Tuesday, December 30, 2008

हमें मंच नहीं मचान चाहिये

रास्ते हमसफ़र होते हैं। ज़िन्दगी के इस सफ़र में घूमती-फिरती किस्से-कहानियों की टोलियाँ हमारी हमजोली होती हैं जो एक नज़र देखने पर हमें अपनी तरफ खींच लेती है।

दक्षिणपुरी मे भी एक जगह ऐसा माहौल उभरा। जहाँ शख़्सों की रोज़ की आवाजाही में इस वास्तविक जीवन से हट कर एक काल्पनिक ढ़ाँचा नज़र आया। चारों तरफ सन्नाटे से बनी दिवारों को तोड़ता ये किस्सागोही का माहौल अपने आप में एक मेला ही था। जो दुरियों को भी नजदीकियों मे तबदील कर देता। इस माहौल की हवाओं से बेरूखी भी तौबा कर लेती। जब ज़िन्दगी अपने आप से नाट्कीयता करती तो चेहरों के हाव-भाव भी फूलों की तरह खिल उठते।

जे ब्लॉक के रास्ते पर बनी परर्चून दुकान है और मकान के पेड़ के साथ कबाड़ी की दुकान भी है। ये रास्ता कभी रुकता नहीं। पेड़ के पास वो किस्सागोही का माहौल हर सुन्ने वाले के कानों को दावत देता है। इस किस्सागोही में शामिल होने वाले शख़्स अपने आप को इस माहौल में खुश पाते हैं। जे ब्लॉक के अन्दर वाले पार्क से जुड़ा ये रास्ता समय-समय पर अपने रूप को बदलता रहता। कहानी सुनाने का ये अड्डा भी है जो अपनी रोज़ की रफ़्तार मे व्यस्त रहता है। इस अड्डे पर बने मचान पर कहानी सुनाने और सुनने वालों की बस, यही आवाज़ आती है , "हमें मंच नहीं मचान चाहिये।"

फिर ये घुमक्कड़ कहानी किसी दिवानों की तरह हर आँख को अपनी तस्वीर दिखाने लगती है और हर कानों को अपना साज़ सुनाने लगती। तब समय जैसे वहीं ओस की बूँद बन कर ठहर जाता। तब, दिल कहें रूक जा रे रूक जा यहीं पे कहीं। जो बात इस जगह वो कहीं पर नहीं।

हम अपने आसपास मे कई ऐसी जगहें खुद से बनाते हैं जिनमे हम अपने जीवन की कई घटनाओं को, अनुभवों को, आपबितियों को और न जाने कितने ऐसे किस्से सुनाते हैं जिनको हम अपने जीवन के मुल्य मानते हैं। वे जगहें हमारे जीवन मे क्या करती हैं या उनकी अहमियत क्या है?

छोटे-छोटे माहौल मे वे जगहें खूब खिलती हैं, महकती हैं और बनाई जाती हैं। दक्षिणपुरी मे ये माहौल किसी ऐसे ही माहौल से कम नहीं था। जिसमे आने वाले, सुनाने वाले और सुनने वाले लोग अपने अनुभव मे इसे शामिल ना कर रहे हो। शाम के 4 बजे से ये माहौल शुरू होता और रात के 7 बजे तक एक ऐसा माहौल बना लेता जिसमे अपनी जगह को देखने का नज़रिया ही बदल जाता। लोग अपनी गली, नुक्कड़, छत और पार्क से देखने चले आते। कुछ देर सुनते फिर ये पूछने की चेष्टा लिए उस शख़्स को तलाशते जो इस माहौल मे पहले से ही खड़ा दिखता।

कई सवाल इस माहौल मे घूम रहे होते। ये माहौल कोई रामलीला का स्टेज़ या किसी नाटक का मंच नहीं था। ये मचान था लोगों के अन्दर चलते किसी ऐसे रूप का न्यौता जिसमे खुद से बाहर जाने, निकलने और बहने की जिद्द छुपी होती है।

कहानियाँ, हम कहानियों को अक्सर सुनते हैं, कहते हैं, दोहराते हैं और कभी-कभी तो बनाते भी हैं। लेकिन उसके भागीदार कौन होते हैं? और वे कहानियाँ बाँटी कहाँ जाती हैं?

ये मचान वे ठिकाना था, जहाँ पर ऐसी ही कई कहानियों का बसेरा बन पाया था। दक्षिणपुरी का ये कौना किसी घर का था पर ये जगह किसी ऐसे रूप मे थी जो किसी की अपनी होने के बावज़ूद भी अपनी नहीं थी। इसमे कोई भी आ सकता था, गा सकता था, सुना सकता था, बैठ सकता था।

ये माहौल उस बैठक का रूप था। जिसकी मांग मे अक्सर हम जीते हैं।

दिनॉक:- 26-01-2008, समय:- शाम 4:30 बजे

राकेश

No comments: