूसरे बक्से की ओर।

बक्सों मे इतना कम समान भी नहीं था कि उसमे कोई चीज आसानी से तलाशी जा सकें। रामेश्वर जी भी यही कोशिश करने मे लगे थे। आखिरकार उन्हे सबसे नीचे रखे बक्से को खोलना ही पड़ा। लेकिन उसका कुन्दा बेहद टाइट था। अपना जोर आज़माते हुए उन्होंने तीन या चार बार उसे झटके मार कर खोलने की कोशिश की। साथ मे रखे बेलन से उसे पीटा और उसे खोल लिया।

अब उनके हाथों मे एक छोटी सी पोटली थी। जिसको सा‌ड़ी के किसी टुकड़े से बाँधा हुआ था।

पिछली रात मण्डली मे ये तय हो गया था के आने वाले जनवरी के महिने से फरवरी आखिर तक शहर की अलग-अलग बस्तियों मे लीलाए कि जायेगीं। मण्डली के सभी अलग-अलग लोग पाँच-पाँच के ग्रुप मे छट जायेगें और अपनी-अपनी बस्ती चुनेगें। जो ग्रुप जहाँ जाना चाहता है जा सकता है। लेकिन दो महिने वे वहाँ पर लीला करेगें।

ये वादा तय कर दिया गया था। सभी राज़ी ही होने थे। बस, अपनी-अपनी जगह को सोचने की ही देरी थी। हर कोई अकेला तो जायेगा नहीं। अगर जायेगा तो बीवी-बच्चे संग ही। सभी ऐसी जगह सोच रहे थे जहाँ पर रहने का आसरा सहुलियत भरा हो। बच्चे, परिवार सभी को सहुलियत मिल सके। लेकिन इसमे इतना सोचने की जरूरत भी क्या है? दिल्ली की सभी बस्तियों मे तो सहुलियतें ही सहुलियतें हैं और वहाँ होता ही क्या है?

मण्डली की सरत को मानना ही सबका धर्म था। सभी ने अपनी-अपनी जगह चुन ली थी। बीस लोग चार जगहों मे बट गए। जगह जो चुन ली गई थी। वे थी, त्रिलोक पुरी, मंगोल पुरी, दक्षिण पुरी और सुल्तान पुरी। लीलाओ मे वैसे कुछ खास करना तो नहीं था। इनकी लीला मे सभी लोग देवताओ का रूप धारण करते और पूरी बस्ती मे उनके दुनिया मे आने की कहानी सुनाते। जो शख़्स जिस भी देवता का रूप धारण करता वे उसकी सारी अदा और नाटकिये लीला को अपने शरीर मे घुसा लेता और बस, वे आदमी उस देवता की एक्टींग करता। बाकि चार मे से दो आदमी कहानी सुनाते और दो संगीत बजाते। यही लीला इलाके को भर देती।

रामेश्वर जी को उनके ही यहाँ का इलाका मिला था। हाँलाकि ये जगह उनके बोलने से पहले ही उनके साथी ने बोल दी थी। वे तो उसके साथ मे थे। रामेश्वर जी को इस लीला के बारे मे आज से पहले पता नहीं था या फिर वे सब भूल गए थे। गाँव से शहर तक के सफ़र ने शायद उन्हे ये सब कुछ भूलने को मज़बूर कर दिया था। वे वहाँ मण्डली मे ये सब कह भी नहीं सकते थे कि उन्हे इन सब के बारे में कुछ पता नहीं है। ये लीलाए क्या हैं?, इनमे क्या-क्या होता है? और इनमे जरूरी क्या है? इसके बारे मे अगर वे कुछ कह देते तो खाम्खा मे उनकी जान को फजीता हो जाता। फिर वे खाली पैसे बटोरने वाले जमूरे बनकर रह जाते। वे वहाँ पर कुछ बोले नहीं बस, ग्रुप मे अपना नाम लिखवाकर घर चले आये। अभी लीला को करने मे वक़्त था, जनवरी का महिना शुरू कहाँ हुआ था, दिसम्बर के पूरे पंद्रह दिन थे उनके पास। यही सोचकर वे घर चले आये थे। कुछ बीवी से पूछेगें और कुछ विनोद से। विनोद से भी ये ऐसे ही नहीं पूछा जा सकता। हाँ बस, एक देसी की बोतल लगेगी। उसके बाद विनोद सारा बता तो क्या बल्कि सारा का सारा काम ही अपने सिर पर ले लेगा।

रामेश्वर जी ने देखने की हड़बड़ाहट मे उस पोटली की गांठ खोली। उसपर मिट्टी की धूल जमी थी। जैसे ही वो पोटली खुली तो रामेश्वर जी के चेहरे पर एक चमक सी आ गई। उस पोटली मे एक फोटो एलबम थी। जिसके ऊपर के कवर पेज पर ही एक शीसा लगा था। जिसमे रामेश्वर जी अपना चेहरा देखते ही मुस्कुराये और एक नज़र भर उसको देखते ही उन्होंने एलबम को खोला। उसके पहले पेज पर ही एक शिव भगवान का रूप धारण किए हुए एक आदमी की तस्वीर थी जिसने एक बच्चे का हाथ पकड़ा हुआ था। ये फोटो किसी फोटो स्टूडियों की थी। पीछे लगे लाल रंग के पर्दे से पता चलता था। उसके ठीक नीचे एक और तस्वीर थी जिसमे वे शिव भगवान का रूप धारण किए वे आदमी अकेले ही थे। नीचे चौगड़ी मारकर धूनी मे बैठे थे और पीछे एक सीनरी बना पर्दा लगा था।

रामेश्वर जी अब खाली फोटो एलबम के पन्ने पलटने का काम करने लगे। दूसरे पन्ने पर चार फोटो थी। शुरू में ही एक तस्वीर थी जिसमे एक आदमी पूरा काला हुआ खड़ा था। आँखें और होठ लाल थे, कानो मे भी लाल रंग दिखाई दे रहा था और शरीर पर एक भारी लोहे की जंजीर डली थी। उस आदमी ने घागरा पहना हुआ था। उससे आगे वाली तस्वीर मे उसी आदमी का फोटो था लेकिन इसबार वे किसी आदमी से इनाम लेते हुए था। अगली एक और तस्वीर में यही आदमी था जो रामचन्दर जी के रूप में था। जिनके साथ मे एक और आदमी खड़ा था।

रा‌मेश्वर जी उन तस्वीरों मे कुछ-कुछ देर के लिए थम जाते। उनकी आँखें उन अलग-अलग रूप धारण किए हुए लोगों पर जम जाती। वे उन्हे देखते-देखते ही पन्ने पलटते जाते। आगे के कुछ पन्नों मे तो तस्वीरों की जगह पर कुछ सार्टिविकेट और हस्ताक्षर की हुई तस्वीरें भी थी। जिन्हे वे बड़े ध्यानपूर्वक तरीके से देखते। उनका पूरा ध्यान जैसे उन तस्वीरों ने सम्मोहित कर दिया था। उनका वहाँ उन तस्वीरों मे से निकलना बेहद मुश्किल था। कहीं पर इनाम पाती हुई तस्वीरें थी तो कहीं पर नाच अवस्था मे सड़क की तो कहीं किसी तमाशे मे। हर तस्वीर मे उनके अलावा कई और लोग भी शामिल थे। उन इनाम पाती तस्वीरों मे किसी ना किसी का रूप धारण किए हुए आदमी को तो पहचानना ही मुश्किल था। इसके बावज़ूद भी जब किसी तस्वीर मे रामेश्वर जी रुक जाते तो उनके चेहरे पर कुछ टटोलने की हरकत नज़र आने लगती।

आधी एलबम हो जाने के बाद मे सारी रूप धारण कि हुई तस्वीरें दिखना बन्द हो गई थी। अब एलबम मे घर की तस्वीरें थी। एक आदमी की गोद मे बच्चों की, खाना पकाती किसी औरत की, किसी छत पर बातें करते लोगों की। इन सब के अलावा की कुछ तस्वीरें किसी संगीत की महफ़िल की थी। लगभग पाँच से सात लोग एक झुँठ बनाकर ढोलक, चिमटा और डमरू बजा रहे थे। देखने वाले तो बहुत थे लेकिन उनके बीच मे कोई नज़र नहीं आ रहा था। शायद ये तस्वीर जब खींची जा रही होगी तो नाचता हुआ आदमी केमरे से बाहर निकल गया होगा। लेकिन माहौल मे लोगों की भीड़ को देखकर ये अहसास किया जा सकता था कि ये महफ़िल घंटो से लगी होगी। काफ़ी लोग थे वहाँ पर।

एलबम को पलटते-पलटते रामेश्वर जी आखिर के पन्नों तक आ गए थे। आखिर मे कुछ तस्वीरें थी जो यूँही पड़ी थी। जिन्हे एलबम मे नहीं लगाया गया था। वे शायद इसलिए भी एलबम के हिसाब से ये तस्वीरें बड़ी थी। लगभग अठ्ठारह तस्वीरें थी। रामेश्वर जी ने एलबम को गोद मे रखा और उन निकली तस्वीरों को देखना शुरू किया। सारी की सारी तेड़ी-मेड़ी पड़ी थी।

तस्वीरों को देखकर वे लगातार मुस्कुरा रहे थे। उन तस्वीरों मे एक बच्चा किसी आदमी की कमर पर काला और नीला रंग पोत रहा था। वे आदमी तहमत पहने हुए था। उसके हाथों मे भी शीसा था जो अपने मुँह पर कुछ लगा रहा था। और वे बच्चा उनकी कमर पर रंग पोते चले जा रहा था। रामेश्वर जी उनको देखकर अब हँसने लगे थे। उनकी बीवी उनको हँसता देख उनके पास मे आकर बोली, “क्या देख रहे हो जी जो हँसी छूट रही है?”

रामेश्वर जी किसी और ही बात का जवाब देते हुए बोले, “अब आयेगा मज़ा, अब देखना तुम मैं क्या रूप धारण करता हूँ। सब देखते रह जायेगें। देखना तुम।"

"मैं क्या पूछ रही हूँ और आप क्या बोले जा रहे हैं?” वे उनकी तरफ मे झुककर बोली।

रामेश्वर जी दोबारा से उस एलबम के पन्नों को पलटते हुए उनके पन्नों मे खो गए। उन्होंने वही फोटो खोली जिसमे एक आदमी शिव भगवान का रूप धारण किए हुए एक बच्चे का हाथ पकड़कर खड़ा था। और दूसरा फोटो वो जिसमे वे किसी आदमी से इनाम पाते हुए था। रामेश्वर जी वे दोनों फोटो अपनी बीवी के हाथों मे पकड़ाते हुए बोले, “पहचान ये कौन है?”

उनकी बीवी उन दोनों फोटो को अपने हाथों मे पकड़े खड़ी रही। वे शायद पहचान नहीं पा रही थी। शायद इसलिए भी कि चेहरे और शरीर पर चड़े रंग ने किसी पहचान को छुपा दिया था। यही तो खेल था। रामेश्वर जी उनको देखते हुए बोले, “घूँघट करले, ससुर है तेरे।"

उनकी बीवी हँसते हुए उनकी तरफ मे देखती रही। कभी फोटो तो कभी रामेश्वर जी के चेहरे की तरफ। कुछ देर के बाद मे वे उनकी तरफ देखते हुए बोली, “ये मासूम सा लड़का तुम ही हो ना जी?”

रामेश्वर जी उनकी तरफ मे नज़र गढ़ाते हुए बोले, “तेरे को क्या लगता है, हम नहीं जानते लीलाओ के बारे मे? अरे ये तो हमारे खून मे है। कला और हर तरह की लीला। समझी!”

ये कहते हुए उन्होंने एलबम को दोबारा से पैक किया और सारा समान यूँही का यूँही छोड़कर घर के बाहर आकर खड़े हो गए। उनकी बीवी सारा समान ठिकाने लगाने के बाद मे जब घर के बाहर आई तो रामेश्वर जी वहाँ नहीं थे। उन्होंने इधर-उधर देखा मगर उनका कोई पता नहीं था। वे बड़बड़ाती हुई अन्दर आई और चूल्हा जलाकर रजाई मे पाँव घुसाकर बैठ गई।

थोड़ी देर के बाद मे रामेश्वर जी के गाने की आवाज़ आई। वे गाना गा रहे हैं ये सुनते ही उनकी बीवी समझ गई के शाम की घुट्टी के दो प्याले उनके गले के नीचे उतर गए हैं। वे खाली उन्हे देखती रही, बस, देखती रही। वे भी कुछ ज़्यादा बोले नहीं बस, अपना गाना गुनगुनाते रहे, “तेरे हँसने की किमत क्या है ये बता दे तू।"

ये सुनते ही उनकी बीवी हँसने लगी। उन्होंने तो ये भी नहीं पूछा की आज किस खुशी मे ये गले नीचे उतारे हो। वे तो बस, उनके मस्ख़रीपन की लीलाए देखती रही।

"अगले महिने तैयार रहियो, उन फोटो मे से एक आदमी बाहर निकलकर आने वाला है। खूब लीलाए होगीं, खूब। तू बस, एक काम करियों बस, घर मे नील मंगाकर रखियों।"

उनकी बीवी समझ तो नहीं पाई थी लेकिन उनकी घुट्टी के आगे वे कोई सवाल भी नहीं रख पाई। बस, उन्होंने उनकी बात पर गर्दन हिलाकर सहमति जताई। "तेरे हँसने की किमत क्या है ये बता दे तू।"

अपना गाना मुँह मे ही ख़त्म करते हुए वे अपनी खाट पर पड़ गए। सवेरे के इंतजार मे।

लख्मी

हम डरते नहीं

लाखों वर्षो से जिसकी दिलों मे सदभावना जिन्दा रही
आज बचाने के लिए क्या कुछ नहीं, वतन के वज़ूद का ख़तरे में है राष्ट्रतंत्र
कुर्बानी की इस भूमी पर बने बगीचों को बचाने के लिए कोई दे गुरूमंत्र।

जिसकी शहादत की छाँव में पनपे जीवन कितने अनंत
उस मात् भूमी की प्रतीभा को फैलाने का कोई तो दे गुरूमंत्र।

इतिहास जो हमारी बहुमूल्य सौगात है, जिसके तले हमारा राष्ट्र है।
इसके आंगन मे खेली हमने अपने खून की होलियाँ,जो बनी मैदान हमारा, क्या महफ़ुज है वो गलियाँ
वो जलियावाला बाग है जिसकी मिट्टी हुई वीरों के रक़्त से लहुलूहान।
उस मिट्टी को लगाने से मिलता परम आनंद
शाहदत के इस जज़्बे को बचाने का कोई तो दे गुरूमंत्र।

अंग्रेजी फ़ौज को हमने दातों तले चनें चबवायें
आज उस आज़ादी ले ऊपर बैठे आतंकी नज़र गढ़ायें
उज्जवल भविष्य की और जाने को देश कर रहा हर जतन।
अब आ रही है शरहदों से वो आवाज़ें
अपनी गरीमा को बचाने का कोई तो दे गुरूमंत्र।

चाहें जादू करो या कोई टोना इंसानियत के दुश्मनों का नमोनिशाँ मिटा के है रहना।
कौन कहता है हम निहत्थे हैं, हम डरते नहीं गोली बारूद से।
स्वतंत्रता हमारा अधिकार है, जीना है खूले रूप से
हमें डरा नहीं सकता ये आतंक, बुलंदियों को छूने वाले इस विचार को
मिटने से बचाने का कोई तो दे गुरूमंत्र।

राकेश

Tuesday, December 23, 2008

इम्मोशन भरा एक और चैनल

न्याय की मार मे जुड़ा एक और किरदार
आँसुओं की करदी इसने भी भरमार
उसको पता है किसी को कैसे नज़दीक लाया जाये
बस, उसकी दुखती नस पर हाथ रख दिया जाये

हम तेरे हैं, ये वादा जोरों से हो रहा है
इसी वादे के घेरे मे, मुस्कुराता चेहरा खो रहा है
कटघरे मे खड़ी हो गई है आज हर वो याद सुनहेरी
हर घर बन गया है दोस्तों, आपकी कचहेरी

दिलों के नज़दीक इतना इम्मोशन क्यों है?
सिनेमा हॉल मे बैठा इंसान, रोता क्यों है?
पिघलते दिलों का राज जान गया है, मनोरंजन का पर्दा
बहुत दुखदाई हो गई है आज हर अदा

मनोरंजन बन गया है आँसुओं का घर
छोटी-छोटी बातें बन गई हैं एक बड़ी ख़बर
मिट रही हैं, किसी कोने मे रखी वे यादें सुनहेरी
हर घर बन गया है दोस्तों, आपकी कचहेरी

रियेल्टी शोह मे छाया है इम्मोशन
नाच के फ्लोर पर पाया है इम्मोशन
गानों के दौर मे अटका है इम्मोशन
कॉमेडी के अवसर पर, भटका है इम्मोशन

सिरियल मे बस, इम्मोशन की ही भीड़ है
उन्हें लगता है, पब्लिक से जुड़ाव रखने की यही एक रीड़ है
टीवी पर वोट माँगता है इम्मोशन
दुनिया को अपने से ऐसे ही बाँधता है इम्मोशन?
अब एक और दौर चला जिसमे लुटती हैं यादें सुनहेरी
हर घर बन गया है दोस्तों, आपकी कचहेरी

एक गया तो दूसरा आया, हर एक, दूसरे से सवाया
छोटे पर्दे से चला गया, बड़े पर्दे तक इम्मोशन
हिट भी वही है जिसमे भरा है इम्मोशन
जब तक कोई रोये ना, किसी का दिल ना टूटे
पब्लिक के दिल मे बसता नहीं है इम्मोशन

टीवी पर रात दस बजे, खुरच रहे हैं दिल
दुखियारों की लगी है बड़ी जब़रदस्त महफ़िल
रिश्ते खड़े हो गए हैं एक-दूसरे के सामने
नहीं आता है फिर एक दूसरे के पहचानने
उस वक़्त लगता है, नहीं बची है कोई भी याद सुनहेरी
हर घर बन गया है दोस्तों, आपकी कचहेरी।

लख्मी

तिरछी नज़र का खेल है ये सब

हम अपने अन्दर क्या लिए चल रहे हैं और बाहर क्या? हमें हमारे अन्दर का अहसास कब होता है? वे महज़ हमारे लिए होता है या उसका कोई फैलाव है? हम जो भी अहसास करते हैं उसकी ताकत क्या होती है?

एक वक़्त के लिए मान लेते हैं, चाहत और कल्पना, जिसमे कई इस तरह के ढाँचे तैयार हुए हैं। जिनका बनना कभी भी दिमाग मे नहीं होता। उनका आधार और रूप सब कुछ अन्देखा होता है। ये एक दायरा भी हो सकता है सोचने का, लेकिन अपनी सोच से बाहर निकलना क्या इसका दायरा बड़ा कर देता है और कल्पना को मजबूत?

अभी के वक़्त पर खड़े होकर हम चाहत करते हैं पीछे जाने की जैसे कहते हैं, गुज़रा वक़्त ही बड़िया था कोई टेंशन नहीं थी।" या फिर कभी-कभी तो इससे उलटा ही देखने की कल्पना करने लगते हैं जैसे, अभी के समय मे खड़े हम आगे की सोचते हैं। ये सोच तो फेमस है। बड़ी-बड़ी कम्पनियाँ हमसे पहले ही हमारे आने वाले वक़्त के बारे मे सोच लेती हैं। फिर हमें बताती हैं कि हमें क्या करना है। लेकिन हम अपने अतीत को अपनी ताकत मानकर चलते हैं। दुनिया मे बहुत बार सुना है, “इसका बैकग्राउंड बहुत धांसू है।" ये लाइन हमें कहाँ ले जाती है?

कल्पनाओ का पैमाना बनता आया है हम मानते हैं। वे कभी अपनी अन्दरूनी हदों मे होती है तो कभी उसकी झलक कहीं देखी हुई सी लगती है। मगर जब उसपर सवाल उठते हैं तो वे आधारित करना मुश्किल लगता है। जिसके दायरे तो कभी बाँधा हुआ या खोला हुआ तो नहीं होता, जिसे अपने हाथों मे दिखाया जा सकें। बस, वे सब कुछ दिमाग मे घुमता रहता है जो कभी बाहर भी आ गया तो लगता है कि कोई अविस्कार हो गया हो। ये सब मन के अन्दर के चित्र ही तो हैं जिन्हे देखने के लिए कभी अपने अन्दर झाँकने की इच्छा होती है तो कभी अपने से दूर जाने की। कल्पना का रिश्ता जुड़ा है उन चित्रों से जिसे देखना चाहते हैं, मगर जब वे चित्र कहीं नहीं नज़र आते तो वे क्या हैं? उन्हे दोहराने के तरीके क्या हैं?

अब हम बात करते हैं चाहत की, मान लेते हैं कि मेरी चाहत मे अगर "कहीं" शब्द रखकर देखूँ तो क्या बना पाऊंगा? ये मुझे क्या सकेंत देगा? इसका मतलब क्या है? ये कोई सोचने लायक सवाल नहीं है, लेकिन फिर हम अपनी कल्पना को किन अवधारणाओ मे देखें?

"काश ऐसा होता" ये लाइन कई बार सुनी है, जो कुछ माहौल को, जगहों को अपने मुताबिक बनाने की अपेक्षा रखती है। पर क्या हमें पता है कि ये अपने मुताबिक होना क्या है?

हमारे बीते और आने वाले समय को एक नये चित्रों मे देखने की लय को हम अपने अन्दर लिए चलते हैं। जिसमे हम कई अलग-अलग समय को एक कनैक्शन मे बाँधने की कोशिस करते हैं। वे आने वाली तस्वीरें ना तो मनगढ़ंत होती और ना ही खाली कल्पना कि हुई छवियाँ। उसमे कुछ अहसास ऐसे होते हैं जो चल रहे समय से चुने हुए होते हैं। जिनको किन्ही चिन्हों से बताया जा सकता है।उन्ही चिन्हों मे घुले-मिले रहना ही हमारी चाहतों को उजागर करता है। जिसमे हमारी आसपास की कई ऐसी जगहें उभर कर आती है जिसे हम हर रोज़ देखकर अन्देखा करते हुए चलते हैं। वे आवाजें होती है जिसे सुनकर भी अन्सुना कर दिया जाता है। ये चाहतें वे वैकल्प देती हैं, नज़रिये देती हैं जिनको अपने से बाहर के रिश्तों और अपने जीने के तरीको को समझने की भरपूर कोशिस होती है। हमारे आसपास मे कई ऐसे माहौल व अवसर रहे हैं जिनके दायरे, सीमाए इतनी कठोर होती है जिनमे घुसना तय नहीं होता, वे सिर्फ़ उन स्थिति की तरह होती है जो शायद कंपयूटर भाषा मे "रीड ओनली" कहते हैं। हम उ न्हे पढ़ सकते हैं पर अपना कोई जीवन का पात्र उसमे नहीं रख सकतें। वे हमारे से किस तरह के जुड़ाव मे होती है?

कुछ कर नहीं पाये या चाहते हैं कि कोई उंगली पकड़े और उसी मे कई ऐसे माहौल व जगह तैयार हो जाये जो सिर्फ़ मेरे लिए हो। जिसमे कुछ पल का ठहराव मेरे जीवन के उन हिस्सो को दिखा सके जिन्हे मैं एक झटके मे छोड़ आया था या उन अवसरों मे मुझे लेकर जाये जिनमे मैं खुलना चाहता था पर किन्ही रिश्तों मे फँसा रह गया था। वे सभी राहें खुल जाये जो आज भी अपने कदमों के निशान कहीं छोड़ गई हैं। उन्ही से वे सभी याद आती हैं।
ये सब वे चाहतें हैं जो आज के बीत रहे समय के बीच मे खड़ी हैं और इन्तजार कर रही हैं तस्वीरें पाने को। ये सभी तस्वीरें कोई मनगढ़ंत नहीं है ये सभी मेरे से बाहर बह रहे चित्रों को दिखाती है, खोलती है, जुड़ती है, ठहरती है और मेरे साथ उड़ान मे रहना चाहती है। जो मेरे अनुभव मे भले ही ना हो लेकिन मैं इनके अनुभव का हिस्सा हूँ।

हम एक जगह पर खड़े बस, चलते हुए समय को निहारते रहते हैं। उसमे होते खेल को देखते रहते हैं। कभी उसमे घुसते हैं तो कभी झटक कर बाहर आ जाते हैं। ये बाहर निकल कर आना कई अन्य तरह के एक्शन को बनाता है। इसके भी दो तरह के रूप हैं, जैसे कभी ये उछलना होता है तो कभी नज़रे चुराना तो कभी हम एक ऐसी तिरछी नज़र बना लेते हैं जिससे कई जगहों से नाता रख पाये। ये नज़र हमारे रिश्तों और कामों से हमें अलग नज़रिया देती है। जो हम खुद से बनाते हैं।

ये सब तिरछी नज़र का खेल है, जो हमें एक जगह से दूसरी जगह का हिस्सेदार बनाता है। हमें जगह चुनने की कोशिस देता है। रूप बदलने को कहता है और इन्ही के बीच मे हमें अपना नया रॉल बनाने की उम्मीद देता है। अपनी यादों मे जाना, अनुभव का बख़ान करना, आगे के चित्र बनाना ये सब नये पैमानो को खोलता है।

शहर इस नज़र के घेरे मे आने को तैयार है, शायद हम अपने अन्दर को जानने की कोशिस मे वो अन्दर कैसे बना उसे भूल जाते हैं। उसका नज़रिया क्या है?, वे कैसे चीजों को देखता है?, सुनने के कान क्या है?, बोलने के शब्द क्या हैं?, दोहराने के तरीके क्या हैं? और ये सब कैसे उभरते हैं वे सब अपने से गायब कर देते हैं। ये कैसे बता पायेगें हम।

लख्मी

Thursday, December 18, 2008

भूख है, ये नहीं कोई जादू

मानव को इस भूख ने क्या-क्या न बना दिया
किसी को भिखारी तो किसी को अफ़लातून बना दिया
जब गिरा जाकर इतिहास के टोकरे में
तब रीमिक्स कहकर यादों को दोगला बना दिया

इस भूख ने क्या-क्या न बना दिया

वो कोई और थे जो विरासतें बनाकर छोड़ गए
अब तो नंगापन भी आदमी को भा गया
इस भूख ने क्या-क्या न बना दिया

कहत कबीर सुनों भई साधू
भूख है, ये नहीं कोई जादू
इस की फ़ितरत ने अपना पर्चम चट्टानों पर लहरा दिया
सीना ठोक कर जो वादा किया, वो वादा निभा दिया

इस भूख ने क्या-क्या न बना दिया

फैशन पर फ़िदा दुनिया सारी
जिसको देखो कपड़े फाड़ने की लगी बिमारी
इस बिमारी ने लाखों को मार्ग से भटका दिया
रात की आगोश ने तुझको अकेला चमकता जुगनू बना दिया

इस भूख ने क्या-क्या न बना दिया

याद है मुझे अभी भी वो मैख़ाने
जिसमें कभी तहज़ीब से पिया जाता था
अब तो तहज़ीब से पीने का नाम ही बचा है बस,
पीने वालों ने ही शराब को बदनाम करा दिया

इस भूख ने क्या-क्या न बना दिया

नशा नहीं कहता की तू मुझे पीकर बहक जा
अब तो पीने वालों ने ही नशे को ठुकरा दिया
बस, बचा है एक नाम नशा
क्योंकि बेवड़ों ने इस सब्र का नामों निशाँ मिटा दिया

इस भूख ने क्या-क्या न बना दिया

कटोरा लिए जो फिरता है आज
वो कभी युवराज हुआ करता था
उछालता है कीचड़ जो औरों पर
वो भी कभी साफ़-सुथरा हुआ करता था
अब चमक नहीं उसके प्यालों में तो रोता है
उस ने अपनी दुनिया को अपने हाथों से जला दिया

इस भूख ने क्या-क्या न बना दिया

आज दिल्ली बन गई मैट्रो सिटी
बेगुनहा जनता महंगाई के हाथों पिटी
कर्जे में डूबकर भी हुकूमत ने विकास दिखा दिया
गरीबों के दामन और फ़टे बस, अमीरों पर जरा सा टेक्स लगा दिया

इस भूख ने क्या-क्या न बना दिया

राकेश

ये सेंसेक्स कहीं, सेक्स न बन जाये यारों

ये सेंसेक्स कहीं, सेक्स न बन जाए यारों

हमें तो लूट लिया मिलके शेयर बजारों ने
मरा आर्थिक मंदी ने, तोड़ा सब्जी मण्डी ने
ठेकेदारी की प्रथा उल्टी पड़ गई देखो
कर्मचारियों ने किया प्रदर्शन चौड़े में देखो

हमें तो लूट लिया मिलके ......

ख़ामियाज़ा कितना भुगते यहाँ के व्यापारी,
हाए! फूटी कहाँ आकर इनकी किस्मत बेचारी
नाक में दम किया मजदूर अभियानों ने
लुट गया सेंसेक्स बजार के शामियानें में

हमें तो लूट लिया मिलके.......

पार्टियाँ जीत गई अब न कोई मतलब है
यहाँ कोई किसी का नहीं सिर्फ़ अपना मतलब है
देश की जनता पर अब नेताइ हुकूमत है
आज खतरें में पड़ा जन-जन का ही मत है

हमें तो लूट लिया मिलके........

चौतरफ़ा लगा महंगाई का जमघट है
वो कभी चढ़ता है और कभी उतर जाता है
कैसा नशा है सेंसेक्स का समझ नहीं आता है
रात-दिन सेंसेक्स ही नज़र आता है

हमें तो लूट लिया मिलके.......

ये सेंसेक्स कहीं सेक्स न बन जाये यारो
अगर उतरें पेन्ट तो कमीज़ तो संभालो यारो
कुछ अंक बढ़ता तो कुछ अंक लुढ़क गया है यारो
इस के चक्कर मे कितनों का दिवाला निकला यारो

हमें तो लूट लिया, मिलके शेयर बजारों ने।


राकेश

Tuesday, December 16, 2008

रोज़मर्रा, इन्हे कौन दोहरायेगा

समय की परतों में घुली-मिली याद्दाश्त को लेकर हम अपनी कार्य क्षमता को दूसरे के शरीर मे धकेलते हुए चलते हैं। जीवित और अजीवित कणों को छोड़ते हुए। ये सोचना बड़ा विचित्र सा लगता है, हैं ना! अन्दर और बाहर इस से ज़्यादा शायद कुछ और हो? लेकिन इन दोनों के बीच दो तरह की रेखाएं होती है, चाहें वे धातु हो या अधातु, वो वास्तविक हो या अवास्तविक, इन्हे शुरू होते हुए कहीं से भी देख सकते हैं।

इस का अंत कहीं पर आ कर ठहरना हो सकता है। दोनों को पता है की इतनी दूरी जरूरी है? दोनों रेखाओं का रिश्ता न जुड़े होने पर भी जुड़ा सा लगता है या शायद उन्हे कोई अन्य सम्बध जोड़े हुए है। दोनों एक-दूसरे को देखती हैं, समझती हैं। जब तक बन रही है। तब तक चलते जाना है। अगर कहीं ख़त्म हो भी तो उसकी तरह कोई और रेखाएं जीवित होकर कोई और फैलती हुई अपनी जगह बना ही लेती है।


बात शुरूआत और अन्त की ही नहीं है जिसे सुनकर मन की कल्पना ढगमगाने लगें। अजीवित और जीवीत से कल्पना करके एक संकल्प बनाने की "चाहत" सी पैदा होती है। जो बनती और टूटती रहती है, मगर उसे फिर एक और बार, फिर एक और बार दोहराने की जिद्द़ हमेशा कोई न कोई लिए ही चलता है।

मान लेते हैं, इसमे कुछ ख्वाइशे और इरादों को धारण करते हैं लोग मगर कैसे? अपनी-अपनी मह्तवकांक्षाओं को पूरा करने मे, नये और नये करने कराने की प्रक्रिया को बनाते जाते हैं। जिसमे वे अपना जीवन व्यतित करते हैं। तीर की तरह निकल जाने वाला एक शरीर जिसका दोबारा आना या एक फोर्स़ का दोबारा आना कैसे हो सकता है? वो क्या हो सकता है? ये कभी सोचा है? शायद जिस का अन्दाजा लगाना मुश्किल होगा। जो एक ख़्याली सरहद को भेदना सा होता है। इसे ऐसे ही लेकर चलना होता है। दूरी उस के लिए कुछ समय मे ही पँहुचकर निशाँ बना देने वाली चिह्न की तरह होती है और एक ज़मीन से उठकर हवा में तैरते छोटे-छोटे, बिन्दुओ की तरह के कण को, एक कल्पना की उड़ान को ताकत देकर कोई आकृति को बनाने या सोचने मे लग जाती है।

भिन्नता हो या फिर अभिन्नता इनको बाँटने के बजाएं इनको एक समझ प्रदान करती है। इन्हे सोचने या ग्रहन करने वाले अपने अन्य प्रकार के द्वारों को खुला रखते हैं शायद किसी ख़ास न्यौते के इन्तजार मे। इसमे गिरने वाले बारिक और औझल रिश्तों के तीर की तरह शरीर मे समाते , शब्द, भाषा, वक़्त और याद्दाश्त हमें निखारती और बनाती जाती है।

ये क्या सोचने के बिन्दू है?, इसे बौखलाहट के स्वरूप क्यों माना जाता है। क्या जिसमे कोई शख़्सियत और बोल नहीं होते वे भिन्नता और अभिन्नता के आधिन होते हैं? ये क्या सवाल हैं जो कभी दोहराये नहीं जाते? इन्हे कौन दोहरायेगा?

राकेश

इन गीतों की उम्र बहुत है

आस-पड़ोस मौहल्लो में होने वाले तीज़-त्यौहार ऐसे ही बितते रहते हैं। जिनमे कई अलग-अलग तरह के माहौल बनाये जाते हैं। जिन माहौल की सबसे बड़ी ख़ासियत यह होती है कि वे किसी एक घर के रिवाज़ों से बंधे नहीं होते। वह तो झूमते ही है माहौल मे आने वाले हर रीति-रिवाज़ों मे।

दक्षिण पुरी मे भी एक वक़्त था जब यह माहौल बड़े धूम-धाम से फैलाए जाते थे। जिनसे पता चल जाता था कि ये कितने लोगों, परिवारों, रिवाज़ों के समूह से बने हैं। गीत, लोकगीत, लेडिस गीत-संगीत, ढोलक की थाप, चीम्टो की आवाज और थालियों की आवाज़ें इन माहौलों की रौनक बड़ाती थी। मगर धीरे-धीरे जैसे ये किसी किनारे लगते जा रहे है। इसके बावज़ूद भी एक चीज है जो बच गई है जिससे माहौल को जमाया और नचाया जाता है जिसको ज़ुबानों ने पकड़ लिया है। वह है लोकगीत। इनकी आज भी बेहद गहरी छाप है। कई ऐसे लोकगीत आज भी हमारे बीच छुपे हैं। जिनको मुँह ज़ुबानी, गाया और बाँटा जाता है। एक मुँह से दूसरे मुँह तक जाकर ये फैले हैं।


इसी फैलाव से ये कई जगहों मे अपनी छाप छोड़ पाए हैं। इन्ही छापों को जमा करने का अन्दाज़ क्या हो सकता है ये पता है किसी को? एक लड़की के बारे मे सुना। जिसकी शादी अभी हाल-फिलहाल मे हुई है। जिसका ससुराल दक्षिण पुरी मे है। कह सकते हैं कि वे यहाँ की नई-नई दुल्हन है। वे अपनी शादी मे कई समानों के साथ मे एक चीज और ले आई थी। जिसे देखकर उसके ससुराल मे किसी ने कुछ नहीं कहा। जैसा हर समान को देखकर कहा था कि टीवी यहाँ रख दे या पलंग यहाँ रख दे। वैसा कुछ नहीं कहा था उस चीज को देखकर। वो चीज थी। कई कटे-साबूत रजिस्टर। सुनिता जी को इन लोकगीतों को लिखना बहुत अच्छा और सुख देता है। उनके रजिस्टरों में ऐसे ही कई गुमनाम गीतों की भरमार है। जिसका एक-एक पन्ना अपनी ही दास्ताँ कहता है।


उनके रजिस्टर की शूरूआत होती है, “बन्ना तेरी दादी बड़ी ये होशियार, हमसे हटकर, पलंग से हटकर बिछाली रे अपनी ख़ाट।"


इन सभी पन्नों की उम्र सात से आठ साल से कम नहीं थी। उन्होंने अपने गीत से पहले वो भी लिखा हुआ है जहाँ पर वह गाए गए हैं। गली में और अपनी शादी में इन माहौल मे बैठ-बैठ कर उन्होंने इन गीतों को लिखा है। उनके रजिस्टरों मे लगभग एक सो पचास गीत होगें। जो उन्होंने खुद लिखे हैं। पहले जब वे शादियों के इन माहौलो में जाती थी तो खाली किसी के गाते हुए गीत के पीछे उन आवाजों मे अपनी आवाज मिलाती थी जो उस गीत के लिए कोरस का काम करती है। ये काम वे लोग करते हैं जिनको ज़्यादातर गीत आते नहीं हैं। ये इन माहौलो की रौनक होते है - नवरात्रे, लड़का होने पर, होली पर, शादी मे । इन सभी माहौलो और अवसरों मे जाकर-जाकर उन्होंने सुना और घर वापस आकर उस गीत को गुनगुनाकर उसे अपने रजिस्टर मे उतार दिया।

वो बताती रही थी कि कितनी बार तो सुनिता जी रिकार्ड करके भी लिखा करती थी। आज वे सभी गीतों को गा सकती है। ये गीत खाली उनके रजिस्टरों में ही नहीं रखे रहे हैं। ये उनकी ज़ुबान पर भी सजे हैं। रोजाना सुबह उनके कमरे मे से बर्तनो की आवाजों से साथ उनकी भी आवाज आती है। इन्ही गीतों की वर्णमाला को उन्होंने अपने मे समाया हुआ है। उनकी ज़ुबान पर उन्हीं से जुड़ी लाइने रखी रहती है। अब तो वे गीतों में अपनी ही नई लाइन रखकर उसे और मज़ेदार बना डालता है और लोग कुसनकर बड़ी चुश्कियाँ भरते है।


वे कभी-कभी हँसकर कहती है, “काश मेरे पास इन गीतों की कैसेट होती तो कितना मज़ा आता और जिसमे इन्ही औरतों की आवाज भी होती।"


दिनॉक:- 11 नम्बर 2008, समय:- दोपहर 4:00 बजे

लख्मी

ये सब तेरे लिए है

ढूँढ़ता-फिरता चल उस निशाँ को जो तेरे लिए हैं।
उन बसेरों की पनाहों मे रूक जा, जो तेरे लिए हैं।
फिर से खिल जाए वो कहानियाँ, वो यादें और निशाँ,
कुछ ऐसे नयेपन से दोहराता चल, उन लम्हों को जो तेरे लिए हैं।
न कर अभी चाँद, तारे तोड़ने की बातें, ये ज़मी अभी तेरे लिए हैं।

जाने कब खो जाए तू इस शहर मे बनकर काफ़िर होकर,
अन्जान जगह बने ये पेशबन्द इशारे तेरे लिए हैं।
कहीं इबारत, कहीं पर्चे, कहीं तख़्तियाँ तेरे लिए हैं।
कहीं खुले गटरो के ढक्कन, कहीं खुदे गढ्ढे तेरे लिए हैं।
कहीं ऊंचे बोर्ड लगे हैं तो कहीं बिजली के खम्बों पर बैनर।
इनमे दर्ज़ इश्तेहार और एडवर्टाइस्मेंट तेरे लिए हैं।

कई सुविधाएं, कई सेवाएं तेरे लिए हैं।
तू इस शहर में कदम तो रख, यहाँ की सब अफवाहें तेरे लिए हैं।
जब थक जाए तू , न मिले आसरा कहीं,
तो ये सड़को के फुटपाथ और खुला आसमान तेरे लिए हैं।

ओढ़ लेना तू इसे चादर समझ कर रात में जलते खम्बों की रोशनियाँ तेरे लिए हैं।
जहाँ चीखना-चिल्लाना भी गाना लगता है, ये सभी डिस्को क्लब तेरे लिए हैं।
जहाँ हर शख़्स मुखौटे पहने नाटक करता है, वो रंगमंच भी तेरे लिए हैं।
जहाँ सूरज चढ़ते ही सुबह होती और शाम की परछाइयाँ तेरे लिए हैं।

यहाँ इस भीड़ में क्या हो जाए, तेरे साथ कुछ पता नहीं,
जब भटक जाए कहीं रास्ता, तो कह देना हर शख़्स तैयार घुमाने के लिए हैं।

राकेश

लोकल फ़िल्म के द्वार खुले हैं

फ़िल्म आज के समय मे मनोरंजन का बहुत बड़ा ज़रिया है और जैब भरने का एक अच्छा-ख़ासा ज़रिया भी। आज हर शख़्स फ़िल्मो के पीछे ही अपने दकम बढ़ाना चाहता है। बस्ती के हर कोने में फ़िल्मों की सीडी, डीवीडी और कैसेट बिकते नज़र आते हैं। साथ-साथ फ़िल्मों मे अपने हाथ आज़माने से भी कोई नहीं कतराता। हर तरह की फ़िल्में बनाई जाती हैं चाहें वे बड़े पर्दे ही हो या छोटे पर्दे की। इसका कारोबार इस कदर फैला है कि बच्चे, जवान और बुज़ुर्ग सभी अपनी-अपनी मनपसंदन फ़िल्में देखकर अपना मनोरंजन करना चाहते हैं। साथ-साथ फ़िल्मों की दुनिया के कलाकारों के बारे मे जानने की भी जिज्ञागा रखते हैं।

शहर मे कितने ऐसे काम और रोज़गार हैं जिनमे लोग अपने परिवार और परिवार के हर सदस्य का गुजर-बसर करते हैं। लाख परेशानियाँ आ जाये तब भी अपने रोज़गार को और काम को नहीं छोड़ते और अगर किसी कारणवश छोड़ना या बन्द करना पड़े तो आखिरी वक़्त तक उसपर से दिन नहीं हटता। एक मलाल सा रहता है आखिरी वक़्त तक। आँख ये मानना ही नहीं चाहती है की अब इसे देखना बन्द कर।

हमारी भी सूची में कई ऐसे काम और रोज़गार हैं जो दिल की कुन्डियों पर टंगे है और पल्लू छोड़ना ही नहीं चाहते। ये तो दावे से नहीं कहा जा सकता है की ये काम हर बन्दे के लिए चाहत रखते हैं। मगर कुछ लोग हैं हमारे आसपास जो अपने काम-रोज़गार से दिली शुकुन और चाहत से बन्धे हुए हैं। उसी से अपने आसपास और शहर को सोचते, जानते, पहचानते और साधन का ज़रिया बनाते हैं।


एक शख़्स से अभी हाल-फिलहाल मे छोटी सी भेंट हुई। इनका नाम जनाब 'अली साहब' है। वैसे तो ये एक कोरियर कम्पनी में काम करते हैं पब्लिक डिलिंग का मगर इसमे इनका थोड़ा मन है नहीं। बस, कुछ और ही करने की तमन्ना रहती है।


जनाब को 'लोकल फिल्मे' यानि के देसी फ़िल्में जो किसी ख़ास ज़ुबान मे बनाई जाती है। जैसे हरियाणा, भौजपूरी, अवधी, ब्रज या यूपी भाषा मे। ये कई छोटी बस्ती यानि के कलोनियों में बहुत लोकप्रिय होती हैं। जो इन ज़ुबानो को जानते हैं वो इन्हे अपने घरों मे रखते हैं ये कहकर की ये हमारे देश की फ़िल्में हैं। देश यानि हमारे गाँव या हमारे रिवाज़ों से मेल रखती हैं जिसमे हमारी भाषा को उभारा गया है। इसमे अगर फ़िल्मों का थोड़ा मसाला मिल जाये तो वो सोने पे सुहागा हो जाता है। आजकल तो केबल टीवी वाले भी रोजाना शाम मे दो घन्टे इन्ही फ़िल्में दिखाने मे बहुत रूची दिखा रहे हैं। सबसे बड़ी अचम्भे की बात ये होती है की इनमे कोई बड़ा कैमरा, कोई बड़ा सेट या हीरो-हीरोइने नहीं होती। उसमे नुक्कड़, मोहल्ले या किसी शादियों मे लगने वाले शामियाने के जैसे सेट होते हैं। जिसमे रॉल मिलता है। मौहल्ले के शायरों, कवियों, गीतकारों, डाँसरों, हीरो यानि अदाकारो को। जिनके लिए ये अपनी कला दिखाने का या आज़माने के लिए किसी बड़े स्टेच से कम नहीं होता।


ऐसी ही फ़िल्मों का दक्षिण पुरी मे कोई कम क्रैज़ नहीं है। जनाब अली साबह भी उन क्षेत्रिये फ़िल्मों को जमा करते हैं और उनके ही म्यूज़िक पर नये तरह के गानो और गीतों को कम्पोज़ करते हैं। अपना एक छोटा सा कार्यालय बनाये हुए हैं जहाँ पर ये इस काम को अन्जाम देते हैं। इनके पास मे लड़को आना-जाना लगा रहता है।


अभी ये हाल ही मे अपनी कहानी से कोई क्षेत्रिये फ़िल्म बनाने की सोच रहे हैं। उसके लिए ये अपनी कालोनी मे कई अलग-अलग तरह के लोगों से भी मिले हैं। अभी इनकी फ़िल्म का ऑडिसन चल रहा है। अभी कुछ ज़्यादा मालुमात नहीं हुआ है के इनकी कहानी क्या है? वैसे तो कई तरह-तरह की कहानी इन्होंने लिखी है अपनी कलोनी को सोचते हुए। बस, वो कहीं परवान नहीं चड़ पाई हैं।


कलोनी मे सास-बहू, शादी मे होने वाले किस्से, दोस्तों मे प्यार के बुख़ार या बेरोज़गारी मे मोहब्बत, इनको लेकर वो बहुत बात करते हैं। लगता है की जैसे ये इनकी कहानी के शिर्षक होगें।


इसी काम मे बहुत मन है उनका। कोरियर मैन तो कहीं तक भी नज़र नहीं आता उनमे। इस काम को करते हुए काफी वक़्त हो गया है जिसमे अभी तक कोई मुनाफ़ा नहीं हुआ है मगर फिर भी मन से नहीं उतरता ये। बस, इसी धुन ने वो सवार हैं। जाईये ऑडिसन दे आईये...

लख्मी

कैसे भूले हम इसे?

यहाँ-वहाँ से ली कुछ छवियों का रूप तुम्हारे और अपने खुद के सामने रख रहा हूँ। कहाँ हैं वो ठिकाने जिनमे बसने वाले शख़्स अपना आशियाना सवारते हुऐ - अनगिनत सपनों कि बली चढ़ जाते हैं? उनके समावेश से बनी और जुड़ी इच्छाएं दूसरो पर कुर्बान हो जाती हैं। शायद इच्छआएं मरती नहीं है। वो तो जीविकाओं में रूपातंरित हो जाती है। वक़्त अपनी गति नहीं बदलता, बदल जाते हैं उस गति में जीते आए लोग। जीवित हस्तियाँ वक़्त का वाहक बनती है तो कभी अदृश्य छवियाँ हमारे इर्द-गिर्द घूमती-फिरती है। तो वो छवि क्या है?

शख़्स आँखो के छलावो पर अपना जीवन व्यतीत करता है। एक तरह से उसे मालूम होता है पर उसकी आँखो पर कुछ नकाबपोश पर्दे पड़े होते हैं। जिसके कारण नकाबों के बीच घिरा शख़्स उन्ही पर निर्भर रहता है।

जैसे, रात में शहरों पर पड़ी अन्धेरे की काली चादर, जो अपने साये को चीज़ों पर ढाके रहना चाहती है। अन्धेरे मे वस्तु का अक्स भी खो जाता है पर इस अंधेरे की काली चादर ज़्यादा देर तक नहीं टिक पाती वक़्त के दौड़ते पलों के साथ एक उजाला इन वस्तुओं को उनका अक्स दे देता है ये प्रकृति का एक चला है। ऊपर-नीचे होता रहता है मगर बात एक जगह मे रूकने की नहीं है। एक उम्र जो अपने अन्दर ढेरों चीज़ों को बटोरकर तय किए पड़ाव पर अपने चिन्ह बनाती हैं और एक अवधि तक आकर ठहर जाती है। क्या वो उसका ठिकाना होता है? जो सपने-रिश्ते, ख़्वाइशो शख़्स अपने साथ लिए ठिकानों की कल्पना करता है और साथ-साथ बटोरी गई चीज़ों को बुनाई में लाता है शायद वो एक तरह से अपना परिचय तैयार करता है। लगता है, जीवन परिचय तैयार या फिर बनाने का स्तर है।

राकेश

शहर और बनते कोने

शहर और कोना, जिनके बीच ही हमेशा कुछ ना कुछ चलता रहता है। कभी कुछ बनाना, कभी कुछ उखाड़ना, कभी कुछ चलाना तो कभी सिर्फ़ प्लान करना और साथ-साथ इनके बीच मे एक चीज है जो हमेशा चलती है, वे है "टाइम"। ये अपने साथ मे कई बसते शहर, कलोनियाँ और रास्तों को लेकर चलता रहता है। जिसके साथ मे होती है कई अनगिनत ज़िन्दगियाँ। जो परिवारो के साथ मे बनने लगती है। जैसे-जैसे शहर का आकार बढ़ता रहता है तो उसी में लोग अपनी-अपनी चाहत और मेहनत से अपने लिए एक कोना बना ही लेते हैं।

जो जगह या जमीन शहर मे कहीं खाली छोड़ दी जाती है या जीवन पनपने से कहीं कोसो दूर भी होती है। उसी जगह को लोग जीने लायक बना लेते हैं। अपनी इच्छा और अपने आने समय को समाये चलते हैं। हर परिवार और उसके लोगों के साथ में रहता है। उनका हुनर, अनुभव और जगह की बुनाई, जिसमे घुली रहती है उसकी बना‌वट की एक गहरी परछाई। जो शायद कहीं गुम हो जाती है। शहर के बनाये गए ढाँचे मे मगर सुविधा और असुविधा को हटाकर इन गहरी परछाइयों को शहर की आँखें किस तरह से देख पाती है? शायद एक शहर की बनावट एक आँगन की बनावट से कहीं दूर होती है। वे उन कोनों को नहीं देख पाती जिनको बनने मे जीवन के कई बहतरीन साल और उसकी बचत जुड़ी होती है। वही सब ओझल हो जाता है। उनके लिए कोई जगह या सवाल नहीं है जिनसे वो खुल पाये। बस, एक ही शब्द आ जाता है जुबाँ पर "विस्थापन" जो जगह धीरे-धीरे अपना एक शहर बसाने लगती है। एक समाज बनाने लगती है, अपनी सुबह और शाम की आवाजों को शहर के शौर से मिलाने लगती है तभी उसको एक ऐसे शब्द के भार मे डाल दिया जाता है। जो उसके समय को, उसमे बनते-पनपते छोटे-छोटे महौलो को, उसमे चमकते हर आँगन या दरवाजों को कुछ कागजों के वज़न से मापने लगती है। कितना हल्का सा बनाकर विस्थापन को किसी बस्ती, कलोनी या शहर के सपूत कर दिया जाता है मगर जो ज़िन्दगियाँ उसके आगे अपना मुँह खोले खड़ी है। उनके लिए ये क्या मायने रखता होगा?

विस्थापन मे कई अनगिनत महत्वपूर्ण फैसले एक आक्रमक समय मे होने लगते हैं। एक ऐसा फैसला जो ज़िन्दगी को एक ऐसे मोड या रास्ते पर लाकर रख देता है जहाँ से शहर काफ़ी दूर लगने लगता है। कई तरह के सवाल आसपास मे होने लगते है पर शायद सत्ता के पास मे कोई ऐसा सवाल ही नहीं होता जो पूछ सके की "यह जगह कैसे बनी?” या "इस जगह को किस तरह से बनाया?”

जगह के बनने के लिए कोई सवाल नहीं होता। बस, विस्थापन होता है क्यों? इस शहर को खूबसूरत बनाने के बीच में हम क्या यह सोच सकते हैं की शहर के फैलाव मे वो पल कैसा होगा? जब-जब कोई शख़्स आज अपने घर से दस कदम की दूरी पर बैठा है अपना सारा समान रखकर और उसका घर आज टूट रहा है? वो पल शहर की किन पक्तियों मे गिने या देखे जा सकते है? वो पल या अहसास को किसी बनावट मे ढ़ाला जा सकता है। जब कई अन्जान लोग हाथों मे हथोड़े व गेती लिए आपके सामने आ जाये तब क्या आपने बनाये, सजाये, माहौल नज़र आते हैं। वो समय होता है जब आपने पहला कदम उस जमीन पर रखा था? क्या वो आवाज उन हथोड़ों मे कहीं होती है? जब हम पहली बार शहर मे आते हैं तो शहर एक विशाल रूप लिए होता है फिर हम उसे अहिस्ता-अहिस्ता उसी शहर मे एक कालौनी को बनाते हैं। कई सालों की बचत को लेकर जिसमे पूरे देखा जाये तो 30 से 35 साल होते होगें मगर फिर अचानक उस जगह को तोड़ दिया जाता है और एक बार फिर से हम उसी विशाल शहर मे आ गिरते है। अब एक बार फिर से उसे एक कलौनी का रूप देना होगा? इनमे हम कहाँ होते हैं?

ये सवाल खड़े होकर भी बैठ गए थे। लेकिन कुछ समय के दौरान ये फिर से जाग उठे। जब दक्षिण पुरी के एक इलाके मे इसकी वल-वलाहट उठी। ये ख़बर देखा जाये तो एक बोर्ड की ही भांति बनकर रह जाती है। मगर शायद अपनी पहचान दिल मे बसा जाती है। पिछले दिन दक्षिण पुरी मे बसी एक छोटी सी बस्ती संजय कैम्प। जिसको कुछ समय पहले तोड़ने का फ़तवा जारी किया गया था। उसकी बहस कई ज़ुबानो मे चली। बड़े-बड़े नेताओ मे इसकी पंक्तियाँ खेल की तरह खेली गई। वे तो भला हो इलेक्शन का जो कई ऐसे फ़तवों को रद्द कर दिया गया। एक तो ये ख़बर बनते-बनते रूक गई।

दूसरा, इन दिनो बड़े-बड़े न्यूज़ चैनलों मे जमीन के दाम गिरने की ख़बरें जोरो पर हैं। तो ना जाने यहाँ पर बनने वाले माहौल क्यों उस जमीन की इस वक़्त बनी रकमो की सूची जानने को राज़ी हो रहे हैं। पहली बार ये देखने को मिला की सोने का भाव पता करने वाली औरतें जमीन की रकम पूछने को तैयार थी। राजीव गांधी अवास के कई फोर्म तो यहाँ भरने का जोर-शोर से माहौल बन रहा था। आज उसका इन्तजार किया जाता है। न्यूज़ चैनलो मे बस, घरो के जिक्र को सुनने की इच्छाये बखूबी तैयार हैं। इस वक़्त तो लगता है जैसे घर और जमीन का बुखार सिर चड़ा हुआ है।

जैसे-जैसे बाहर शहर मे जमीन की रकम मे गिरावट हो रही है। वैसे-वैसे दक्षिण पुरी के साढ़े बाइस गज़ मे मकानो कि किमतें आसमान को छू रही है। दस लाख से तीस लाख तक के मकान बिक रहे हैं। दक्षिण पुरी की शुरूआत करने वाले लोग यहाँ से बाहर जा रहे हैं और बाहर के लोग यहाँ दक्षिण पुरी की नई रेखाओ मे शामिल हो रहे हैं।

ये बदलाव क्या है? इसे कैसे याद किया जाये?

लख्मी

Friday, December 12, 2008

खिच़ड़ी मतदान

वाह रे मतदान! वाह रे मतदान!

जहाँ-तहाँ खींचनी पड़ती जनता की टांग और बनी मिली-जुली सरकार का बनाकर।
जो चबायें पान- वही संभाले लोगों की कमान।
वाह रे मतदान! वाह रे मतदान!

समाज का चुनाव बना महत्वपूर्ण।
काम नेताओ की सिर्फ़ चलती ज़ूबान,
अरे क्या फ़ायदा देकर मतदान।
उल्टा पड़ता हर परिणाम।
वाह रे मतदान! वाह रे मतदान!

सत्ताधारी पार्टियों की ऊँची शान।
नहीं मिलता किसी अपना मान।
भटका यहाँ इमान- फिर भी सब कहे जय हो मतदान। जय हो मतदान।
वाह रे मतदान! वाह रे मतदान!

गाँव-शहर मे बजे ढ़ंका।
जिसका हर शख़्स करता जिसपर उरमान।
चाहें वो हिंन्दू हो या मुस्लमान।
हर हाल में करता है मतदान।
तेरी जय-जयकार हो मतदान।
वाह रे मतदान! वाह रे मतदान!

जीत-हार का मज़ा यही है।
सत्य - असत्य की होती पहचान।
खेल बदलता रहता है। नहीं बदलते मैदान।
तुझको मेरा सत-सत प्रणाम!
वाह रे मतदान! वाह रे मतदान!

हाथ इशारा करके बुलाता।
कमल मुस्कुरा के लुभाता।
भ्रम में पड़े लोग झुँजलाते।
किस को बनाये अपना अभिमान।
भूल गए ज़िन्दगी का मधूर गान।
वाह रे मतदान! वाह रे मतदान!

महाकुंभ लोगों से भरा है।
पाप-पून्य का सट्टा लगा है।
अनूरूप उसके होगा परिणाम।
जो जनता मे लायेगा जान
वाह रे मतदान! वहा रे मतदान!

राकेश

एक हाथ दो और एक हाथ लो!

ह़फ़्ते में शायद ही कोई ऐसा दिन होगा जिस दिन बिमला जी घर मे' कुछ खोज ना रही हो! अक्सर पलंग के अन्दर से चावलो के कट्टे में रखे बर्तनो को निकालकर वे घण्टा भर उन्हे ख़कोरती रहती। कटोरियाँ अलग, ग्लास अलग और प्लेटें, चम्मच, थाल सबके अलग-अलग चिट्ठे बनाकर उन्हे गिनती रहती और अपने में कोई हिसाब लगाकर उसे वापस उसी बोरी मे बड़ी सहजता से रख देती। मगर यह देखना और ख़कोरना यहीं पर थम नहीं जाता यहाँ से तो शुरू होता है। हर वक़्त उनके कान उस आवाज को सुनने की लालसा करते हैं जिसमे कुछ अदला-बदली के ओफ़र हो। कुछ लिया जाये और कुछ दिया जाये। वो इस बात पर हमेशा कहती हैं, “यह सारे बर्तन बेटी की शादी मे काम आयेगें कन्यादान देने के लिए।"

आज भी कुछ ऐसा ही दिन था। होली चली गई थी पर कई ऐसी चीजें छोड़ गई थी जिनका उपयोग किया जा सकता था। एक भी होली खेला कपड़ा ऐसा नहीं था जो बेकार हो। सुबह ही उन्होनें एक-एक कपड़ा एक कोने में जमा कर दिया था। कमीज़, पेन्ट, सूट और साड़ी सब कुछ और तो और जूतें भी। अलमारी खोलकर सारे कपड़े बाहर निकाल कर उनमे कुछ तलाश रही थी। तलाशते-तलाशते बात भी ऐसी कहती के किसी को बुरा ना लगे। "चलो भई आज अलमारी मे से गर्म कपड़े रखुगीं तो बता दो क्या रखना है और क्या नहीं?”

कई तो ऐसे कपड़े हैं जो पहने नहीं जाते मगर फिर भी रख रखे हैं क्या होगा उनका? एक-एक कपड़ा हाथ मे उठातीं और कहती, "यह नीली पेन्ट पहनता है कोई?” पहले तो कोई भी आवाज़ नहीं आती पर यही बात दो या तीन बार निकलती तो पीछे से कोई भी बोल उठता। पीछे बैठे श्याम लाल जी बोले, “उसे रख दे अभी सही है वो।" ये सुनकर वे बोली, "पहनते तो कभी नहीं देखा आपको।" श्याम लाल जी बोले,"तेरे को पता है कुछ कपड़े ख़ास मके पर पहनी जाते हैं। अपनी साड़ी क्यों नहीं देती?” वे ये दोहराती हुई बोली, "बस उल्टी बात करवालों आपसे तो।"

यह कहती हुई बिमला जी किन्ही और कपड़ो को छाटने लगी। यही लड़ाई घर मे अक्सर होती रहती है। पर जिन कपड़ो को आज घर से जाना होता वो तो जायेगें ही चाहें कुछ भी हो जाये। तभी गली मे ग्लासों को टकराने की आवाज आई। एक शख़्स अपनी चारों उगंलियों मे शीसे के ग्लास अड़ाकर उन्हे बजाता आ रहा था। यह आवाज़ इतनी अलग और शार्प थी के बिमला जी के कानों से ना टकराई हो, ये हो ही नहीं सकता। वो वहीं खड़े-खड़े आवाज़ कसती, “ओ भईया बर्तन वाले रुक जा जरा।" एक आवाज़ का दूसरी आवाज़ के साथ कॉनटेक्ट बिलकुल नज़दीक था चाहें कितना ही शौर हो आसपास मगर सुनना तो सुनना होता है। दरवाजे पर ही उसने एक कपड़ों से लदी पोटली को अपने काधों से नीचे उतार कर रखा। सिर पर से बर्तनो का टोकरा भी एक ही साइड मे खिसका दिया और हाथ में पकड़े बाल्टी और टब को दोनों को सामने रख दिया। दरवाजे पर ही उसने अपना छोटा सा ठिया जमा लिय।

बिमला जी ने कहा, “कितने कपड़ों में दोगे यह टब?”

बर्तन वाला बोला, “कपड़े तो दिखाईये बहन जी।"

बिमला जी बोली, “पहले बताओ तो सही तभी तो निकालूगीं ना।"

बर्तन वाला बोला, “टब तो सात कपड़ो में दूगां, पर सही हो तो फटे ना हो।"

बिमला जी अन्दर जाते-जाते थोड़ा एठ में बोली, “हाँ-हाँ हम तो पागल हैं जो फटे हुए कपड़े देगें तुम्हारे को।"

बस बिमला जी ने सारे होली के कपड़े उसके आगे लाकर पटक दिए और वहीं पर बैठ गई। वो अब एक-एक कपड़े को उठाता और पूरी नज़र भरता। जब, ज़िप, मोहरी, पीछे का भाग, फॉल, बटन, सिलाई, बाजू सब का सब एक-एक करके छूकर देखता और पूरी गुंजाइस करके बोला, "सारे होली के है?”

बिमला जी उसकी तरफ़ मे नज़र को गाड़कर बोली, "हाँ वो तो हैं तो क्या भईया नये दूं?”

वो फिर से कपड़ों में हाथ फिराता बोला, “कोई साफ़ कपड़ा नहीं होगा बहन जी? इनपर से तो रंग भी नहीं उतरेगा और अन्दर तक रंग गया है। इसे तो उल्टा करके भी नहीं बनाया जा सकता।"

बिमला जी बोली, "अब मुझे तो पता नहीं पर मेरे पास में जो पहले पुराने कपड़े थे उसकी तो मैंने दरी बनवाली यही है। बस, इनमे देना है तो दे दो।"

वो एक बार फिर से कपड़ों में हाथ घुसाता और बोला, “इनमे टब तो नहीं आ सकता बहन जी ग्लास ले लो।"

बिमला जी उसका मन देखते हुए बोली, "नहीं-नहीं भईया चाहिये तो टब ही ना!”

वो बोला, "तो एक दो कपड़े और हो या कोई पेन्ट ले आईये साफ़ सी।"

ये सुनकर बोली, "अरे भईया आठ कपड़े तो है यह?”

बर्तन वाला बोला, "हाँ जी पर सारे के सारे रंग हैं। एक-दो कपड़े तो साफ़ हो ना!”

बिमला जी बोली, "ठीक है भईया देखती हूँ।"

वो घर मे आ‌वाज़ लगाती हुई बोली, “अरे सुनते हो कोई पेन्ट है जो पहनते नहीं?”

अन्दर से कोई आवाज़ नहीं आई। उन्होंने फिर से यही आवाज़ लगाई, "अरे ना सुन रहे क्या? दो पेन्ट या कमीज़।"

अन्दर से अबकी बार एक आवाज़ आई, "मेरे पास मे नहीं है बिमला कहाँ से दूँ? यह जो पहनी है यह दे दूँ?"

यह सुनकर उनका दिमाग घर में घूमने लगा और वो "रूक जा भईया" कहकर छत पर चली गई। वहाँ पर उन्होंने एक बड़ी पोटली रखी थी जिमने से कुछ कपड़े गाँव मे भेजने थे। बस, उन्ही मे से कुछ कपड़े वो निकाल कर ले आई। भईया को देती हुई बोली, “अब नहीं है भईया इन्ही मे दे दो।"

उसने कपड़े देखे और टब उनके दरवाजे की तरफ़ मे खिसका दिया पर बिमला जी की नज़र उस टब से हटकर उसके टोकरे मे रखे बर्तनो पर थी। जिनको देखकर वो शायद कपड़े गीन रही होगी। शायद किसी बर्तन की जरूरत है यह भी अभी तक उन्हो'ने सोच ली होगी। 'लोहे की कढ़ाई चाहिये', 'एक फ्राईफैन चाहिये', 'एक टीफीन चाहिये', बारह कटोरियाँ और चाहिये। ना जाने कितने बर्तन और घूम गए होगें उनके जहन मे। अब तक तो जैसे एक और कपड़ो की अलमारी बन गई होगी उनके दिमाग मे।

वो शख़्स इन कपड़ो को अपनी पोटली मे जब तक कसता तब तक तो बिमला जी कई बर्तनो को छू चुकी होगी। उसमे अपने टोकरे को अपने सिर पर रख लिया और जाने लगा जाते-जाते बिमला जी बोली, “भईया यह बाल्टी कितने कपड़ो में दोगें?”

खेल दोबारा शुरू था। घर कपड़ो से भरा नज़र आने लगा था।


लख्मी

सब का एक दौर है

ये कोई सवाल नहीं है और अगर है तो इतना छोटा भी नहीं है कि इसे तुरंत ही बयाँ किया जा सके। ये मैं इसलिये सोच रहा हूँ की इन दोनों स्थिति को साथ मे लेकर ही शायद हर शख़्स चलता है लेकिन इसका जबाब नहीं। कई तरह के काम और जीवन इनसे बंधे हैं लेकिन शायद इनको बयाँ कर पाना आसान नहीं होगा।

जब भी "असम्भव" शब्द सामने आता है तो उसके साथ में कई सारे ऐसे काम और चीजें भी आ जाती हैं कि उनको सोचकर आगे बड़ना थोड़ा कठिन लगता है फिर भी लोग चलते हैं। असम्भव का मतलब ये भी नही है कि सारे मुश्किल काम ही इसके घेरे मे आ जाये। इसको बताने के लिए हम एक मउश्किल कामों की सुची बना डालें। कभी- कभी असम्भव को टालना बड़ा ही सुखद महसूस होता है। ।

काफ़ी पहले की बात है। मैंने एक लाइन सुनी थी, "अगर इसांन अपनी परेशानियो और मुश्किल कामों का मज़ाक नहीं बनायेगा तो जियेगा कैसे?”

लाइन शायद ऐसी ही थी। अब जब इसके बारे में सोता हूँ तो रोज़ाना की ज़िन्दगी का अहसास होता है। जिसमे हर शख़्स अपने सभी रिश्तों को साथ में लेकर चलता है, वे अकेला नहीं है। एक बसा-बसाया जीवन और उसके रास्ते में थोड़ी उठा-पटक तो होनी ही चाहिये ऐसा लगता है। चलिये हम अपने आसपास में टटोले तो हम क्या महसूस करते हैं? मान लेतें हैं, एक माहौल है जहाँ पर सब के सब सवेरे अपने-अपने काम पर चले जाते हैं। 8 से 12 या ज़्यादा से ज़्यादा 16 घन्टे काम करते हैं, जी-तौड़ मेहनत करते हैं। कितनो की सुनते हैं, कितनों को सहते है और कितनो को देखते चलते हैं। शाम को जब घर में लौटते हैं तो पूरे दिन की छाप पूरे जिस्म पर छलकती है। इतना सब कुछ करने के बाद भी दूसरे दिन सुबह फिर से उसी टाइम मे खड़े हो जाते हैं, तैयार होकर फिर से उसी प्रक्रिया में चलने के लिए ये क्यों है?

वो शायद एक जीवन है और उसमें जुड़े कई रिश्ते, इच्छा और भी कुछ पर इसके बावज़ुद क्या है?

मान लेते हैं जैसे, असम्भव की कुछ रेखाए बनी हुई हैं जो लोगों के जहन में सुनने और देखने से बनी है। जो अदृस्य होती है लेकिन फिर जटिल है। जिसके बाहर जाकर या यूँ कहिये, इसके बाहर कोई जाना ही नहीं चाहता बस, उसके अन्दर रहकर ही कुछ करना चाहते हैं। इसके साथ मे ऐसा लगता है जैसे, फ़िल्म है जिसमे एक हीरा रखा है। उसके चारों तरफ़ मे लाल रंग की लेज़र लाइट है। जो खुली आँखों से भी नहीं दिखती पर तेज होती है। जो बाहर न तो आने देती और ना ही अन्दर जाने देती। मगर ऐसा नहीं है कि उसे देखा नहीं जा सकता वे एक ख़ास चश्मे से दिखती है पर शायद हमारे सामाजिक दौर में वो चश्मा किसी से पास नहीं है। चाहें दिल्ली या हमारी बस्ती मे कई तरह के परिवर्तन आ गए हो पर फिर भी कई अवधारणओ के बीच मे बंधे पाते हैं हम। जिनमे रिश्तों के जोर ज़्यादा है।

कुछ काम इस तरह के बने होते हैं। जिन्हे हम इन ही रिश्तों के दायरों में निबटा सकते हैं। अब चाहें वो किसी लड़की के बाहर काम पर जाने से हो या कुछ और? इसके बावज़ुद भी कुछ कार्य ऐसे होते हैं जिन्हे ये रेखाए नहीं रोकती। जानते हैं वे क्या है? एक समय के लिए हम मान लेते हैं कि जैसे, किसी ने अपने दोस्त के घर के पते पर से अपना राशन कार्ड अथवा पहचान पत्र बनवा रखा हो पर इसकी इन्क्यारी होने पर जब पड़ोसी के हस्ताक्षर या गवाही मागीं तो दो दिन पहले जानने वाला भी साल भर से पहचानने वाला बन जाते है ये वे कह देता है। अब चाहें हम इसे भाईचारा समझे या कुछ भी पर ये प्रक्रिया किसी न होने काम को भी सम्पन कर देती है और एक शख़्स को एक जगह पर कुछ समय बिताने की मोहलत दे जाती है। अगर गवाही देने वाले के लिए भाईचारा है तो जिसके लिए गवाही दी जा रही है उसके लिए क्या है? और इन्क्यारी क्या है और क्यों है? उस शख़्स के लिए ये हस्ताक्षर क्या मायने रखते हैं? इसको हमें किसी तराजू में तोलकर इसका वज़न नहीं देख सकते पर शायद इसके वज़न को महसूस कर सकते हैं। ऐसा काम कहाँ-कहाँ जगह बनाता है इसे हम कैसे सोचें?

ये तो एक पहलू है अगर हम असम्भव को कई अलग पहलूओ के माध्यमों से देखे तो दूसरे पहलू में असम्भव और अनिश्चिता दोनों कुछ इस तरह हैं। इसमे एक भूख उत्पन होती है पर वो किसी अन्दर की आँखों में ही फसी नहीं होती है। वो रेखाए हैं जो सवाल की सीड़ी चड़कर हमें अपने से जोड़े रखती है। अपनी अदाए लेकर जीना भी किसी ना किसी कार्य से तेज होता है। ना चाहते हुए भी इस अदा को बिगाड़ा नहीं जा सकता। ऐसा व्यतित होता है की कहीं हम औरों से अलग न हो जाए। हम जिस रूप और रेखा में जी रहे हैं उसे तोड़ना नहीं हो पाता। पर उसमे कई और कार्य जुड़ जाते हैं। इसमे बैचैनी नहीं है पर एक भूख है। इसमे सब कुछ सम्भव नहीं है पर फिर भी इसकी कल्पना हम हर वक़्त अपने साथ लिए चलती है। कई काम जो हाथ से सूखे रेत की तरह से फिसलते हैं पर फिर भी हम उसे पकड़े रहने की प्रक्रिया को चलाते रहते हैं। इसमे कई चीजें असम्भव है। क्या हम सोच सकते है की हमारे साथ मे कौन सी छवि हर वक़्त चलती है?

इनके चौराहे पर कभी-कभी उस बुत की तरह होती है। जो चौराहे पर लगा होता है। जो देख सकता है, सुन सकता है पर बोल नहीं सकता। लेकिन हम तो उससे भी ज़्यादा कस जाते हैं। हम देख सकते हैं, सुन सकते है और बोल भी सकते है पर कसे हैं और उस सामाजिक सीमा मे जीते एक तसल्ली रख लेते हैं। जिसमे कभी जुड़ते हैं तो कभी अलग होते हैं।

लोग जब कहीं बाहर से किसी जगह पर रहने के लिए आते हैं तो सबसे बड़ी तलाश किसी ठिकाने को तलाशने की होती है। जो शायद इतनी आसानी से नहीं मिलता। कई तरह के सवालों को सुनना पड़ता है और उनपर चाहें हम ख़रे ना उतरे पर सामने वाले को तसल्ली या ये यकिन तो कुछ हद तक दिलाना ही पड़ता है पर इसमे पूछने वाला चाहें वो मकान मालिक हो या मकान दिलाने वाला। इनका थोड़ा सवाल अलग होता है। अगर कोई मकान किराये पर लेता है तो उसकी फैमली और पहले का पता पूछा जाता है। अगर मकान खरीदने वाला हो तो ये सवाल नहीं होते। उसमे सवाल बैचने वाले से और दिलाने वाले से किये जाते है'। घर के कागज, बिजली का बिल, लगभग सभी बिल और सारे काग़जात को पूरा चैक किया जाता है। लेकिन इसके अलावा भी कई लोग तो बिना कागजों के अपना जीवन बसर करते हैं या करते आये हैं। लम्बे समय से गुजर-बसर करने से या रहने से कुछ-कुछ हथकंडे लोग सीख लेते हैं। हम समझ सकते हैं की बंदा कई तरह के सवालों से लड़ना सीख गया है और उसे अपने तरीके में उतार भी लेता है।


जनगरणा से कटना, बिलो की लाइन से बचना, वोट डाले या ना डाले क्या फ़र्क पड़ता है ये कहना। यही कुछ अटपटे सवाल हैं. जो या तो अपनी समझ मे बना लेता है या फिर उसको टालना सीख जाता है। इसमे जब रिश्ते और फ़र्ज, काम बड़ने लगते है तो तब जरूरत होती है ये बताने की कि हम कहाँ के निवासी हैं और हमारी इस जगह पर हम क्या पहचान रखते है?

ये सब जरुरी हो जाता है। इन अलग- लग पहचान या चिन्हो का भी तो खेल ही निराला होता है। राशन कार्ड मे नाम डलवाना बेहद जरूरी होता है नहीं तो बंदा नहीं है और उसके नाम का समान सरकार नहीं देगी। पर अगर राशन कार्ड मे नाम नहीं है तो बन्दे को पुलीस नहीं पकडेगी मतलब लोग अपने नालायक लड़के का नाम तक राशन कार्ड मे से कटवा लेते हैं। ये क्यों हैं? ये कभी सोचा है? शायद देखा जाये तो खाली पुलीस के सवालों से और सबसे बड़ी बात अगर पुलीस वाले घर आ जाये तो आसपास की नज़रों से और उनसे उभरते सवालों से जो वो कभी जुबान से तो कभी चुप्पी से पूछ लेते हैं।

अगर आपका पहचान पत्र नहीं हो तो..आप वोट नहीं डाल सकते। लोग मकान मालिक के पते से अपना पहचान पत्र बनवा लेते हैं वो चलता है। पर किसी कॉलिज पहचान पत्र हो तो वहाँ से बाहर होने पर आउटर कहलाते हो। ये क्यों है?

ये तो सारे एक कार्यक्रम होते हैं जो ज़्यादातर लोग करते हैं। हमारे आसपास मे इन अनिश्चित कार्यक्रम मे भी लोग जाते हैं और हिस्सा लेते हैं। अब तो एक समझ बन चुकी है कि समाज मे शायद लोगों मे एक रीत की तरह उत्पन होती है।

गलती करो...गलतियाँ करो.. हर रोज करो...सुबह शाम करो एक बार करो...बार-बार करो.. पर एक तरह की गलती बार- बार मत करो..

इसे कहने वाला, सुनने वाला, समझने वाला और शायद मानने वाला अपने साथ एक सवाल तो लिए चलता है। वो कौन हो सकता है?


लख्मी

Sunday, December 7, 2008

ये कहाँ छुपे हैं, हुनर और रियाज़

ज़िन्दगी चलती रहती है और हम उसे जीने के स्रोत और तरीके बनाते रहते है। कभी तो उन्ही सभी स्रोतों को हम खुद से तैयार करते है। अपनी इच्छा के अनुसार उसमे एक-एक दिन को अपने जीने के अनुसार बनाते चलते है और कभी-कभी उन जीने के कारणो को हमें कोई बनाकर देता है। ये वाला जो बनाना है उसमे हम कभी अकेले नहीं होते बल्कि कई लोगों के साथ में मिलकर रहना होता है जिसमे एक बार तो हमें लगता है की दिन महज़ गुज़रता है, बितता है, कटता है और चलता है। मगर जब बात आती है अपने जीने के तरीकों को खुद से बनाने की तो फिर शुरूआत होती है, जीने की, और उसमे नये तरीकों को रचने की, फिर तो उसमे दिन किस तरह से बनता है या बनेगा उसे अपने रूपो के अनुसार हम बनाने की कोशिस करते हैं। हम अक्सर सोचते हैं कि हम अपनी कल्पना को कोई रूप नहीं दे पाते, कल्पना तक नहीं कर पाते, मगर शायद ये सब एक मनगढ़ंत कहानी है।

हर वक़्त शहर मे जीते शख़्स कुछ ना कुछ बनाते रहते हैं और हर तरफ़ में अपने जीने लायक कुछ ऐसे साधन बना ही लेते हैं जो खुद के हाथों मे रहता है। जिसकी धार को हर समय हम निख़ार मे रखते हैं और उसकी चमक को ताज़ा बनाये रखते है। इनका रिश्ता किसी चीज़ या बनाई नक्काशी से ही नहीं होता बल्कि हर वक़्त खुद को मँधते से रहता है। ऐसे कई तरह के हूनर है जो हर रोज के मँधने मे अपनी कामयाबी के मँसूबे बनाते है और जीते हैं। हर दिन को, अपने आज को, अपने हर वक़्त को। जो शायद ओझल रहता है। क्या हर हूनर का रिश्ता किसी आकृति से होता है? शायद नहीं! बस, वो तो हाथों मे रोज़ाना की बुनाई और नक्काशी से कब हाथों में जम जाता है वो पता ही नहीं चलता और उसकी डिमाँड कब बड़ जाती है? वो ही आँखें देख पाती है। एक ही दिन में अपने हाथों की रिपिटेशन होने वाली क्रिया उसे ऐसी गली दे देती है की वो अपने आप कई समय को अपने अन्दर उतार लेता है।

जैसे एक शख़्स हैं जिसे देखकर हमेशा दिमाग मे उनका कोई ना कोई रूप ठहर जाता है। रात के ढेड़ बज थे। रास्ते पर आर टी वी की भर्राती आवाज गूँजी। कूछ देर तक वो अपने कम तेज वाले स्वर में ही होती रही और फिर धीरे-धीरे कम होती कुछ देर के बाद मे सुनना बन्द भी हो गई।

प्रलाद जी स्कूल मे काम करते आ रहे हैं पिछले तीन सालों से पर अभी तक परमानेन्ट नहीं हुए थे। घर में बच्चे उनकी लम्बाई पकड़ चुके हैं। अब क्या काम कर सकते हैं? वही सोचते रहते है। और साथ-साथ ये डर तो है ही की अगर नौकरी छूट गई तो क्या होगा? रोज शाम को सात से साढ़े आठ बजे तक अमित भाई साहब की आर टी वी को साफ़ करते रहते हैं। जब तक वो गाड़ी पर आ नहीं जाते उसे चमका देते हैं। उसके बाद इंतजार करते हैं रात के होने का। बारह बजे का आखिरी चक्कर लगाकर गाड़ी वापस भी आ जाती है और रात को ढेड़ बजे वो समय आता है जब प्रलाद जी स्टेरिंग थमाते हैं। अमित जी पीछे गाड़ी मे सोते रहते हैं और इतने मे प्रलाद जी तीन बजे तक दक्षिणपुरी के सात से आठ और आठ से नौ चक्कर लगा डालते हैं। ये समय उनकी उस टेन्शन को तो भुला देता है जो उनके घर से पैदा होती थी। क्या मायने रखता है ये समय जीवन मे? कुछ तो होता है जो साफ़ होने लगता है शायद वो माँग जो शहर हमसे करता है या कुछ और? जैसे हर शख़्स अपने आपको सम्पूर्ण बनाने मे ही जुटा हो। वो हर तरफ़ मे दिखने लगता है।

अपने हाथों का महत्व ज़िन्दगी मे दिखने लगता है। अपने आपको सम्पूर्ण बनाने की कोशिस मे रहने वाला शख़्स उसी कोशिस के बलबूते पर अपने को दिखाने की ताकत रखता है।

एक और शख़्स हैं, हरीकिशन जी, उनकी करोलबाग मे एक कपड़े की दुकान हुआ करती थी पर इल्लिगल जगह मे दुकान होने के कारण वहाँ से दुकान को तोड़ा गया लेकिन इन्होंने कुछ समान को जैसे-तैसे बैचा और एक गाड़ी रखीदली और उसपर एक ड्राइवर रख लिया। इनके दो लड़के हैं। वो दोनों ही उसपर हैल्परी का काम करने लगे। बस, गाड़ी को साफ़ करना और उसे आगे-पीछे करना उनका लगा रहता था। बस, उसे वो आगे-पीछे करते रहते थे। हरीकिशन जी एक बात बार-बार दोहराते थे, "उम्र के साथ-साथ हूनर बँटता रहता है।" गाड़ी को धोते-धोते उनके हाथ भी साफ़ हो गए। पाँव ब्रैक तक आने लगे थे और कुछ दिनों के बाद ही उनको छोटे उस्ताद लोग कहने लगे। लेकिन इस ड्राईवर के सफ़र मे सीट पर बैठकर स्टेरिंग को घबराते हुए और बड़े से शीसे से नीचे झाँकते हुए, घुसकर ब्रैक दबाते हुए इन्हे किसी ने नहीं देखा। इस सब मे जो ये बीच के पल हैं वो इस लाइन मे लगे वे पल हैं जिन्हे अक्सर देखने वाली नज़रें गायब कर देती हैं पर जब खुद को दोहराते हैं तो सबसे पहले यही दिन जुबाँ पर आते हैं।

इस कुछ बन जाने की चाहत में जीवन के वे पल होते हैं जो कई भावों से गुज़रें हैं। इसमे वे बुनाई होती है, जो आज़ाद होती है। एक तरह का रियाज़ जिनपर कोई पाबंदी नहीं होती। इस रियाज़ के पल किसी को दिखे या ना दिखे पर हर शख़्स उसको अपनी तरह से आँकने लगता है जिसमे अपने रूटीन को जीना शुरू हो जाता है। ये क्या निख़ार बनाता है या लाता है? ज़िन्दगी मे कई माँगे बड़ती रहती हैं। अपने हाथ और अपने साथ चलता हूनर जिनमें ढले कई दिनों का खेल छुपा रहता है। वो बस, तभी सामने आता है जब खुद को दोहराया जाता है। अपनी ज़िन्दगी को कहानी बनाकर जीने वाला शख़्स कई चीज़ें ऐसी बना लेता है जिसके ताव मे वे कहीं किसी जगह मे खड़ा होकर खुद को बता सकें।

कई तरह के अनुभव तो इसी की रौब मे जीते हैं और ज़िन्दगी जीने के चलन को सीखकर दोहरा भी जाते हैं मगर पता है क्यों? कहीं ना कहीं से ये लाइन कानों मे पड़ ही जाती है, "हाथ का हूनर सीख लो कभी भूखा नहीं रहेगा।" क्या मतलब है इस सबका?

अपनी ज़िन्दगी को कुछ ख़ास सालों की सूची में ढ़ाले अपने हाथो को कोई तरीका दे देना और नक्काशी का कोई पैंतरा बना लेना। मगर क्या इससे समय दर समय अपने आपको बनाते चलने मे और पाने कि इस आकारनुमा रूप को शहर किस तरीके से अपनाता है? "डिग्रियाँ तो सबके पास होती है पर आप जानते क्या है?”

जब ये सवाल सामने आता है तो शख़्स से क्या माँग होती है? वो क्या चाहतें हैं जो नियम के आधार पर रखते है? क्या किसी रूप कि इच्छा या जरुरत? इस माँग या जरूरत मे वो चाय कि दुकान पर चाय बनाने वाला लड़का है जिसके हाथ की चाय पीने के लिए लोग बारिशों मे भी टूटे छप्पड के टपकते पानी मे भी खड़े रहते हैं? उसकी चाय की उस महक मे वे पतीले की जलने की महक शामिल है? वो प्लैट धोते उनके टूटने की आवाज़ें हैं? पता नहीं पर जब वो प्लैट धोकर रखता है तो उसपर उसके उंगलियों के निशान भी नहीं होते।

क्या शख़्स हर वक़्त शहर की माँगो पर जीता है? या उसके मुताबिक खुद को बनाता है? ये एक बड़ा वास्तविक सवाल है जो सभी कैसे ना कैसे थोड़ा बहुत धारण किए चल रहे हैं। बस, दिखाते ही तो नहीं है। समाज और शहर उस माँग मे वो रियाज़ करते बेहतरीन साल ओझल हुए नज़र आते हैं ये क्यों है? हर वक़्त अपने आपको इसी माँग मे बनाता शख़्स अपने को तरो-ताज़ा करने के लिए और अपने लिए कुछ शर्तें बनाता है और अपनी उम्र के साथ-साथ हाथो के कामो में ढ़ाल लेता है। जो उम्र के हिसाब से बँट भी जाता है पर वो कैसे? क्या हमने कभी अपने आपको देखा है कि कामो के साथ हमारे खुद के हाथो का क्या मेल है?

लख्मी

तस्वीरों की दुनिया मे होश कहाँ

जब किसी जगह में वक़्त अपना फेरा लगाता है तो उसके चलते चक्र में हर कड़ी अपनी एक नई और ताज़ी रूपरेखा बनाती चलती है। उसी मे उभरती हैं कुछ तस्वीरें, जो हमारे साथ याद और वक़्त का खेल खेलती हैं। कभी सोचा है कि तस्वीरें क्या करती हैं हमारी ज़िन्दगी में?

ये सवाल एक ऐसा पहलू है जिसे हम अपने से कभी भी दूर कर देते हैं। नहीं तो हम शायद ये समझ पाते की लोग शादी के बाद भी अपनी तस्वीर अपने कमरे में क्यों लगाकर रखते हैं?

खैर, इन तस्वीरों की दस्तक होते ही ये हमें अपनी एक दुनियाँ का मुख़ड़ा नज़र देखने लगती है। ये दुनियाँ कल्पना और हकिकत पर एक प्रश्न चिन्ह भी है। जिसे लेकर हर आवाज़ अपने समय को चुनौती देती है। क्या हम इस चुनौती को समझ पाये हैं? इस दुनियाँ मे अलग-अलग बनावटों और पहचानों में मालूम पड़ते मुखौटे कोई नकारात्मक छवि लिए नहीं होते लेकिन आम ज़िन्दगी से जुड़े होते हैं। इन मुखौटो की अंधरुनी छवियाँ बनाने में भरे जाने वाले पल आम जीवन में मानने या करने को कहते हैं। इसमें नज़र की शिरकत भी शामिल होती है। जो किसी पर पड़ते ही अपना काम कर लेती है।

ये नज़रें शायद तिलस्मी है, इनमे कोई जादू है या फिर उस आवाज़ की तरह हैं जिसके उठने पर आर्कषित करने वाली रेखाएँ दिखाई नहीं देती। लेकिन कोई निशान पकड़ लेती हैं। जो नज़र एक भाव की तरह उठती और अपने बहुत कम वक़्त में कई छवियों, यादों और वक़्त के नाज़ुकपन को अपने मे समा लेती है।

तस्वीरों की दुनियाँ मे कई मुखौटे हैं, जो शायद या तो हमारे हैं या हमारे किसी रिश्ते के, वे या तो हमने खुद बनाये हैं या हमें किसी बनाकर दिये हैं। ये छवियाँ क्या हैं जिन्हे हम रोज जीते हैं? ये मुखौटे क्या हैं?

मुखौटों का शहर अपनी शुरूआती या बाद वाली गती में चलता है और जो नज़र उठा लेता है। धीरे-धीरे वे एक ठहराव बन जाता है। मगर जब हम उस ठहराव को दोहराएगें तो वो नहीं होगा या वे वो नहीं लगेगा जो वो है? पर क्यों? क्या तज़ुर्बे और नये ढ़ंग होगें जो उस बना लिए गए ठहराव में होती याद, छवी और वक़्त की आवाज को गती दे सकें? जिसे हम तस्वीर कहते हैं।

कोई भी तस्वीर अपनी बैचेनी को एक ही दायरे में नहीं रखती। वे तस्वीर की बैचेनी हँसी मे, उदारता मे, खौफ़ मे, डर मे, मज़े मे, अदा मे और ना जाने कितने और भावों मे शिरकत करती है। उसके साथ-साथ ही वे याद को एक कल्पना से होकर कोई जगह बनाने की की कोशिस करती है।

किसी गती को ठहराकर उसमे जगह का कोई दर्शन होना क्या है? मेरे ख़्याल से एक-एक कड़ी में दिखा पाने कि कोशिश होती है। हर तस्वीर अलग-अलग तरह बैचेनी बयाँ करती है या कोई ना कोई भाव लिए होती है। जो नज़र के दिखने और मानने का एक खेल खेलती है। हर नज़र तस्वीर पर अपनी कोई ख़ास रेखा छोड़ती है। और अपनी वापसी मे कुछ सुन्दर या भयानक भाव को उठा लेती है या फिर तीसरा अन्य कोई जो है भी और नहीं भी, लेकिन देखने मे बनी एक कल्पना को आकृती मे रची गई सूरत मान कर चलती है। ये सब एक तरह की नज़र ही हैं।

हमारी ये पहले से समझी गई कोई छवी है जिस के अन्दर कुछ टूटे या अदबने टुकड़े हैं जिन्हे हम ये कह सकते हैं। कितनी तरह की नज़र तस्वीर पर गिरी और उन तस्वीरों में से बाहर झाँकने वाली कितने तरह की नज़रे थी? जो अपने इस्टाइल और जमे हुए इरादों के साथ एक भाव पूर्ण फोर्स लेकर रुक जाती हैं। जो असल मे गतीशील भी होती हैं और उनका ठहराव भी कुछ-कुछ समझ मे आता है। अगर कुछ नहीं आता तो उसमे तस्वीर ही गवाही देती है की ये जो टुकड़े हैं। असलियत मे ये एक आकार नहीं। वो कोई असीम दायरा है जो अपने किसी हिस्से को सामने लाकर रखता है।

ये एक घुमी हुई सोच है, जिसे मैं कभी समझ लेता हूँ तो कभी नकार देता हूँ। लेकिन तस्वीर के अन्दर की दुनिया मुझे भावों के अलावा एक ऐसी दुनिया दिखाती है जो खेल ही है। कोई तस्वीर को महज़ देखता है, कोई तस्वीर को पढ़ता है, कोई तस्वीर को यादों से तोलता है तो कोई तस्वीर को महज़ नज़र भर कर देखता हैं। किसी के लिए तस्वीर याद है, किसी के लिए तस्वीर अहसास है तो किसी के लिए तस्वीर कोई ख़ास रिश्ता। जिसे वे अपने से दूर नहीं कर सकता।

लेकिन असल मे ये है क्या?

मेरे सामने एक बार एक शख़्स ने सवाल किया, उन्होने पूछा, तस्वीर याद रखने के लिए होती है या याद से लड़ने के लिए?

मेरे लिए ये सवाल किसी मजबूत दीवार की भांति था। जो कई बार अपने घर मे लगी तस्वीरों को देखने के बाद भी नहीं समझ पाया। जब लगा की तस्वीर की दुनिया ज़िन्दगी पर अपना अक्स छोड़ती है। वे नज़र से समबंध रखती है।

क्या आपने कभी इस सवाल को सोचा है? मैं अक्सर सोचता हूँ कि तस्वीर को अगर सुना जाये तो उसकी आवाज़ क्या होगी?

राकेश

Wednesday, December 3, 2008

रात गई, बात गई

दक्षिण पुरी मे इलैक्शन का दिन, दशहरे के मेले से कम नहीं होता। इतने लोगों को सड़क पर देखा जा सकता है कि उनको पहचानना व गिनपाना मुश्किल होता है।

आज 29 नम्बर का दिन है। सवेरे आठ बजे से ही जे ब्लॉक के सामने वाले रास्ते पर इतनी भीड़ है की क्या कहिये। काली बिल्डिंग के नाम से पुकारा जाने वाला श्री अन्सूया प्रसाद राजकिये उचत्तम विद्यालय स्कूल को बीते दिन की शाम से ही संवारा जा रहा है। इतनी सफाई थी कि कहीं पर भी कूड़े के चिट्ठे को देखना मुश्किल था।

गेट के बाहर कई पुलिस वाले तैनात थे और सड़क के दोनों तरफ़ भी। गेट वाले खड़े सबकी तलाशी ले रहे थे और सड़क पर खड़े यतायात को संभाल रहे थे। सुबह के नौ ही बजे थे और लोगों का रस़ देखने लायक था। सवेरे से ही यहाँ दक्षिण पुरी मे हल्ला मचना शुरू हो जाता है। लोग ऐसे तैयार होते हैं वोट डालने के लिए कि किसी शादी मे जा रहे हैं। औरतें तो औरतें लड़के भी तैयार हो जाते हैं। औरतें एक घर मे जमा होकर निकलती है तो आदमी बाहर गली के कोने पर जमा हो जाते हैं। सभी काम जल्दी-जल्दी निबटाए जाते हैं। खाना हो या नाश्ता। सभी को तुरंत खत्म किया जाता है। नई-नई साड़ियों को निकालकर रखा जाता है। आवाज़ें लगना शुरू हो जाती है। "कब चलोगी?” यही सवाल चारों तरफ मे घूमता है। बस, कुछ ही देर मे सभी तैयार होकर बाहर आकर खड़ी हो जाती है। और वोट डालने के लिए सबसे एक बार फिर से पूछा जाता है, “किसको दोगी वोट?”

चाहें कितने ही बदलाव हो जाये। लेकिन दक्षिण पुरी के दिल मे एक ही बात दबी है कि जिसने रहने को घर दिया, वो ही यहाँ से जितेगा। यही ज़ुबान दक्षिण पुरी के हर अनुभवी दिल मे बसी है। ऐसा ही कुछ यहाँ पर कुछ देखने को मिलता है और बाहर का नज़ारा तो कुछ अलग ही हो जाता है। जब इतने सारे पुलिस वालो को एक साथ काम करता देखते हैं अपनी गली और दुकान के बाहर तो लोगों के अन्दर एक ख़ास तरह की हलचल महसूस होने लगती है। जो काम वे रोजाना करते हैं। उसी काम को शोर, जल्दबाजी और जोश मे करते नज़र आते हैं। यही दिखाने के लिए कि यहाँ पर रोजाना ऐसे ही काम होता है।

इसी भीड़ मे कई शोर थे मगर प्रचार के शोर आज बन्द थे। बड़े-बड़े कंडिडेट सड़क पर खुल्ला घूम रहे थे। आज उनके पीछे कोई काफ़िला नहीं था। सारा काफ़िला सुबह होते-होते ही कहीं छट गया था। जो पिछली रात मे कई बोतलों के ढक्कन उतारने मे साथ थे वो आज अपनी-अपनी चुनावीदौड़ मे चले गए थे। पिछली रात के साकी उन्हे तलाशे भी तो कहाँ? 'वादे तो सभी करते हैं, मगर निभाता कौन है?' यही रीत चल रही है। जो आम दिनों मे कहीं तक भी शादी-ब्याह मे भी नहीं याद करते वही पिछली रात मे बोतलों के ढक्कनो मे हमसफ़र ढूंढ रहे थे। क्या महफ़िले जम रही थी। हर गली के कोने पर, प्रोपर्टी डीलर की दुकानो मे और चाय वालों के यहाँ- खूब जमकर वादें, परेशानियाँ और नज़रे उभर रही थी। लग रहा था दक्षिण पुरी को अगर किसी ने ध्यान से देखा व सुना है तो वे खाली यही लोग हैं। बाकि तो बस, दौड़ में है। खुद को मुकम्मबल बनाने की या अपनी तकलीफों और जिम्मेदारियों को सुलझाने की। लेकिन यहाँ पर इस महफिल मे तो दक्षिण पुरी के हर हालात, नालियाँ, वादें, भरोसे और रिश्ते खुलकर सामने आ रहे थे।

बस, दो घूँट और अन्दर जानी थी फिर तो सारा रूप ही बदल जाना था। कल्पनाए होती कुछ नया बनाने की, पुराना दबाने की, रिश्तो को कगार पर लाने की और ना जाने क्या-क्या? इन सबकी गवाह वे जगहें थी जहाँ पिछली रात मे वे महफिले रोशन हुई थी। खुर्दारापन हो या ऊंच-नीच सब दब गया था। बस, रह गया था तो अन्दाज़, वादा, विश्वास और आने वाली दुनिया का सपना मगर रात गई बात गई।

सुबह का आलम ही कुछ और था। आँखों के खुलते ही सड़क पर भीड़ को देखना कुछ अच्छा नहीं माना जाता। लेकिन यह भीड़ हमारी ही थी। सुबह के दस बज गए थे। दस का बजना यानि सरकारी काम शुरू मगर इलैक्शन तो सुबह आठ बजे से ही शुरू हो गए थे। ये बात सबसे मजेदार थी।

गली के बाहर भीड़ लगी थी। सभी एक-दूसरे से पूछते, “कब चलेगा वोट डालने?” तो जवाब मे आता, “शाम तक चलेगें। जल्दी किस बात की है?”

इसी सवाल-जवाब के घेरे मे लगभग सैंकड़ो लोग थे। पहले सोचा सभी सवेरे-सवेरे या जल्दी वोट डालना चाहते हैं तो भीड़ ज़्यादा होगी इसलिए लोग रुके हैं शाम तक पर इस जवाब की कहानी तो कुछ और ही थी। ये जवाब यूहीं नहीं आ रहे थे। जहाँ पर भी लोगों की भीड़ जमा होती वहीं पर ये डायलॉग सुनने को मिलते, “शाम तक चलेगें, रूकजा।" यही नारा सुनने को मिलता, सभी इसी मे तैयार थे। दूसरी तरफ़ कई गाड़ियाँ स्कूल के गेट के बाहर खड़ी हो गई थी। लोग अपने-अपने साधनों के जरिये वोट डालने चले आ रहे थे। कोई बाइक पर आता तो कोई अपने पूरे परिवार का हाथ पकड़कर लेता आता। कोई किसी बुर्ज़ुग को गोद मे उठाकर लाता तो कोई ऑटो मे सवारियाँ भरकर लाता। कई लोग बिमार होते हुए भी चले आ रहे थे। अन्दर वोट डालने वाली जगह पर बिमारी मे आते लोगों के लिए सहुलियत दे रखी थी। उनको पहले ही निकाला जा रहा था। अन्दर से लेकर से बाहर तक बहुत भीड़ थी।

गुपचुप लोग एक दूसरे से हाथ मिलाते हुए सलाह दे रहे थे। स्कूल की सड़क पर जहाँ से लोग आ रहे थे वहाँ पर कई लोग खड़े थे। जो चुपके से हाथ मिलाते और किसी पर मोहर लगानी है वो जाते। कईयो को तो ये भी मालुम था कि कौन सा नम्बर दबाना है। जबकि वे अन्दर भी नहीं गए थे। "अम्मा नम्बर तीन बटन दबाना", “अम्मा पहला नम्बर दबाना", अम्मा दूसरा।" इसी धुन मे वे काम भी हो जाता जिसके लिए उसे रखा गया था। वैसे छुट्टी के दिन कमाई ये सबसे अच्छा ज़रिया माना जाता है। एक टेबल पर वोट बनाने का काम दिया जाता है। उस टेबल को शाम के पाँच बजे तक संभालना होता है। दोपहर के खाने के साथ-साथ शाम 450 रुपये द्हाडी बन जाती है। अब इस काम के लिए कौन मना करेगा? कई बैरोज़गारो को इसी दिन का इंतजार होता है। वैसे देखा जाए तो इसकी भी प्लानिंग शाम मे हो जाती है। पहले तो ये काम यूहीं मिल जाया करता था। सवेरे-सवेरे किसी को भी उठा लिया और बैठा दिया। लेकिन अब तो दो फोटो और कोई आईडी देनी होती है। जिसका एक कार्ड बनता है। उसके बाद ही किसी को बैठाया जाता है। एक टेबल पर पाँच लोग बैठे होते हैं। जिनको खाने के टोकन दिए जाते हैं। एक टोकन मे पाँच खाने के पैकेट होते हैं। तो पूरा दिन अपने घर के बाहर ही कमाई हो जाती है। बैठने और खाने के 450 रुपये माने जाते हैं। बर्शतें साफ़-सुथरे और पढ़े-लिखे लड़के ही होने चाहिये और वे भी जिनके रौब की इमेज अपने मोहल्ले मे होती है फिर चाहें वे इमेज किसी भी तरह से बनाई हो। बस, उसके पीछे बोलने वाले लोग ज़्यादा होने चाहिये। ये काम है बड़ा मस्त।

ये सारे काम बड़े जोर-शोर से चल रहे थे। मगर जो जवाब रूके थे वे अब भी किसी इंतजार मे थे। दोपहर का लन्च हो चुका था। गली के बाहर खड़े लोग अब अपने घरों मे चले गए थे। बाहर कई गाड़ियाँ खड़ी हो गई थी हर गाड़ी मे खाने के डब्बे भरे थे। हर टेबल पर उन्हे उतारा जा रहा था। खाने की खुशबू हर तरफ थी। उसके साथ मे पानी की छोटी थैलियाँ भी। वहाँ टेबल को संभाले लोगों को शायद इसी का इंतजार था। खाने के आते ही वे तो शुरू हो गए थे।

खाना खाते समय दोबारा से पोस्टरो में नज़र आने वाले कंडिडेट घूमने चले आये थे। जिनके नाम की लड़को ने टेबल संभाल रखी थी उनसे हाल-चाल पूछने और ये भी कि कितने नाम की पर्चियाँ काटी गई हैं? आदमी अलग और औरतें अलग गिनी जाती। कभी घण्टे का हिसाब होता तो कभी दिन का। यही यहाँ पर काउन्ट हो रहा था। उनका मानना था कि जितने लोगों ने उनकी टेबल से पर्ची कटवाई है वे उन्ही के नाम का बटन दबायेगें। बाकि पब्लिक तो बेवकूफ है और शायद हो भी। ये खेल अबका नहीं काफी पूराना है।

दोपहर के ढाई बज गए थे बाहर का नज़ारा फिर से बदल गया था। भारी भीड़ टुकड़ों मे तब्दील हो गई थी। सड़क की छोटी छुपी जगहों में सिकुड़ गई थी। पाँच लोग यहाँ तो पाँ लोग वहाँ। चेहरों पर हँसी और इशारों की भाषा छा गई थी। सभी की पैन्टो की जैंबे भारी हो गई थी। हाथों को बांधे लोग अपने पास बुलाने का इशारा कर रहे थे। हाथों से बयाँ होता, “हो जायेगा, नो टेन्शन।"

कोई भी आपके करीब आकर पूछ सकता था, “वोट दिया, मेरे साथ चलो भाई यहाँ क्यों सूखे खड़े हो?”

और आप किसी के मेहमान बन जाते हैं। इतने मे एक आदमी सबसे नज़रें छुपाकर एक कबाड़ी की दुकान मे घुस गया। उसके हाथ मे एक थैला था। जिसमे कई काँच का समान था। कबाडी की दुकान मे काँच का समान होना कोई अचम्भे की बात तो नहीं है। धीरे-धीरे वहाँ पर एक-एक करके लोग जाने लगे। बड़ी हँसी की आवाजें वहाँ उस दुकान मे से आती। उसके साथ-साथ एक जल्दबाजी की हड़बड़ाहट भी। कोई भी अन्दर जाता और खामोशी से अपने हाथों को बांधे बाहर चला आता। मगर इतने मे जैब बड़ी भारी हो जाती। ये खेल हर कोने पर चल रहा था। इतना तो कभी होली-दिवाली पर भी नहीं था। आज तो गज़ब ही था।

शाम होते-होते वोट डालने वालो की भीड़ भी जमा होने लगी और गज़ब की बात यह थी के उसमे सभी मर्द थे। सभी के चेहरों पर खुशी थी।

"चिंता मत करो भाई, मेरे चाचा और उनका परिवार आ रहा है। लगभग 20 लोग हैं।"

डायलॉग मे दम था और भारी उम्मीदवारी भी। हर उम्रदराज आदमी को सबसे पहले पूछा जा रहा था। सभी अपने हाथों से वे बनाकर दिखाते जिनको वोट डाला जायेगा। इशारे बहुत गंभीर थे। कोई पंजा दिखाता, कोई दो उंगलियाँ, कोई सूंड बनता तो कोई बल्ला। सब गज़ब ही था। शाम के चार बजे गेट अचानक ही भर गया तलाशी लेने की जरूरत ही नहीं थी। सभी को अब तक तो पता चल गया था की किस चीज की मनाही है। इतना होने के बावज़ुद भी किसी को यह तक नहीं पता था की बाप ने किस को वोट दिया है और बेटे ने किसको पर उस महफिल के गवाह वे दोनो ही थे।

"हाथी पर चड़ुगां, फूल को तोड़ुगां और हाथ को चूमूगां।"
"आता है हाथी उड़ती है धूल, कटते हैं हाथ बचते हैं फूल।"

ये नारे बाजियाँ मदहोसी की गवाह बन गई थी। माहौल खत्म होने लगा था। एक कहता, “दे आया वोट?” तो दूसरा कहता, “कहाँ, बैच आया ये तो।" तो वे कहता, “बैचा नहीं है मैंने, किसी ने खरीद लिया।"

शाम का इंतजार क्यों हो रहा था ये शाम को ही पता चला। दरवाजों, गलियों, दुकानो और गुटों मे कई मालिकाना हक जमा था। दुनिया उसी तरफ मे भाग रही थी।

लख्मी

सिनेमा से बनते कई माहौल

हम बदलाव से निकलकर खुद को समझने की चेष्टा करते हुए क्या जानकारी बना लेते हैं? बदलाव को हम कहाँ से देखने की सोचें? कौन सा सही कोना है?

चुनाव की ये स्थिती का भी अपना एक मज़ा है। जिसे हर शख़्स अपने मे महसूस करता है। लोगों के साथ जीने के लिए ललायित होती है। एक ज़माना था, जब लोग छोटी-छोटी चीज़ों को किसी श़रबत की तरह आपस मे बाँटते थे। जिस की मिठास को बाँटने से उसका मज़ा और गहरा हो जाता था।

बीते वक़्त का हवाला देकर कहता हूँ की कभी लोग बिजली-पानी को भी घर मे आई मूंगफली की तरह बाँटते थे। यानी एक ही गली मे बिजली के अलग-अलग कनेक्शन लेकर अपना गुज़ारा किया करते थे। पड़ोसी के घर से बिजली लेकर टीवी चलाना और अपने घर को रोशन करना भी अलग ही नज़ारा हुआ करता था।

सन् 1983-84 का दौर इस बात का गवाह है की दक्षिणपुरी की पिछले वक़्त से आज के वक़्त तक की सिलसिले की यात्रा नित-नये फैलाव में रही है। जिससे पुराने मटीरियल पर नई रोशनी पड़ी। जिसकी चमक ने बहुत से ढ़ाँचो से हमें रू-ब-रू करवाया है जिससे पुराने काफ़िलों से नए जगत खुल रहे हैं। जैसे, पहले एक छोटा सा ट्राजिंस्टर भी मज़ेदार माहौल बना देता है। जहाँ बैठकर लोग आकाशवाणी सुनते थे जिसपर समाचार और गीतमाला आया करती थी। सुनने के स्रोत का तब कुछ अलग ही मंज़र हुआ करता था।

जब रेड़ियो (ट्राजिंस्टर) वालों पर लाइसेंस हुआ करता था। इसके कारण उनके अपने समुदाये में खुद की ख़ास भूमिका होती थी। आज उन लाइसेंसो के कागज़ सफ़ेद से पीले पड़ चुके हैं। वक़्त की धुँधली परछाइयों ने उस रंग को ढाक दिया है। सुनने वालों के समुदाये को सिर्फ़ जरूरत से ही नहीं भाँपा जा सकता। ये तो जिसकी जितनी चाहत है उसकी उतनी ही बड़ी ज़िज्ञासा होती है। उस पुराने समय मे बहुत कम लोग थे। जब किसी पर टेलिवीजन या ट्राजिंस्टर हुआ करते थे। इसलिये आज स्टूमेंट की दुनिया को तकनीकी प्रणाली मे ज़ॉयादा देखा जाता है।

एक-एक मकान मे तब एक-दूसरे के घर मे जाकर रेड़ियों और टीवी भी देखा करते थे। जब सुबह काम को जाते और शाम को वापस आते तो कुछ सुनने का मूड होता था। जिनके पास कोई साधन होता तो वे अपनी भूख को मिटा लेते। जिनके पास टीवी या रेड़ियो नहीं होता। वो पास-पड़ोस मे जाकर अपना मन बहला लेते थे।

दक्षिणपुरी मे जब सिनेमा घर जाना नहीं हो पाता था। तब बहुत ही कम लोग आते-जाते दिखाई पड़ते थे। उस समय सिनेमाघर काफ़ी दूर मालूम होता था। यहाँ के निवासी सिनेमाघर को विराट सिनेमा कहा करते थे। जिसपर सप्ताह में एक ही बार फ़िल्म बदलती थी। रोज़ाना चार शोह होते थे।

टीवी पर भी फ़िल्म, गाने, समाचार, सप्ताहिक जैसे कार्याक्रम दिखाये जाते थे। लेकिन बड़ी पसंद और बड़ा पर्दा, ये समझ सिनेमाघर से आती थी। जब कोई सिनेमा हॉल से कोई अच्छी फ़िल्म देखकर निकलता तो अपने दोस्तों को बताता हुआ चलता, "आज कौन सी फ़िल्म देखी और कितना मज़ा आया। वक़्त के साथ-साथ ज़िन्दगी भी जीने का तरीका ढूँढ ही लेती है। सिनेमा का क्रेज उन दिनों सिर चढ़कर बोलता था। लोगों के दिमाग मे बड़े पर्दे की जो कल्पना थी वो कहीं और नहीं मिलती थी फिर जरूरत के मुताबिक भी अपने पाँव फैलाना पड़ता था। कोई चारा भी तो नहीं था। पार्को मे मे भी दूर-दूर से संस्थाए परिवार नियोजन से सम्बधित फ़िल्में मुफ़्त दिखाया करती थी। हाँलाकि नौजवान इस कार्याक्रम में ज़्यादा रूची नहीं लिया करते थे।

घर मे जब भी माँ, बाप के साथ फ़िल्म देखे तो किसी डरावने सीन या अश्लिल विज्ञापन को देखकर वो हमें ड़ाँट कर भागा देते। कभी-कभी बहाने से टीवी का बैंड बदल देते या बन्द ही कर देते। समझ नहीं आता की क्या है? जो हमारे अविभावक देखने नहीं देते? बार-बार ये टेन्शन होती, कभी भी पूरा कार्याक्रम नहीं देख पाते थे पर पलटकर सवाल करना अपने बस मे नहीं था। मन ही मन सोचना और बड़बड़ाना तो आता था। सो खुद से बात कर लेतें। फिर अपने लिए बस, अकेले की दुनिया मे अपने ढ़ग से जीना अच्छा लगता था। जिसमें हम अपने को काफ़ी आरामदायक महसूस करते थे।जिसमें खुद को कहीं से दिख रहे सीन या कहानी मे खो जाते और कभी अपने को मौज़ूद पाते।

ऐसे मे सिर्फ़ वीसीआर ही ज़िन्दगी की कमी को पूरा करता था। जो अपने अकेलेपन के एकान्त को फ़िल्मों के साथ बाँटना था। ये अपनी तन्हाई के दिनों मे एक भराव करना जैसा ही था। इस तरह जब लड़के वापस अपने दोस्तों के बीच जाते तो वो बताते की घर मे अकेले कौन सी फ़िल्म देखी? जिस सब को धीरे-धीरे फ़िल्मों का क्रेज यानि चश्का लग गया। वो अपने दोस्तों और रिश्तेदारों के शादी-ब्याह के जश्न की तरह मनाने के लिए फुल मनोरंजन करने का जुगाड़ बनाता। तब ऑक्रेस्ट्रा लाना सब के लिए बड़ा-भारी हुआ करता था। इसलिये अपने ब्लॉक के लोगों के कार्याक्रमों मे टेपरिर्कोड़र और वी.सी.आर को ही ज़रिया बना रखा था।

रोज रात को खाना-खाने के बाद लोग गलियों मे लोग सिनेमा देखने का माहौल बनाने लगे। इस तरह गलियों में महफ़िलें सी सजने लगी। सब अपने घरों से टाट, पटला, कुर्सियाँ लेकर टेबल पर रखे टीवी पर फ़िल्में देखते।

1994-95 तक इस दौर मे टीवी पर नए बैंड आ गए थे। जिसकी तरफ़ लोग आर्कषित भी हुए थे। लेकिन नई फ़िल्मों को सुनकर लोगों का मन होता की वो भी ऐसी ही फ़िल्मों को देखे, क्योंकि उस वक़्त की सारी माँगे दूरदर्शन का चैनल पूरी नहीं कर पाता था। तो सब वी.सी.आर की तरफ़ भागते थे। फिर वहाँ इसी बहाने एक-दूसरे से मुलाकात जो हो जाती थी। जब किसी एक पर पैसे नहीं होते तो सब पैसे जोड़कर वी.सी.आर किराये पर ले आते और देखते। बस, इन मुलाकातों ने अपने आप ही लोगों के अन्दर भड़की चिंगारी को हवा दे दी। जिससे ये हुआ की हर किसी को अपना मनपसंद कार्याक्रम भाने लगा। कभी-कभी अच्छे सीन को दोबारा देखने के लिए आपस मे वी.सी.आर के कान मरोड़ने या रिमोट के साथ खिंचातानी करने की मारा-मारी होने लगती।

अब हर कोई अपनी एक अलग छवि चाहता था। अपना मज़ा चाहता था। उन दिनों टीवी पर गिने चुने चैनल ही आते थे। दूरदर्शन और इ.एस.पी.एन के ज़रिये ही खेल, नाटक, चित्रहार, रंगोली, समाचार इत्यादी जैसे कार्याक्रम दिखाये जाते थे। कलर टीवी और वी.सी.आर का किराया तब चालिस रुपये होता था। जो रात भर के लिए होता था। पूरी रात में लोग दो ही फ़िल्में देख पाते थे। मूंगफ़लियों को चबाकर रात गुजारी जाती थी। अगले दिन फिर सभी स्रोता नई फ़िल्म तय करते।

यूँ गलियों में फ़िल्मी माहौल बना रहता। एक गली के लोग दूसरी गलियों के लोगों मे शामिल होने लगे। जिससे रोज़ाना रात की चर्चा सब के बीच होती। इस तरह लोगों ने अपने टीवी पर किराये पर फ़िल्म दिखाना शुरू कर दिया और धीरे-धीरे लोगों मे इस तरह फ़िल्में देखने की दिलचश्पी बड़ती गई। अब सब रोज़ाना किसी न किसी का घर का कोना चुनते और रात को फ़िल्म देखते। वो स्थान जहाँ फ़िल्मों के बहाने सब अपने घरों की और अपनी दिल की सभी निजी बातें किया करते। वो जगह न तो किसी एक की होती न ही सार्वजनिक। वो जगह इससे कहीं अलग ही थी।

राकेश