Friday, December 26, 2008

सम्मोहित करते अवसर

घर का सारा समान बाहर पार्क में रखा सूख रहा था। एक तरफ कई सारे कपड़े खाट पर पड़े थे तो एक कोने में कई सारी तस्वीरें। कहीं पर कई सारी फाईलें बिखरी थी तो कहीं पर बक्सा, अटैची और घर का सारा मोटा-मोटा समान एक किनारे पर रखा था। आज कोई इतनी अच्छी धूप भी नहीं निकली थी के सभी चीजों को इस तरह से धूप लगाने के लिए पार्क मे अकेला छोड़ दिया जाये। पार्क मे कई लोग खड़े थे, वे सभी उन बाहर रखे समानों को एक झलक देखते उसके बाद वहाँ से सरक लेते। उनके घर के छोटे से कोने मे बने घुसलखाने मे उनके रात के खाने के बर्तनों का ढेर लगा हुआ था। रात की बची सब्जी पर मक्ख़ियाँ भिनक रही थी।

आज पार्क की सफ़ाई एक कोने में ही चल रही थी। झाड़ू मारने वाली इन बर्तनों से अपनी झाड़ू को दूर रखती। कोशिश करती की झाड़ू उन समानों को छुए ना। मिट्टी की परत उन समानों पर चड़ जाती। जैसे ही झाड़ू पार्क की जमीन को कुरेदती तो मिट्टी की मोटी सी परत पूरे पार्क मे फैल जाती। पार्क में खड़े सभी लोग झाड़ू मारने वाली के पीछे-पीछे रहते। वे जहाँ-जहाँ पर झाड़ू मारने के लिए आती वे वहाँ से उसके पीछे की तरफ हो जाते। बस, एक वही जगह थी जहाँ मिट्टी की परत उनसे दूर रहती। लेकिन ये सब देखकर झाड़ू मारना बन्द नहीं होता। वे तो पूरे पार्क का था। वे भी अपने हाथों मे लम्बी सी झाड़ू पकड़े पूरे पार्क पर लकींरे खींचे जा रही थी।

रामेश्वर जी के लिए उनके घर का समान घर के बाहर रखा हो या अन्दर कुछ ज़्यादा फ़र्क नहीं पँहुचाता। वे तो अक्सर अपनी बीवी से ये कहकर लड़ते हैं की चाहें सर्दी हो या गर्मी समानों को धूप जरूर लगवायाकर। लेकिन ये बात उनकी बीवी बहुत कम सुनती है। इसी कारण उनके घर की आवाज़ों से पार्क में हमेशा शौर रहता है। सारे कपड़ो की तह लगाकर वे खाट पर पसा देते हैं। पहनने वाले कपड़ो से लेकर ओड़ने वाले कपड़ो तक। वे सभी को धूप में छोड़ देते हैं।

इन दिनों ओस काफ़ी पड़ रही है। टैन्ट और टीन से बनी दीवारें पानी से दबादब टपकती है। ओस मे सभी दीवारें गीली तोलिया की तरह बन जाती हैं, पानी जैसे उनपर चिपक जाता हो। इस मौसम मे उनकी बीवी कमरे मे अक्सर चूल्हा जलाए रखती है। उसकी भाप से अन्दर का माहौल ठण्ड की चपेट से बच जाता है। बाकि तो वे दोनों ही रजाई मे अपने पाँव को घुसाये बैठे रहते हैं। रामेश्वर जी के मुँह से कई ऐसी कहानियाँ हर रोज़ निकलती हैं जो कभी ख़त्म ही नहीं होती।

लेकिन, आज शायद कुछ और ही दिन था। रामेश्वर जी घर के एक कोने मे रखे तीन बक्सों को उठाने मे लगे थे? वे इतने हल्के भी नहीं थे कि उन्हे एक ही हाथ से उठाया जा सकता हो। तीनों मे ना जाने क्या-क्या रखा था। इनता वज़न था कि वे किसी पुराने किले मे लगे पत्थरों की तरह ठोस हो गए थे। किसी मे बर्तन भरे थे तो किसी मे मूर्तियाँ तो किसी मे ना जाने क्या-क्या? उनको उतारना तो दूर उन्हे खिसकाना तक मुश्किल था। घर की एक दीवार तो उन्ही बक्सों से बनी थी। वे एक के ऊपर एक रखे थे।

रामेश्वर जी उन्ही मे लगे थे। बक्से को खिसकाने की बेइन्तहा कोशिश करते मगर ये काम उनके अकेले के बस का नहीं था। उनकी बीवी भी उनके साथ ही थी मगर वे खाली उन्हे देख रही थी। और समानों को इधर-उधर करने की वज़ह पूछ रही थी।

“क्या चाहिये जी, वे तो बताइये ना!”

रामेश्वर जी की जुबाँ पर कोई शब्द नहीं थे। उनका सारा ध्यान उन तीनो बक्सों पर टिका था। उन्हे ये पता था कि जो भी वे तलाश रहे हैं वे इन तीनों मे से किसी एक में है। इसलिए उन तीनो बक्सों को खोलना जरूरी था। उन्होंने कैसे ना कैसे करके सबसे ऊपर वाला बक्सा उठा ही लिया। मगर दिमाग मे उनके कुछ और ही था। उन्होंने उठाये हुए बक्से को एक तरफ मे रखा और दूसरे बक्से को खोलने लगे। ये बक्सा लकड़ी का था जिसके अन्दर के हिस्से मे किसी कम्पनी का नाम लिखा था जो मिट गया था बस, उसका नम्बर रह गया था। बक्सा नम्बर 35। चादर से उसे ढका हुआ था। ऊपर वाले बक्से के हटते ही चूहे मारने वाली गोलियों की महक फैल गई थी। बक्से के अन्दर चूहे मारने वाली गोलियाँ बहुत छोटी हो गई थी और चूहे की मेगनी भी पड़ी थी। बन्द बक्से को चुहों ने शौचालय बना दिया था। उनको अपने हाथ से एक तरफ करते हुए उन्होंने उस चादर को हटाया। चादर मे कई चूहों की लाशें भी चिपकी हुई थी। उनकी बीवी नाक को अपनी साड़ी के एक कोने से ढकती हुई उस चादर को बाहर ले गई। बक्से मे कई सारे बेलन, चकले, चम्मच और परछे रखे थे। वे सभी लकड़ी के थे। जिनको उठाते ही सफ़ेद रंग का बरूदा झड़ रहा था। कइओ मे तो छोटे-छोटे छेद भी हो गए थे। उसमे से कुछ बाकि थे। रामेश्वर जी ने उन सभी पर गौर ना करते हुए। उनको अपने दोनों से हाथों से इधर-उधर धकेलते और उनके नीचे कुछ और देखने की कोशिश करते। जब वे नहीं मिली तो वे उस बक्से को वैसा का वैसा ही छोड़कर चले जाते दूसरे बक्से की ओर।

बक्सों मे इतना कम समान भी नहीं था कि उसमे कोई चीज आसानी से तलाशी जा सकें। रामेश्वर जी भी यही कोशिश करने मे लगे थे। आखिरकार उन्हे सबसे नीचे रखे बक्से को खोलना ही पड़ा। लेकिन उसका कुन्दा बेहद टाइट था। अपना जोर आज़माते हुए उन्होंने तीन या चार बार उसे झटके मार कर खोलने की कोशिश की। साथ मे रखे बेलन से उसे पीटा और उसे खोल लिया।

अब उनके हाथों मे एक छोटी सी पोटली थी। जिसको सा‌ड़ी के किसी टुकड़े से बाँधा हुआ था।

पिछली रात मण्डली मे ये तय हो गया था के आने वाले जनवरी के महिने से फरवरी आखिर तक शहर की अलग-अलग बस्तियों मे लीलाए कि जायेगीं। मण्डली के सभी अलग-अलग लोग पाँच-पाँच के ग्रुप मे छट जायेगें और अपनी-अपनी बस्ती चुनेगें। जो ग्रुप जहाँ जाना चाहता है जा सकता है। लेकिन दो महिने वे वहाँ पर लीला करेगें।

ये वादा तय कर दिया गया था। सभी राज़ी ही होने थे। बस, अपनी-अपनी जगह को सोचने की ही देरी थी। हर कोई अकेला तो जायेगा नहीं। अगर जायेगा तो बीवी-बच्चे संग ही। सभी ऐसी जगह सोच रहे थे जहाँ पर रहने का आसरा सहुलियत भरा हो। बच्चे, परिवार सभी को सहुलियत मिल सके। लेकिन इसमे इतना सोचने की जरूरत भी क्या है? दिल्ली की सभी बस्तियों मे तो सहुलियतें ही सहुलियतें हैं और वहाँ होता ही क्या है?

मण्डली की सरत को मानना ही सबका धर्म था। सभी ने अपनी-अपनी जगह चुन ली थी। बीस लोग चार जगहों मे बट गए। जगह जो चुन ली गई थी। वे थी, त्रिलोक पुरी, मंगोल पुरी, दक्षिण पुरी और सुल्तान पुरी। लीलाओ मे वैसे कुछ खास करना तो नहीं था। इनकी लीला मे सभी लोग देवताओ का रूप धारण करते और पूरी बस्ती मे उनके दुनिया मे आने की कहानी सुनाते। जो शख़्स जिस भी देवता का रूप धारण करता वे उसकी सारी अदा और नाटकिये लीला को अपने शरीर मे घुसा लेता और बस, वे आदमी उस देवता की एक्टींग करता। बाकि चार मे से दो आदमी कहानी सुनाते और दो संगीत बजाते। यही लीला इलाके को भर देती।

रामेश्वर जी को उनके ही यहाँ का इलाका मिला था। हाँलाकि ये जगह उनके बोलने से पहले ही उनके साथी ने बोल दी थी। वे तो उसके साथ मे थे। रामेश्वर जी को इस लीला के बारे मे आज से पहले पता नहीं था या फिर वे सब भूल गए थे। गाँव से शहर तक के सफ़र ने शायद उन्हे ये सब कुछ भूलने को मज़बूर कर दिया था। वे वहाँ मण्डली मे ये सब कह भी नहीं सकते थे कि उन्हे इन सब के बारे में कुछ पता नहीं है। ये लीलाए क्या हैं?, इनमे क्या-क्या होता है? और इनमे जरूरी क्या है? इसके बारे मे अगर वे कुछ कह देते तो खाम्खा मे उनकी जान को फजीता हो जाता। फिर वे खाली पैसे बटोरने वाले जमूरे बनकर रह जाते। वे वहाँ पर कुछ बोले नहीं बस, ग्रुप मे अपना नाम लिखवाकर घर चले आये। अभी लीला को करने मे वक़्त था, जनवरी का महिना शुरू कहाँ हुआ था, दिसम्बर के पूरे पंद्रह दिन थे उनके पास। यही सोचकर वे घर चले आये थे। कुछ बीवी से पूछेगें और कुछ विनोद से। विनोद से भी ये ऐसे ही नहीं पूछा जा सकता। हाँ बस, एक देसी की बोतल लगेगी। उसके बाद विनोद सारा बता तो क्या बल्कि सारा का सारा काम ही अपने सिर पर ले लेगा।

रामेश्वर जी ने देखने की हड़बड़ाहट मे उस पोटली की गांठ खोली। उसपर मिट्टी की धूल जमी थी। जैसे ही वो पोटली खुली तो रामेश्वर जी के चेहरे पर एक चमक सी आ गई। उस पोटली मे एक फोटो एलबम थी। जिसके ऊपर के कवर पेज पर ही एक शीसा लगा था। जिसमे रामेश्वर जी अपना चेहरा देखते ही मुस्कुराये और एक नज़र भर उसको देखते ही उन्होंने एलबम को खोला। उसके पहले पेज पर ही एक शिव भगवान का रूप धारण किए हुए एक आदमी की तस्वीर थी जिसने एक बच्चे का हाथ पकड़ा हुआ था। ये फोटो किसी फोटो स्टूडियों की थी। पीछे लगे लाल रंग के पर्दे से पता चलता था। उसके ठीक नीचे एक और तस्वीर थी जिसमे वे शिव भगवान का रूप धारण किए वे आदमी अकेले ही थे। नीचे चौगड़ी मारकर धूनी मे बैठे थे और पीछे एक सीनरी बना पर्दा लगा था।

रामेश्वर जी अब खाली फोटो एलबम के पन्ने पलटने का काम करने लगे। दूसरे पन्ने पर चार फोटो थी। शुरू में ही एक तस्वीर थी जिसमे एक आदमी पूरा काला हुआ खड़ा था। आँखें और होठ लाल थे, कानो मे भी लाल रंग दिखाई दे रहा था और शरीर पर एक भारी लोहे की जंजीर डली थी। उस आदमी ने घागरा पहना हुआ था। उससे आगे वाली तस्वीर मे उसी आदमी का फोटो था लेकिन इसबार वे किसी आदमी से इनाम लेते हुए था। अगली एक और तस्वीर में यही आदमी था जो रामचन्दर जी के रूप में था। जिनके साथ मे एक और आदमी खड़ा था।

रा‌मेश्वर जी उन तस्वीरों मे कुछ-कुछ देर के लिए थम जाते। उनकी आँखें उन अलग-अलग रूप धारण किए हुए लोगों पर जम जाती। वे उन्हे देखते-देखते ही पन्ने पलटते जाते। आगे के कुछ पन्नों मे तो तस्वीरों की जगह पर कुछ सार्टिविकेट और हस्ताक्षर की हुई तस्वीरें भी थी। जिन्हे वे बड़े ध्यानपूर्वक तरीके से देखते। उनका पूरा ध्यान जैसे उन तस्वीरों ने सम्मोहित कर दिया था। उनका वहाँ उन तस्वीरों मे से निकलना बेहद मुश्किल था। कहीं पर इनाम पाती हुई तस्वीरें थी तो कहीं पर नाच अवस्था मे सड़क की तो कहीं किसी तमाशे मे। हर तस्वीर मे उनके अलावा कई और लोग भी शामिल थे। उन इनाम पाती तस्वीरों मे किसी ना किसी का रूप धारण किए हुए आदमी को तो पहचानना ही मुश्किल था। इसके बावज़ूद भी जब किसी तस्वीर मे रामेश्वर जी रुक जाते तो उनके चेहरे पर कुछ टटोलने की हरकत नज़र आने लगती।

आधी एलबम हो जाने के बाद मे सारी रूप धारण कि हुई तस्वीरें दिखना बन्द हो गई थी। अब एलबम मे घर की तस्वीरें थी। एक आदमी की गोद मे बच्चों की, खाना पकाती किसी औरत की, किसी छत पर बातें करते लोगों की। इन सब के अलावा की कुछ तस्वीरें किसी संगीत की महफ़िल की थी। लगभग पाँच से सात लोग एक झुँठ बनाकर ढोलक, चिमटा और डमरू बजा रहे थे। देखने वाले तो बहुत थे लेकिन उनके बीच मे कोई नज़र नहीं आ रहा था। शायद ये तस्वीर जब खींची जा रही होगी तो नाचता हुआ आदमी केमरे से बाहर निकल गया होगा। लेकिन माहौल मे लोगों की भीड़ को देखकर ये अहसास किया जा सकता था कि ये महफ़िल घंटो से लगी होगी। काफ़ी लोग थे वहाँ पर।

एलबम को पलटते-पलटते रामेश्वर जी आखिर के पन्नों तक आ गए थे। आखिर मे कुछ तस्वीरें थी जो यूँही पड़ी थी। जिन्हे एलबम मे नहीं लगाया गया था। वे शायद इसलिए भी एलबम के हिसाब से ये तस्वीरें बड़ी थी। लगभग अठ्ठारह तस्वीरें थी। रामेश्वर जी ने एलबम को गोद मे रखा और उन निकली तस्वीरों को देखना शुरू किया। सारी की सारी तेड़ी-मेड़ी पड़ी थी।

तस्वीरों को देखकर वे लगातार मुस्कुरा रहे थे। उन तस्वीरों मे एक बच्चा किसी आदमी की कमर पर काला और नीला रंग पोत रहा था। वे आदमी तहमत पहने हुए था। उसके हाथों मे भी शीसा था जो अपने मुँह पर कुछ लगा रहा था। और वे बच्चा उनकी कमर पर रंग पोते चले जा रहा था। रामेश्वर जी उनको देखकर अब हँसने लगे थे। उनकी बीवी उनको हँसता देख उनके पास मे आकर बोली, “क्या देख रहे हो जी जो हँसी छूट रही है?”

रामेश्वर जी किसी और ही बात का जवाब देते हुए बोले, “अब आयेगा मज़ा, अब देखना तुम मैं क्या रूप धारण करता हूँ। सब देखते रह जायेगें। देखना तुम।"

"मैं क्या पूछ रही हूँ और आप क्या बोले जा रहे हैं?” वे उनकी तरफ मे झुककर बोली।

रामेश्वर जी दोबारा से उस एलबम के पन्नों को पलटते हुए उनके पन्नों मे खो गए। उन्होंने वही फोटो खोली जिसमे एक आदमी शिव भगवान का रूप धारण किए हुए एक बच्चे का हाथ पकड़कर खड़ा था। और दूसरा फोटो वो जिसमे वे किसी आदमी से इनाम पाते हुए था। रामेश्वर जी वे दोनों फोटो अपनी बीवी के हाथों मे पकड़ाते हुए बोले, “पहचान ये कौन है?”

उनकी बीवी उन दोनों फोटो को अपने हाथों मे पकड़े खड़ी रही। वे शायद पहचान नहीं पा रही थी। शायद इसलिए भी कि चेहरे और शरीर पर चड़े रंग ने किसी पहचान को छुपा दिया था। यही तो खेल था। रामेश्वर जी उनको देखते हुए बोले, “घूँघट करले, ससुर है तेरे।"

उनकी बीवी हँसते हुए उनकी तरफ मे देखती रही। कभी फोटो तो कभी रामेश्वर जी के चेहरे की तरफ। कुछ देर के बाद मे वे उनकी तरफ देखते हुए बोली, “ये मासूम सा लड़का तुम ही हो ना जी?”

रामेश्वर जी उनकी तरफ मे नज़र गढ़ाते हुए बोले, “तेरे को क्या लगता है, हम नहीं जानते लीलाओ के बारे मे? अरे ये तो हमारे खून मे है। कला और हर तरह की लीला। समझी!”

ये कहते हुए उन्होंने एलबम को दोबारा से पैक किया और सारा समान यूँही का यूँही छोड़कर घर के बाहर आकर खड़े हो गए। उनकी बीवी सारा समान ठिकाने लगाने के बाद मे जब घर के बाहर आई तो रामेश्वर जी वहाँ नहीं थे। उन्होंने इधर-उधर देखा मगर उनका कोई पता नहीं था। वे बड़बड़ाती हुई अन्दर आई और चूल्हा जलाकर रजाई मे पाँव घुसाकर बैठ गई।

थोड़ी देर के बाद मे रामेश्वर जी के गाने की आवाज़ आई। वे गाना गा रहे हैं ये सुनते ही उनकी बीवी समझ गई के शाम की घुट्टी के दो प्याले उनके गले के नीचे उतर गए हैं। वे खाली उन्हे देखती रही, बस, देखती रही। वे भी कुछ ज़्यादा बोले नहीं बस, अपना गाना गुनगुनाते रहे, “तेरे हँसने की किमत क्या है ये बता दे तू।"

ये सुनते ही उनकी बीवी हँसने लगी। उन्होंने तो ये भी नहीं पूछा की आज किस खुशी मे ये गले नीचे उतारे हो। वे तो बस, उनके मस्ख़रीपन की लीलाए देखती रही।

"अगले महिने तैयार रहियो, उन फोटो मे से एक आदमी बाहर निकलकर आने वाला है। खूब लीलाए होगीं, खूब। तू बस, एक काम करियों बस, घर मे नील मंगाकर रखियों।"

उनकी बीवी समझ तो नहीं पाई थी लेकिन उनकी घुट्टी के आगे वे कोई सवाल भी नहीं रख पाई। बस, उन्होंने उनकी बात पर गर्दन हिलाकर सहमति जताई। "तेरे हँसने की किमत क्या है ये बता दे तू।"

अपना गाना मुँह मे ही ख़त्म करते हुए वे अपनी खाट पर पड़ गए। सवेरे के इंतजार मे।

लख्मी

No comments: