Monday, February 2, 2009

इंडियन डोग बेस्टएक्टर

मैंने ये फिल्म देखी, इससे कुछ बीते जमाने की हिन्दी फिल्मों के कुछ क़िरदार उभरने लगे। जैसे- बस्ती यानि हिन्दी फिल्मों के वे हीरो जो किसी चॉल या बस्ती मे रहते थे वे तो कब के करोड़पती या कह सकते हैं की एक ऐसी शख़्सियत बन जाते जो बेहद अमीर है। अगर वो  सारे Blank cheque रख लेते जो उन्हे हीरोइन के बाप ने, किसी अमीर ने बस्ती खरीदने के नाम पर, नौकरी से निकल जाने के लिए। दिए थे।

इन सभी में क्या था? ये हीरो का Blank cheque न लेना । ये क्या बतलाता है? शायद वो जो हिन्दी फिल्मों का एक गरीब हीरो कहता था- "मुझमे एक खुद्दारी है।" , "मैं सब कुछ बैच सकता हूँ लेकिन अपना ज़मीर नहीं।" , "पैसे से तुम क्या-क्या खरीदोगे?......."

लेकिन इस फिल्म मे आपको दिखता है कि जैसे वो खुद्दारी गायब हो गई है। वो अपनी ज़ुबान जो खुद से बनाई जाती है, खुद को दोहराने के लिए। अब गरीब हीरो बन गया है किसी और के नज़रिये से बनने वाले शक मे जीने वाला एक ऐसा क़िरदार जो एक दिन गायब भी हो जायेगा तो कुछ फ़र्क नहीं पड़ेगा।

शुरू होता है-

किसी जगह को देखने के नज़रिये क्या होते हैं और उसमे बसते जीवन को दोहराया कैसे जाये?

ये सवाल अब सवाल नहीं, असल में बस फ्रेम और चश्मे बनकर रह गया है जिसमें हम अपनी ही तरह से शहर को, किसी भी जगह को और उसमे बसते हर पल, घटना, रोज़मर्रा, अतीत, भविष्य को देखते हैं। इसमे अपने आपसे कोई सवाल भी नहीं करते कि जो हम देख रहे हैं वो क्या है? और वो हमारे जीवन से क्या रिश्ता रखता है?

किसी 'बस्ती' में बाहर से आने वाला शख़्स और वहीं पर रहने वाले शख़्स के नज़रिये में क्या अंतर होता है? ये अंतर खाली देखने से ताल्लुक ही नहीं रखता, इसमे कुछ और भी है। वो क्या है? क्या आप जानते हैं?

जो वहाँ रहता है उसकी आँखों पर लगे फ्रेम में जगह के नज़रिये में, जीवन के हर बिन्दू, हर पल जिसमे घुलते रिश्ते, आशियाना बनाने की जिद्द, समाज के साथ संधि और शहर के हर बदलाव के साथ जुझना उसके साथ-साथ खुद की जगह को हर वक़्त बनाने की कोशिश शामिल होती है। जो उसने सोचा और वो हो गया, इतना आसान नहीं होता। उसके लिए उसे बहुत सारे कामों अथवा रिश्तों के साथ रोज़ाना बहस में रहना होता है। अपने आसपास होने वाले बदलाव मे रहने वाला शख़्स रोज़ाना सुबह निकलता और जब शाम में वापस लौटता है। वापस आने के बाद वो अपने लिए कुछ कोने बनाता है, जो उसके जीवन में दिल बहलाने के लिए होते हैं, नये रिश्ते बनाने के लिए होते हैं, नई घटनाओ को दोहराने के लिए होते हैं, लोगों के बीच मे घुलने के लिए और ना जाने कितने ऐसे किस्सो का हकदार, साथीदार बनने के लिए होते हैं, जो सुबह निकलते वक़्त उसके नहीं थे और ना ही उसके जीवन के लिए बने थे।

ये अपने लिए कोने बनाने के सिलसिले क्या हैं? इनको देखने के नज़रिये क्या है?]
"सन् 1996 मे मैं काम पर लग गया था। जिसके कारण मैंने अपनी पढ़ाई छोड़ी। काम करते-करते मैं कई स्कूलों मे दाखिला लेने गया तो वहाँ के स्कूलों का जवाब था की दक्षिणपुरी के किसी भी बच्चे का हम दाखिल नहीं ले सकते।"

ये एक गहरी छाप है। इससे कैसे जुझा जाये?

मेरे एक साथी ने बहुत ही प्यार से मुझसे एक बार कुछ कहा था। वो बोल थे, “हमारे किसी नई जगह या किसी माहौल मे जाने के दो रूप होते हैं या तो हम अपना ही कोई रंग लेकर जाते हैं या फिर उस माहौल या जगह में दिखते रंगो से कोई रंग बनाते हैं। जो वहाँ के अलग-अलग रंगो मे से चुना हुआ रंग नहीं होता। बल्कि उन सभी रंगो को मिलाकर क्या रंग बनता है उसे उभारने की कोशिश करते हैं।"

मगर अपनाया क्या जाता है?.....


ये एक बहस है, जो कोई हमसे या हम किसी से नहीं कर सकते। ये बहस खाली हम अपने आपसे कर सकते हैं। जहाँ दोनों तरफ से लड़ने वाले हम अकेले होगें। ये सवाल किसी जगह को समझने, दोहराने, व्याख़ा करने अथवा उसको चित्रित करने के जैसा नहीं है। ये जगह जीवित है, सांस लेती है, मरती है, जागती है, रोती है, हँसती है और अपने जीने को रोज़ बनाती और टूटता हुआ भी देखती है। इसमे अनगिनत रंग है, माहौल है, रूप हैं। ये सब सोचकर हम किसी रूप को बनाने की कोशिश करते हैं।

ये बहस कब शुरू हुई?

ये बहस, सच और सच्चाई के बीच में नाचती है। ये खेल है, जिसको समझने की किसी ने चेष्ठा ही नहीं की। मैं स्लम डोग करोड़पती फ़िल्म की बुराई अथवा स्लम की तारीफ़ नहीं करूगाँ और न ही स्लम की बुराई और स्लम डोग करोड़पती की तारीफ़। ये फिल्म सच और सच्चाई के बीच नाचती है। जिसमे चित्र उस जीवन के आधार को और नाटकिये बना देते हैं।

कहानी से चित्रों को देखना और चित्रों से कहानी को देखना। ये एक सवाल है। इसको कैसे सोचें? किसी के जीवन को लिखना और उसको बताने के लिए चित्रों को बनाना, इनके बीच क्या रिश्ता होता है?

मगर सिर्फ़ इतना कहूँगा की स्लम को दिखाने अथवा उसके साथ रिश्ता बनाने के दौर में अभी बहुत कुछ सोचना पड़ेगा शहर को। ये तस्वीर कब की है? इसकी उम्र क्या है? और ये कहाँ से उपज़ती है?

शहर में पिछले दिनों कई बस्तियाँ विस्थापित की गई और उन्हे कहीं पर जगह भी दी गई। हम विस्थापन को उसके टूटते चित्रों से भी देख सकते हैं और उसमे टूटती उन कल्पनाओ से भी जिन्हे शहर याद भी नहीं रखता। मान लेते हैं कि आपके हाथ मे कैमरा है और आप उस बस्ती मे तस्वीरें खींचने गए हैं जो विस्थापित की जा रही है। तो आपकी आँखों के सामने क्या होगा? और आपके जीवन मे क्या? इन दोनों के बीच में आप कहाँ होगें?

एक चित्र मैं आपको बताता हूँ। चित्र है- एक औरत सड़क पर बैठी है। उसके घर को बुल्डोजर से तोड़ा जा रहा है। उस औरत की आँखों मे आँसू है। आज अपने घर से दस कदम की दूरी पर वो बैठी है। आप उसके सामने कैमरा लेकर खड़े हैं। तो उसके आँसूओं के सामने खड़े रहने का मतलब क्या है? दस मिनट आप उसके सामने खड़े हैं। आप उन दस मिनट को कैसे दोहरायेगें?

समझ में नहीं आया तो एक चित्र और रख सकता हूँ चित्र है- बस्ती की एक गली, जिसमे 20 घर थे। मगर आज उनमे से दो-दो घर की दूरी पर कुछ घरों को तोड़ दिया गया है। उनका मलवा वहीं गली में बिखरा पड़ा है। उस गली में से कैमरा लेकर निकलने का मतलब क्या है?

इन चित्रों को हम ये कहकर भी निकल सकते हैं की उनका स्लम डोग करोड़पती फिल्म से क्या लेना-देना। लेकिन इन चित्रों का लेना-देना आपके और मेरे जीवन से है। क्योंकि हम उस जगह के रहनवाज़ नहीं तो क्या हुआ लेकिन इस फिल्म के जरिये इन चित्रों से एक ख़ास रिश्ता बना लेते हैं।

स्लम डोग करोड़पती फिल्म की बहस बहुत रोमांचक है। जिसकी तरफ रूची बड़ती है। सोच और जिद्द को लेकर। कह सकते हैं की एक करारे जवाब की भांति वो अपनी भाषा को रख पाती है। जब एक छोटी सी बस्ती में रहने वाला लड़का करोड़पती बन जाता है। बहुत बढ़िया। क्या बात हैं! जबरदस्त साहब।

क्या सच में इसी फिल्म को देखने के बाद में पता चला है? ये फिल्म नहीं आती तो क्या पता नहीं चलता?

यहाँ दक्षिणपुरी मे रहने वाले एक शख़्स जो कभी सिनेमा हॉल में काम किया करते थे। वे बोले, “1970 से 1986 तक की फिल्मों में बस्ती और उसमे रहने वाले जीवन को इस तरह बताया और दोहराया जाता था कि लगता था दरवाजे के बाहर निकल कर की ये दुनिया बहुत छोटी है। जिसकी निगाह खाली वो नहीं देखती जो आसानी से देखा जा सकता है। किसी के घर को बताने के लिए उसके घर मे रहना होता है। जैसे "कथा" फिल्म। नसीरूद्दीन शाह और फ़ारूख़ शेख ने क्या अदाकारी थी। जिसमे जगह खिल कर बाहर आती है। जिसमे एक बस्ती में रहने वाला शख़्स कैसे अपने पड़ोसियों से रिश्ता बनाता है और कैसे उनके साथ मे रहने को जीना कहता है। मगर 1990 से आज तक बस्ती को, कालोनी को और उसके जीवन को कुछ इस तरह से कर दिया गया है। जैसे- बस्ती के लड़के अंडरवल्ड के सरगना है, लड़कियाँ बेचारी हैं और बुर्ज़ुग बिखारी है या रो रहे हैं। रोने के अलावा उनके पास कुछ रहा ही नहीं है और देखो तो सही की बॉलीवुड इसे सच भी मानता है। क्या बात है! आज भईयों तस्वीर कुछ और है। इस फिल्म को बनाने से पहले एक बार घूमने ही चले आते। स्लम तो सभी को न्यौते में रखता है। यहाँ की तस्वीर शायद तब कुछ ज़्यादा उभरकर आये।”

दक्षिणपुरी में इस हलचल मे एक ने कहा, “कल न्यूज़ मे शाहरूख ने कहा की इस फिल्म मे सच्चाई है इसे हम नकार नहीं सकते। शहर सड़क से गुजरते हुए इस तरह की लाइने अक्सर स्लम पर मार देता है और अपनी ही बात को सच्चाई मानकर जीता है। ये भ्रम अक्सर शहर लेकर जीता है। एक गाना याद आ रहा है, कभी हाँ, कभी ना- फिल्म का, "वो तो है अलबेला हजारों मे अकेला सदा तुमने ऐब देखा हुनर तो ना देखा।" शायद फिल्म वाले अपने रोल के साथ रिश्ता खाली फिल्म के पेमेन्ट तक ही रखते हैं। उसके बाद दिमाग खाली हो जाता है।"


मैं फिल्म मे ये देखने की कोशिश कर रहा था कि किसी जगह को, जीवन को दोहराने के चित्र क्या होते हैं? शहर कि निगाह और इस फिल्म की निगाह क्या है? जैसे शहर देखता है वही है या कुछ और है? मगर मुझे थोड़ा अफ़सोस हुआ। इस फिल्म मे कहानी पर बेहद नये ठंग से नज़र रखी गई है। नई कहानी का जन्म हुआ है बॉलीवुड में लेकिन जगह, उसके रूप और रोज़मर्रा को देखने के नज़रिये नये नहीं है।

ये फिल्म अभी बहुत गुलखिलायेगी।

वैसे इस फिल्म का नाम बहुत अच्छा है, हाँ भले ही इस नाम के नीचे स्लम मे रहने वाली हजारों ज़िन्दगियाँ दब जाती है, मर जाती हैं। ज़िन्दगी की सारी उलझने, फैसले, जीने के तरीके और प्यार सब कुछ दब जाता है। जैसे कि लाश पर सफेद रंग की चादर डाल दी गई है। इसपर मेरे एक साथी ने कहा, “वैसे इस नाम के आते ही बहुत सारी आने वाली फिल्मो के नामों की लिस्ट भी खुल जाती है। जैसे अगली फिल्मों के नाम होगें- इंडियन डोग बेस्टएक्टर, इंडियन डोग बेस्ट डांसर, इंडियन डोग बेस्ट राइटर। शायद इससे हमारी फिल्मइंडस्ट्रीज़ खुश होकर ये अवॉड के नाम मे तब्दील करदे जैसे- इंडियन डोग बेस्टएक्टर का अवॉड जाता है इसको...

अब इसके लिए भी बॉलीवुड मे क्या जबरदस्त नारे बाज़ियाँ होगी। समय ज़्यादा दूर नहीं है। देखते जाओ।



लख्मी

No comments: