Wednesday, December 3, 2008

रात गई, बात गई

दक्षिण पुरी मे इलैक्शन का दिन, दशहरे के मेले से कम नहीं होता। इतने लोगों को सड़क पर देखा जा सकता है कि उनको पहचानना व गिनपाना मुश्किल होता है।

आज 29 नम्बर का दिन है। सवेरे आठ बजे से ही जे ब्लॉक के सामने वाले रास्ते पर इतनी भीड़ है की क्या कहिये। काली बिल्डिंग के नाम से पुकारा जाने वाला श्री अन्सूया प्रसाद राजकिये उचत्तम विद्यालय स्कूल को बीते दिन की शाम से ही संवारा जा रहा है। इतनी सफाई थी कि कहीं पर भी कूड़े के चिट्ठे को देखना मुश्किल था।

गेट के बाहर कई पुलिस वाले तैनात थे और सड़क के दोनों तरफ़ भी। गेट वाले खड़े सबकी तलाशी ले रहे थे और सड़क पर खड़े यतायात को संभाल रहे थे। सुबह के नौ ही बजे थे और लोगों का रस़ देखने लायक था। सवेरे से ही यहाँ दक्षिण पुरी मे हल्ला मचना शुरू हो जाता है। लोग ऐसे तैयार होते हैं वोट डालने के लिए कि किसी शादी मे जा रहे हैं। औरतें तो औरतें लड़के भी तैयार हो जाते हैं। औरतें एक घर मे जमा होकर निकलती है तो आदमी बाहर गली के कोने पर जमा हो जाते हैं। सभी काम जल्दी-जल्दी निबटाए जाते हैं। खाना हो या नाश्ता। सभी को तुरंत खत्म किया जाता है। नई-नई साड़ियों को निकालकर रखा जाता है। आवाज़ें लगना शुरू हो जाती है। "कब चलोगी?” यही सवाल चारों तरफ मे घूमता है। बस, कुछ ही देर मे सभी तैयार होकर बाहर आकर खड़ी हो जाती है। और वोट डालने के लिए सबसे एक बार फिर से पूछा जाता है, “किसको दोगी वोट?”

चाहें कितने ही बदलाव हो जाये। लेकिन दक्षिण पुरी के दिल मे एक ही बात दबी है कि जिसने रहने को घर दिया, वो ही यहाँ से जितेगा। यही ज़ुबान दक्षिण पुरी के हर अनुभवी दिल मे बसी है। ऐसा ही कुछ यहाँ पर कुछ देखने को मिलता है और बाहर का नज़ारा तो कुछ अलग ही हो जाता है। जब इतने सारे पुलिस वालो को एक साथ काम करता देखते हैं अपनी गली और दुकान के बाहर तो लोगों के अन्दर एक ख़ास तरह की हलचल महसूस होने लगती है। जो काम वे रोजाना करते हैं। उसी काम को शोर, जल्दबाजी और जोश मे करते नज़र आते हैं। यही दिखाने के लिए कि यहाँ पर रोजाना ऐसे ही काम होता है।

इसी भीड़ मे कई शोर थे मगर प्रचार के शोर आज बन्द थे। बड़े-बड़े कंडिडेट सड़क पर खुल्ला घूम रहे थे। आज उनके पीछे कोई काफ़िला नहीं था। सारा काफ़िला सुबह होते-होते ही कहीं छट गया था। जो पिछली रात मे कई बोतलों के ढक्कन उतारने मे साथ थे वो आज अपनी-अपनी चुनावीदौड़ मे चले गए थे। पिछली रात के साकी उन्हे तलाशे भी तो कहाँ? 'वादे तो सभी करते हैं, मगर निभाता कौन है?' यही रीत चल रही है। जो आम दिनों मे कहीं तक भी शादी-ब्याह मे भी नहीं याद करते वही पिछली रात मे बोतलों के ढक्कनो मे हमसफ़र ढूंढ रहे थे। क्या महफ़िले जम रही थी। हर गली के कोने पर, प्रोपर्टी डीलर की दुकानो मे और चाय वालों के यहाँ- खूब जमकर वादें, परेशानियाँ और नज़रे उभर रही थी। लग रहा था दक्षिण पुरी को अगर किसी ने ध्यान से देखा व सुना है तो वे खाली यही लोग हैं। बाकि तो बस, दौड़ में है। खुद को मुकम्मबल बनाने की या अपनी तकलीफों और जिम्मेदारियों को सुलझाने की। लेकिन यहाँ पर इस महफिल मे तो दक्षिण पुरी के हर हालात, नालियाँ, वादें, भरोसे और रिश्ते खुलकर सामने आ रहे थे।

बस, दो घूँट और अन्दर जानी थी फिर तो सारा रूप ही बदल जाना था। कल्पनाए होती कुछ नया बनाने की, पुराना दबाने की, रिश्तो को कगार पर लाने की और ना जाने क्या-क्या? इन सबकी गवाह वे जगहें थी जहाँ पिछली रात मे वे महफिले रोशन हुई थी। खुर्दारापन हो या ऊंच-नीच सब दब गया था। बस, रह गया था तो अन्दाज़, वादा, विश्वास और आने वाली दुनिया का सपना मगर रात गई बात गई।

सुबह का आलम ही कुछ और था। आँखों के खुलते ही सड़क पर भीड़ को देखना कुछ अच्छा नहीं माना जाता। लेकिन यह भीड़ हमारी ही थी। सुबह के दस बज गए थे। दस का बजना यानि सरकारी काम शुरू मगर इलैक्शन तो सुबह आठ बजे से ही शुरू हो गए थे। ये बात सबसे मजेदार थी।

गली के बाहर भीड़ लगी थी। सभी एक-दूसरे से पूछते, “कब चलेगा वोट डालने?” तो जवाब मे आता, “शाम तक चलेगें। जल्दी किस बात की है?”

इसी सवाल-जवाब के घेरे मे लगभग सैंकड़ो लोग थे। पहले सोचा सभी सवेरे-सवेरे या जल्दी वोट डालना चाहते हैं तो भीड़ ज़्यादा होगी इसलिए लोग रुके हैं शाम तक पर इस जवाब की कहानी तो कुछ और ही थी। ये जवाब यूहीं नहीं आ रहे थे। जहाँ पर भी लोगों की भीड़ जमा होती वहीं पर ये डायलॉग सुनने को मिलते, “शाम तक चलेगें, रूकजा।" यही नारा सुनने को मिलता, सभी इसी मे तैयार थे। दूसरी तरफ़ कई गाड़ियाँ स्कूल के गेट के बाहर खड़ी हो गई थी। लोग अपने-अपने साधनों के जरिये वोट डालने चले आ रहे थे। कोई बाइक पर आता तो कोई अपने पूरे परिवार का हाथ पकड़कर लेता आता। कोई किसी बुर्ज़ुग को गोद मे उठाकर लाता तो कोई ऑटो मे सवारियाँ भरकर लाता। कई लोग बिमार होते हुए भी चले आ रहे थे। अन्दर वोट डालने वाली जगह पर बिमारी मे आते लोगों के लिए सहुलियत दे रखी थी। उनको पहले ही निकाला जा रहा था। अन्दर से लेकर से बाहर तक बहुत भीड़ थी।

गुपचुप लोग एक दूसरे से हाथ मिलाते हुए सलाह दे रहे थे। स्कूल की सड़क पर जहाँ से लोग आ रहे थे वहाँ पर कई लोग खड़े थे। जो चुपके से हाथ मिलाते और किसी पर मोहर लगानी है वो जाते। कईयो को तो ये भी मालुम था कि कौन सा नम्बर दबाना है। जबकि वे अन्दर भी नहीं गए थे। "अम्मा नम्बर तीन बटन दबाना", “अम्मा पहला नम्बर दबाना", अम्मा दूसरा।" इसी धुन मे वे काम भी हो जाता जिसके लिए उसे रखा गया था। वैसे छुट्टी के दिन कमाई ये सबसे अच्छा ज़रिया माना जाता है। एक टेबल पर वोट बनाने का काम दिया जाता है। उस टेबल को शाम के पाँच बजे तक संभालना होता है। दोपहर के खाने के साथ-साथ शाम 450 रुपये द्हाडी बन जाती है। अब इस काम के लिए कौन मना करेगा? कई बैरोज़गारो को इसी दिन का इंतजार होता है। वैसे देखा जाए तो इसकी भी प्लानिंग शाम मे हो जाती है। पहले तो ये काम यूहीं मिल जाया करता था। सवेरे-सवेरे किसी को भी उठा लिया और बैठा दिया। लेकिन अब तो दो फोटो और कोई आईडी देनी होती है। जिसका एक कार्ड बनता है। उसके बाद ही किसी को बैठाया जाता है। एक टेबल पर पाँच लोग बैठे होते हैं। जिनको खाने के टोकन दिए जाते हैं। एक टोकन मे पाँच खाने के पैकेट होते हैं। तो पूरा दिन अपने घर के बाहर ही कमाई हो जाती है। बैठने और खाने के 450 रुपये माने जाते हैं। बर्शतें साफ़-सुथरे और पढ़े-लिखे लड़के ही होने चाहिये और वे भी जिनके रौब की इमेज अपने मोहल्ले मे होती है फिर चाहें वे इमेज किसी भी तरह से बनाई हो। बस, उसके पीछे बोलने वाले लोग ज़्यादा होने चाहिये। ये काम है बड़ा मस्त।

ये सारे काम बड़े जोर-शोर से चल रहे थे। मगर जो जवाब रूके थे वे अब भी किसी इंतजार मे थे। दोपहर का लन्च हो चुका था। गली के बाहर खड़े लोग अब अपने घरों मे चले गए थे। बाहर कई गाड़ियाँ खड़ी हो गई थी हर गाड़ी मे खाने के डब्बे भरे थे। हर टेबल पर उन्हे उतारा जा रहा था। खाने की खुशबू हर तरफ थी। उसके साथ मे पानी की छोटी थैलियाँ भी। वहाँ टेबल को संभाले लोगों को शायद इसी का इंतजार था। खाने के आते ही वे तो शुरू हो गए थे।

खाना खाते समय दोबारा से पोस्टरो में नज़र आने वाले कंडिडेट घूमने चले आये थे। जिनके नाम की लड़को ने टेबल संभाल रखी थी उनसे हाल-चाल पूछने और ये भी कि कितने नाम की पर्चियाँ काटी गई हैं? आदमी अलग और औरतें अलग गिनी जाती। कभी घण्टे का हिसाब होता तो कभी दिन का। यही यहाँ पर काउन्ट हो रहा था। उनका मानना था कि जितने लोगों ने उनकी टेबल से पर्ची कटवाई है वे उन्ही के नाम का बटन दबायेगें। बाकि पब्लिक तो बेवकूफ है और शायद हो भी। ये खेल अबका नहीं काफी पूराना है।

दोपहर के ढाई बज गए थे बाहर का नज़ारा फिर से बदल गया था। भारी भीड़ टुकड़ों मे तब्दील हो गई थी। सड़क की छोटी छुपी जगहों में सिकुड़ गई थी। पाँच लोग यहाँ तो पाँ लोग वहाँ। चेहरों पर हँसी और इशारों की भाषा छा गई थी। सभी की पैन्टो की जैंबे भारी हो गई थी। हाथों को बांधे लोग अपने पास बुलाने का इशारा कर रहे थे। हाथों से बयाँ होता, “हो जायेगा, नो टेन्शन।"

कोई भी आपके करीब आकर पूछ सकता था, “वोट दिया, मेरे साथ चलो भाई यहाँ क्यों सूखे खड़े हो?”

और आप किसी के मेहमान बन जाते हैं। इतने मे एक आदमी सबसे नज़रें छुपाकर एक कबाड़ी की दुकान मे घुस गया। उसके हाथ मे एक थैला था। जिसमे कई काँच का समान था। कबाडी की दुकान मे काँच का समान होना कोई अचम्भे की बात तो नहीं है। धीरे-धीरे वहाँ पर एक-एक करके लोग जाने लगे। बड़ी हँसी की आवाजें वहाँ उस दुकान मे से आती। उसके साथ-साथ एक जल्दबाजी की हड़बड़ाहट भी। कोई भी अन्दर जाता और खामोशी से अपने हाथों को बांधे बाहर चला आता। मगर इतने मे जैब बड़ी भारी हो जाती। ये खेल हर कोने पर चल रहा था। इतना तो कभी होली-दिवाली पर भी नहीं था। आज तो गज़ब ही था।

शाम होते-होते वोट डालने वालो की भीड़ भी जमा होने लगी और गज़ब की बात यह थी के उसमे सभी मर्द थे। सभी के चेहरों पर खुशी थी।

"चिंता मत करो भाई, मेरे चाचा और उनका परिवार आ रहा है। लगभग 20 लोग हैं।"

डायलॉग मे दम था और भारी उम्मीदवारी भी। हर उम्रदराज आदमी को सबसे पहले पूछा जा रहा था। सभी अपने हाथों से वे बनाकर दिखाते जिनको वोट डाला जायेगा। इशारे बहुत गंभीर थे। कोई पंजा दिखाता, कोई दो उंगलियाँ, कोई सूंड बनता तो कोई बल्ला। सब गज़ब ही था। शाम के चार बजे गेट अचानक ही भर गया तलाशी लेने की जरूरत ही नहीं थी। सभी को अब तक तो पता चल गया था की किस चीज की मनाही है। इतना होने के बावज़ुद भी किसी को यह तक नहीं पता था की बाप ने किस को वोट दिया है और बेटे ने किसको पर उस महफिल के गवाह वे दोनो ही थे।

"हाथी पर चड़ुगां, फूल को तोड़ुगां और हाथ को चूमूगां।"
"आता है हाथी उड़ती है धूल, कटते हैं हाथ बचते हैं फूल।"

ये नारे बाजियाँ मदहोसी की गवाह बन गई थी। माहौल खत्म होने लगा था। एक कहता, “दे आया वोट?” तो दूसरा कहता, “कहाँ, बैच आया ये तो।" तो वे कहता, “बैचा नहीं है मैंने, किसी ने खरीद लिया।"

शाम का इंतजार क्यों हो रहा था ये शाम को ही पता चला। दरवाजों, गलियों, दुकानो और गुटों मे कई मालिकाना हक जमा था। दुनिया उसी तरफ मे भाग रही थी।

लख्मी

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