Wednesday, January 7, 2009

अंजान शख़्स

माहौल ओस के कोहरे से ढका हुआ था। ठन्ड के तापमान को पिघलाता, कहीं से लपलपाती आग का धुंआ आ रहा था। कुड़ेदानों में कल रात का कचरा भरा पड़ा था। केक के डिब्बे, बीयर के पिचके हुए डिब्बे और बोतलें तो कहीं अभी भी खुशबू छोड़ते गैंदे और गुलाब के फूल जिसे गाय अपना चारा समझकर खा रही थी।

रातभर की इस्तमाल की गई चीजों को कूड़ेदान में फैंक दिया गया था। बची हुई खाने की झूठी चीजों को कुत्ते नौंच-नौंचकर खा रहे थे। उनका मुँह कचरे मे धसा हुआ था। इतने मे उस जगह में कोहरे को चीरकर कोई अंजान शख़्स अन्दर आया। बे-आवाज माहौल में जैसे तार से बज उठे। उसने अपने आप को फटे कम्बल से लपेट रखा था। उस के पैरों में मैले जूते थे। जो राख और मिट्टी मे सने हुए थे। चेहरा ठीक से दिखाई नहीं दे रहा था। बस, हाथ और पाँव ही नज़र आ रहे थे। वो सड़क पर घूमते हुए हाथ मे एक डन्डा लेकर उसमे चुम्बक फँसाकर घसीटता हुआ चला आ रहा था। मिट्टी में शामिल छोटे-छोटे लोहे की चीजों के टुकड़े को उसके डन्डे में लगी चुम्बक खींच लेती।

सब कुछ धुंधला सा दिख रहा था। समय का अंदाजा लगाना मुश्किल हो रहा था पर इस मुश्किल मे भी वो अपना काम करने आ गया। कमर पर झोले में उसने काफी सामान रखा हुआ था। वो पहले भी कई बार यहाँ दिखाई दिया था पर अकेला नहीं। आज वो अकेला ही आया था। उसके साथ कोई नहीं था। सड़क से गुजरने वाले स्कूटर, कार वगैहरा। कोई वाहन जब तेजी से वहाँ से निकल जाते तो हवा का झौंका माहौल को और भी ठन्डा कर देता और उसके हाथ-पैर से कपकपी छूटने लगती।

पुराने पार्क के साथ में बना ये कूड़ेदान जो सालो पुराना है। जिसमे ब्लॉक के हर घर का इस्तमाल कि हुई चीजों को फैंका जाता। इस रास्ते पर वो सालो से आता-जाता रहा है। उस का चुम्बकिये औजार उसका साथ देता रहता। जमीन पर उस चुम्बक को वो घसीटता हुआ लेकर चलता और जो भी चीजें उससे चुपकती। वो उन्हे अपने झोले मे रख लेता।

दिन मे अंगिनत बार वो इस तरह करता। न जाने कहाँ-कहाँ जाता। पूरे इलाके में घूमकर वो जमीन पर पड़े कीलों, बोतलों के ढक्कनों अन्य चीजों के बेकार हिस्सों को वो अपने पास इक्कठा करके उन्हे बैच देता और अपने लिए कुछ पैसे बना लेता। दिनभर गली-गली भटकने के बाद वो जैसे धूंध से भरे कोहरे को चीरकर आता। वैसे ही शाम जब जगह मे दस्तक देती तो वो धूंध में ही कहीं छूप जाता।वो कहाँ से आया और कहाँ गया। ये किसी को पता नहीं चलता। दक्षिणपूरी से कहीं दूर उसका बसेरा होगा। कुछ पता नहीं। लेकिन कुछ क्षणों के लिए वो जाना-पहचाना सा लगा। उसके जाते ही आसपास सब नज़र आने लगा।

तब शरीर को गर्मी देते शख़्स आग को चारों तरफ से घेरकर बैठे होते। रात के अंधेरे को खम्बों पर लगे बल्बों की रोशनियाँ मुँह चिड़ाती हुई होती। कहीं परछाई अपना ही समा बनाकर किसी नज़र की फिराक में होती।

राकेश

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