Tuesday, December 16, 2008

शहर और बनते कोने

शहर और कोना, जिनके बीच ही हमेशा कुछ ना कुछ चलता रहता है। कभी कुछ बनाना, कभी कुछ उखाड़ना, कभी कुछ चलाना तो कभी सिर्फ़ प्लान करना और साथ-साथ इनके बीच मे एक चीज है जो हमेशा चलती है, वे है "टाइम"। ये अपने साथ मे कई बसते शहर, कलोनियाँ और रास्तों को लेकर चलता रहता है। जिसके साथ मे होती है कई अनगिनत ज़िन्दगियाँ। जो परिवारो के साथ मे बनने लगती है। जैसे-जैसे शहर का आकार बढ़ता रहता है तो उसी में लोग अपनी-अपनी चाहत और मेहनत से अपने लिए एक कोना बना ही लेते हैं।

जो जगह या जमीन शहर मे कहीं खाली छोड़ दी जाती है या जीवन पनपने से कहीं कोसो दूर भी होती है। उसी जगह को लोग जीने लायक बना लेते हैं। अपनी इच्छा और अपने आने समय को समाये चलते हैं। हर परिवार और उसके लोगों के साथ में रहता है। उनका हुनर, अनुभव और जगह की बुनाई, जिसमे घुली रहती है उसकी बना‌वट की एक गहरी परछाई। जो शायद कहीं गुम हो जाती है। शहर के बनाये गए ढाँचे मे मगर सुविधा और असुविधा को हटाकर इन गहरी परछाइयों को शहर की आँखें किस तरह से देख पाती है? शायद एक शहर की बनावट एक आँगन की बनावट से कहीं दूर होती है। वे उन कोनों को नहीं देख पाती जिनको बनने मे जीवन के कई बहतरीन साल और उसकी बचत जुड़ी होती है। वही सब ओझल हो जाता है। उनके लिए कोई जगह या सवाल नहीं है जिनसे वो खुल पाये। बस, एक ही शब्द आ जाता है जुबाँ पर "विस्थापन" जो जगह धीरे-धीरे अपना एक शहर बसाने लगती है। एक समाज बनाने लगती है, अपनी सुबह और शाम की आवाजों को शहर के शौर से मिलाने लगती है तभी उसको एक ऐसे शब्द के भार मे डाल दिया जाता है। जो उसके समय को, उसमे बनते-पनपते छोटे-छोटे महौलो को, उसमे चमकते हर आँगन या दरवाजों को कुछ कागजों के वज़न से मापने लगती है। कितना हल्का सा बनाकर विस्थापन को किसी बस्ती, कलोनी या शहर के सपूत कर दिया जाता है मगर जो ज़िन्दगियाँ उसके आगे अपना मुँह खोले खड़ी है। उनके लिए ये क्या मायने रखता होगा?

विस्थापन मे कई अनगिनत महत्वपूर्ण फैसले एक आक्रमक समय मे होने लगते हैं। एक ऐसा फैसला जो ज़िन्दगी को एक ऐसे मोड या रास्ते पर लाकर रख देता है जहाँ से शहर काफ़ी दूर लगने लगता है। कई तरह के सवाल आसपास मे होने लगते है पर शायद सत्ता के पास मे कोई ऐसा सवाल ही नहीं होता जो पूछ सके की "यह जगह कैसे बनी?” या "इस जगह को किस तरह से बनाया?”

जगह के बनने के लिए कोई सवाल नहीं होता। बस, विस्थापन होता है क्यों? इस शहर को खूबसूरत बनाने के बीच में हम क्या यह सोच सकते हैं की शहर के फैलाव मे वो पल कैसा होगा? जब-जब कोई शख़्स आज अपने घर से दस कदम की दूरी पर बैठा है अपना सारा समान रखकर और उसका घर आज टूट रहा है? वो पल शहर की किन पक्तियों मे गिने या देखे जा सकते है? वो पल या अहसास को किसी बनावट मे ढ़ाला जा सकता है। जब कई अन्जान लोग हाथों मे हथोड़े व गेती लिए आपके सामने आ जाये तब क्या आपने बनाये, सजाये, माहौल नज़र आते हैं। वो समय होता है जब आपने पहला कदम उस जमीन पर रखा था? क्या वो आवाज उन हथोड़ों मे कहीं होती है? जब हम पहली बार शहर मे आते हैं तो शहर एक विशाल रूप लिए होता है फिर हम उसे अहिस्ता-अहिस्ता उसी शहर मे एक कालौनी को बनाते हैं। कई सालों की बचत को लेकर जिसमे पूरे देखा जाये तो 30 से 35 साल होते होगें मगर फिर अचानक उस जगह को तोड़ दिया जाता है और एक बार फिर से हम उसी विशाल शहर मे आ गिरते है। अब एक बार फिर से उसे एक कलौनी का रूप देना होगा? इनमे हम कहाँ होते हैं?

ये सवाल खड़े होकर भी बैठ गए थे। लेकिन कुछ समय के दौरान ये फिर से जाग उठे। जब दक्षिण पुरी के एक इलाके मे इसकी वल-वलाहट उठी। ये ख़बर देखा जाये तो एक बोर्ड की ही भांति बनकर रह जाती है। मगर शायद अपनी पहचान दिल मे बसा जाती है। पिछले दिन दक्षिण पुरी मे बसी एक छोटी सी बस्ती संजय कैम्प। जिसको कुछ समय पहले तोड़ने का फ़तवा जारी किया गया था। उसकी बहस कई ज़ुबानो मे चली। बड़े-बड़े नेताओ मे इसकी पंक्तियाँ खेल की तरह खेली गई। वे तो भला हो इलेक्शन का जो कई ऐसे फ़तवों को रद्द कर दिया गया। एक तो ये ख़बर बनते-बनते रूक गई।

दूसरा, इन दिनो बड़े-बड़े न्यूज़ चैनलों मे जमीन के दाम गिरने की ख़बरें जोरो पर हैं। तो ना जाने यहाँ पर बनने वाले माहौल क्यों उस जमीन की इस वक़्त बनी रकमो की सूची जानने को राज़ी हो रहे हैं। पहली बार ये देखने को मिला की सोने का भाव पता करने वाली औरतें जमीन की रकम पूछने को तैयार थी। राजीव गांधी अवास के कई फोर्म तो यहाँ भरने का जोर-शोर से माहौल बन रहा था। आज उसका इन्तजार किया जाता है। न्यूज़ चैनलो मे बस, घरो के जिक्र को सुनने की इच्छाये बखूबी तैयार हैं। इस वक़्त तो लगता है जैसे घर और जमीन का बुखार सिर चड़ा हुआ है।

जैसे-जैसे बाहर शहर मे जमीन की रकम मे गिरावट हो रही है। वैसे-वैसे दक्षिण पुरी के साढ़े बाइस गज़ मे मकानो कि किमतें आसमान को छू रही है। दस लाख से तीस लाख तक के मकान बिक रहे हैं। दक्षिण पुरी की शुरूआत करने वाले लोग यहाँ से बाहर जा रहे हैं और बाहर के लोग यहाँ दक्षिण पुरी की नई रेखाओ मे शामिल हो रहे हैं।

ये बदलाव क्या है? इसे कैसे याद किया जाये?

लख्मी

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