Friday, January 2, 2009

नाचती परछाईयाँ

नये साल का पहला कदम, नये साल कि पहली शुभकामनायें

बीते दिनों को न कभी भूलाया जाता है और न कभी उनसे मुँह मोड़ा जा सकता है। जीवन के खालीपन को यानी रिक़्त स्थान को भरने के लिये उन्हें फिर से दोहराने की जरूरत होती है फिर चाहें वो किसी तरह के वाद-विवाद के हादसे हो या मनोरंजन खुशी के अवसरों का माहौल।

हमारी यादें हमें बहुत तरह से जीने को प्रेरित करती हैं। वो कहती है की जो तुम कर चुके हो उससे जीने का कोई एक अंकुर फूटता है। उसे सींचने का ढ़ग बनाओ जिससे आप को वो अंकुर कभी पेड़ बनकर फल और छाया दे। जब आप अपने साथ कुछ करने के बाद चीजों को दोबारा सोचें तो उसमें फ़र्क करके देखे जिससे पता चले की आप कहाँ तक कमजोर रहे। किस तरह की गलतियाँ आपने की, जो भविष्य में दोहराई न जाये।

ये आपको हर कामयाबी के शिख़र तक ले जाने मे सक्षम होगा। मेरा कुछ ऐसा मानना है। आपकी चेतनाशक्तियाँ आपके अन्दर ही निवास करती हैं। उसे जगाने की आवश्यकता है। जब आप जागोगे तो आप को पता चलेगा की तुम कहाँ-किस गड्डे मे जा गिरे हो और कहाँ फँस गए हो? इस तरह आप अपने विचारों को अपनी मन की शीलता से खुद का वास्तविक रूप देख सकते हो। जो आप के जीवन का सच्चा स्वरूप है।

इस बीते वक़्त मे हमने कई काम अधूरे छोड़े हैं और कई बार चालाकी से खुद के लिए आसान रास्ते बनाये हैं। किसी का दिल दुखाया तो किसी को हँसाया है। इसी को तो कहते है,"दर्दे डिस्कों।"

जीवन चक्र में न जाने क्या-क्या न उलझ गया, जिससे हम जीनें का साफ़-सुथरा ढ़ग ही भूल गए। बस, याद रहा तो अपनी खुशी और अपना मज़ा। जहाँ एक तरफ ये सफ़र हादसों और घटनाक्रमों से गुज़रा। वही कहीं हमने अपने लिए अपनी ज़िन्दगी से क्या सीखा। ये समझना भी तो जरूरी है।

भगती-दौड़ती इस शहरी ज़िन्दगानी मे विकास एक मह्तवपूर्ण कड़ी है जिससे बसेरों के निमार्ण और खासी जगहों का निर्माण उसके साथ-साथ व्यवस्थित ढ़ग से जीने की प्रथा तो आई है। मगर भीड़ से भरे स्थानों में वही खीचा-तानी, वही हो-हल्ला मचता दिखाई देता। जिसे आज भी जब बीती हुई ज़िन्दगी याद करती है तो वो बेपरवाह शहर मे ख़ामोशी के बीच डरावना नाच नाचती परछाईयाँ तो शरीर के तमाम तारों को झिंजोड़कर रख देती है। जब रोजाना मे कई तबको के शख़्सों को हम घूमते-फिरते देखते हैं। उनकी हालात को देखकर ही खाया-पिया मुँह को आ जाता है। जीना क्या है? ये सवाल को हम बड़ा आसान बना देते हैं। हमारे दैनिक जीवन मे भी कई वो शख़्स जुड़े होते हैं जो हमें नहीं जानते और जिन्हों से हम भी अंजान हैं। लेकिन शहर की हवा में हम मिलकर सांस लेते हैं। जैसे ठन्ड के मौसम में आग की गर्माहट सब को ही चाहिये ही होती है और उसी मौसम मे एक धुंए की तरह अफ़वाहें उड़ती हैं और शहर के हर चप्पे-चप्पे मे समा जाती हैं। अफ़वाहें हमारी अपनी होती हैं पर वो बनती दूसरों के लिए हैं। रहस्यमय आलम बनाने के लिए। जिसके सम्पर्क मे आने वाला शख़्स अपनी आँखों पर भी भरोसा नहीं करता और वो कहीं किसी घटना का शिकार हो जाता है।

मेरे मन की ये किस्सागोही मेरे लिए बीते दिनों को याद करने की गुंजाइश है। लेकिन मैं अगले कदम पर लेकर क्या जाऊँ? क्या इन्ही को लेकर चलता बनू? या फिर किसी और ही दुनिया की उम्मीद लगाऊँ? ये तो बीते कुछ ऐसे विवरण हैं जिन्हे कब तक मैं अपने मे समाता चलूँ? क्या इससे कुछ नया ले पाऊँगा मैं?

ये तो गया, दर्दे डिस्कों भी हो गया। अब इस बीते कणों मे विदा कैसे किया जाये? क्या कोई नई जगह बनाई जायें या फिर पुरानी को ताज़ा किया जायें?

राकेश

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