Friday, January 2, 2009

ईश्वर को किस ने देखा

ईश्वर को किस ने देखा या किस ने पाया है? ये सवाल अजीब से हालात पैदा करता है। लेकिन इसकी बनावट कैसी है या ये कैसे पैदा हुआ है और इसकी वास्तविकता यानी होने को हम धारण कर के जीते हैं। तो कैसे क्योंकि ये माना गया है कि "ये परम सत्य है।"
आज लोग चाहें कितने भी धर्म बताये, कितने भी समाज बनाये पर उस का एक ही धर्म है। एक ही समाज है जिसके भीतर खुशहाल और अधिकार के साथ जीना है। भले ही धर्म के नाम पर इंसान को बाँट दिया हो लेकिन उसके वज़ूद को उसकी वास्तविकता से अलग नहीं कर सकते और उसकी वास्तविकता ये है की जब किसी को भूख लगती है तो भोजन की आवश्यकता को मानना ही पड़ता है।

इंसान को इंसान की जरूरत का अहसास सिर्फ़ रोटी, कपड़ा और मकान ही नहीं होता बल्कि अपने विचारों से उत्पन्न सम्भावनाओं और जिज्ञासाओं को गहरा करने की शिरकत करना भी जरूरी है। भूख तो जानवर को भी लगती है, नींद तो उसे भी आती है। ठिकाना तो उसे भी चाहिये होता है। इंसान और जानवर के बीच की दूरी शायद कोई तय नहीं कर सकता है। आखिर ये दूरी क्या है? और क्या कल्पना करती है?

जो इंसान और जानवर के लिए प्रेम और वात्शल्लायता बनकर एक माँ की तरह इस विभाजन को समझौता बना देती है जिसे अक्सर हम समझ नहीं पाते लेकिन अपना लेते हैं। नदी जितनी शान्त और निर्मल होती है वो उतनी ही गहरी भी होती है। ये हम मानते आये हैं। हमें हमारे अलग-अलग समाजों मे इसे अपनी-अपनी ज़ुबानों मे समझाने की कोशिस कि है। ये जरूरी नहीं है की इंसान किसी धर्म को अपनाकर समाज मे निर्भय होकर जी लेगा। वो जहाँ जायेगा उसके लिए डर बना रहेगा। क्योंकि कोई भी इंसान अपने मुताबिक नहीं जी सकता। उसे अपनी सीमाओं मे ही रहना होगा। ये तय कर दिया गया है। हम चाहकर भी अपने लिए जगह बनाने की कइ अनेकों कल्पनाए करते हैं, सोचते हैं, कोशिश करते हैं पर ये किसके लिए है?

समाज मे सब कुछ उल्टा ही दिखता है और कभी-कभी सीधा भी लेकिन, ये आप पर निर्भर है की आप किसे और कौन से दृष्टीकोण से माहौल को देखने की कोशिश कर रहे हैं। आप ये भी सोच सकते हैं की आपके पास क्या नज़रिये और फ्रैम हैं? जिससे आप झाँकने कि फ़िराक मे हैं।

समाज मे जीने वाला हर इंसान, हर शख़्स एक तरह का उबाल लिए रहता है जिसका तापमान कभी बड़ जाता है तो कभी गिर जाता है। जो कभी इतनी जोरों से खौलता है की उसके आसपास तैर रही वायु भी उससे प्रभावित हो जाती है। इस उबाल को समझना जरा कठीन है। इससे पैदा होने वाली उष्मा को आप जगह-जगह रूपान्तरण होता पा सकते हैं। ये उष्मा तरह-तरह की है जिसका अवलोकन वायुमण्डल में होता रहता है। विज्ञान ईश्वर को शायद नकरात्मक सोच से देखता है। उसके पास ईश्वर की मौज़ूदगी के ऐसे ही समीकरण हैं जो तत्वों के मिलाप से ही बनते हैं पर असत्य है। इसको एक और विधी से जान सकते है जैसे- पारदर्शी शब्द बना कैसे, इस पर अगर तमाम चीजों पर खोज की जाये तो अधिकतर चीजें पारदर्शी निकल कर आयेगी और कई चट्टान की तरह ठोस।

हम और विज्ञान तीसरी आँख तलाशने के सदियों से शौध बना रहे हैं। बस, माध्यम अलग-अलग हैं। कोई पारिवार मे खोज जारी रखता है तो कोई पारिवार को त्याग कर ऑझाओं और फकीरों की भांती साधना मे लीन होकर दिव्यमान रोशनी को पाने के लिए समाज के सभी योगों से अलग अदभूत योग मे खोए हुए है।

वो अपने पूरक को तलाश्ने के लिए तप करने लग जाता है। क्योंकि वो किसी दिव्य आत्मा के महासागर के मंथन से निकला रत्न है। जो अपने प्रभू के आदेश को पाकर आया है। उस प्रभू ने अपने रूप से ही उसका शरीर बनाया है। उसमे अपनी आत्मा को उसमें बसाया है। जिसने देखने के लिए इंसान को तरह-तरह की इंद्रियाँ दी है। शरीर की हर बनावट को उस प्रभू ने सोच-सोच कर बनाया है।

धर्म तो केवल अपनी तरफ ले जाने वाला झुंड है जिसमें इंसान अपने को पूरा महसूस करता है और अपने को आइने में इतराकर देखता है और भूल जाता है की वो जिसका अंश है उसी का अलोचक बन गया है।

उसे के अस्तित्व को नकार रहा है। जिसने जीवन दिया है। पिता जैसे बच्चे के नामकर्ण और उस की पहचान जन्म से ही बना देता है वैसे ही हमारा जीवन भी उस पर्मपिता की असीम अनूकम्पा की देन है। फिर हम कौन होते है धर्म, जाति और सरहदों को बाँटने वाले।
एक फ़िल्म देखी उसमे फ़िल्म के शुरू मे ही कुछ डायलॉग हैं जो एक भगवान कह रहा है, वे कहता है:- "मैंने ये दुनिया बनाई, हवा बनाई, पानी बनाया, जीवन बनाना और इंसान बनाये, फिर उसके बाद इंसान ने मुझे बनाया, शायद मुझे पाने के लिए नहीं बल्कि मुझे दोश देने के लिए।"

ये लाइने हमारे लिए क्या है? ये एक नाटक है, जो शुरू हुआ और समाप्त हो गया। लोग क्या लेकर गए। या ये क्या सोचकर लिखे गए। सभी कह रहे हैं अपने-अपने लव्ज़ों अपने-अपने शब्द। जो कहीं खींचकर लेक जाने की कशिश मे हैं।

विश्व का हर इंसान हर शख़्स प्रभू के स्वरूपों को स्वीकारता है। ठीक उसी तरह जिस तरह बड़े से वर्गाकार मे अंधेरे में टिम-टिमाते जूगनू अपने से निकली रोशनी में एक-दूसरे से रू-ब-रू होते हैं और हमारे लिए कई देखने के फ़्रैम छोड़ते हैं।

राकेश

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