Friday, December 12, 2008

सब का एक दौर है

ये कोई सवाल नहीं है और अगर है तो इतना छोटा भी नहीं है कि इसे तुरंत ही बयाँ किया जा सके। ये मैं इसलिये सोच रहा हूँ की इन दोनों स्थिति को साथ मे लेकर ही शायद हर शख़्स चलता है लेकिन इसका जबाब नहीं। कई तरह के काम और जीवन इनसे बंधे हैं लेकिन शायद इनको बयाँ कर पाना आसान नहीं होगा।

जब भी "असम्भव" शब्द सामने आता है तो उसके साथ में कई सारे ऐसे काम और चीजें भी आ जाती हैं कि उनको सोचकर आगे बड़ना थोड़ा कठिन लगता है फिर भी लोग चलते हैं। असम्भव का मतलब ये भी नही है कि सारे मुश्किल काम ही इसके घेरे मे आ जाये। इसको बताने के लिए हम एक मउश्किल कामों की सुची बना डालें। कभी- कभी असम्भव को टालना बड़ा ही सुखद महसूस होता है। ।

काफ़ी पहले की बात है। मैंने एक लाइन सुनी थी, "अगर इसांन अपनी परेशानियो और मुश्किल कामों का मज़ाक नहीं बनायेगा तो जियेगा कैसे?”

लाइन शायद ऐसी ही थी। अब जब इसके बारे में सोता हूँ तो रोज़ाना की ज़िन्दगी का अहसास होता है। जिसमे हर शख़्स अपने सभी रिश्तों को साथ में लेकर चलता है, वे अकेला नहीं है। एक बसा-बसाया जीवन और उसके रास्ते में थोड़ी उठा-पटक तो होनी ही चाहिये ऐसा लगता है। चलिये हम अपने आसपास में टटोले तो हम क्या महसूस करते हैं? मान लेतें हैं, एक माहौल है जहाँ पर सब के सब सवेरे अपने-अपने काम पर चले जाते हैं। 8 से 12 या ज़्यादा से ज़्यादा 16 घन्टे काम करते हैं, जी-तौड़ मेहनत करते हैं। कितनो की सुनते हैं, कितनों को सहते है और कितनो को देखते चलते हैं। शाम को जब घर में लौटते हैं तो पूरे दिन की छाप पूरे जिस्म पर छलकती है। इतना सब कुछ करने के बाद भी दूसरे दिन सुबह फिर से उसी टाइम मे खड़े हो जाते हैं, तैयार होकर फिर से उसी प्रक्रिया में चलने के लिए ये क्यों है?

वो शायद एक जीवन है और उसमें जुड़े कई रिश्ते, इच्छा और भी कुछ पर इसके बावज़ुद क्या है?

मान लेते हैं जैसे, असम्भव की कुछ रेखाए बनी हुई हैं जो लोगों के जहन में सुनने और देखने से बनी है। जो अदृस्य होती है लेकिन फिर जटिल है। जिसके बाहर जाकर या यूँ कहिये, इसके बाहर कोई जाना ही नहीं चाहता बस, उसके अन्दर रहकर ही कुछ करना चाहते हैं। इसके साथ मे ऐसा लगता है जैसे, फ़िल्म है जिसमे एक हीरा रखा है। उसके चारों तरफ़ मे लाल रंग की लेज़र लाइट है। जो खुली आँखों से भी नहीं दिखती पर तेज होती है। जो बाहर न तो आने देती और ना ही अन्दर जाने देती। मगर ऐसा नहीं है कि उसे देखा नहीं जा सकता वे एक ख़ास चश्मे से दिखती है पर शायद हमारे सामाजिक दौर में वो चश्मा किसी से पास नहीं है। चाहें दिल्ली या हमारी बस्ती मे कई तरह के परिवर्तन आ गए हो पर फिर भी कई अवधारणओ के बीच मे बंधे पाते हैं हम। जिनमे रिश्तों के जोर ज़्यादा है।

कुछ काम इस तरह के बने होते हैं। जिन्हे हम इन ही रिश्तों के दायरों में निबटा सकते हैं। अब चाहें वो किसी लड़की के बाहर काम पर जाने से हो या कुछ और? इसके बावज़ुद भी कुछ कार्य ऐसे होते हैं जिन्हे ये रेखाए नहीं रोकती। जानते हैं वे क्या है? एक समय के लिए हम मान लेते हैं कि जैसे, किसी ने अपने दोस्त के घर के पते पर से अपना राशन कार्ड अथवा पहचान पत्र बनवा रखा हो पर इसकी इन्क्यारी होने पर जब पड़ोसी के हस्ताक्षर या गवाही मागीं तो दो दिन पहले जानने वाला भी साल भर से पहचानने वाला बन जाते है ये वे कह देता है। अब चाहें हम इसे भाईचारा समझे या कुछ भी पर ये प्रक्रिया किसी न होने काम को भी सम्पन कर देती है और एक शख़्स को एक जगह पर कुछ समय बिताने की मोहलत दे जाती है। अगर गवाही देने वाले के लिए भाईचारा है तो जिसके लिए गवाही दी जा रही है उसके लिए क्या है? और इन्क्यारी क्या है और क्यों है? उस शख़्स के लिए ये हस्ताक्षर क्या मायने रखते हैं? इसको हमें किसी तराजू में तोलकर इसका वज़न नहीं देख सकते पर शायद इसके वज़न को महसूस कर सकते हैं। ऐसा काम कहाँ-कहाँ जगह बनाता है इसे हम कैसे सोचें?

ये तो एक पहलू है अगर हम असम्भव को कई अलग पहलूओ के माध्यमों से देखे तो दूसरे पहलू में असम्भव और अनिश्चिता दोनों कुछ इस तरह हैं। इसमे एक भूख उत्पन होती है पर वो किसी अन्दर की आँखों में ही फसी नहीं होती है। वो रेखाए हैं जो सवाल की सीड़ी चड़कर हमें अपने से जोड़े रखती है। अपनी अदाए लेकर जीना भी किसी ना किसी कार्य से तेज होता है। ना चाहते हुए भी इस अदा को बिगाड़ा नहीं जा सकता। ऐसा व्यतित होता है की कहीं हम औरों से अलग न हो जाए। हम जिस रूप और रेखा में जी रहे हैं उसे तोड़ना नहीं हो पाता। पर उसमे कई और कार्य जुड़ जाते हैं। इसमे बैचैनी नहीं है पर एक भूख है। इसमे सब कुछ सम्भव नहीं है पर फिर भी इसकी कल्पना हम हर वक़्त अपने साथ लिए चलती है। कई काम जो हाथ से सूखे रेत की तरह से फिसलते हैं पर फिर भी हम उसे पकड़े रहने की प्रक्रिया को चलाते रहते हैं। इसमे कई चीजें असम्भव है। क्या हम सोच सकते है की हमारे साथ मे कौन सी छवि हर वक़्त चलती है?

इनके चौराहे पर कभी-कभी उस बुत की तरह होती है। जो चौराहे पर लगा होता है। जो देख सकता है, सुन सकता है पर बोल नहीं सकता। लेकिन हम तो उससे भी ज़्यादा कस जाते हैं। हम देख सकते हैं, सुन सकते है और बोल भी सकते है पर कसे हैं और उस सामाजिक सीमा मे जीते एक तसल्ली रख लेते हैं। जिसमे कभी जुड़ते हैं तो कभी अलग होते हैं।

लोग जब कहीं बाहर से किसी जगह पर रहने के लिए आते हैं तो सबसे बड़ी तलाश किसी ठिकाने को तलाशने की होती है। जो शायद इतनी आसानी से नहीं मिलता। कई तरह के सवालों को सुनना पड़ता है और उनपर चाहें हम ख़रे ना उतरे पर सामने वाले को तसल्ली या ये यकिन तो कुछ हद तक दिलाना ही पड़ता है पर इसमे पूछने वाला चाहें वो मकान मालिक हो या मकान दिलाने वाला। इनका थोड़ा सवाल अलग होता है। अगर कोई मकान किराये पर लेता है तो उसकी फैमली और पहले का पता पूछा जाता है। अगर मकान खरीदने वाला हो तो ये सवाल नहीं होते। उसमे सवाल बैचने वाले से और दिलाने वाले से किये जाते है'। घर के कागज, बिजली का बिल, लगभग सभी बिल और सारे काग़जात को पूरा चैक किया जाता है। लेकिन इसके अलावा भी कई लोग तो बिना कागजों के अपना जीवन बसर करते हैं या करते आये हैं। लम्बे समय से गुजर-बसर करने से या रहने से कुछ-कुछ हथकंडे लोग सीख लेते हैं। हम समझ सकते हैं की बंदा कई तरह के सवालों से लड़ना सीख गया है और उसे अपने तरीके में उतार भी लेता है।


जनगरणा से कटना, बिलो की लाइन से बचना, वोट डाले या ना डाले क्या फ़र्क पड़ता है ये कहना। यही कुछ अटपटे सवाल हैं. जो या तो अपनी समझ मे बना लेता है या फिर उसको टालना सीख जाता है। इसमे जब रिश्ते और फ़र्ज, काम बड़ने लगते है तो तब जरूरत होती है ये बताने की कि हम कहाँ के निवासी हैं और हमारी इस जगह पर हम क्या पहचान रखते है?

ये सब जरुरी हो जाता है। इन अलग- लग पहचान या चिन्हो का भी तो खेल ही निराला होता है। राशन कार्ड मे नाम डलवाना बेहद जरूरी होता है नहीं तो बंदा नहीं है और उसके नाम का समान सरकार नहीं देगी। पर अगर राशन कार्ड मे नाम नहीं है तो बन्दे को पुलीस नहीं पकडेगी मतलब लोग अपने नालायक लड़के का नाम तक राशन कार्ड मे से कटवा लेते हैं। ये क्यों हैं? ये कभी सोचा है? शायद देखा जाये तो खाली पुलीस के सवालों से और सबसे बड़ी बात अगर पुलीस वाले घर आ जाये तो आसपास की नज़रों से और उनसे उभरते सवालों से जो वो कभी जुबान से तो कभी चुप्पी से पूछ लेते हैं।

अगर आपका पहचान पत्र नहीं हो तो..आप वोट नहीं डाल सकते। लोग मकान मालिक के पते से अपना पहचान पत्र बनवा लेते हैं वो चलता है। पर किसी कॉलिज पहचान पत्र हो तो वहाँ से बाहर होने पर आउटर कहलाते हो। ये क्यों है?

ये तो सारे एक कार्यक्रम होते हैं जो ज़्यादातर लोग करते हैं। हमारे आसपास मे इन अनिश्चित कार्यक्रम मे भी लोग जाते हैं और हिस्सा लेते हैं। अब तो एक समझ बन चुकी है कि समाज मे शायद लोगों मे एक रीत की तरह उत्पन होती है।

गलती करो...गलतियाँ करो.. हर रोज करो...सुबह शाम करो एक बार करो...बार-बार करो.. पर एक तरह की गलती बार- बार मत करो..

इसे कहने वाला, सुनने वाला, समझने वाला और शायद मानने वाला अपने साथ एक सवाल तो लिए चलता है। वो कौन हो सकता है?


लख्मी

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