Thursday, February 26, 2009

मेरी परछाई

मेरा दिमाग, मेरा नहीं है,
इसपे किसी और का नशा दाखिल है।
जिसकी वज़ह से मेरे कदम लड़खड़ाते हैं,
मन भटक जाता है और कहानी बन जाती है।

दूसरो की तरह मुझे भी भूख लगती है, प्यास सताती है।
मैं ज़िन्दा हूँ इसलिये सीने में एक आग सुलगती है,
जिसे मैंने कब से दबा रखा है।
जिसे छिपे होने पर भी उसका नाम सब को बता रखा है।
जो मेरी परछाई का भी साथ देता है,
उसपर मेरा यकीन हर दफ़ा होता है।

मैं अपने अंदर दाखिल हो पाता हूँ,
जो मेरे ख़्याल में, स्वभाव में अपनी ज़ुबान देता है।

जिसकी सुबह की रोशनी में चाहूँ और नश्वर
और जीवन के कणों में दृष्टिकोण में प्रकृति को देख पाता हूँ।
अगर वो मेरे करीब है तो मैं उसके करीब हूँ।
तो क्या पूर्ण है?

यही तो मेरी सम्पन्न नहीं है,
वो मेरे नज़दीक है मैं उसके नज़दीक हूँ।
पर आपस में पारदर्शी रिश्ता नहीं है,
इसलिए जीने में ज़्यादा मज़ा आता है।
फिर सारी हक़ीकतों का ये रिश्ता जीवन का संबंध बन जाता है।
राकेश

सर्वहारा रातें- किताब

सर्वहारा रातें- किताब

हम अभिनंदन करते हैं ज़ाक राँसिएर का कि वो हमारे बीच आए। उनकी किताब "सर्वहारा रातें" जो अभी प्रकासित हुई है जिसका हिन्दी भाषा में अनूवाद हुआ है। उन्होनें हमारे साथ अपनी किताब "सर्वहारा रातें" को लेकर अपना अनुभव बाँटा। उनसे हुई बातचीत में हमे बौद्धिक ज़िन्दगी के एक दौर की रचनाओं और गुज़रे कल के पहलूओं से मुख़ातिव होना है। उनके और हमारे बीच एक मुलाकात हुई जिसमें इतिहास को नया ढ़ंग से जीना और अपनी रचनाओं को लेकर खुद की क्षमता से अपने आसपास को सींचना था। जो उनसे बातचीत में उभरा जिसमें नया जीवन या अपना जीवन तय करके जीने की आज़ादी है उसे कैसे सोचें?

शरीर और हक़ीकत के बीच जब अपनी रचना को महसूस करते हैं तो उस के बिताए गए क्षणों को एक जगह एकत्रित करके या जमा करके देखें तो प्रतिदिन का एक आकार नज़र आता है। अपने मनमुताबिक सोची गई रचनाओं के समाज की धारणाओं से टकराना होता है लगातार वे दिखता है। समाज के नियम और कानून से बने निर्देशों के तारों में फँसने के बाद भी व्यक़्ति अपने संम्पर्क के नये तार जोड़ता है।

इसी ख़ास तरह में आने वाले शख़्सों के बारे में आपको रू-ब-रू करवा रहा हूँ। जो इतिहास मे जीते 'अतीत' की कई परछाइयों को ज़हन में एकदम से उभारने वाला ख़्याल देते हैं। वो जीवन जो किसी हवा-पानी, समाज, धर्म, रहन-सहन या रिती-रिवाजों से बंधित नहीं है। उस जीने और हर पल बनने की प्रक्रिया को हम दुनिया के किसी भी कोने में देख सकते हैं, सुन सकते हैं। हर शख़्स में अपनी रचना करके और ख़्याली दुनिया बनाकर जीने की गुंजाइश होती है। वो चाहें अपना देश हो या विदेश इंसान कहीं भी हो उसका वज़ूद उसे पल-पल के समावेशों में धकेलता रहता है
जिसमें जीने की साँस लेती क्रियाएँ होती हैं। जो अपने एकान्त को किसी दुनिया में जोड़ देती है और तब अपने अहसासों को खुद से समझने और सोचने कि जिज्ञासा जागती है।

हमारी जगहों में, ज़िन्दगी में, माहौलों में वो सम्भावनाएँ हैं जो एक-दूसरे के बीच के रिश्ते को रचनात्मक ढ़ंग से जीया जाने को कहती है। जो गुज़रे कल को भी आज के दौर से वापस मिलाती है और अपने साथ लेकर चलती है।

19वीं सदी के फ्रांसिसी ताला-मिस्त्रियों, दर्ज़ियों, मोचियों कम्पोज़िटरों के जीवन-संघर्ष, सपनों और बौद्धिकता की दिलचस्प और विचारोत्तेजक कहानी कहने वाली किताब जब 1970 में पहली बार प्रकासित होते ही सर्वहारा वर्ग के इतिहास और विचारधारा की स्थापित समझ के लिए चुनौती बन गए। इस पुस्तक की अहमियत पर समय, स्थान और भाषा के फ़ासलों का कोई असर नहीं पड़ा है। ग़ैर जिंसी उत्पादन सूचना क्रान्ति और ग्लोबल बाज़ार के मौज़ूद ज़माने में भी फ़ांसिसी दार्शनिक ज़ाक राँसिएर की यह रचना प्रासंगिक बनी हुई है।

इसके पन्नों पर श्रमिक जीवन और अनुभव के जिन रूपों को पेश किया गया है वह भारत के संघर्षरत मज़दूरों के ज्य़ादा नज़दीक लगते हैं। जो अपने रोज़मर्रा के संस्मरणों को अपने सपनों में लेकर जीते और वक़्त की कालगुज़ारियों में कविता या कहानियों को गढ़ते। ज़हन में आने वाले ख़्यालों के रचनात्मक ढ़ंग को बनाकर सतह दर सतह जमा करते जातें। किताब ये दावा मोटे पैमाने पर करती है की जो किताब की रचनाओं में उभरता जीवन है वो हर एक शख़्स में मौज़ूद है, बसा हुआ है।
बस, जरूरत है तो खुद में तलाशने की। इतिहास दोहराने का ही नहीं रह गया बल्कि उसे वापस पुर्णस्थापित करके हम जीवन को आलोकिक बना सकते हैं। आज वही सब कुछ घट रहा है जिससे मिलते-जुलते हालात का सामना उन दस्तकार-मज़दूरों ने किया था जिनका ज़िक्र इस किताब में किया है।

उस समय 19वीं सदी का जो समाजिक माहौल रहा जो सामाजिक संर्धभ (ढ़ाचा) रहा वो क्या था और उसमें जीने की क्या-क्या सम्भावनाएँ रही। उस समय फ्रांसिसी मजदूरों में मोचियों, दर्ज़ियों, ताला-मिस्त्रियों कम्पोज़िटरों के यानी उस स्तर के हुनरबाजों की दुनिया रात के अंधेरों को अपने लफ़्जों, ख़्यालगोइयों, कविता और कहानियों से रोशन हो जाती।

उन रातों में जो रंग होता उसे वो अपने अन्दर लेकर जीतें। तब ये लोग अपने से टकराई गई स्थितियों और उनकी रचनात्मकता को चिट्ठियों मे उतार देते। उन चिठ्ठियों की में लिखी गई रचनाएँ समय की ख़ुर्दरी परतों को अपने कोमल और करूणा भरे अहसासों से भर देती।

जिसमें अपने शरीर के टकराव, माहौल, सम्भावनाएँ होती। जिनसे कविताएँ, कहानियाँ, किस्सा, सवाल, बहस अपना मज़ा और फलसफाएँ होते। जिसमें एक दुनिया देखती थी। जो काम के बारे में नहीं थी। किसी कानून या नियम को लेकर लड़ाई नहीं थी। न ही कोई समाजिक मुद्दा जिसके खिलाफ़ नारे या आदोलन हो। बल्कि वो दुनिया होती जिसमें वे अपनी सम्मपन्यता में जीने की इच्छा रखते। अलग-अलग कल्पना लेकर जीते हैं। जैसे वो लोग दिन के ऊजालों को छोड़कर अंधेरों में भी अपने मन की ज़्योती से अपना दायरा देखते।

उनकी अपनी बौद्धिक ज़िन्दगी का समाज उन्हे वो जगह नहीं देता था जो वो चाहते थे। क्योंकि समाज हमे जो पहचान या रूतबा बनाकर देता है हमे उसी में जीना होता है। यानी एक न्यूनतम दायरे में। इस तरह समाज हमारा कई विभाजनों में गठन कर देता है और इस गठन के तहत ही हम जीने को मजबूर हो जाते हैं। सब के साथ न चाहकर भी हमे रिश्तों- नातों, सिमाओ में सहमती में जीने की आदत डालनी पड़ती है। हम इससे कोई विद्रोह नहीं कर सकते न ही उन्होनें किया था।

किताब हमें जिस ज़मीन पर लाकर रखती है उसमें अपने जीवन को नया ढ़ंग से जीने और मानसिकता के संतुलन मिलते हैं जिसमें प्रकृति भी हमें वो जीवन के बीज़ देती है जीन से ज़िन्दगी के कुछ और बगीचें तैयार किये जा सकते हैं।

बिना किसी काम, संघर्ष या विद्रोह की भाषा बनायें हम जीवन को जी सकते हैं जैसे उन्होनें भी जीया। एक नया ज़ुबान जो वो लोगों के मुँह पे डाल गए। अपने पास आती चीज़ों को असहमति मे जीया जो जगह या अपने नैतिक अधिकार की चिन्ता किए बगैर उनसे असहमत होकर जीवन में कल्पना करके जीना चाहा। उस अदा में वो लोग रहते थे।

हमारी बातचीत जब ज़ाक राँसिएर से इस किताब में कि गई रचनाओं और मजदूर वर्ग को लेकर हो रही थी।उनका कहना था की मैने सोचा की 19वीं सदी को कैसे देखे जो आक्राईव है। देखना की उसमें क्या मिलेगा? जब वे आक्राईव मे गए तो मिला की उसमें लिखी चिठ्ठियों में कविताएँ, फलसफाएँ, सवाल, बहस, मज़ा है। जो किसी काम के बारे में नहीं है और इंसान के जीने की कसौटी पर वो आवाज़ है "हम हैं" की लड़ाई थी। तर्ज़ुबे और अपने विश्वास को साथ लेकर चलना जो उन लोगों ने अपने दम पर किया। बिना समाज के प्रोत्साहन के अपने अकेलेपन को रचनात्मक रूप से सोचा और उड़ान भरी कल्पनाएँ दी।

ये अनूभव हमने भी किया की जब हमारे बीच ये आया की हम अपने रचना खुद करते हैं। अपने लिए अपना शरीर खुद बनाते हैं जिसमें समाकर हम बौद्धिक जीवन की आशाओं को सींचते हैं। समाज हमारे शरीर को बहुविभाजनों रख देता है। इसलिये अपना दायरा देखना और समझना कठिन हो जाता है।

हमारे विचार बातचीत के माहौल को अलग-अलग दिशाओं के फाटक खुल रहे थे। जो किताब की रचना को सोचकर समझकर हमारे साथी अपने आसपास फलने वाले लोगों की दिनचर्या को लेकर किसी के अकेलेपन या एकांत में जीने वालो की दुनिया के बारे में अपना गहरा शौध रख रहे थे जिसमें देखने के फ्रेम नज़र आ रहे थे। हमारी बातचीत में कुछ बिन्दू उभरे।

हमारे साथी शमशेर अली ने कहा, "कोई है जो शरीर पाने या बनाने के लिए जद्दोजहद करता है पर दिखता नहीं है।लेकिन उस का होने का अंदेशा लगता है। वो क्या है उसे कैसे सोच सकते हैं। मेरे लिए शरीर क्या मायने हैं और वो कैसे मेरे जीवन में मायने रखता है?

राँसिएर ने कहा, "शरीर में जो आया या शरीर से जो टकराया वो बार-बार होता रहा उस रचना में एक प्रेक्टिस को रखना था। जो उन लोगों का प्रेक्टिस था। "मैं" को कैसे जगह में जीते है? "मैं" कैसे रहूँगा किसी जगह में, किसी का अपने होने की आवाज़ को रखना।"

समाज विभाज को पैदा कैसे करता है? इससे टकराकर शरीर का जीवन, अपनी कल्पनाओ को जीना। उद्देश्य, काम समाज में किसी अधिकार के संर्घष से प्रभावित न होकर एक जंग से असहमति की ज़ुबान बना कर जीना। "सर्वहारा रातों" में जो जीवन है उससे अपनी पहचान की एक अलग ही तस्वीर दिखती है। नज़रिये जो कई कल्पनाएँ हमे सर्मपित करते हैं।

स्टूडियों मे हुई बातचीत में लख्मी ने कहा, "वो जो मुझे चाहिए वो शरीर मेरे सामने हैं पर मैं अपने अन्दर उसे कैसे सोचूँ जिससे मैं अपने से दूसरों के बीच की दूरी को समझ सकूँ। जो मेरे ख़्यालों मे एक दुनिया का गठन करता है। जो मेरे सामने है उससे जो दूरी है वो हमारे बीच क्या रिश्ता बनाती है? हमारे स्टूडियों में एक साथी जिनका नाम महेश है। महेश जी हमे महीने में दो-तीन बार आकर अपनी कि गई रचनाएँ सूना जाते हैं। वो अपने घर, परिवार काम के बीच से जो जगह निकालते हैं उसी में ही हमारे लिए जगह बन जाती। वो शख़्स अपने साथ कौन सा शरीर लेकर आता है जिसके बारे में उनके जैसा ही कोई उस शरीर से रिश्ता समझा पाता है।

मैं कहता हूँ एक शरीर है जो समाज मे मिलता नहीं जिससे हटकर मुझे अपना शरीर बनाना है जो मेरी सम्मपन्यता हो। मैं इस जीवन की सम्मपन्यता से संतूष्ट नहीं हूँ तो मेरे शरीर की क्या, कैसी, कौनसी आज़ादी होगी? जिस समय मे मैं अपनी कल्पना करने लगता हूँ उससे एक आकार उभरता है मेरा आज़ादी उसी शरीर में है। उसी में मैं उड़ान भरता हूँ। बौद्धीक ज़िन्दगी सब जगह है मगर इस में जो खुद से बने ढ़ाँचे हैं। वो ही नया शब्द की नया ज़ुबान नया दायरों की समझ देते हैं। मजदूरों के हमने जो ठिकाने देखे हैं। वो घर काम सामजिक, संर्धभ के ढ़ाँचे के अलावा कुछ नहीं देखा पाते पर इस के बीच में वो दुनिया है जिसमें अपने शरीर को नये सिरे से ऊर्जा प्रात होती है। बौद्धिक ज़िन्दगी लिखना कला ही नहीं है। आप कुछ सोच रहे हैं या आपके पास कुछ हैं जो आप खुद की सच्चाई को लेकर आज़ादी है।

जिसमें अपने आप को बनाने का प्रक्रिया है जो अपने पास ही होता है। जो आपको अच्छा लगता है सूझता है वो ही लिखने की प्रक्रिया है। जीने की आज़ादी है। आप के पास अस्पष्ट कुछ है जो आप किसी दूसरे के पास ले जाते हो। ले जाने की प्रक्रिया ही यात्रा कहलाती हैं।




राकेश

Monday, February 23, 2009

तारों से भरी दुनिया या कल्पनाओं से भरी छत

हम धीरे-धीरे एक ऐसी दुनिया कि ओर बढ़ रहे हैं जो इतनी काल्पनिक है कि कभी-कभी हमें ख़्वाब में भी नज़र आती है जिसमें हम शहर, गली और हर जगह को किसी और ही रूप में देख लेते हैं और जी भी लेते हैं। कभी शहर को बर्फ़िला बना डालते हैं। कभी हर गाड़ी को चला रहे होते हैं। हर फ़िल्म में काम कर रहे होते हैं। हर रात चमकीली दुनिया में जीकर उसका लुत्फ़ उठा रहे होते हैं। इंडिया टीम को कई वर्ल्ड कप जिता चुके होते हैं। अपने घर के आगे अपनी गाड़ी पार्क कर रहे होते हैं। अपनी छत पर झूला डाले झूल रहे होते हैं। किसी कमरे में किन्ही अंजान लोगों के साथ रह रहे होते हैं। पंख लगाकर उड़ रहे होते हैं। वहाँ तक जहाँ हमारे लिये नो एन्ट्री होती है। रात में ऐसी जगह पर होते हैं जहाँ टाइम का पता नहीं चलता और हर तरह के गैम खेल रहे होते हैं। अंजान लोगों के साथ या हर रात सुहागरात मना रहे होते हैं। किसी का इंतजार कर रहे होते हैं। कहीं दूर खड़े हैं, फिर भी दोस्तों के बीच हैं। किसी महफ़िल के बादशाह बने होते हैं। किसी शो में हिस्सेदारी कर रहे होते हैं। किताबों में खोए होते हैं और कहीं किसी बेगाने की शादी मे नाच रहे होते हैं।

मगर, ये सब वही देखते हैं जिनका इन पलों के साथ किसी न किसी तरह की दूरी का रिश्ता होता है। हर रात हमारी मुट्ठी कि पकड़ इतनी मजबूत हो जाती है कि हम सूखी रेत को भी पकड़ लेते हैं और धीरे-धीरे उसे खुद छोड़ते रहते हैं। इस काल्पनिक दुनिया में न जाने हम कितने तरह के रंग अपने ही कमरे में भर जाते हैं बिना किसी हद या शर्तों के। कदम, नज़र, हाथ और दिमाग किसी नो एन्ट्री को नहीं मानता और कभी भी, किसी भी जगह पर जाकर अपनी बातों को इच्छाओं को पा लेता है। क्या हम इस दुनिया कि तरफ बढ़ रहे हैं? या फिर किसी ऐसी दुनिया कि ओर अपने कदम रख रहे हैं जो एक फ्रेम कि भाँति है जिसमें हर शख़्स अपनी आकृति को फिक्स किए चला जा रहा है? इतना फिक्स कि वो कई धारणाओं और उसकी संभावनाओं को भी बंद डिब्बो में डाल चुका है।

हर पैदा होने वाला जीवन, अपना पहनावा खुद चुनता है और किसी न किसी आकृति में कैद हो जाता है। क्या यही है आने वाली दुनिया? हर शख़्स अपने ज़हन में अपने शहर कि कल्पना किए जाता है अपने किसी टाइम को ही बता पाता है तो बाकि का समय क्या है? वो कौनसा वक़्त है जो अक्सर दोहराने में आता है? और जो दोहराने में नहीं आता वो कौनसा है? सपनों की भाँति और काल्पनिक अहसास की ज़ुबाँ से कुछ बोल निकलते हैं। मेरा एक साथी कभी-कभी कहता है, “साला रात तो अपनी है।"

रात के साथ में हमारा रिश्ता उन अहसासों के साथ सम्बंध रखता है जिसकी डोर हमारे खुद के हाथों में होती है। जिसे कभी हम किसी सितारवादन के तार की तरह से छूते हैं तो कभी उसे कहीं पहूँचने के लिए मजबूत रस्सी सा बना लेते हैं। एक लड़की जिसकी ज़ुबाँ पर ये बोल आने से उसके लिखे पन्ने पर आ गए थे। पन्नों के साथ उसका नाता कहकर चुप्पी साधना नहीं था वे शायद अपनी ही संभावनाओं को उन बोल को बी खींच लेता है जिसको बाहर आने से पहले कई चीज़ों को सोचना पड़ता है।

उसके पन्नों से,
मैं पहली बार घर के बाहर दर्ज़ी की दुकान पर जा रही थी। ये पता नहीं था की बाहर में लड़कियों के कपड़े सिलने वाले आदमी होते हैं। न चाहकर भी मुझे उस दर्ज़ी के पास दुकान पर जाना पड़ा। सब कुछ तो ठीक था। कैसा सिलवाना है? कितना बड़ा होगा? क्या रंग होगा? ये सब उन दर्ज़ी की बातों में तय हो चुका था। बातों ही बातों में उन्होनें मेरे शरीर को आकार और रूप दोनों दे दिए थे। मुझपर वो सूट कैसा लगेगा और मैं उस सूट में कैसी दिखुगीं?

वो तारीफ़ पर तारीफ़ कर मुझे अपनी बातों में इतना लुभा दिए थे कि मैं अपने ही शरीर की कल्पना करके, खुद को बेहद खूबसूरत समझने लगी थी।

अपनी इन्चीटेप लेकर वो मेरे आगे खड़े हो गए और माप लेने को कहने लगे। अपने आपको एक झिझक के साथ में बाँधा था अभी तक मैंने पर क्या करती दिमाग में यही था की "एक दर्ज़ी ही तो है।" ये कहकर मैंने उसे- अपने आपको सोंप दिया। उसने पहले टाँगों की लम्बाई ली। फिर कमर में उसने अपने दोनों हाथ घुमाएँ और एक इन्च की दूरी पर अपना हाथ रखकर माप ले लिया। धीरे-धीरे वो मेरी कमीज़ की लम्बाई लेते-लेते मेरे सीने तक आ चुके थे।
बस, एक ही बात दिमाग में घूम रही थी की ये हो क्या रहा है?, कुछ पल के लिए तो ये दुनिया ऐसी लगी जैसे जीने के लायक इसमे बहुत कुछ सिमटा हुआ है जिसमें किसी भी किस्म की बन्दिश नहीं है। वो कुछ बी नहीं है जो मुझे मेरे ही बनाये कोनों में अकेला छोड़ देता है। छोटा सी ये घटना लेकिन इसमें घुस जाना मेरे उस एकांत से वास्ता रखता था जो कि कहीं मरता नहीं है। मुझे खुद में और मैं उसे खुद में खींच लेती हूँ। अब तक तो मेरा एकान्त, मेरा अकेला आईना, मेरी अपलमारी जिसमें मेरे कपड़ों को कोई नहीं छू या देख सकता था। जिन्हें मेरी अम्मी छत पर धोने के बाद में छोटे कपड़ों को बड़े कपड़ों के नीचे डाल देती थी। उन्हे दबा देती या फिर छुपा देती। उनका ये रवैया भी मेरे लिए न जाने कितने ऐसे सवाल खड़ा कर देता जिन्हें मैं चाहकर भी सुलझा नहीं सकती थी। ये कोई अभी के बनाये तरीके नहीं थे, ये तो जैसे चैन की तरह से हमारे रवैयों को बना रहे थे। एक बड़ा होता तो छोटे को बनाता, इतने छोटा बड़े होने की तैयारी करता, और साथ-साथ बड़ा भी होता। ये चैनसिस्टम था।

वो इन्चीटेप को मेरी पीठ से लेते हुए सीने की तरफ में लाए और जैसे ही उन्होनें सीने के बीचोंबीच साइज़ देखने के लिए इन्चीटेप और अपने हाथ घूमाए तो एक समय जैसे ठहर सा गया। ये क्या हुआ जहन में वो भी समझ नहीं आया था। मन में उनको लेकर बहुत सी बातें कौंध गई, वहाँ खड़ी मैं बस, ये सोचने लगी की इस नाप को लेने के और भी तो तरीके हो सकते थे। ये अंदाज़ा भी तो लगा सकते थे। ये साइज़ तो पीठ की तरफ से भी ले सकते थे। मगर इन्होनें ये नहीं किया शायद इसलिए कि साइज़ ये ही देख पाते। मैं भी तो पहली बार ही अपना साइज़ देख रही थी।
वो माप का पहला दौर था जिसमें मेरे दायरों को बड़ा कर दिया था। पहले तो मुझे लगा की कहीं ये इसलिए तो नहीं है कि वे एक आदमी था जो मेरा नाप ले रहा था, कहीं इसलिए तो नहीं है कि मैं पहली बार अपना नाप देने खुद आई थी, कहीं इसलिए तो नहीं है मैं कुछ ज़्यादा ही सोच रही थी।

मेरी ये अन्दाजन दुनिया जो खुलने को तैयार थी, खुले आसमां की तरह से कहीं जाने को बेकरार थी। ऐसा लग रहा था कि जैसे यहाँ, मेरे समीप और मेरे अंदर बना सबसे पहला कमरा, कोई रहने के लिए नहीं था। खाली सिर छूपाने का और न ही कुछ ऐसा था कि जिसे आसरा मिल गया हो फिर भी हम अपने को छुपाने के लिए कोई न कोई ठिकाना जरूर ढूँढते हैं। यहाँ उस जगह को तलाशने कि ज़रूरत नहीं लगती थी। इस वक़्त को जीने के बाद में जैसे मेरे घर की हर दीवार खुली सी लग रही थी। वो सब कुछ खुला था जिसके आगे लगे दरवाज़ों पर मैं हमेशा खड़ी रहती थी। वे सभी कमरे और कोनों जिनमें मैं जाना-आना करती थी। वे सभी किनारे जहाँ पर मैं खुद छुपती थी। वे भी खुल गए थे। अब तो खुला गुसलखाना, खुला सोने का कमरा, खुली खाने बनाने वाली जगह जिसमे नज़रे बिना इज़ाजत अंदर चली जाती है और आपको छूकर वापस दौड़ आती।

लख्मी

Saturday, February 21, 2009

वो संज्ञा, जो किसी के लिए उदाहरण बन जाती है

क्या हम एक-दूसरे की तरफ धकल रहे हैं? शहर या हमारे आसपास मे ऐसी कौन सी शख़्सियत है जिसकी तरफ हम बढ़ रहे हैं? अगर मैं इस सवाल को कुछ ऐसे पूछूँ की, हम जिस रिदम मे' खुद को बना रहे हैं। अपनी कल्पना को, बौद्दिक रूप को या अपने आसपास को तो क्या हम ये अपने स्वंय के अकेले रूप को बना रहे हैं या हमारे आसपास में ऐसा कोई है जिसके जीवन मे ये सभी संभावनाएँ पहले ही खेल चुकी हैं? हम जिस माहौल में सांस लेते हैं उस माहौल में हम कई लोग ऐसे चुन लेते हैं जिसका जीवन और शैली को हम चाहते हैं। मगर सवाल यह है कि जिसकी शैली को हम चाहते हैं जिनके नक्शे कदमों पर अपना कुछ बनाना चाहते हैं जिसका पीछा करने के लिए अपना जीवन बनाते हैं। मरने के बाद हमें कोई कैसे याद करेगा, यह सोच समाज में क्या मायने रखती है?

पिछले दिनों मेरी एक शख़्स से मुलाकात हुई। वे चालीस साल के हैं। लिखने के शौकिन है। लेकिन ये शौक खाली लिखकर रख लेने के जैसा नहीं है। वे खिलता है और उनसे माँग करता है किसी ऐसे पाठक को या सुनने वाले को खोजने की जिसमे ये बीते हुए किसी वक़्त की छाप देख सकें। इसी धून मे इन्होनें कई ऐसे माहौल रचे हैं जिनमे कई पाठकों के रूप मे इनको सुनने वाले मिले हैं लेकिन ये सुनने वाले एक पल-दो पल के हमसफ़र बने। किसी महफिल मे जैसे सुना और माहौल तक ही सीमित रह गया। ये महफ़िलें असल में किसी स्टेज़ शो की ही भांति रही। एक माहौल बना और वापस अपने-अपने घरों में लौट गया। हाँ भले ही यहाँ से एक ऐसी पहचान का जन्म हुआ जो किसी चीज़ से बंधी नहीं थी। लेकिन इन माहौलों का हर रोज़ की ज़िंदगी से और नये रिश्तों से क्या मेल था?

महेश जी बत्रा अस्पताल मे काम करते हैं। गीत गाने का बहुत शौक रहा है इनको। साथ ही साथ अपने सहयोगियों के संग मे रहकर कुछ लिखने का भी। इसमे इनकी कोशिश रही है कि हम जैसा भी जीवन जी रहे हैं उसमे किस का नाम शामिल है? वो जिसने पैदा किया?, वो जिसने जीवन दिया? या वो जिसके साथ जीने का फैसला और वादा किया?

वे पिछले दिनों जब मेरे पास अपना कुछ सुनाने के लिए आते तो शरीर मे एक ख़ास ही तरह की बैचेनी होती। हाथ जैसे काँपते रहते, बार-बार अपनी कमीज की जैब से कोई तह लगे हुए पन्ने को निकालते तो कभी वापस रख लेते। उनके मुख पर हमेशा मुस्कुराहट रहती। वे जो सुनाने आए हैं उसे सुनाये या न सुनाये के वियोग मे रहते। जब तक मैं खुद नहीं कह देता की "महेश जी और सुनाइए क्या लिखा है आजकल में?" तब जाकर उनका वही पन्ना दोबारा से निकलता और सुनाने से पहले ही उसे आधा-अधूरा कहकर नवाज़ देते। उनकी कमीज की जैब मे न जाने कितने ही पन्ने मुड़े पड़े रहते। किसी पर किसी का पता, नाम, टेलीफोन नम्बर तो उन्ही मे लिपटा हुआ एक पन्ना निकलता जिसपर कोई गीत लिखा होता।

तब कहीं जाकर वे सुनाने के लिए तैयार होते। अपना गीत सुनाने के बाद मे वे उस गीत से जुड़ी न जाने कितनी ही बातें बताना शुरू कर देते। कभी लिखते वक़्त क्या माहौल था या लिखते वक़्त क्या सोच दिमाग मे चल रही थी। जो लिख नहीं पाये वे क्या रहा और क्या लिख गए वे। सब कुछ उनकी ज़ुबान पर धरा रहता। कभी-कभी अपनी बातों मे वे अपने घर और परिवार के बारे मे बोलना शुरू करते तो मेरे पास बोलने के लिए कुछ नहीं होता था। अपने घर मे चलती जरूरतों को वे हटाकर तो लिखने की दुनिया मे दाखिल होते थे। इस दाखिल होने मे उन्हे कई चीज़ों से बहस करनी होती थी तो कभी-कभी जानबूझ कर गैरजिम्मेदार बनना होता था। वे अपनी संगनी और संगत के बारे हमेशा बड़े प्यार से बताते हैं। उसमे जैसे उनको जीने के लिए बहुत सांसे मिलती हो। उसी संगत को लेखन मे भरने की चेष्टा उनमे भरी दिखती थी। बिना रूके और बिना डर के वे उस संगत को बताते। जैसे सब कुछ खुला हुआ है दुनिया मे। वापस जाने की जरूरत नहीं है। जो बीत गया वे लौटेगा जरूर पर कैसे वो उनको खुद से बनाना है। इसी धून मे वे कभी इधर तो कभी उधर चले आते। बदरपूर मे रहते हैं वे लेकिन कैसे एक गीत पूरा हो जाने के बाद मे यहाँ दक्षिणपुरी मे साइकिल पर चले आते। काम से छुट्टी होते ही वे अपनी साइकिल पर अपने काम की वर्दी मे ही चले आते। इससे उनके लिखने से ज़्यादा उनके सुनाने की तड़प पर ज़्यादा नौछावर होने को दिल करता।

उनके साथ मुलाकात करने के बाद कई चीज़ें जैसे हमारे बीच मे खुली छूट जाती। उनका सुनाना, यहाँ इतनी दूर से किसी पाठक के खोज करते हुए आना। ये तो मूल्य रखता ही था लेकिन इससे भी ज़्यादा जैसे हमारे बीच मे कुछ और चल रहा था। जिसे अभी तक हम छू नहीं पाये थे। मैं इस समय हमारे दरमियाँ कुछ दूरी देखने की कोशिश कर रहा हूँ। जो हमें एक-दूसरे की तरफ मे धकेल देता है। ये धकेलना ये नहीं था कि यही हमारा आने वाला कल था। बल्कि ये ऐसी लकीर थी जो बड़ती घर व कुछ जिम्मेदारियों के चलते उनके जीवन मे खिंच गई थी। वे उस लकीर को मिटाने बैठे थे और मैं उस लकीर को ये समझ कर डर रहा था कि ये अपने आप खिंचती है शायद मेरे साथ भी खिंचेगी। ये लकीर हमारे लिए कोई सरहद नहीं थी और न ही ये इतनी बूरी थी कि ये हमें जला देगी अगर हम बाहर गए तो। ये तो वे परत थी जो बिना देखे ही हमारे साथ हमेशा चलती रहती है। समाजिक दुनिया मे इसे सैद्धांतिक जीवन कहते हैं। जो हम बनाते नहीं है बल्कि बना-बनाया मिलता है बस, बर्कारार रखने की मुहीम मे हम अमादा रहते हैं।

वे जब भी अपनी संगत के बारे मे बड़ी सहजता से और प्यार से बताते तो मैं हमेशा उन्हे उन सभी चित्रों को लिखने की कहता। और कोशिश करता था कि वे उन चित्रों को उतने ही प्यार से लिखे भी। जितना की उन्हे उनमे सांसे मिलती हैं वैसे ही वे उसको जीवित रखें। मैं हमेशा उन्हे ये दुनिया लिखने का न्यौता देता। वो मुझे दुनिया बताते तो मैं उसे बाँटने की कहता। यही जोरा-जोरी हमारे बीच मे चलती रहती। मगर कभी-कभी वे कुछ ऐसी बातें मेरे सम्मुख रख देते जिनसे पार पाना मेरे लिए मुश्किल होता। वे कहते, "कभी था वक़्त हमपर कि हम बिना किसी चीज़ सोचे ही न जाने कितने शब्दों को उतार लेते थे। कोई टेंशन नहीं होती थी। जब देखों, जहाँ गए वहाँ के बारे मे खूब गीत लिखा करते थे। अब तो मन मे बहुत सारी चीज़ें घूमती है लेकिन जैसे ही घर वापस आते हैं तो फैमिली के चेहरों मे इतनी जिम्मेदारियाँ नज़र आती हैं कि कुछ भी करने को इच्छा नहीं होती। काम पर होते हैं तो सोचते हैं कि घर मे खाना खाने के बाद मे आराम से लिखेगें। मगर यहाँ आने के बाद मे तो जैसे सब कुछ मिटता हुआ नज़र आने लगता है। कभी बच्चों में, कभी बीवी मे, कभी रिश्तेदारी में तो कभी घर की सौदेबाज़ी मे सारा दिमाग चला जाता है।"

वे अपने घर और काम के साथ हुए समझौते को बयाँ करने की कोशिश करते हैं। साथ ही साथ अपने बौद्धियाना जीवन की कसक को कभी भूल न जाए उसी चाहत मे रहते हैं। उनके साथ मुलाकात मे यही खींचातानी चलती है। वे जब कहते हैं, "घर की जिम्मेदारी और काम की टेंशन आदमी पर नहीं होती तो वे उड़ सकता है। ये काम तो जैसे उड़ने ही नहीं देता। आपसे मिलकर हमें तो जैसे आसमान नज़र आता है।"

ऐसा लगता है जैसे उनके जीवन मे किसी ऐसी चीज़ को पकड़ने की इच्छा रहती है जो काम और रिश्तों के आसमान में किसी कटी पंतग की तरह से उड़ रही है। इनकी ज़ुबा मे बस, वे आशाओ की पतंग अभी जमीन पर नहीं गिरी। ये रिश्तों व काम से लदा आसमान रात होते ही घर के चेहरों को वहाँ गड़े तारों मे दिखाता है। जो कभी-कभी जरूरतों के बादल बनकर बरस पड़ते हैं। जैसे-जैसे अंधेरा गहरा होता जाता है वैसे-वैसे ये अपने चेहरों मे जिम्मेदारियों की चमक भर लेते हैं। तब तो जैसे कुछ भी नहीं दिखता। वे आशाओं भरी पतंग भी जैसे छुप जाती है। उनके लिए उनकी कटी पतंग को पकड़ना कोई मुश्किल काम नहीं है। तभी तो यहाँ बातों के पुल बनाने की चाहत लिए माहौल रच लेते हैं। हम दोनों के बीच मे हम दोनों के जीवन एक-दूसरे के लिए उदाहरण बनकर चलते हैं। एक जीवन को महेश जी अपने रोज़मर्रा मे बैठाने की कोशिश करते हैं तो दूसरा मैं उनके जीवन की लकींरों को खुद मे महसूस होने की कग़ार पर चलता हूँ। एक बेहद महीम सी रेखाएँ हमारे दरमियाँ चलने लगती हैं। हम उस मुलाकात को कैसे अपने से दूर या अपने मे डाल सकते हैं जहाँ पर दोनों एक-दूसरे के लिए उदाहरण बने हुए हैं।

महेश जी, बीते हुए दिनों की छवियाँ मुझमे देखने की कोशिश करते हैं और मैं उनके आज में अपने को डलता हुआ देखता हूँ। हाँ भले ही ये मेरे लिए बेफिज़ूल की सोच भरने के समान होगा लेकिन महेश जी की मुलाकात मे यही सवाल उभरता है। जहाँ मेरे लिए वे एक ऐसे सवाल की भांति दिखते हैं जो कलाओ या बौद्धियाना जीवन के चित्र बनने की ताकत रखते हैं। लेखन या अपनी दुनिया रचने की तमाम चाहते किसी ऐसे ब्लैकहॉल की तरफ़ मे दौड़े जा रही हैं जो हमने खुद से बनाया है। ये गलत भी हो सकता है। लेकिन कई बौद्धियाना महक इस दुनिया की पड़ोसन बनी हैं। आज जो महेश जी बना पाए हैं वे उनका खुद का रचा गया जीवन है। उन्ही रिश्तों-नातों, घर व जिम्मेदारियों के बीच मे रहकर तैयार हुआ है। खुद के साथ हमेशा खुद को तराशने की कोशिश और नये आयामों के साथ मे माहौल रचने की चाहत ही हम दोनों के बीच की दूरी को मार देती है।

ये मुलाकातें उनके साथ मे मेरे को आने वाले कल के लिए तैयार करती और महेश जी के लिए शायद बीते हुए उस वक़्त को पकड़ने की उंमग भरती जो आज भी आसमान मे तैर रहा है। अभी जीवित है, तभी तो उड़ान मे है। बस, खाली किसी पाठक और ऐसे चेहरे की तलाश मे है जिसमे खुद के स्वरूप को देखने की चाहत पलती है।

लख्मी

मन में बहते लोग...

हम बहुत सी कहानियों के बीच में रहते हैं। बल्कि रहते आ रहे हैं। कई कहानियों में तो हमें ये तक नहीं मालूम होता है कि जिस कहानी में हम घूम रहे हैं उसमे हम कितने ऐसे लोगों से मिल रहे हैं जिनकी तस्वीर भी हमने आजतक नहीं देखी।

हमारे बीच में कई ऐसी शख़्सियतें घूम रही हैं जो महज़ कहानियों में बसती हैं। खिलती है, जज़्बा दिखाती हैं, नई दुनिया दिखाती हैं और फिर शब्द ख़त्म हो जाने के बाद में कहीं गायब हो जाती हैं। ये वे शख़्सियते हैं जिनको हर शख़्स जैसे अपने अन्दर ही लेकर चलता है। जिससे वे कभी खुद को बतलाता है तो कभी किसी ऐसे दृश्य को बयाँ करने की कोशिश करता है जिसे वे कब का अपनी कल्पना में कर गया है।

कहाँ हैं वे लोग? और कौन है वे लोग? ये सवाल सब एक वक़्त को उठते तो हैं लेकिन कुछ ही देर के बाद में पूछने के लायक नहीं रहते। मेरे होने से पहले की कुछ कहानियाँ, मेरे बाद में अपनी जगह बनाती हैं।

मैंने सुनी है कई ऐसी कहानियाँ जो महज़ उदाहरणों के लिए सुनाई गई हैं। जिसमें आते लोगों से मैं कभी नहीं मिला। अपने घर में और बाहर कई लोगों की ज़ुबान से कई ऐसे शख़्सों के बारे में सुना है जिनको आज के वक़्त में जब खोजने निकलता हूँ तो वो मुझे कहीं नहीं दिखते। ऐसे ही लोगों से ये दुनिया भरी हुई है। जो सुनाने वाला शख़्स खुद से तैयार करता है और पिछले वक़्त या उस शख़्सियत को बताने की कोशिश करता है जो वो खुद में कभी जी नहीं पाया था। मुझे ऐसा लगता है। हमारे इर्द-गिर्द लोग कई ऐसी शख़्सियतों से भरे हुए हैं।

माँगे लाल जी सुनाते हैं, "भईया, होली से दस या बारह दिन पहले ही हमारे यहाँ गलियों में खूब लोग आया करते। कहीं अलग ही जगह के हुआ करते थे वे। हम तो उन्हे जानते भी नहीं थे और न ही हमारे यहाँ का कोई उनसे परिचित हुआ करता। लेकिन उसके बावज़ूद भी सारे बड़े बुर्ज़ुग उनकी तरफ दौड़ पड़ते। उनके हर काम में अपना हाथ जरूर बँटवाते। वे घर-घर जाकर सभी के घर और परिवार के बारे में बताया करते और घर के किसी बीमार या सबसे प्यारे आदमी या फिर बच्चे का नाम पुकारते और फिर एक गीत चालू करते। सभी उसे सुनने के लिए खूब आया करते। गली-गली भीड़ लग जाया करती। हमें तो इत्ता पता है कि वे हमारे यहाँ के नहीं होते। खूब लम्बे-चौड़े और हाथों में लम्बे-लम्बे डंडे लेकर वे घूमते। पूरा एक महीना वे अपने को हर घर मे घूमा लेते और आखिर में एक लीला करते उसके बाद में सब ख़त्म। वे आदमी-आदमी ही हुआ करते थे। सबके सब शादिशुदा होते लेकिन बाल-बच्चों को पता नहीं कहाँ छोड़कर आते थे। एक ही महीने मे वे आदमी सबके दिल से लग जाते। हर कोई उनके मुँह में घर के सबसे प्यारे आदमी का नाम लिवाकर गीत गवाते और खुश होते। एक महीना जैसे सभी सारे सब कुछ भूल जाते हो। उसके बाद में वो गायब हो जाते और साल भर के लिए जैसे सब ख़त्म हो जाता।"

ये लोग या मंडली कहाँ है? या ये है भी या नहीं? इन सवालों को सोचना इस कहानी के मुँहजोरी करने के समान होगा। लेकिन जो बन्दे इस कहानी के जरिये निकल आए उन्हे कहाँ देखें? कभी-कभी हमें कुछ ऐसे लोग मिल जाते हैं जिनमे हम खुद को देखने लगते हैं और उस शख़्सियत से प्रभावित होकर एक कहानी बनाने लगते हैं। एक ऐसी कहानी जिसका अंत और शुरूआत हमारी इच्छाओं से बनी होती है। जिसमें हम खुद ही झूम रहे होते हैं। दोहराने में मज़ा और अपने पाठकों के साथ में ऐसे रूप को बाँटने की तमन्ना होती है जो अपने अस्तित्व के होने की माँग नहीं रखता। असल में हम अस्तित्व को इतना कठोर बना दिये हैं कि उसमें अपनी मनगढंत कहानियों अथवा उन शख़्सियतों के लिए जगह बची ही नहीं है जो हवा में बनती हैं लेकिन जमीन से जुड़ी होती है। इन कहानियों के जरिये असल में कहने वाला किसी चेहरे को या जीवन को नहीं बल्कि खुद को ही रच रहा होता है। उस गैर शरीर उसका गठन और उसकी दिनचर्या में आने वाला हर एक दृश्य सुनाने वाले की कल्पना से रचा होता है। ये जीवन है या कह सकते हैं जीवन रचने का तरीका।

एक शख़्स बेहद याद आ रहे हैं। वे मुझे आज से छ: साल पहले मिले थे। उस समय मैं एक एसटीडी की दुकान पर बैठता था। वहाँ पर वे रोज आते थे। फोन करने को नहीं बल्कि बतियाने के लिए। न जाने कितनी बातें भरी थी उनमे। हर रोज़ कुछ न कुछ बात लिए वे दौड़े चले आते थे। साथ-साथ हाथ में कुछ न कुछ जरूर होता था। कभी उनके हाथ मे कोई फोटो एलबम होती तो कभी किसी का राशन कार्ड तो कभी कपड़े की थैली तो कभी किसी चीज़ की रसीद। वे आते और टीवी ने कुछ देखते ही शुरू हो जाते।

जैसे आखिरी बार जब मिले थे तो कह रहे थे, "मैं अभी पिछले दिनों एक डिस्को गया था। दरअसल मेरी एक बहुत ही करीबी दोस्त का जन्मदिन था तो मैं उसके लिए कुछ तोहफा तलाश रहा था। मिला ही नहीं कहीं तो मैं एक डिस्कों मे घुस गया। वहाँ गुप अंधेरा था। लेकिन शौर बहुत था। लोग नज़र नहीं आ रहे थे। बस, डिस्को लाइट ही कभी-कभी वहाँ नाचते हुए लोगों को दिखा जाती रही। जहाँ पर बार बना हुआ था वहाँ पर रोशनी थोड़ी ठीक तरह से पड़ रही थी और वहीं पर कुछ फूल रखें हुए भी नज़र आ रहे थे। तो मैं थोड़ा स्टाइल बनाके चलने लगा। बनाना पड़ता है, नहीं तो सबको लग जायेगा कि ये यहाँ पर पहली बार आया है और गलती से घुसा है। तो मैंने जॉकिट के आगे की चैन खोली, हाथों को मस्त जैब में डाला और स्टाइल से गया। बोला, 'वन ग्लास बीयर प्लीज़' वो मेरी तरफ देखते हुए बीयर बनाने लगा। मैंने तभी वहाँ से एक गुलाब का फूल निकाल लिया था। मगर फिर सोचा जब यहाँ आ ही गया हूँ तो क्यों न थोड़ी देर रुका जाए। नाइट लाइफ के मज़े लूटे जाए। मैं वहीं अंधेरे में कुछ ढूँढता हुआ वहाँ रखे एक सोफे पर बैठ गया। उसके बाद तो तुम यकीन नहीं मानोगे भाई, मेरे साथ क्या हुआ? उसी सोफे पर मेरे साथ में दो कपल बैठे थे। एक-दूजे मे खोये हुए। पहले तो मेरे मन मे आया की मैं वहाँ से उठ जाऊँ लेकिन फिर मन में कहा की क्यों हटूँ। मैं वहाँ पर बैठा रहा। इत्ते में कोई मेरे बगल में बैठा मुझे ऐसा लगा। उसके बगल मे बैठते ही मुझे सैन्ट की भरपूर खूशबू आने लगी थी। थोड़ी देर के बाद में वो मेरी तरफ मे गिरने लगा। उस गुप अंधेरे में मुझे ये तक नहीं मालुम हुआ था की आखिर में मेरे बगल मे बैठा कौन है? ये एक लड़की थी। जिसमे भाई बहुत ज़्यादा पी रखी थी। वो मेरे ऊपर गिर चुकी थी। मैंने कैसे न कैसे उसे वहाँ से हटाया। मुझे लगा की कहीं ये मुझे अपना बॉयफ्रैंड समझकर न गिरी हो और इसके उस बन्दे ने मुझे देख लिया तो बेटा बहुत मार पड़ेगी। मैंने उसे वहाँ से हटा दिया। लेकिन वो तो अब मेरे पैरों में गिर गई थी। धीरे-धीरे मैंने उसे खड़ा किया और वो कहीं बेहोश न हो जाए इसलिये मैं उसके लिए सोफ्ट सोड़ा ले आया। उसमे थोड़ा नींबू मिलाकर। भाई उसे पीकर वो ठीक हुई। फिर तो वो मुझसे बेहद खुश हो गई। डांस के प्लॉर पर ले जाकर बोली, 'मेरे साथ डांस करो न प्लीज़' तेरा भाई तो जैसे चाह ही यही रहा था। डांस करने के लिए कितनी शादियों मे अब्दुल्ला की तरह दिवाना हुआ था। लेकिन मौका कहाँ मिल रहा था। और जब मैंने अपना डांस दिखाया तो भाई वहाँ सारे बन्दे मुझे ही देखने लगे। डीजे प्लॉर वाला तो मुझसे पूछकर गाना लगा रहा था। वहाँ सब दिवाने हो गए थे। लड़कियाँ मेरी तरफ मे डांस करने के लिए भागी आ रही थी। भाई तुम होते तो देखते। क्या मस्त और रंगीन माहौल बनाया था मैंने। सभी मुझपर दिवाने हो गए थे। वो लड़की तो पता नहीं कहाँ छूट गई थी लेकिन मुझे डांस करने मे मज़ा आ रहा था। अब तो मैं वहाँ पर कभी भी चला जाता हूँ। वहाँ का डीजे और बार वाला तो मुझे खुद बुलाते हैं।"

दुकान में जितने भी जने बैठे होते वे सब उसकी बातों में वे तलाशने की कोशिश करते जो उन्हे सच लगता। मगर कुछ ऐसे भी होते जिन्हे सच और सच्चाई से कुछ लेना देना नहीं होता। वे तो खाली उस दुनिया को सच मानते जो उन्हे उस छोटी सी कहानी में या उस शख़्स के मुँह से सुनाई देती। उससे ज़्यादा मज़े तो वे लोग लूटते जो कहानी के साथ उस बन्दे का डांस भी देखते। उनमे भी तो किसी चीज़ को दिखाने के लिए इसी कहानी की रचना की थी। वे जब 'डांस कर रहा था' ऐसा कहते तो साथ-साथ डांस भी करते। दुकान में दो-चार स्टेप मारकर वे ये साबित करते कि डांस वहाँ पर कैसा किया जो माहौल बना। लोग इनकी तरफ में खींचे। उनकी बातों को सुनकर कोई आश्चर्य नहीं होता था। वे थे ही ऐसे की जो चीज या हुनर आज दिखाना है उसको यूहीं नहीं बताना चाहते थे, वे उसको बताने के लिए कोई न कोई ऐसी कहानी का जन्म करते जो किसी ने पहले कभी किसी ने सुनी न हो। बस, लोग कुछ सीनों से ये साबित करते कि ये किस फ़िल्म का सीन है। लेकिन जो भी हो ऐसी कहानियाँ हर रोज़ पैदा होती और सुनाई भी जाती।

इन कहानियों में नज़र आते क़िरदार कहीं हो या न हो, लेकिन यहाँ ज़िन्दा हैं। कोई खुद को बताने के लिए कहानी बनाता तो कोई किसी न किसी वक़्त को मूल्य अथवा महत्वपूर्ण बनाने के लिए कहानी का जन्म करता। इन सभी में जीने की भरपूर संभावनाएँ दिखती। तरीके नज़र आते, ये दो ही लोग नहीं है जो शहर में निकले हैं कहानियाँ बनाने को या रचने को। ये शहर या दुनिया भरी हुई है ऐसे कंहकारो से, पाठक की तलाश में। कहानियों में नज़र आते लोगों से दुनिया बेहद रंगीन नज़र आती है। ऐसा लगता है जैसे काम और रिश्तेदारों की पँहुच से दूर की दुनिया है। कहानियों का जन्म और किसी क़िरदार का जन्म क्यों करते हैं लोग? और ये लोग कहाँ हैं? फिर से वही सवाल उभर आता है। इन अनेकों शख़्सियतों के बीच में मैंने खुद को देखने की कोशिश की है। कहीं तो मैं इन शख़्सियतों से मिल जाता हूँ तो कभी ये तलाश बनकर ही रह जाती है। क़िरदार तो चले गए लेकिन कितनी ही ज़ुबानों पर अपनी कहानियाँ रख गए। शायद हम भी ऐसे ही क़िरदारों में शामिल होने जा रहे हैं।

लख्मी

Thursday, February 19, 2009

कुछ तस्वीर तो हैं

इन दिनों जीवन के बदलते दौर में
ज़िन्दगी की रफ्तार बहुत तेज हैं।
इसमे कभी तो लगता है कि ज़िन्दगी कहीं ठहर गई है,
और कभी खुद से मुलाकात ही नहीं होती है।
इस आम-ए-हाल में फूल नहीं तो क्या गम हैं,
इस चुंबन के बीच भी कुछ बातें नम हैं।

इस शहर-ए-फिज़ाओं में फूल नही तो क्या हुंआ,
पल पल कहानियों की सेज तो है।
मैं नहीं तेरे सामने तो क्या हुंआ,
जो तुझे समर्पित की, वो भेंट तो है।

भूत,वर्तमान,भविष्य की क्यों चिंता करे,
तेरे ही हाथों में तेरी तकदीर तो है।
कस ले मुट्ठी और चलाचल राही मेले में,
कहीं तो झुकेगा आसमाँ ये आवाज़ तेरे सीने में तो है।

अतीत कोई परछाई नही,
अतीत की अनंत परछाई है।
जो विचरण करती है हक़ीकत के मंज़र में,
वो खुद से जूंझ कर जीती है,
और बनाती है कल्पनाओं की रहनुमा ज़िन्दगी,
उन ज़िन्दगियो की तेरे पास कुछ तस्वीर तो है।
जो शरीर तूझे चाहिए,
वो शरीर तेरे नजदीक तो है।

वक्त वक्त से टकराता है,
वक्त को धकेलने की अदा तो तुझ पे है।
मोड़ कर रख दें इन लोहें की सलाखों को,
चट्टानों को पिघलाने की कला तो तुझ पे है।
बना दे वो समां कि तेरी परछाई जहां पड़े महफिलें जाग उठे।
वक्त की करवटों मे सोए भूत के अक्स को ले आ बाहर,
तेरे ज़िंदा ख़्यालो से रूबरू होनें के लिए,
सब तेरे अपने तो हैं।

शहर की गली,कूचों,रास्तों और आशियानों मे,
कोई अंनजान शख्स सपने सजा रहा है।
ज़रा देख वापस तेरी आँखों मे उन सपनों की चमक बाकी है।
उसने ज़मीं को स्वर्ग बनाने की शपथ ली है,
जो स्वर्ग है वो स्वर्ग आजादी है वो स्वर्ग आशियाना है।
वो स्वर्ग पालन पोषण है वो स्वर्ग ख्वाईश है वो स्वर्ग तेरा अपना स्वयं में हैं।


करदे वो उजाला की जुगनुओं की रोशनी फीकी पड़ जाये,
अंधेरो को छुपने के लिये ठिकाना न मिले,
करदे शूरू दुनियाओं का गठन करना,
इस जंगल मे नज़रों से बचना मुमकिन नहीं तो क्या हुंआ,
नज़रो से टकराने की ज़ुबां तो तुझ पर है।

जीवन की इच्छाएं जंगल में भटकती हैं,
अनंत बहुरूपिया शख्सों के बीच में,
जीने की वजह बनाने की कतार मे तू तो है।
जंगल के शिकंजों मे फंसे है तो क्या हुंआ,
फंदो के आसपास बगीचा बनाने की जिद तुझ पे है।
इंसानों मे इंसान बनकर जीनें की इबादद तो तुझ पे है।

राकेश

Saturday, February 14, 2009

सांप मरा हुआ था

कल सुबह जो हुआ उस घटना का किस्सा मेरे ज़हन में ताज़ा था। क्योंकि वो किस्सा सब को बेहद पसंद आया था।


सांप मरा हुआ था, धीरे-धीरे जब हम उसे छूने की कोशिश कर रहे थे।

जंगल में जानवरों की आवाज़ों के अलावा कुछ सुनाई नहीं दे रहा था। पूरी पहाड़ी में जमीन के बीस से पच्चीस फिट नीचे बने गहरे कुँए में खड़ा होना मुश्किल हो रहा था। कुँआ सूखा था जिसमें बड़े-बड़े पत्थर पड़े हुए थे और उन पत्थरों के ऊपर साइकिल थी जो दिखने में नई सी लग रही थी। हम उस दिन को कभी नहीं भूला सकें। जो हम पर कहर बनके छाया था।

मैं और मेरे चार साथी। ललीत, लख्मी, अनीश, बिट्टू। हम रोज सुबह जंगल में टहलने जाते थे। इस दौरान हम थोड़ी मटरगश्ती भी कर लेते थे। उस रोज़ हम नीम की दातून तोड़ने कुँए के पास गए तो सुबह की करारी धूप जंगल के वृक्षों को चटक भरा स्वाद दे रही थी। अनीश कुँए की तरफ गया तो उसने नीम के पेड़ की टहनी को पकड़ कर खींचा ही था कि उसकी नज़र कुँए के अन्दर गई और वो चिल्लाया, "लख्मी, ललीत, राकेश अबे जल्दी आओ देखो क्या है यहाँ?"
उस का बौख़लाता चेहरा देखकर हम भी उस तरफ भागे। कुँए कि मुंडेरियो पर से जब हमने नीचे झाँका तो एक नीले रंग की साइकिल कुँए में पड़ी थी जिसे देखकर हम भी उछल-कुद करने लगे। दिल में लालच भरे ख़्याल आने लगे। क्या करते कुछ पाने की खुशी में कुछ सूझ नहीं रहा था। हम चारों ने सलाह की कि क्यों न इस साइकिल को बाहर निकाला जाये। पर सवाल ये था की कुँए में जायेगा कौन? हम कुँए के अंदर जाने की लिए एक-दूसरे को मनाने लगे। राजी होने के बाद भी एक और बात थी की सबसे आगे कौन चलेगा? कुँए को देखकर सबके होश फ़ाकता हो रहे थे।किसी को तो अन्दर जाना ही था तो मैं, ललित और अनीश कुँए के भीतर उतरने को तैयार हो गए।

कुँए की दीवार में बनी मोटी दरारों में से चिटियों का झुँड गुज़र रहा था। उसे देखकर हमारी साँस फूलने लगी। कहीं ये चिटियाँ हमारे कपड़ों में घुस गई तो भागना भी मुश्किल हो जायेगा। लाल पत्थरों के बीच कुछ गहरे मोटे-मोटे सुराख़ जिनके भीतर पंछियों के घोसले बने हुए थे। जब हमने नीचे जाते हुए उन घोसलों मे हाथ लगाया तो उस कुँए मे से जैसे ढ़ेरों कबूतर और छोटी-छोटी चिंडियाएँ उड़कर बाहर आकर ऊपर से चली गई। तेजी से उड़ने की आवाज़ से घबराहट होने लगी। जब हम कुँए में पँहुचे तो साइकिल हमारे एकदम नज़दीक थी। हम सब कुँए की छ: फिट चौड़ाई और लम्बाई के बीचो-बीच खड़े थे। साइकिल को जैसे ही मैं उठाने के लिए लपका तो जैसे आवाज़ गले में फँस गई। "क्या हुआ रे।" अनीश ने पुकारा। हाथ काँप रहे थे। आँखों की पुतलियाँ फैलने लगी। ललित और अनीश मेरे पीछे ही था बाकी सब ऊपर। इतने में लख्मी ने भी आवाज़ लगाई कुछ मिला क्या?

जहाँ हम खड़े थे वहाँ लाल पत्थर जमा हुए थे। लगा था किसी ने वर्षो पहले इस कुँए को लाल पत्थरों से भर दिया हो। उन लाल पत्थरों में वो दबा हुआ था जिसके कारण मेरी आवाज़ तक न निकली थी। पत्थरों में आँख ठीक से उसे देख नहीं पाई। अनीश ने कहा, "सोच क्या रहा है जल्दी करो वरना कोई आ जायेगा।" मैंने अपना हाथ वापस खींचा और कहा तुझे ज़्यादा जल्दी हो रही है न तो तू ये काम कर। "अनीश अबे फट्टू हट पीछे।"

जब वो साइकिल की तरफ हाथ बढ़ाने लगा तो उसका भी वही हाल था जो मेरा हुआ था। "साँप-साँप-साँप, भागो-भागो।" वो इतना जोर से चिल्लाया की हम सब बैचेन हो गए पर हम जब खुद को बचाने की कोशिश कर रहे थे तो देखा की साँप तो वहीं है जहाँ वो पहले था। हम सब यही सोच ही रहे थे। इतने में।

"ये हिलता क्यों नहीं" अनीश बोला।
"मैं भी वही सोच रहा हूँ।"

साँप का मुँह हमारी तरफ ही था लग रहा था की जैसे उसे पता नहीं की हम उसके आसपास ही खड़े हैं। "क्या ये ज़िन्दा है? साइकिल के चक्कर में आज जान से हाथ धो बैठेगें। निकलो यहाँ से।"

"लेकिन कैसे पाँव हटाये वो सामने हैं। अगर जरा और आहट की तो बचे-बचाये मारे जायेगें।"
"पर वो हिल क्यों नहीं रहा। लगता है बेहोश है बेचारा।" ललीत ने कहा।
"तो जाके मदद करदे उसकी।"
मैंने कहा, "क्या भाँग खाई है जो साँप से पँगा लूँगा। साँप किसी का दोस्त नहीं होता। अब करें क्या? कुछ तो सोचो।"

"सोचना क्या जब ओखली में मुँह दिया तो मूसले से क्या डरना।"

मैंने साइकिल की तरफ दोबारा हाथा बढाया तो साँप की आँखें मुझ ही को देख रही थी। मैंने वापस हाथ खींचकर ललीत से कहा,"यार लग रहा है की ये साँप जाग रहा है।"
ललीत ने कहा, "नहीं, तो क्या सो रहा है अबे जल्दी करो।"

"साँप के आगे से कौन माई का लाल बच सका है जो हम बचेगें। फिर भी कोशिश करो जो भी करों फटाफट करो भाई मेरी साँस फूल रही है।"

साइकिल को चुपके से उठाने के लिए हम तीनों ने साइकिल को पकड़ा फिर हाथ वापस खींचा। साँप हमें घूर रहा था। हमारे और साँप के बीच तीन फिट का फासला था। हमने उसमे एक कंकडी उठाकर मारी मगर वो नहीं हिला फिर दोबारा हमने उसमे कंकडी मारी वो नहीं हिला, हिलता भी कैसे? साँप तो मरा हुआ था। पर शुमसान जगह में जमीन के ऊपर जितना डर लगता है उससे कहीं ज़्यादा जमीन के अन्दर लग रहा था। साँप को तो हटाना ही था तो हमने जी कैड़ा करके साइकिल को हटाने की एक और कोशिश की काँपते हुए मन में सवाल आ रहा था की कहीं ये साँप काट न ले पर वो काटता कैसे? वो तो मरा हुआ था। कुँए के अन्दर हवा भी साँए-साँए करती हुई पत्थरों में समा जाती। "यार कहीं साँप उठ न जायें और उठ गया तो काट लेगा। लेकीन साँप काटता कैसे? साँप मरा हुआ था।

जैसे-तैसे तीनों ने साँप से लोहा ने की ठानी। अपने शरीर में फूँक भरकर जब मैंने बालों में हाथ फैरकर हिम्मत जटाते हुए साँप से बचते हुए साइकिल को धीरे-धीरे से अपनी तरफ किया तो ....मेरी नज़र साँप पर पड़ी और मन मे सोचा अगर ये साँप ज़िन्दा होता तो अभी हम तीनों को सबक सिखा देता। जहर के मारे हम कुँए में ही दम तोड़ देते अगर साँप काटता तो। मगर वो काटता कैसे? साँप तो मरा हुआ था।

मगर मन माने तभी ना, हमने साइकिल के टायर को जोरों से हिलाया ताकि साँप उठकर भाग जाये। पर वो तो जरा सा भी नहीं हिल रहा था। हमने साइकिल को एक तरफ से उठा लिया था ताकि साँप उसके नीचे दबे तो भाग जाये पर वो तो वहीं पड़ा था। वो वहाँ से जाता भी कैसे वो तो असल मे मरा हुआ था।

इस मसले का एक हल है। अगर साँप को हम यहाँ से बाहर निकाल दे तो साइकिल भी आराम से निकल सकती है।
ललित ने कहा, "लख्मी से कोई चीज़ मँगवाओं जिसमें ये मरा हुआ साँप डालकर ऊपर भेजा जा सकें।"

जैसे भी करके लख्मी ने कपड़ों और पन्नियों को जोड़कर रस्सी बनाई और नीचे फैंकी। वहीं पास में लकड़ी से हमने साँप को फिर से छेड़ा उसका मुँह हमारी तरफ हिला। अनीश ने कहा, "संभलकर जरा कहीं काट न ले पर हम फिर से भूल रहे थे कि वो काटता कैसे? भई साँप तो मरा हुआ था।"

कुँए मे हमसे डर कर सारे पंछी उड़ चुके थे। हमारी मौज़ूदगी हमें ही डरा रही थी। उस साँप के ऊपर गहरे केसरी रंग के निशान बने हुए थे। लगभग वो छ: फिट लम्बा तो था। हम तीनों को लपेटने के लिए काफी था। उसके मुँह से हल्की सी जीभ बाहर दिख रही थी। दिमाग मे फिर से वही दौड़ा अगर हमने उसे तंग किया तो फिर से ही दिमाग का फितूर बाहर निकल आया कि वो काट लेगा पर वो काटता कैसे? साँप मरा हुआ था।

धूप की चिलमिलाती रोशनी हम पर पड़ रही थी। जिससे हमारी परछाई हमें बनी हुई दिख रही थी। साँप को बाहर निकालने के लिए रस्सी में उसे बाँधा। उसकी चिकनी चित्तेदार चमड़ी में सलवटें सी पड़ने लगी कहीं ये ज़िन्दा हो गया तो हमें काट खायेगा पर वो काटता कैसे? साँप तो मरा हुआ था।

लख्मी ने फिर ऊपर से आवाज़ लगाई, "अबे कुछ हुआ?”

अनीश चिल्लाया, "यार बार-बार कुछ हुआ-क्या कुछ हुआ क्या चिल्ला रहा है? नीचे आकर देख न क्या क्या नहीं हो रहा। डर के मारे मेरा दिल बैठा जा रहा है। नीचे ये साँप है ऊपर से तू चिल्ला रहा है। मैंने सुना है साँप मरने के कुछ देर बाद ही होश में आ जाता है।"
ललित ने कहा, "शुभ-शुभ बोलों यार। तेरी ज़ुबान काली है। कहीं ऐसा हो गया तो साँप हमें काटे बिना नहीं छोड़ेगा।"
अनीश बोला, "मगर यार सांप काटेगा कैसे? वो तो मरा हुआ है।"
इस डर ने हमें वहाँ से कुछ लेने नहीं दिया। मगर अनीश मानने वाला नहीं था। उसने पूरी साइकिल तो नहीं मगर साइकिल की गद्दी, टायर और केरियल निकाल लिए थे। मगर ये सब निकालते हुए हम यही सोच रहे थे की अगर साँप एक बार उठ गया न तो आज हमारा आखिरी दिन है। मगर साँप उठने वाला नहीं था क्योंकि वो तो मरा हुआ था।

राकेश

दैनिक सुपर हीरो


दिन शनिवार, दिनाक:14/2/09, समय, 2:15

जगह, अर्चना की रेडलाइट


रोजमर्रा की ज़िंदगी हमारे होने या न होने की परवाह नहीं करती। वो अपनी ख़्वाबगाहों में बैठी उस राही का इंतेजार करती हैं जो उसके लिए बना है। जो मैं को सब कुछ में घुल जाता है। बिल्कुल पानी की तरह। उसे खुद से अलग नहीं बता सकते वो कलाबाज़ियों में माहिर है, हर किसी की आँख से टकराने का जोश उस मे है। वक्त उसके कारनामों को भुला नहीं सकता, वो आज का दैनिक सुपर हीरो है। उसके शरीर के लचीलेपन को वक्त की हर धारा सलाम करती है। ये है अपना हीरो, दैनिक हीरो। जो बहुरूपिया है, उसे समझना है तो उसके पास ठहरना होगा। वो तो छलिया है। खिलाड़ियों का खिलाड़ी जो खेल का मज़ा बरकरार रखता है। कभी वो वक्त की ताल पर नाचता है कभी वो वक़्त जो नचाता है।

राकेश

अपने भीतर के छुपे अंश

एक दुनिया जो अपने में गुम है, एक रचना जो कर दी गई है

अपने स्वंय से मिलने की चाहत में बनते वे नज़ारे जो न होकर भी अपने होने की भूमिका निभाते हैं। किलसते हैं शहर के तेज होने से, कहीं ठहर जाने से, भूल जाने से। असल में यही होना है। ये डर लेकर जीने वाली कुछ आकृतियाँ बिना वज़ुद या किसी ठोस अंश के चलती है। इसका वज़ुद पूछने की किसी में हिम्मत भी कहाँ? ये तो चलती है और निरतंर चलती है। कभी खेल की भांति तो कभी डर के रूप में, कभी जगह बनाने की फ़िराक में तो कभी छुपकर भी सामने होने की उंमग में।

मेरे सामने जब ये चल रहा था तो इससे हावी इसके आसपास का वे माहौल था जिसे इसकी जरूरत नहीं थी और न ही इसके होने से कुछ होने वाला था। बस, उस जगह को अपना बनाने की हिमाकत उस दृश्य मे जोरों पर थी जो कबज़े से बाहर थी। मगर ऐसा कोई भी नहीं था जिसे उस औरत के इस रूप से परहेज़ हो या ऐसा भी कोई नहीं था जो इस रूप से वाकिफ़ नहीं था।

उस औरत का अपने से बाहर जाना औ‌र अपने में कुछ नया भरने की फोर्स ही इस जगह को बांधे हुए थी। किसी के लिए खेल तो किसी के लिए ये चौंकना था। किसी के लिए ये डर था तो किसी के लिए अपनी फोर्स को बाहर लाना। सभी उस दृश्य के हिस्सेदार थे। जो देख रहे थे वे भी और जो उसमे लीन थे वे भी।

ये जगह नई बस रही है। जिसमे ये सभी दृश्य सीने में उतारे जा रहे हैं। आसानी से तो कभी नज़र छुपाकर। नये रूप के आसरे कोई रिद्दम में आ रहा है तो कोई पुराने को ताज़ा करने की कोशिश में पनप रहा है। ये जगह अभी तो सबको न्यौते में रखे है।

दिनॉक: 12-01-2009, समय: दोहपह- 03:15 बजे.

लख्मी

एक महीम लड़ाई

अपने नज़दीक किसी वस्तु घटना अथवा बात को दोहराने की नज़र खाली उसको बताना या उसके साथ रिश्ता बनाना ही नहीं होती। दोहराना किसी चीज़ के विवरण और उसकी गाथा को बतलाने तक सीमित नहीं है। वे अपना एक नक्शा खुद से बनाता है जिसमें कई ऐसी चीज़े भी अपना स्थान बना लेती हैं जो उससे काफी दूरी पर है अथवा उससे कोई नाता भी नहीं रखती।

दोहराना अपने साथ होते नाते को बयाँ करना नहीं होता। वे अपनी रेखाएँ खुद से पैदा करता है। जो रिश्ते अथवा दूरी को प्रकाशित करने की डोर बनता है।

मेरे घर की सभी चीज़ें जिसके साथ में मेरा व्यवहार और जरूरतों के हिसाब का बेजोड़ नाता है। उसकी मौज़ुदगी मैं अपनी यादों से, बीते हुए कल के दृश्यों से बयाँ कर सकता हूँ पर उस हालात में वो मौज़ुदा चीज़ मेरे नज़रिये में क्या रूप लेती है? क्या मेरी यादें अथवा कोई नक्शा जो उसके आधार पर बन गया है?

दोहराना ये मौज़ुदा वक़्त के माध्यम अपना मेलजोल जता पाना तथाता और समर्पण से जुदा है। न तो इस विवरण में भाग्यनुसार चित्र होते हैं और न ही हथियार डालकर उस चीज़ को अपना अहसास समर्पण करने के जैसा होता है।

मेरी आँखों के साथ हर चीज़ का टकराना एक नया ही रास्ता बनाती है। हम जिस भी वस्तु और उसके साथ में बनते अपने रिश्तें को दोहरा रहे हैं वे महज़ उस वस्तु के रूप और आकार को ही नहीं बना रही बल्कि उसके साथ-साथ मेरे साथ हो रहे हर शब्द के मिलन से मेरे किसी वक़्त को बना रही है। जो उस वस्तु के दोहराने से उत्पन्न हो रहा है।

किसी भी कहानी या चीज़ को दोहराने मे उसके पिछले रूप के साथ में बहस और किसी नये आकार की मांग होती है। हम दोहराने में असल में दोहराए जाने वाले पल में कुछ नया फूँक रहे होते हैं। जैसे- हर कोई किसी एक ही कहानी या चित्र तो जब भी अपनी ज़ुबान पर लाता है और किसी को सुनाता है तो उसने दोहराने वाले के अपने शब्द जोड़ने कि संभावनाएँ भी शामिल होती हैं। कहानी व चित्र अलग-अलग ज़ुबान पर आते ही अपने आकार में नये शब्द भर लेते हैं फिर वो किसी एक की कहानी नहीं रहती।

दोहराना कभी-कभी किसी चीज़ को खींचना भी होता है। ये खींचना लम्बा-चौड़ा करना नहीं होता। जैसे- हमारे सामने दादा-दादी के माध्यम से कई कहानियाँ घूम रही हैं। आपने कभी देखा है किसी दादा या दादी को कहानी सुनाते हुए, एक कहानी जिसे रोज़ सुनते हैं लेकिन कैसे जब तक बच्चे को नींद नहीं आती तक दादी उस रोज़ सुनी कहानी को खींचती है। वे उसमे क्या भरती है?

ऐसे ही दोहराना, कभी ताज़ा करना, कभी याद रखना, कभी याद से लड़ना तो कभी भूल न जाना की लड़ाई करता है। ये वे दुनिया है जो दोहरा सकती है। वे लोग हैं जो अपने किसी न किसी रूप को, वक़्त को दोहरा रहे हैं। कभी डर के साथ तो कभी भड़ास के साथ लेकिन इन लोगों के अलावा वे लोग भी हैं जिनके पास दोहराने के लिए कुछ भी नहीं हैं? दोहराना शब्द क्या ताकत देता है? ये ताकत किस चीज़ की है?

दोहराना जैसे बोलना और ख़ामोशी के बीच घूमता है। लोग भी उसी बीच की दुनिया हर वक़्त रचते हैं। किसी का दोहराना ख़ामोश हो जाये तो वे क्या है? उस जीवन को या उस शख़्सियत हम कैसे सोचते हैं जिनके पास दोहराने के लिए कुछ भी नहीं है?

एक शख़्स जो दक्षिणपुरी मे जाने वाली एक सड़क के किनारे रहता है। उससे बहुत लोग बातें करते हैं। उससे ये सोचकर बातें करते हैं कि वे कुछ गज़ब ही बोलता है। न तो वे बीते हुए समय की होती है और न ही वे आने वाले कल की। वे किसी ऐसे वक़्त की होती है जो क्षणिक है, आया और चला गया। कभी-कभी वे बीच मे दो चार गानों की लाइनें भी डाल देता है तो लोग हँसी-खुशी उनके पास मे बैठे रहते हैं। वे जब भी कुछ बोलते हैं तो उसमे उनका कोई भी रिश्ता या बीता हुआ कल नज़र नहीं आता। वे उस क्षणिक अवस्था मे जीते हैं।

मैं इस चीज़ को बताने मे इसलिए उल्लासपुर्ण हो रहा हूँ क्योंकि जिस जीवन को, याद को या अनुभव को अपनी ताकत कहते हैं वे सब यहाँ पर आकर फैल हो जाते हैं। दोहराना शब्द किस जीवन या समय से ताल्लुक रखता है?

वहाँ उस माहौल में बैठने वाले हर शख़्स के साथ उस आदमी का रिश्ता खाली बातों से पनपता है जिसमें बोलने वाला वे अकेला ही है। लेकिन सुनने वाले सारे लोग अपने-अपने बीते दिनों को दोहराने मे कभी पीछे नहीं हटते। दोहराने मे हम आने वाले समय को कब बोलते हैं और बीत चुके समय को कब? कोई सब कुछ ख़त्म करके आया है उसका अहसास क्या होता है?

उस माहौल मे दो तरह का दोहराना है। लेकिन असल मे दोहराना क्या है? हम अपने अनुभव को और बीते समय मे झेले पलों को अपनी ताकत मानते हैं। लेकिन उसे कैसे सोचे जिसके पास मे ये दोनों ही नहीं है? उसकी चुप्पी और बोलना क्या होगा? उस समाजिक माहौल मे दोनों अपनी जगह बनाते हैं फिर भी एक महीम लड़ाई है।

लख्मी

Tuesday, February 10, 2009

यात्रा जो करीब से गुजरती है...

हमारे नज़दीक से निकलते कुछ ऐसे चित्र जिनमे हम होकर भी गायब होते हैं। एक भीड़ जिसमे खो जाना ही ज़िन्दगी बन जाता है। ये वो राहें हैं जो हम से नहीं हम इन राहों पर चलकर बनते हैं।

एक और राह जो हमें खो देने को तैयार है।

दिनॉक:- 10-02-2009, समय:- दोपहर 2:30 बजे

लख्मी

परछाइयाँ जिंदा है

तू मुझे करे ज़िंदा
मैं तूझे ज़िंदा करूं
तू मेरी परवाह करें
मैं तेरी परवाह करूं
मेरी दुनियाँ तेरे जलाये चरागों से रोशन है
फिर क्यों मैं जुगनूओं से दामन भरूं।

हाफ्ते जिस्म की रग-रग में तू शामिल है
तेरी दुनियाँ में मेरी भी कहीं तो वफ़ा शामिल है
तू सोच कि मैं मर गया हूँ
मुझे फिर से ज़िंदा होने की अदा मालूम है।

कत्ल से मैं नहीं डरता
डरते वो हैं जिन्हे कुछ नहीं मिलता
तू तो मेरे साथ है
मैं तो खुद को साथ लिए तेरी तलाश करता हूँ
इसलिए मौत को भी नराज करता हूँ।

मैं बचा लूंगा उस जमीन को जहाँ तेरी परछाइयाँ ज़िंदा है
क्या करूं ये भूमंडल घूम रहा है
ज़मी पर मैं हूँ मगर मेरा मन उड़ रहा है।

राकेश

हम इंसानो की बस्तियों में

गली का कुत्ता करोड़पती बना, ये बोल मैंने जब पहली बार सुने तो बड़ा अजीब सा लगा। जिससे मेरे ख़्यालों में कोई बनावटी चेहरा मुझे मुँह चिढ़ाता हुआ नज़र आ रहा था। मैं जैसे अपने आप से ही दूर भाग रहा था। खुद को पास लाने की मेरी तमाम कोशिशें नाकाम हो रही थी। पर ज़मीन मेरे पैरों तले ही थी। बादलों की गर्जना से भयभीत मन कहीं आसरा पाने की चाह में भटक रहा था, तभी मेरे अन्दर कई सारी आवाज़ें घुस आई। जो मुझे खींच कर वहाँ ले आई जहाँ हक़ीकत के अलावा कुछ न दिखा। मेरे ख़्याल चट्टानों से टकरा कर वापस आने लगे। मैं जाग गया! क्या करूँ? कैसे करूँ? ये मुझे पता लगने लगा। अब मैं वापस उस जगह आ गया था जहाँ से मेरे विचारों ने करवट बदली थी। एक भद्दा प्रसंग सुनकर मुझे कतई भी वो नागवारा था जो जीवन की मार्मिकता को तेज़ाब बनाने की फिराक मे था, जो सच में मेरे ही आसपास से जन्म लेकर अब तक मेरी आस्तिनों में पला वो सर्प नामक शक मुझे डसने वाला था। अभी तक तो वो मेरे ही दिमाग मे बैठा मेरी सारी हरकतों को कंट्रोल कर रहा था। मेरी ज़ुबान के साथ वो अपनी लपलपाती जीभ से मेरे सम्मुख आने वालों पर विष अणु की वर्षा करता। जो मेरे शुभचिंतकों को मुझ से दूर कर रहा था।

किसी के पास उस के नाजायज़ होने का सबूत नहीं था। वो दरिंदा कोई भी रूप बदलकर कुशल-मंगल को हिंसा और पाप में बदल कर रख देता। वो मानवता का दुश्मन सब के मन को भंग कर देता। तब सारा भू-मंडल दूषित हवाओं से भर जाता। चारों तरफ बस चीखती, रोती और बिलखती ज़िंदगानियाँ और विद्रोह कर रही आवाज़ों में तिलमिलाती परछाइयाँ ही नज़र आती। जानवर और मानव इन दोनों में ही एक दुनिया है जिसको सिर्फ भूख से देखा जाता है। स्वार्थ से देखा जाता है। ज़रूरत से देखा जाता है, लेकिन कोई करुणा से देखे। एक-दूजे का बन के देखें तो यकीनन सच के ऊपर पड़ा पर्दा उठ जायेगा।

आज लोग जीवन में बने रिश्तों को लेकर कई बातें बनाते हैं और खुद ही किसी की नींव रख देते हैं और आप ही किसी को उखाड़ देते हैं।

कुत्तों को कई तरह के अभिनय करते हुए सबने देखा पर जब कुत्तों को बहुचर्चित होते देखा तो रहा न गया। शायद इस से बेहतर मेरे पास उदाहरण नहीं हो। लेकिन आजकल इस नस्ल को विभिन्न वर्ग के नुमाइंदों ने अपने शहर से तड़िपार कर दिया है।
इसके सिवा आसपास कुछ भी तो सुनाई नहीं दे रहा था। जिससे यह साबित होता की करोड़पती का ताल्लुक गलियों में घूमते कुत्तों से नहीं है। इस तरह की पंक्तियाँ बहुत सुनाई पड़ रही है जो हमारी रोज़मर्रा में बेइंतिहाँ शामिल है।

वरना जनाब आज के वक़्त में तो ये हालात है की गलियाँ जैसी जगह तरह-तरह के विभाजनों में अपने ही मंथन में फंसी भँवर बन गई है। जिसके शिकंजे में आने वाला शख़्स अपनी भव्यता को खो बैठता है और अपनी ही आलोचनाओं से अपनी मांसपेशियों को खरोचनें लगता है। हम अपने जीने लायक जगह बनाने में लीन रहते हैं, और कोई आता है तो एकदम से सब कुछ मिट्टी में मिल जाता है। जीवन में कई श्रृखलाएं हैं जिनके सहारे हम जीवन बनाते हैं और उसमे परवरिश करते हैं अपने विचारों की धारणाओं की। तब जाकर एक जगह में सैरगाह बनती है जिसमे हर कोई शामिल है।अपनी-अपनी मननशीलता के मुताबिक। मानव और जानवर का रिश्ता इतिहास से चला आ रहा है और इतिहास एक सच्चाई है जिसे नापा या तोला नहीं जा सकता न ही झुठलाया जा सकता है।

लेकिन हम इंसानो की बस्तियों में कुत्तों की सैरगाह नहीं होती बस, उनपर अपनी ममता और प्यार लुटाने का बहाना चाहिए होता है। जो बात मैं आप को कहने जा रहा हूँ वो बात मुझे किसी ने कही कि "कुत्तो का जीवन वैश्याओं से कम नहीं हैं।" जब चाहा अपनी जांघ पर बैठा दिया और जब चाहा उसे थपथपा दिया।
इंसान और जानवर के बीच बने फ़र्क में ही पूरा रहस्य छिपा है। जिस में मानव जीवन शैली की और जानवर के साथ बनी कहानियों की दुनिया दिखती है जो एक-दूसरे को ज़िंदा रखने के लिए जानी पहचानी जाती है।

क्यों कि ज़िंदगी के पैचीदा हालातों को आसपास की संभावनाएँ बड़ी मासूमियत से उभारती है। जैसे एक कहावत को सुनकर मेरे आसपास कुछ अपने दार्शनिक संभावनाओं की घटनायें मंडराने लगती है। जिसके कारण हक़ीकत एक अलग ही ढंग से हमारी ओर बढ़ती हैं।

वो कहावत है ,"धोबी का कुत्ता घर का ना घाट का" ये मुहावरा दो शख़्सियतों को आपस में टकराव में लाता है। जो दोनों ही के छोर से हटकर अपनी ही उधेड़बुन में जीना है। आजकल मौहल्लो में चर्चा हो रही है कि कुत्ता करोड़पती बन गया पर आम आदमी पीछे छूट गया। जिसने मौहल्ला रचा है। उसके परिकल्पना और अपने लिए जीने वाली शैलियों की तो जैसे दुनिया ही ओझल है।
हाल ही में आई फिल्म के बारे मे लोगों के ख़्यालात कुछ इस तरह के हैं। सब के मुँह पर तरह-तरह के जुमलें हैं तो किसी का चिड़चिड़ा स्वभाव है।

टीवी चैनलों और अखबारों में फिल्म के ऊपर अपने तेज दृष्टिकोण डाले हैं जो किसी शहर को छान कर भी पूरी तरह से एक तरह की जीवन शैलियों की आपस में टकराने की आवाज़ों से बना जाल है
जिसे देखकर कोई भी सिनेमा मे दिलचस्पी रखने वाला शख़्स यह कह सकता है की फिल्म किसी वर्ग से और उसके इर्द-गिर्द भटकती कल्पनाओं को पूरे तौर से शहर की रोज़मर्रा की तय मे संवारा गया है पर कुछ सवाल और अपने सोच के मुताबिक जगह में संभावनाएँ न ला पाने का फिल्म के नाम को लेकर सीधा-सीधा लोगों को क्या ये मनवाना है की वो जिस रूप को देख रहे हैं या जो जंग हमने छेड़ी है जो आप के भीतर ज्वालामुखी की तरह समाज में नकारे गए और काटे गए कोनों की है। जिसे समाज की भाषा मे असामाजिक तत्व कह कर गुज़र जाने वाले पलट कर नहीं देखते।

उस बनाई गई और कानून में गढ़ी गई हकीकत को मोटे पैमानों में कबूल किया जाये। बिना किसी विरोध के बिना बाघी हुए समाज के ही दिए गए अंत को स्वीकार कर के जिया जाए। क्योंकि हम पर सत्ता की आँख रहती है जो समय समय पर हमारे जीवन के नाप लेती रहती है।

जिसको हम ये गवाही भी देते हैं की हम उसके आधीन ही जी रहे हैं। मगर जब कोई इंसान इस आँख से बचकर या ओवरटेक करके निकलता है तो उसकी अपनी ऊर्जा को कोई क्यों भूल जाता है। जिसमे तेरा मेरा या ख़ास का ही जीवन महत्व नहीं रखता बल्कि उस में अपने से बनाई गई कहानियों, कृतियों की रचनात्मकता होती है। उसमे सच्चाई कितनी ख़री है ये परखने की ज़रूरत नहीं है। बस, जो आप के अंदर आया आपने ले लिया। उसका एक करूणायी स्पष्टीकरण है जो समाज के गठनों में फूट-फूट कर भरा है। बस, जरूरत है तो इस संम्पूर्ण ज़मीन को छानने की। जिसमे इतिहास अपने किसी वक़्त को लेकर पाताल के धरातल में समाया हुआ है। जो वो है वो नहीं है असल में जो वो नज़र नहीं आता।

जो एक रास्ता बन जाता है फिल्म की कहानी को पूर्णरूप में देखने का और जीवन की मार्मिकता को क्रूर से क्रूर रूप में दिखाने का पर आम तौर से देखा जाये तो इस फिल्म के आने से एक किस्म की लोगो मे निराशा सी आ गई है।

शायद ये छवि को लेकर सवाल है जो अपने पर भी आक्रामक प्रश्नचिन्ह लगा देता है। पडोस मे जब किसी ने पहली बार सुना तो वो फिल्म के ट्रेलर को देख कर हंसे पर दूसरे क्षण गौर फरमाया तो उनके दिमाग पर जाने पहचाने चेहरे ने दस्तक दी जिसको सामने पा कर वो बौख़ला से गए।

अभी तक लोगों के बीच में ये था कि आम ज़िंदगी को जितना भी सोचो उतना ही अपनी ज़िंदगी में इज़ाफा होगा। आपको जो पब्लिक नकारती है वही पब्लिक स्वीकार भी करती है। आखिर जीवन के सौन्दर्य को और भी नज़रियों से उभारा जा सकता है। हँस के दिखाने में करूणा से देखने में अदा को देखने मे उन तमाम संभावनाओं में जो जहाँ अपने जीवन में कल्पना करके जीने की जिद्द लाती है।

सिनेमा ने ऐसी बहुता ज़िंदगानियों से आवाम को रू-ब-रू करवाया है जिसमें फिल्म के कैरेक्टर, सीन, कहानी वगैरह जीवन की भावनात्मकता और सकरात्मक सोच से सीधे संवाद बनाती है।
ऐसा क्यों होता है कि किसी चीज़ को अद्भुत दिखाने में उसको पहले छीला जाता है, फिर छीलकर उसके रूप को मसालेदार बातों से और तरह-तरह की मिक्स सामग्रियों से बनाया जाता है। मैं इस नज़रिये से असहमत हूँ जिससे लोगो के संग जीने वाली परछाइयों को एनिमेटिड करने के साथ उनके जीवन के संविधानों को कोई बदल देता है, चाहें वो किसी भी तरह क्यों न हो? चाहें तकनीक या मीडिया का बौखलाता इरादा जो मौकों की ताक मे चौकन्ना रहता है और जरा सी आहट पाते ही तपाक से भीड़ में अपने शिकार को धर दबोचता है।

फिर जंगल और शहर का फ़र्क हमें भले ही मालूम हो या न हो। शिकारी अपना काम कर ही देता है।
केला खाने का भी एक तरीका है पर अगर उसे नंगा करके खाया जाये तो ये उस केले के साथ ज़्यादती होगी। उसका छिलका कैसे उतारना है ये तरीका बनाना होगा। वैसे उतारना है तो आँखों पर लगे उन चश्मों को भी उतारा जा सकता है जो भेदभाव, गरीबी, अमीरी, सही गलत के अलावा कुछ नहीं देख नही पाते हैं।

जो शहर को किसी सत्ता की बिखरी विरासत का टुकड़ा बोलकर शहर के ही सम्मुख एक बिलबिलाती तस्वीर रखते हैं पर वो इस शहरनुमा दुनिया को अपने नयेपन में जीने वाली प्रतिभाओ से गहरे तौर से ताहरूफ़ नहीं है। हम कैसे भुला सकते हैं जीवन में कहीं से भी आने वाली एक नई ज़ुबान को जो हमें सोचने और अपनी चाहत से जीने के आयाम देती है।
आज समाज में हर तरह की आँख है। ये पता है कि क्या देखना है? क्या नहीं देखना है? कैसे देखना है? किसी की दुखती रग पर हाथ रखोगें तो चितकारती भरी आवाज़ें तो आयेगी ही। कहते हैं कि अच्छाई और बुराई का तो चोली दामन का साथ है फिर सरेआम समाज में मानवता के कपड़े उतारने में क्या हर्ज़ है? जिसको देखना है देखो जिसको नहीं देखना वो मत देखो।

गांधी जी ने तो बिना "सिर्फ" शब्द को सोकर तीन बंदरो के स्वभाव को जीवन मे उतारा था, "बुरा मत देखो, बुरा मत सुनो, बुरा मत कहो" ये जानवर के अस्तित्व को लेकर इंसान को पाठ पढ़ाने की कक्षा में दाखिला लेने जैसा ही है।

जहाँ से हम कुछ तो सीख कर निकलते हैं और वापस समाज में उतरते हैं। ये अपेक्षा लेकर कि समाज हमें अपने मुताबिक बनें अधिकारों में जीने की अनुमति देता है। बतौर हम ये भी जानते हैं कि समाज के अपने नियम और कानून हैं जिस के बाहर आपको सोचने की ज़रूरत ही नहीं है। क्योंकि ये असंभव है और जहाँ दोमूही तलवार भी है जो काटती है और उकसाती भी है। समाज खुद ही आपके लिए सार्वजनिक जैसी जगहें बना देता है जिसको हम सांझा मान कर जीते हैं। वो सब का ढाँचा होती है जिसमें सब दाखिला पा सकते हैं। हमें उनका पालनकर्ता बनना ही पढ़ता है। नहीं तो सत्ता का संविधान अपने दस्तावेजों से हमारा नाम ख़ारिज़ कर देगा। ये डर हमें अंदर ही अंदर गलाता चला जाता है। फिर माहौल मे अपने को बचाए या अपने अधिकारों की चिंता करें। क्या करें ये फैसला लेना पड़ता है? कभी-कभी हम इस का अंतर्विरोध कर के अपने कोने बना कर जीना शुरू कर देते हैं, और कहीं हम समाज के अधीन हो जाते हैं।

ये दोनों तरीके अमेल हैं पर इसको लेकर सब जीते ज़रूर हैं। लेकिन सब जानते हुए भी हम नियमों में अपनी चाहत से जीने की वज़ह बना ही लेते हैं। जिसमें हमारी अपनी सौगातें होती हैं। इसी समाज मे बने नियम और कानूनो में कहीं न कहीं कोई कल्पना की जा रही होती है। जिससे अपने जीवन का फैलाव सत्ता के बने ढाँचे से अलग होता है। जिसमे खुद का सिद्धाँत बना कर जीवन यात्राओं को बेहद लाचिला और जीवनयापन की कालगुज़ारी के असीमित रास्तों के फाटक खुले तो कभी बंद भी होते हैं।

आश्चर्य की बात तो ये है कि आम ज़िंदगी को तो जैसे गुलामी की जंज़ीरों में जकड़ कर रखा है जिसमे श्रमिक वर्ग कहीं भटका सा लगता है। जो कि दुनिया के हर निर्माण की नींव में शामिल है। जिसे विकसित जीवन के लिए सोचा जाता है। उसका आधार ही श्रमिक वर्ग के ऊपर टिका है पर अब सवाल यह है कि शहर और बस्तियाँ कैसे अलग हैं? और क्या जो लोग यहाँ से जाकर शहर में शामिल होते हैं वो लोग कौन हैं? जिनसे सामाज काम लेता है या जो समाज की ऊर्जा है। जो अपने जीवन के साथ-साथ ये भी सोचते है कि दूसरों के प्रति हमारी ज़िम्मेदारियाँ और फ़र्ज भी बनता है।
समाज अपने इर्द-गिर्द भी किसी तरह की मलीन वस्तु को बर्दाश्त नहीं कर सकता। किसी भी तरह की वस्तु से 'बू' आने से पहले समाज अपने सिस्टमों को लागू करके अपने से दूरी में जीने वाले वर्ग को आदेशो में ले लेता है। जिससे वो वर्ग सांझी जगह मे फैले अवशेष को नष्ट करने का हुक्म बजाता है।

लेकिन सवाल ये है की जब समाज कोई चीज़ अपनाता है तो उस को भोगने के बाद जो जीवन बचता है उसे कहाँ ले जाया जाये? या फिर दोबारा किसी प्रक्रिया को शुरू करने का तरीका निकाला जाये जिससे वापस शहर में चीज़ों को लाया जाये जिससे सीखने की बिल्डिंग तैयार हो सके। प्रयोग या क्रियाकलापों को सोचा जा सके। ये अनुमति सत्ता दे ही नहीं सकती क्योंकि वो अपने ऊपर किसी तरह का प्रभाव पड़ने ही नहीं देना चाहती। वो समझती है कि जो वो खुद चाहती है वो ही प्रयोग लोगों के बीच होना चाहिए जिसे किए गए प्रयोगों का अगर कुप्रभाव पड़े तो लोगों तक ही रहे उसकी सीमाओं में कोई महामारी या किसी तरह की नाकामयाबी का असर प्रवेश न कर पायें। उसके लिए तो आबादी बची हुई है जो हर तरह के प्रभावों को अपने में समा लेती है और दोबारा से वस्तुओं में जीवन फूंकती है।

जीवन की जटिल से जटिल और ठोस सच्चाई को पिघलाने के बजाये उसे पथरीला और कांटेदार बनाने की कोशिश होती रहती है। आम ज़िंदगी को गुलाम बनाकर उसे कैद में क्यों रख दिया है। बहुत बड़े पैमाने पर शहर की आबो-हवा मे सांस लेता कोई शख़्स ज़िंदगी के सफ़र को दोहराने के बजाये वो उसमे किसी तरह सरहदों को लांघ कर सपनों को कल्पनाएँ लेकर के जीने की जिद रखता है। जो आम जीवन की ज़मीन पर जिज्ञासा भरे बीज बोना है। इस उम्मीद में के एक दिन उसी बीज से फूट कर नई प्रतिभाएँ अंकुरित होगीं। वो कहीं से भी कैसे भी हमारे समक्ष आ जायेगीं। बस, जरूरत है तो उन्हे समझाने की पर क्या करें समाज में ही मानवता के प्रति लगाव और जीवन को नंगा करके दिखाने की प्रथा पुरानी है जिसमें नई ज़ुबान है ही नहीं।

मंच वही है। बस, अंदाज बदला है तेवर बदले हैं। शरीर उतना ही है, कपड़ा छोटा हो गया है। भूख वही है कुछ नये व्यंजन आ गए हैं। जो चखने मात्र ही हैं। उनसे पेट नहीं भरा जा सकता, मन नहीं भरता। समाज वही हैं, लोग भी वही हैं पर और भी कूटनीतियाँ आ गई हैं। कहीं से भी इंसानियत के शरीर पर बने जख़्मो को कुरेद कर उन्हे ताजा किया जाने की फिराक बनी रहती है। जिससे शरीर में दौड़ता खून जब बाहर निकले तो छीटें किसी के चेहरे पर जा गिरे। ज़िंदगी को इससे ज़्यादा क्लाइमेक्स मे और कैसे देख सकते हो?

हमें ज़िंदगी में नई ज़ुबान बनाने की जरूरत है वरना इंसान के ख़त्म होने के डर है। शख़्सियतों को बोझ बना कर जीने से तो अच्छा है कि उनकी आँखों से देखा जाये उनके अहसासों से जिया जाये।तब पता लगेगा की जीवन क्या जैसे ओस की बूंद है जिसे छुने के बजाये उसे महसूस करके अपने में उतारना बेहतर है।

राकेश

सच मे अंधेरा ही था

एक गहरा अंधेरा था वहाँ पर। अन्दर घुसने को कोई मनाही नहीं थी पर कदम अपना साथ दे तो हिम्मत हो। दरवाजे के सामने खड़े होकर ही पूरे कमरे का ज़ायज़ा ले जाते होगें लोग। शायद ही कोई उस कमरे के उस कोने में जाता होगा जहाँ पर ये कमरा ख़त्म होता है मगर दरवाजे के किनारे पर खड़े होकर देखने की नज़र कभी उस कमरे का अन्त देख ही नहीं सकती थी।

कमरा धुँए की परत और छोटे-छोटे रूई जैसे फोहें, मिट्टी और कालस की शक़्ल में पूरे कमरे की दरारियों में हवा से लहरा रहे थे। अगर दिवारों पर उगंलियों को फिराया जाये तो किसी ना किसी ईंट पर अपनी छाप छोड़ने से कम नहीं होगा। लकड़ी के लटके से दरवाजे वाला ये कमरा, पूरे शमशाम घाट में दूर से ही नज़र आता है बिना किसी रंग-रोगन और सजावट के। सजावट हो भी क्यों भला सोने वाले तो उस कमरे में आराम से सो रहे हैं। अपनी उन चीजों के साथ जो अब इस कमरे की रखवाली करती हैं और कमरे में एक बेधड़कपन को ठहराती है।

खौफ़ की चादर ओड़े ये कमरा चीजों से अपने अन्दर आने की हौसला-अफ़ज़ाई देता है। चीजों के अपने नज़रों में भरते हुए अन्दर जाने में कदम नहीं काँपते। चीजें जो ख़ामोश हो जाने के बाद भी कोई ऐसी चमक लिए है कि उसमे नज़रें घुमाने पर एक ही पल में लगता है की कई डरावनी छवियाँ जो अपनी आँखों में रखली जाती हैं वो महज़ अपनी ही आँखों पर लटकी तख़्ती की तरह होती हैं। उसका इन चीजों और कमरे से कोई लेना-देना नहीं होता। चीजें जो अब किसी के काम की नहीं है पर फिर भी वो रखी हैं इस कमरे में लोगों का अहसास कराने के लिए। जो इस कमरे के प्रति बनती कई अवधारणाओं को अपने में समेट लेती हैं।

दिवारों में बनते ईंटो के बीच कि दूरी और दरारियों में से रोशनी अन्दर घुसने का रास्ता खोज़ निकालती है। जो जिसकी अस्थियों की लटकी थैली पर पड़ती है वो थैली कोई रंग लेकर अपने पर गुदी तारीख़ को सामने लाकर खड़ा कर देती है और जो शरीर इस थैली की शक़्ल में यहाँ पर टंगा है उसे भी ऊपरवाले की रोशनी प्राप्त हो जाती।

रोशनी के कई तार धीरे-धीरे दिन चड़ते उस कमरे में खिंच जाते। आमने-सामने की दरारियों में रोशनी के तार किसी चमकती लकीर की भांति उन टंगी थैलियों को नया रंग दे देती। आर-पार होती रोशनी कमरे में जाल की भान्ति पड़ने लगती और रेडियम की लाइट की तरह कमरे को साफ़ करने में कामयाब हो जाती।

रोशनी के तार खिंचने से पूरे कमरे का गहरा अन्धेरा छट जाता और कमरा लगता जैसे बिना दिवारों के जमीन से कोसो ऊपर हो गया है और हवा में झूल रहा है उन लकीरों पर जो उस रोशनी से बनी हैं।

कमरे में दाखिल होने का पहला कदम ही वहाँ रहने वाले अदृश्य लोगों को महसूस करने में मजबूर करता है। ऐसा लगता है की अपने अन्दर बसे डर से कभी भागा ही नहीं जा सकता। राख की महक अन्दर तक भर जाती और नज़र कहीं रूकती ही नहीं। कुछ भी तो ऐसा नहीं था वहाँ पर जो नज़रों को रोकने के लिए मजबूर करे अगर कहीं ठहराव नज़र आता तो वो उन चीजों में जिनमे अब भी वो अहसास छूपा था जो किसी के होने का दम भरता है।

कई चीजों को तो देखकर लगता है कि जैसे कोई तो है जो यहाँ पर रात गुजारता है। जिसमे उन काली पोटलियों में कुछ याद रखने या किसी खास चीज को सम्भाल कर रखने के लिए टांगा हो। कई कपड़े जो थैलियों में बंधे रखे हैं और खाट जो बिछी हुई है मगर वो शायद कोई भ्रम भी हो सकता है।

शमशाम घाट में बैठा लकड़ी वाला भी इस कमरे में कभी नहीं जाता। कितनी बार तो शिवराम जी ही उसे खींचकर लेकर जाते हैं तो अगला अगर एक कदम भी उस कमरे की दहलीज़ पर रख दे तो तुरन्त ही जाकर नहा लेता है और फिर शुरू हो जाती है शिवराम जी के साथ उसकी अनबन। मगर वो भी ज़्यादा देर तक नहीं रहती बस, उसके नहाने तक ही रहती है। ज़्यादा देर तक अनबन का कोई फ़ायदा भी तो नहीं है क्योंकि शमशाम घाट मे दो-चार ही तो लोग होते हैं। एक-दूसरे से बातें करने के लिए और जोर आज़माने के लिए। वहाँ अर्थी को लाने वाले लोग तो आपके साथ मे गप्पे-वप्पे नहीं करेगें। तो दिन कैसे कटेगा ? फिर दोनों का काम भी तो एक ही जैसा है। एक अर्थी के लिए लकड़ियाँ बैकता है और दूसरा उन लकड़ियों के बिना अर्थी का क्रियाक्रम कैसे करेगा तो ये जोर आज़माइस एक-दूसरे के बीच में चलती रहती है।

न जाने कितनी दुआयें और बलायें अपने मे समायें ये कमरा इन चीजों और अस्थियों को सम्भाले रखता है।

अब तो शिवराम जी मन्दिर की मुंडेरी पर बैठे-बैठे बस इन्तजार करते रहते है अर्थियों का। जोर-ज़बरदस्ती करने के लिए वो लकड़ी वाला और कूड़ा बिनने वाले ही रह गए हैं। जिनके कारण मुँह में से आवाज़ निकलती है उनकी। नहीं तो पूरा दिन बिना बोले ही कट जाये तो कोई फ़र्क नहीं पड़ता। अब तो देखा जाये शिवराम जी का तो पूरा हुलिया ही चैन्ज हो गया है। पैन्ट और कमीज़ छोड़कर कुर्ता-पज़ामा पहनने लगे हैं और कांधो पर एक गमछा भी डाले रखते हैं। शरीर में बहुत तेजी आ गई है फौरन इधर से उधर चले जाते हैं। बिलकुल भी टाइम नहीं लगाते वो किसी भी अर्थी को मोक्षस्थल दिखाने में और उसका क्रियाक्रम कराने में। कभी चीजों को देखते रहते है और कभी वहाँ की सफ़ाई करने में लग जाते हैं। अब तो शमशाम घाट मे भी गेट लग गया है। उसका भी मैनगेट बना दिया गया है। सरकार को लगता है की जैसे यहाँ से भी कुछ चोरी होने के चान्स ज़्यादा है। जो लोग रात मे आकर वहाँ आग जला कर सो जाया करते थे उनका आना बन्द हो गया है और शमशाम घाट अब पूरा शमशाम घाट बन गया है।

शिवराम जी दिन में पूरा गेट खुला रखते हैं कहते है कि अगर कोई यहाँ पर कुछ चुनने आया चुन तो सकता है। कुड़ा बिनने वाले भी यहाँ पर रहते है। सारे में घूम कर जब आते हैं तो कोई-कोई खाना भी यहाँ पर खाता है। इन दिनों तो अस्थियाँ ले जाने वालो की भी कतार लगी हुई थी। दिन में लगभग दो परिवार तो आ ही जाते हैं उन अस्थियों को ले जाने के लिए। लोग बेधड़क शमशाम घाट में चले तो आते है मगर उस कमरे मे बिना पंडित जी की इज़ाज़त लिए कोई नहीं जाता। अपने हाथों में मर जाने वाले के नाम का पर्चा लिए वो चले आते और पंडित जी के पास में जाकर उस थैली का ज़ायज़ा लेते की इस तारीख़ वाली थैली कौन सी है और कहाँ पर लटकी है।

आज भी कोई आया अपने किसी रिश्ते की थैली लेने। वो चार लोग थे। पहले वो शमशाम घाट मे बने मन्दिर में आये और पंडित जी के पास गए। अपनी पर्ची दिखाई। पंडित जी ने अपना पत्रा खोला और उसे मरने वाले का नाम बताया उसके बाद उसे तारीख़ बताई और कहा की तुम शिवराम के पास में चले जाओ वो तुम्हे अस्थियों के फूल दे देगा। इतना सुनकर वो चारों शिवराम जी के पास चले गए। शिवराम जी वहीं कमरे के बाहर बनी मुंडेरी के ऊपर बैठे थे। उन चारों में से एक आदमी आया जिसके हाथ मे वो पर्ची थी। उसमे वो पर्ची शिवराम जी को दिखाई।
शिवराम जी ने उन्हैं कहा, "तुम अन्दर जाईये और अन्दर सामने की दिवार पर ये थैली टगीं है। उसे ले लिजिये पर क्या आप कोई समान लाये थे जिसे उनके ऊपर चड़ाया गया था?”
तो उनमे से एक बोला, "नहीं हम कुछ नहीं लाये थे।"
शिवराम जी ने कहा कि आप अन्दर चले जाओ और तारीख़ देखकर अपनी अस्थियाँ ले लो। वहीं सामने वाले दिवार कर टंगी है।

ये सुनकर वो अन्दर जाने लगे और दरवाजे पर खड़े होकर ये देखने लगे की कौन सी सामने वाली दिवार है? चारों ही लोग दरवाजे के सामने खड़े हो गए और पहले जाने वाले के मुँह की तरफ देखने लगे। शिवराम जी ने उनकी तरफ देखा तो वो खुद ही उनके साथ में चले जाने के लिए खड़े हो गए। वो अन्दर गए और सीधा सामने वाली दिवार पर चले गए और वो चारों आये लोग ये देखने लगे की यहाँ तो पहले से ही इतनी अस्थियाँ टंगी है और ये आदमी सीधा सामने वाली दिवार पर चला गया। वैसे देखा जाये तो शिवराम जी को भी नहीं मालूम था की इस तारीख़ की थैली कहाँ पर टंगी है? वो तो महज़ अन्दाजा भरते हुए सामने चले गए थे। तारीख़ थी 2005 की।

शिवराम जी वहाँ पर लटकी सारी थैलियों को अपने हाथों से साफ़ करते और उन्हैं घुमा-घुमाकर देखते कि उनकी तारीख़ कौन सी है। हर थैली को बहुत ही नज़दीक से देखना पड़ता और उस पर पड़ी धूल को साफ़ करना होता। शिवराम जी वहाँ पर सारी थैलियों को देख रहे थे और वो चारों आये लोग वहाँ चुपचाप खड़े थे। बस, चारों दिवारों पर नज़र घुमाते हुए कमरे की बनावट को देख रहे थे। एक कौने मे गड़ी कील पर तीन थैलियाँ टंगी थी तो उन पर शिवराम जी ने अपनी ऊंगलियाँ फैरी और देखा की कौन सी तारीख़,लिंग और किस मोक्षस्थल की ये थैली है। उनमे से एक वही थी जिसे वो ढूँढ रहे थे। काले रंग और धूल की परत ने उसे इतना कठोर बना दिया था कि उसमे किसी के होने का अन्दाजा ख़त्म ही हो गया था समझों। आज पूरे तीन साल जो हो गए थे उन अस्थियों को वहाँ पर टंगे हुए।

शिवराम जी ने उस थैली की गाँठ को खोला और उसे वहाँ से उतारा। अपने हाथों मे लेकर उस पर पड़ी धूल को साफ़ करते हुए उन्होनें वो थैली उन चारों के हाथ में देनी चाही मगर वो चारों में एक आदमी का हाथ आगे बड़ा। उसने अपने दोनों हाथों कि अन्जली बनाई और उस थैली को बड़े प्यार और श्रद्धा से अपने हाथों में ले लिया। उस थैली को वो इस तरह से लेकर आ रहे थे कि जैसे उसमे वो रिश्ता अभी भी जिन्दा है जिसे मुखागनी दे दी गई थी। वो इतने अहिस्ता-अहिस्ता उसे लेकर चले रहे थे के कहीं उस थैली को हिलने से कोई चोट ना लग जाये। एक आदमी के हाथों में वो थी तो दूसरे आदमी ने उसके हाथों के नीचे अपने हाथों को भी रखा हुआ था। लगता था की जैसे वो दोनों का कोई लगता था। अब रिश्ता समझना जरूरी नहीं था। मगर आज कोई विदा हो रहा था इस अन्धेरे और खौफ़नाक कमरे से।

वो चारों लोग अब फिर से पंडित जी के पास में गए और उस थैली को अपने हाथों मे पकड़े पूछने लगे की पंडित जी इसको हम किस तरह से गंगा मे विसर्जन करे और कब करें?

पंडित जी ने उनके आगे सारे पत्रे खोले और कुछ पन्नों पर नक्शे बनाने लगे। थोडी ही देर मे कहने लगे, "इसको गंगा मे विसर्जन करते समय ये देखना की ये किनारे पर ना लगे। इसे बीच में जाकर विसर्जन करना और दोनों हाथों उसे बहाना।"

ये कहकर उन्होनें एक मिट्टी का करवा निकाला और उसमे कुछ फूल और लोंग के दाने डालकर उस थैली मे से अस्थियों को निकाल उस करवे मे डाल दिया। फिर उस ही काले रंग के कपड़े से उस करवे का मुँह बन्द कर दिया और कहा दक्षिंणा दे जाओ और इसे दो दिन से ज़्यादा अपने घर में मत रखना। जल्द से जल्द विसर्जन कर देना। वो चारों लोग उस करवे को लेकर चले गए और शिवराम जी उस काले रंग के कपड़े पर लिखी तारीख़ को मन्दिर में रखे रजिस्टर में से काटने लगे।

अब धीरे-धीर करके कमरा सारी थैलियों से खाली हो जायेगा और डर जैसी चीज वहाँ पर नहीं रहेगी। वो उन लोगों को देखते रहे। कुछ पूजा-पाठ हुआ। उस थैली को लिया और चले गए। एक शख़्स यहाँ इस कमरे से भी विदा हो गया अब पता नहीं कहाँ पर रहेगा?

लख्मी

एक ख़त खुद के नाम

सन 2005
दिल्ली, 110062

इस ख़त की शुरूआत सन 2005 में हो चुकी थी मगर इसमे आने वाले हर अल्फ़ाजों को बाहर आने का रास्ता आज मिल पाया था। इसमे मौज़ूद हर अल्फ़ाज मेरी बेबेसी की कहानी कहते हैं जिसे और अब अपने अन्दर रखने की हिम्मत नहीं है मुझमें।

मैं इस ख़त की शुरूआत कर रहा हूँ। अपनी उस ज़िन्दगी से जो मैं कभी अपने से बाहर नहीं निकाल पाया। एक डर रहा और एक आस।

कुछ भी पहले जैसा नहीं है। सब कुछ बदलता जा रहा है। ये जो आज मेरे साथ हुआ वो पहली बार होने वाला वाक्या नहीं है। जैसे-जैसे वक़्त बितता जा रहा है मैं अपने दिमाग मे कई यादें जमा करता जा रहा हूँ। जिनसे भी मैं मिल रहा हूँ या जिससे भी मैं बातें कर रहा हूँ वो किसी न किसी कारण मेरी यादों में जमा होते जा रहे हैं। हर दिन मेरे साथ में कोई न कोई नया रिश्ता अपने कदम बढ़ा लेता रहा है। इस बात का तो बिलकुल भी अफ़सोस नहीं है और न कोई गिला है मुझे। ये तो बहुत ही खुशी की बात है। तन्हाइयों को बाँटने में और अपनी पहचान बनाने में जीवन के कई साल लग जाते हैं पर फिर भी हम कभी रिश्तों में मुक्म्मलित तरह से परिचित नहीं हो पाते। ये उसके लिए मेरे जीवन में बहुत अनमोल था। लेकिन फिर भी मुझे डर क्यों है? एक ऐसा डर जिसके होने या न होने कोई फ़र्क तो नहीं पड़ने वाला था मुझपर या मेरे जीवित शरीर पर मगर फिर भी धड़कन कभी-कभी अपनी रिद्दम से तेज भागने लगती है।

आज जब मैं अपनी ज़िन्दगी को पलट कर देखता हूँ तो कई लोग मुझे अपने आसपास नज़र आते हैं जिनसे मैं अपनी यादें और अतीत बना पाया हूँ। जो सब मुझे साफ़-साफ़ नजर भी आते हैं पर जो नज़र नहीं आते वो कहाँ है? जो दिखता है उसी को मैं अपनी खुशी ज़ाहिर कर लेता हूँ पर जब मैं वापस पलट के देखता हूँ अपने आज के समय में तो भी कोई नहीं दिखता। क्या यहाँ पर मुझे दोबारा से रिश्ते बनाने होगें? क्या हर बार हम दिमाग को साफ़ कर देते हैं?

इसके बारे में मुझे हाल ही में मालूम हुआ। ये तो एक खेल है। इस खेल को रितियों का नाम देकर मजबूरन करना पड़ता है। जिसमे जीवित या मृत्य दोनों ही भागीदार बनते हैं। बाकि तो सब यहाँ पर चूसा हुआ माल है। जिसमे दोबारा रस़ भरने की उम्मीद तो नहीं मगर आस पर उसे छोड़ दिया गया है।

दिन के पोने बारह बज़ रहे थे। आज के दिन धूप बिलकुल नहीं थी। दोस्त की लाश घर के आगे रखी थी। ये कोई पहली बार देखने वाला नज़ारा तो नहीं था। उसकी लाश पर रोने वालों की कमी नहीं थी। उसके पाँव पकड़कर रोने वाले आज उसको छ़ोडना ही नहीं चाहते थे। किसी अपने नज़दीकी की ज़ुदाई बहुत ही बैरन होती है। रह-रहकर खाती है। उसी को आज सभी महसूस कर रहे थे। पहली नज़र में उसी देख भी नहीं पाया था मैं। सोच रहा था की उसके पास जाकर बैठू तो कहाँ? अगर उसके सिरहाने पर बैठूगाँ तो वो मुझे देख नहीं पायेगा और अगर उसके पाँव की तरफ मे बैठूगाँ तो उसको बूरा लेगा। बस, उसी को खड़े-खड़े मैं देखे जा रहा था। वक़्त इस तरह से सुलघ रहा था उसके सिरहाने में रखी अगरबत्ती हो जो धीमे-धीमे मिट रही थी। मुझमे और मेरी यादों में वो खुशबू नहीं थी की आज उसतक पहुँचा सकूँ। मैं रो नहीं रहा और न ही इतनी ताकत थी मुझमे की किसी रोने वाले को चुप भी करा सकूँ।

अब उसे उठाने का वक़्त आ गया था। इस बार मैंने सबसे पहले अपने कदम बड़ा दिए। जब मैं उसे उठा रहा था तो इक पल के लिए भी मेरे हाथ नहीं कांपे थे। उसके सिरहाने वाला डंडा मैंने अपने काँधो पर उठाया हुआ था। हम उसके घर से आधा किलोमीटर दूर चले आये थे। शमशानघाट सामने ही था। मैं चलता जा रहा था और जब सामने वाली सड़क को देखता तो लोग हमें देखकर अपने हाथ जोड़ लेते और दो-दो कदम हमारे साथ में चल पड़ते। शमशानघाट के कुएँ की एक चौकी पर उसे उतार दिया गया। उसके शव को वहाँ पर रखकर सभी उससे तीन-तीन कदम दूर हो गए। उसके नज़दीक अब सिर्फ उसके पिता जी ही रह थे और बाकि तो उसके लिए वहाँ आई किसी भीड़ से कम न थे। उसे अभी भी वैसा का वैसा ही वहाँ रख हुआ था। एक पंडित वहाँ पर कुछ बोलता तो वहाँ आये उसके घर के कुछ बुर्ज़ुग अपना कुछ कहते। इसी बातों में वो वहाँ पर वैसा ही
8लेटा हुआ था जैसे किसी को जानता ही नहीं है।

अब उसको अपने से कहीं दूर भेजने की क्रिया शुरू हो गई थी। उसके पिता जी ने एक मटके में पानी लिया और उसके चारों ओर चक्कर लगाने लगे। मटके को अपने काँधो पर उठाये वो उसके चक्कर लगाने लगे और थोड़ा-थोड़ा पानी जमीन पर गिराते भी रहे। ये उसको मोक्ष के लिए तैयार किया जा रहा था। ताकि वो अपने साथ मे किसी भी रिश्ते कि महक भी लेकर ना जाये। जो उसने यहाँ पर लिया वो चाहें किसी की खुशबू हो या महक वो सब यहीं पर उसे धो दिया जायेगा। पंडित जी हर चक्कर के नाम का मंत्र पढ़ते और कहते की "जो पाया वो यहीं पर रह जाये। सारे रिश्ते-नाते और सारे नियम वो सभी तुम्हारे लिए छोड़कर जा रहा हूँ मैं।"

ये उसके शब्द थे जो पंडित जी के मुँह से निकल रहे थे। अब उसे उठाकर अन्दर ले जाया जा रहा था। शमशानघाट के नियम के अनुसार उसे मोक्षस्थल पर लिटा दिया गया। लोग अब भी रो रहे थे। लेकिन अब क्यों जब की अपने रिश्तों और नातों को तो वापस लौटा चुका था। अब 'राम नाम सत्य' की आ‌वाज़ें लगनी बन्द हो गई थी। 'राम नाम' का जाप अब बिलकुल बन्द था शायद राम का नाम लेना अब यहाँ किसी के बस का नहीं था। उसके वहाँ पर कदम रख दिया था। मोक्षस्थल को साफ़ किया जा रहा था। उसके पिता जी लकड़ियों का एक बंडल बना रहे थे और उसके भाई वहाँ मोक्षस्थल की जमीन को साफ़ कर रहे थे।

लकड़ियों पर उसे लिटाया हुआ था। घी, कपूर, समाग्री, कलावे, लकड़ियों का चूरा, सिन्दूर व हल्दी सभी निकाल कर रख दी गई थी। धीरे-धीरे करके पंडित जी जैसा-जैसा कहते जाते उसके पिता जी वैसा ही करते। एक थाली में कपूर की ज्योती जलाई गई। थाली में पड़े सिन्दूर और हल्दी को घोल कर टीका बनाया गया जिसे उसकी अर्थी की लकड़ियों पर लगया जा रहा था। उसके पिता जी बिलकुल शान्त से वो सब करते जा रहे थे। थाली को लेकर एक चक्कर लगाते और उस लकड़ियो के बन्डल में आग लगाते। आखिरी सफ़र शुरू था। सभी उसके नज़दीक आ गए थे। सभी को मालूम था की आखिरी में क्या होता है? मैं भी उसी की तरफ़ में बड़ा। पंडित जी एक तसले में काफ़ी सारे लकड़ियों के छोटे-छोटे टुकडे लेकर आए और सभी ने एक-एक लकड़ी का टुकडा अपने हाथों में उठा लिया था। मैं भी उसी के साथ में वो सब करता जा रहा था। अपने हाथों में लकड़ी का टुकडा लिए खड़ा हो गया। अर्थी में मुखागनी देने से पहले सभी उसकी तरफ़ में बढ़ते और उन लकड़ियों को उसकी अर्थी पर डाल देते और हाथ जोड़कर पीछे की तरफ़ में हो जाते। मंत्रो का जाप चालू ही था। जिसमे होता की हम आज भी तुम्हारे अपने है और हमारा ये प्यार रखले। अपने हिस्से का प्यार और रिश्ता सभी उसके ऊपर से वार रहे थे। ये आखिरी था रिश्ते का वारना उसके बाद तुम हमारी ज़िन्दगी में एक याद बनकर ही रहोगे। जो हमेशा ताज़ा रहेगी।

सभी ने अपने हिस्से का प्यार और सौगात उसके सपूत कर दी थी। जैसे किसी मेहमान के विदा होने पर उसके हाथों में कुछ रख दिया जाता है। अपनी याद को ताज़ा रखने के लिए। मगर शायद ये ज़्यादा दिन तक ज़िन्दा नहीं रहता। उसके किसी और दौर में जाने के बाद में वो भूली-बिसरी कहानी हो जाती है। जिनको गढ़े मुर्दे कहा जाता है। बहुत ही दूर चले गए थे सभी। बस, दूर से ही उसके जलते शरीर को देख रहे थे। लकड़ियों से निकलती आग की लपटों में वो नज़र भी नहीं आ रहा था। इतनी तेज भाप थी की आग सभी को पीछे धकेल रही थी। उसके जलने के बाद जैसे सारे नाते अब ख़त्म हो चुके थे। पंडित जी अब भी वहीं पर खड़े थे। वो जिस अर्थी में उसको लाया गया था उसमे से किसी मजबूत डंडे को निकाल रहे थे। थोड़ी देर के बाद में उन्होंने एक लम्बा और बहुत ही मजबूत डंडा निकाला और उस जलती आग में दे दिया। वो शायद कुछ निकाल रहे थे। डंडा मारते और लकड़ियों को खिसकाते हुए उन्होंने उसके सिर को निकाल दिया था। फिर उन्होंने बहुत ही जोर से उसके जलते सिर में उस डंडे को घूसा दिया था। वो सिर टूट गया था उसका एक हिस्सा तो बाहर की तरफ भी निकल आया था तो उन्होंने उसे उसी डंडे से अन्दर की तरफ में खिसका दिया और यहाँ बाकि लोगों के पास में आकर खड़े हो गए।

मेरे साथ मे खड़े लोग उसे देखकर हाथ जोड़ रहे थे। कोई कह रहा था की वैसे तो सिर किसी-किसी का अपने आप ही चटक जाता है मगर इसका नहीं चटका। बहुत प्यार करता था ये अपने परिवार को जो उसकी यादों को अपने साथ मे ले जाना चाहता था। मगर ऐसा हो नहीं सकता इसे जाना तो बिना यादों की है। नहीं तो पिछले जन्म की यादों मे ये ठीक-ठाक दिमाग नहीं ले पायेगा। उसके सिर को टूटते ही सभी उसकी तरफ में आगे बढ़े और अपने हाथों मे एक-एक पत्थर उठाया और उस जलती चिता की तरफ में अपनी पीठ करके उस पत्थर को अपने सिर से पीछे की तरफ में फैंक देते।

ऐसा सभी कर रहे थे। उसके घर वाले भी। मेरे हाथों मे एक नहीं कई पत्थर थे। क्योंकि मेरे साथ उसकी एक याद नहीं थी। काफ़ी सारी यादें तो ऐसी थी जिसे घंटो बैठकर बातों में दोहराया था हमने। पंडित जी ने उसके सिर पर तो डंडा मार कर उसे यादों से और चेहरो से मुक़्त कर दिया था मगर हमारे सिरो में डंडा कौन मारेगा? ये चेहरा जो हमारे दिमाग मे बसा है और यादें जो दिल मे समाई है उसे कौन मुक़्त करेगा? क्या कोई उपाए है हमारे लिए। कितने पत्थर फैंकता मैं? वहाँ पर ऐसा कोई भी नहीं था जिसमे ये रितियाँ न की हो और न ही कोई ऐसा था की जिसने ये पत्थर न फैंका हो। वो अब भी जल रहा था। वो किसी के साथ न आ जाए इसका डर था यहाँ पर हर किसी को। ये क्या नितियाँ थी। मरने के बाद में सभी अच्छे हो जाए है ये उसके घर के सामने गाया जा रहा था। मगर यहाँ पर ये डर था कि कहीं वो पीछे न चले आये।

उसके पिता जी पत्थर फैंक नहीं पा रहे थे। वो पत्थर को उठा नहीं पा रहे थे। अब आकर रोये थे वो। एक ग्राम का वो पत्थर उनके लिए कई किलो के बराबर था। उस पत्थर को अपने ऊपर से वारना आसान नहीं था। उसका भाई बहुत रो रहा था। "पिता जी हमारा भईया गया हमें छोड़कर अब वो नहीं आयेगा" कहता हुआ बहुत जोर से रो रहा था। उसके पिता जी वो पत्थर फैंक नहीं पाये थे। सभी चले गए थे वहाँ से अब तक। खाली पंडित जी उसके पिता जी को समझाने में लगे थे।

मेरे हाथों के पत्थर मेरे पास ही थे। आज कोई भी ऐसा काम नहीं था जो मैं बहुत विश्वास से कर पाया था। ये खेल था जिसमे मैं अकेला ही खेल रहा था। मगर इसमे भी मैं हारा ही था। खूद से।

तुम्हारा...

लख्मी

Wednesday, February 4, 2009

सहमति की ज़ुबान

कल मेरी दोस्त बुशरा से फिर मुलाकात हुई, इस बार उसकी ज़ुबान में सहनशीलता थी। कई बातों से सहमति और कई बातों मे आश्चर्यजनक इच्छा भी। उसकी सहमति पूरी तरह से किसी भी बात को मान लेने वाली राह न थी। इस सहमति में कई आशाएँ छुपी थी जिसमे आने वाली संभावनाये विरोध मे भी जा सकती थी और अपनी ज़ुबान मे लौक भी हो सकती थी।

सहमति में चलने वाला दौर, ज़्यादातर बहुत चीज़ों को अपनाकर जीता है। जो अपने अपनाने को खुला छोड़ देता है। जिसमें अपनाने वाली चीज़ कभी भी अपना रूप बदल सकती है। ये न तो संधि होती है, न ही राज़ी होना और न ही कबूल करना। इन शब्दों में नज़र आने वाली छवि बेहद पैक होती है। इसके रूप के साथ बहस और संभावनाये घूम नहीं सकती। ये हम अक्सर मानकर चलते हैं।

सहमति में ऐसा नहीं होता। सहमति कई तरह की आशाएँ और संभावनाये खोले रखती है, बदलती है, बोलती है, ताना कसती है, छेड़ती है, पैक होती है तो कभी अपने ही जीवन के तर्क जोड़ देती है। कबूलना, संधि और राज़ी होना न मानकर भी किया जाने वाला फैसला बनकर उभरकर आता है जिसमे बदलाव की अन्य गुंजाइशे बाकी नहीं होती।

शब्दों के इस खेल में शख़्सियतें नाचती हैं। अपना आशियाना बनाती हैं जो इन शब्दों से रूप पाती हैं।

बुशरा की एक दिक्कत है वो अगर कोई बात छुपाना भी चाहे तो भी नहीं छुपा पाती। उसके शब्दों से उसके चेहरे के भाव मेल नहीं खाते। अकेले हमेशा किसी न किसी चीज़ को खोजती रहती है और शब्द लिखते हुए ज़ुबान का कोई छोर बना लेती है। उसकी आँखों की बैचेनी में ऐसा लगता है जैसे हर वक़्त कोई तलाश चलती रहती है। वो अपने मन में सवालों को रख नहीं पाती। सवालों के साथ रिश्ता कहकर-जवाब पाना नहीं होता। ये आसपास को बनाते हैं और आसपास उसको बनाता है। ये दो अलग तरह के चित्र जुड़ाव रखते हैं।

सवाल, अपने नज़दीक चलते माहौल में उतारने और उससे पार पाने की नइया नहीं है। सवाल उसके नज़दीक और बेहद नज़दीक बनाते माहौल और आसपास को बनाने वाले दौर बनते हैं। जो अपने में सभी कुछ खींचकर कोई आकार बना डालते हैं। कुछ सवाल अपने लिए भी होते हैं पर सवाल कभी बेचित्र नहीं होते। बस, फ़र्क सिर्फ़ इतना है कि उनमें चेहरे बदलते रहते हैं।

ये छुपाना उसके बस का नहीं है। अगर छुपाना भी चाहे तो भी छुपा नहीं सकती। ये उसकी फित्तरत और अंदाज में शामिल नहीं है। भले ही वो जब अपने माहौल या चुने हुए कोनों मे वापस चली जाती होगी तो उसकी छवि का नाता उसकी फित्तरत और अंदाज से कोई जुड़ाव नहीं रखता होगा। मगर ये सोचना अपनी बात की माफी माँगने के समान होगा। फित्तरत और अंदाज में कई भाव बेरंग और बदरंग होते हैं। जिनका जिक्र हमें दूर किनारों मे फैंक देता है। जहाँ से वापस लौटना मुश्किल होता है। क्योंकि उसकी दूरी का अनुमान लगाना बेहद कठीन है।

उसकी ज़ुबान में बैचेनी कुछ तलाश रही थी। वो बोली, “ये छुपाना क्या होता है?, छुपाना हमें क्या बतलाता है?, क्या इसका कोई सही मायना है? क्योंकि मैं जो सोचती हूँ और आसपास में देखती हूँ वो इसे गहराई मे डाल देता है।"

ये कहकर वो चुप हो गई, थोड़ी देर के बाद में फिर से बोली "हमारे यहाँ, बस्ती के बाहर से कई रैलियाँ निकलती हैं। हर बार नई ही भीड़ देखने को मिलती है। कभी रैलियाँ तेजी से निकल जाती हैं तो कभी कहीं पर रूकी सी रह जाती हैं। नया ही शौर बस्ती के बाहर लगा दिखाई देता है। लेकिन इन सब में ये 'छुपाना' शब्द मेरे दिमाग में अटक जाता है। कई बार बाहर बस्ती के सामने से निकलने वाली रैलियों में हमारी बस्ती को छुपा दिया जाता है। सामने से निकलते समय एक बड़ा सा पर्दा लगाकर बस्ती को ढ़क दिया जाता है। क्या मैं इस छुपाने को समझ सकती हूँ? हमारा अस्त्तिव कहाँ है? हम जिस जगह के लिए सारा झगड़ा करते हैं, लड़ते हैं, हक माँगते हैं ये सब किसके लिए है? एक टाइम के बाद मे ये बस्ती भी विस्थापित कर दी जायेगी तो हम किन शब्दों मे बोलेगें कि बस्ती का रूप ये है? खाली काग़जात ही हमारी पहचान है, लेकिन जब हमारे पास काग़जात होते है और घर मे कोई नहीं होता तो? ये सवाल खाली डब्बा बनकर रह जाता हैं। ये सफेद रंग का पर्दा आँखों पर छाया सा लगता है। इसको कैसे सोचूँ? हमारी बस्ती मे रहने वाले लोगों को इस बात से कोई दिक्कत नहीं है। सभी मस्त हैं, जी रहे हैं, उस पर्दे के पीछे से ये भी देख लेते हैं कि रैलियों मे क्या निकाला जा रहा है? और बड़े खुश भी होते हैं। कभी-कभी तो बहुत से लोग इस पर्दे के सामने अपनी दुकानें भी लगा लेते हैं। ये पर्दा हमारी बस्ती की आम दिनचर्रा में जुड़ गया है। वैसे कहने को यहाँ पर सोचने के लायक बहुत सी चीज़ें, बातें, माहौल और अवधारणायें हैं, उनमे ये भी अपनी जगह बना लेती है। मेरे लिए ये कभी आम सी बात नहीं बनी क्यों? क्या मैं इनसे अलग हूँ या मेरे पास वो अंदाज़ नहीं है जीने के जो सब कुछ भूलकर अपने मे खो जाते हैं।"

बुशरा की कही बात कोई उसकी जगह के लिए ही नहीं थी। ये छुपाना हो या छुपा देना। दोनों ही अलग-अलग क्यों न हो लेकिन किसी जगह या उसके जीवन के लिए ये एक ही ज़ुबान का काम करते हैं। कितने मासुम और छोटे से शब्द हैं ये दोनों लेकिन असल ज़िन्दगी में अपनी छाप को बेहद गहरा छोड़ देते हैं। हम इन शब्दों से खेल चुके हैं, अपने जीवन के उन दिनों मे जब हमें शायद इन शब्दों के मायने भी नहीं पता थे। ये खाली उस खेल की तरह से होते जो दोस्तों को आश्चर्यजनक और जमा करने के लिए कोई गुट बनाते। लेकिन ये अब खेल नहीं रहे। इनके मायने कुछ और हो गए हैं, बुशरा के जीवन मे इनके मायने बने-बनाये नहीं है बल्कि बना दिए गए हैं।

मेरे लिए जो सवाल बना वो था, हमें कैसे पता है कि हमारी जगह शहर से जुड़ी हुई है? बिना काग़जात, काम और रिश्तों को अपनी ज़िन्दगी से जोड़े हुए।

कहने को तो हम कह सकते हैं कि हमारी जगह से कई वो जगहें जुड़ी हैं जो हमारी पड़ोस कहलाती है। वो लोग जुड़े हैं जो हमें खोजते हुए आते हैं और वो कार्यक्रम जुड़े हैं जो बाहर सड़कों से गुजरते हैं। लेकिन फिर दूसरा सवाल ये बनता है कि इन सभी का हमारी जगह के होने या न होने से क्या फ़र्क पड़ता है?

हम ये मानकर चलते हैं कि हमारे पड़ोस में बसी जगहें शहर कहलाती हैं। हम भी किसी के लिए शहर हैं, इसमे ये कह देना ही काफी नहीं रहता। वे लोग जो हमें खोजते हुए आते हैं उनके साथ हमारी किसी न किसी छाप का पैमाना जुड़ा होता है। ये छाप या तो हमने छोड़ी है या मुलाकात का कोई असर कहीं ठहरा रह गया है।

छाप छोड़ना क्या होता है? इस छाप मे क्या-क्या शामिल होता है? कहते हैं हर कोई अपनी होने के सबूत छोड़ता है। दोस्तों की महफ़िलों में, रिश्तों में, जगहों में, सफ़र में हर कोई अपनी कोई न कोई छाप छोड़ता हुआ चलता है।

शायद जगहों ने भी अपनी छाप छोड़ी है, वे क्या है? हम अपनी खुद की जगहों को कैसे शहर की कगार, भागदौड़ और ठहराव मे देखते हैं? ये सवाल शायद उन जगहों के लिए नहीं बना जिनके टूटने के कोई आसार नहीं हैं। लेकिन उन जगहों मे बेखौफ़ घुस जाता है जिनके आसार रोज़ाना पनपते हैं और रोज़ाना मर जाते हैं। ये जगहें हैं बस्तियाँ जिसमे में बुशरा रहती है। वे अपनी जगह को कुछ ऐसे सवालों से देखती है। कभी टूटती है तो कभी बन जाती है। लेकिन जीने की आस कभी ख़त्म नहीं होती। यही जीने की आस शहर से उसको जोड़े रखती है। इस आस का असल में रूप क्या है वे न तो उसे पता है और न ही किसी और को। इसी रिद्दम मे तैरते रहना ही इस जगह को अपना रूप बनाने की चेष्टा देता है।

वो पर्दे के पीछे की दुनिया में जीना और पर्दे के सामने आकर अपनी दुनिया बनाना। ये जद्दोजहद चलती रहती है। यही जीवन है।

लख्मी

Monday, February 2, 2009

इंडियन डोग बेस्टएक्टर

मैंने ये फिल्म देखी, इससे कुछ बीते जमाने की हिन्दी फिल्मों के कुछ क़िरदार उभरने लगे। जैसे- बस्ती यानि हिन्दी फिल्मों के वे हीरो जो किसी चॉल या बस्ती मे रहते थे वे तो कब के करोड़पती या कह सकते हैं की एक ऐसी शख़्सियत बन जाते जो बेहद अमीर है। अगर वो  सारे Blank cheque रख लेते जो उन्हे हीरोइन के बाप ने, किसी अमीर ने बस्ती खरीदने के नाम पर, नौकरी से निकल जाने के लिए। दिए थे।

इन सभी में क्या था? ये हीरो का Blank cheque न लेना । ये क्या बतलाता है? शायद वो जो हिन्दी फिल्मों का एक गरीब हीरो कहता था- "मुझमे एक खुद्दारी है।" , "मैं सब कुछ बैच सकता हूँ लेकिन अपना ज़मीर नहीं।" , "पैसे से तुम क्या-क्या खरीदोगे?......."

लेकिन इस फिल्म मे आपको दिखता है कि जैसे वो खुद्दारी गायब हो गई है। वो अपनी ज़ुबान जो खुद से बनाई जाती है, खुद को दोहराने के लिए। अब गरीब हीरो बन गया है किसी और के नज़रिये से बनने वाले शक मे जीने वाला एक ऐसा क़िरदार जो एक दिन गायब भी हो जायेगा तो कुछ फ़र्क नहीं पड़ेगा।

शुरू होता है-

किसी जगह को देखने के नज़रिये क्या होते हैं और उसमे बसते जीवन को दोहराया कैसे जाये?

ये सवाल अब सवाल नहीं, असल में बस फ्रेम और चश्मे बनकर रह गया है जिसमें हम अपनी ही तरह से शहर को, किसी भी जगह को और उसमे बसते हर पल, घटना, रोज़मर्रा, अतीत, भविष्य को देखते हैं। इसमे अपने आपसे कोई सवाल भी नहीं करते कि जो हम देख रहे हैं वो क्या है? और वो हमारे जीवन से क्या रिश्ता रखता है?

किसी 'बस्ती' में बाहर से आने वाला शख़्स और वहीं पर रहने वाले शख़्स के नज़रिये में क्या अंतर होता है? ये अंतर खाली देखने से ताल्लुक ही नहीं रखता, इसमे कुछ और भी है। वो क्या है? क्या आप जानते हैं?

जो वहाँ रहता है उसकी आँखों पर लगे फ्रेम में जगह के नज़रिये में, जीवन के हर बिन्दू, हर पल जिसमे घुलते रिश्ते, आशियाना बनाने की जिद्द, समाज के साथ संधि और शहर के हर बदलाव के साथ जुझना उसके साथ-साथ खुद की जगह को हर वक़्त बनाने की कोशिश शामिल होती है। जो उसने सोचा और वो हो गया, इतना आसान नहीं होता। उसके लिए उसे बहुत सारे कामों अथवा रिश्तों के साथ रोज़ाना बहस में रहना होता है। अपने आसपास होने वाले बदलाव मे रहने वाला शख़्स रोज़ाना सुबह निकलता और जब शाम में वापस लौटता है। वापस आने के बाद वो अपने लिए कुछ कोने बनाता है, जो उसके जीवन में दिल बहलाने के लिए होते हैं, नये रिश्ते बनाने के लिए होते हैं, नई घटनाओ को दोहराने के लिए होते हैं, लोगों के बीच मे घुलने के लिए और ना जाने कितने ऐसे किस्सो का हकदार, साथीदार बनने के लिए होते हैं, जो सुबह निकलते वक़्त उसके नहीं थे और ना ही उसके जीवन के लिए बने थे।

ये अपने लिए कोने बनाने के सिलसिले क्या हैं? इनको देखने के नज़रिये क्या है?]
"सन् 1996 मे मैं काम पर लग गया था। जिसके कारण मैंने अपनी पढ़ाई छोड़ी। काम करते-करते मैं कई स्कूलों मे दाखिला लेने गया तो वहाँ के स्कूलों का जवाब था की दक्षिणपुरी के किसी भी बच्चे का हम दाखिल नहीं ले सकते।"

ये एक गहरी छाप है। इससे कैसे जुझा जाये?

मेरे एक साथी ने बहुत ही प्यार से मुझसे एक बार कुछ कहा था। वो बोल थे, “हमारे किसी नई जगह या किसी माहौल मे जाने के दो रूप होते हैं या तो हम अपना ही कोई रंग लेकर जाते हैं या फिर उस माहौल या जगह में दिखते रंगो से कोई रंग बनाते हैं। जो वहाँ के अलग-अलग रंगो मे से चुना हुआ रंग नहीं होता। बल्कि उन सभी रंगो को मिलाकर क्या रंग बनता है उसे उभारने की कोशिश करते हैं।"

मगर अपनाया क्या जाता है?.....


ये एक बहस है, जो कोई हमसे या हम किसी से नहीं कर सकते। ये बहस खाली हम अपने आपसे कर सकते हैं। जहाँ दोनों तरफ से लड़ने वाले हम अकेले होगें। ये सवाल किसी जगह को समझने, दोहराने, व्याख़ा करने अथवा उसको चित्रित करने के जैसा नहीं है। ये जगह जीवित है, सांस लेती है, मरती है, जागती है, रोती है, हँसती है और अपने जीने को रोज़ बनाती और टूटता हुआ भी देखती है। इसमे अनगिनत रंग है, माहौल है, रूप हैं। ये सब सोचकर हम किसी रूप को बनाने की कोशिश करते हैं।

ये बहस कब शुरू हुई?

ये बहस, सच और सच्चाई के बीच में नाचती है। ये खेल है, जिसको समझने की किसी ने चेष्ठा ही नहीं की। मैं स्लम डोग करोड़पती फ़िल्म की बुराई अथवा स्लम की तारीफ़ नहीं करूगाँ और न ही स्लम की बुराई और स्लम डोग करोड़पती की तारीफ़। ये फिल्म सच और सच्चाई के बीच नाचती है। जिसमे चित्र उस जीवन के आधार को और नाटकिये बना देते हैं।

कहानी से चित्रों को देखना और चित्रों से कहानी को देखना। ये एक सवाल है। इसको कैसे सोचें? किसी के जीवन को लिखना और उसको बताने के लिए चित्रों को बनाना, इनके बीच क्या रिश्ता होता है?

मगर सिर्फ़ इतना कहूँगा की स्लम को दिखाने अथवा उसके साथ रिश्ता बनाने के दौर में अभी बहुत कुछ सोचना पड़ेगा शहर को। ये तस्वीर कब की है? इसकी उम्र क्या है? और ये कहाँ से उपज़ती है?

शहर में पिछले दिनों कई बस्तियाँ विस्थापित की गई और उन्हे कहीं पर जगह भी दी गई। हम विस्थापन को उसके टूटते चित्रों से भी देख सकते हैं और उसमे टूटती उन कल्पनाओ से भी जिन्हे शहर याद भी नहीं रखता। मान लेते हैं कि आपके हाथ मे कैमरा है और आप उस बस्ती मे तस्वीरें खींचने गए हैं जो विस्थापित की जा रही है। तो आपकी आँखों के सामने क्या होगा? और आपके जीवन मे क्या? इन दोनों के बीच में आप कहाँ होगें?

एक चित्र मैं आपको बताता हूँ। चित्र है- एक औरत सड़क पर बैठी है। उसके घर को बुल्डोजर से तोड़ा जा रहा है। उस औरत की आँखों मे आँसू है। आज अपने घर से दस कदम की दूरी पर वो बैठी है। आप उसके सामने कैमरा लेकर खड़े हैं। तो उसके आँसूओं के सामने खड़े रहने का मतलब क्या है? दस मिनट आप उसके सामने खड़े हैं। आप उन दस मिनट को कैसे दोहरायेगें?

समझ में नहीं आया तो एक चित्र और रख सकता हूँ चित्र है- बस्ती की एक गली, जिसमे 20 घर थे। मगर आज उनमे से दो-दो घर की दूरी पर कुछ घरों को तोड़ दिया गया है। उनका मलवा वहीं गली में बिखरा पड़ा है। उस गली में से कैमरा लेकर निकलने का मतलब क्या है?

इन चित्रों को हम ये कहकर भी निकल सकते हैं की उनका स्लम डोग करोड़पती फिल्म से क्या लेना-देना। लेकिन इन चित्रों का लेना-देना आपके और मेरे जीवन से है। क्योंकि हम उस जगह के रहनवाज़ नहीं तो क्या हुआ लेकिन इस फिल्म के जरिये इन चित्रों से एक ख़ास रिश्ता बना लेते हैं।

स्लम डोग करोड़पती फिल्म की बहस बहुत रोमांचक है। जिसकी तरफ रूची बड़ती है। सोच और जिद्द को लेकर। कह सकते हैं की एक करारे जवाब की भांति वो अपनी भाषा को रख पाती है। जब एक छोटी सी बस्ती में रहने वाला लड़का करोड़पती बन जाता है। बहुत बढ़िया। क्या बात हैं! जबरदस्त साहब।

क्या सच में इसी फिल्म को देखने के बाद में पता चला है? ये फिल्म नहीं आती तो क्या पता नहीं चलता?

यहाँ दक्षिणपुरी मे रहने वाले एक शख़्स जो कभी सिनेमा हॉल में काम किया करते थे। वे बोले, “1970 से 1986 तक की फिल्मों में बस्ती और उसमे रहने वाले जीवन को इस तरह बताया और दोहराया जाता था कि लगता था दरवाजे के बाहर निकल कर की ये दुनिया बहुत छोटी है। जिसकी निगाह खाली वो नहीं देखती जो आसानी से देखा जा सकता है। किसी के घर को बताने के लिए उसके घर मे रहना होता है। जैसे "कथा" फिल्म। नसीरूद्दीन शाह और फ़ारूख़ शेख ने क्या अदाकारी थी। जिसमे जगह खिल कर बाहर आती है। जिसमे एक बस्ती में रहने वाला शख़्स कैसे अपने पड़ोसियों से रिश्ता बनाता है और कैसे उनके साथ मे रहने को जीना कहता है। मगर 1990 से आज तक बस्ती को, कालोनी को और उसके जीवन को कुछ इस तरह से कर दिया गया है। जैसे- बस्ती के लड़के अंडरवल्ड के सरगना है, लड़कियाँ बेचारी हैं और बुर्ज़ुग बिखारी है या रो रहे हैं। रोने के अलावा उनके पास कुछ रहा ही नहीं है और देखो तो सही की बॉलीवुड इसे सच भी मानता है। क्या बात है! आज भईयों तस्वीर कुछ और है। इस फिल्म को बनाने से पहले एक बार घूमने ही चले आते। स्लम तो सभी को न्यौते में रखता है। यहाँ की तस्वीर शायद तब कुछ ज़्यादा उभरकर आये।”

दक्षिणपुरी में इस हलचल मे एक ने कहा, “कल न्यूज़ मे शाहरूख ने कहा की इस फिल्म मे सच्चाई है इसे हम नकार नहीं सकते। शहर सड़क से गुजरते हुए इस तरह की लाइने अक्सर स्लम पर मार देता है और अपनी ही बात को सच्चाई मानकर जीता है। ये भ्रम अक्सर शहर लेकर जीता है। एक गाना याद आ रहा है, कभी हाँ, कभी ना- फिल्म का, "वो तो है अलबेला हजारों मे अकेला सदा तुमने ऐब देखा हुनर तो ना देखा।" शायद फिल्म वाले अपने रोल के साथ रिश्ता खाली फिल्म के पेमेन्ट तक ही रखते हैं। उसके बाद दिमाग खाली हो जाता है।"


मैं फिल्म मे ये देखने की कोशिश कर रहा था कि किसी जगह को, जीवन को दोहराने के चित्र क्या होते हैं? शहर कि निगाह और इस फिल्म की निगाह क्या है? जैसे शहर देखता है वही है या कुछ और है? मगर मुझे थोड़ा अफ़सोस हुआ। इस फिल्म मे कहानी पर बेहद नये ठंग से नज़र रखी गई है। नई कहानी का जन्म हुआ है बॉलीवुड में लेकिन जगह, उसके रूप और रोज़मर्रा को देखने के नज़रिये नये नहीं है।

ये फिल्म अभी बहुत गुलखिलायेगी।

वैसे इस फिल्म का नाम बहुत अच्छा है, हाँ भले ही इस नाम के नीचे स्लम मे रहने वाली हजारों ज़िन्दगियाँ दब जाती है, मर जाती हैं। ज़िन्दगी की सारी उलझने, फैसले, जीने के तरीके और प्यार सब कुछ दब जाता है। जैसे कि लाश पर सफेद रंग की चादर डाल दी गई है। इसपर मेरे एक साथी ने कहा, “वैसे इस नाम के आते ही बहुत सारी आने वाली फिल्मो के नामों की लिस्ट भी खुल जाती है। जैसे अगली फिल्मों के नाम होगें- इंडियन डोग बेस्टएक्टर, इंडियन डोग बेस्ट डांसर, इंडियन डोग बेस्ट राइटर। शायद इससे हमारी फिल्मइंडस्ट्रीज़ खुश होकर ये अवॉड के नाम मे तब्दील करदे जैसे- इंडियन डोग बेस्टएक्टर का अवॉड जाता है इसको...

अब इसके लिए भी बॉलीवुड मे क्या जबरदस्त नारे बाज़ियाँ होगी। समय ज़्यादा दूर नहीं है। देखते जाओ।



लख्मी