Monday, February 23, 2009

तारों से भरी दुनिया या कल्पनाओं से भरी छत

हम धीरे-धीरे एक ऐसी दुनिया कि ओर बढ़ रहे हैं जो इतनी काल्पनिक है कि कभी-कभी हमें ख़्वाब में भी नज़र आती है जिसमें हम शहर, गली और हर जगह को किसी और ही रूप में देख लेते हैं और जी भी लेते हैं। कभी शहर को बर्फ़िला बना डालते हैं। कभी हर गाड़ी को चला रहे होते हैं। हर फ़िल्म में काम कर रहे होते हैं। हर रात चमकीली दुनिया में जीकर उसका लुत्फ़ उठा रहे होते हैं। इंडिया टीम को कई वर्ल्ड कप जिता चुके होते हैं। अपने घर के आगे अपनी गाड़ी पार्क कर रहे होते हैं। अपनी छत पर झूला डाले झूल रहे होते हैं। किसी कमरे में किन्ही अंजान लोगों के साथ रह रहे होते हैं। पंख लगाकर उड़ रहे होते हैं। वहाँ तक जहाँ हमारे लिये नो एन्ट्री होती है। रात में ऐसी जगह पर होते हैं जहाँ टाइम का पता नहीं चलता और हर तरह के गैम खेल रहे होते हैं। अंजान लोगों के साथ या हर रात सुहागरात मना रहे होते हैं। किसी का इंतजार कर रहे होते हैं। कहीं दूर खड़े हैं, फिर भी दोस्तों के बीच हैं। किसी महफ़िल के बादशाह बने होते हैं। किसी शो में हिस्सेदारी कर रहे होते हैं। किताबों में खोए होते हैं और कहीं किसी बेगाने की शादी मे नाच रहे होते हैं।

मगर, ये सब वही देखते हैं जिनका इन पलों के साथ किसी न किसी तरह की दूरी का रिश्ता होता है। हर रात हमारी मुट्ठी कि पकड़ इतनी मजबूत हो जाती है कि हम सूखी रेत को भी पकड़ लेते हैं और धीरे-धीरे उसे खुद छोड़ते रहते हैं। इस काल्पनिक दुनिया में न जाने हम कितने तरह के रंग अपने ही कमरे में भर जाते हैं बिना किसी हद या शर्तों के। कदम, नज़र, हाथ और दिमाग किसी नो एन्ट्री को नहीं मानता और कभी भी, किसी भी जगह पर जाकर अपनी बातों को इच्छाओं को पा लेता है। क्या हम इस दुनिया कि तरफ बढ़ रहे हैं? या फिर किसी ऐसी दुनिया कि ओर अपने कदम रख रहे हैं जो एक फ्रेम कि भाँति है जिसमें हर शख़्स अपनी आकृति को फिक्स किए चला जा रहा है? इतना फिक्स कि वो कई धारणाओं और उसकी संभावनाओं को भी बंद डिब्बो में डाल चुका है।

हर पैदा होने वाला जीवन, अपना पहनावा खुद चुनता है और किसी न किसी आकृति में कैद हो जाता है। क्या यही है आने वाली दुनिया? हर शख़्स अपने ज़हन में अपने शहर कि कल्पना किए जाता है अपने किसी टाइम को ही बता पाता है तो बाकि का समय क्या है? वो कौनसा वक़्त है जो अक्सर दोहराने में आता है? और जो दोहराने में नहीं आता वो कौनसा है? सपनों की भाँति और काल्पनिक अहसास की ज़ुबाँ से कुछ बोल निकलते हैं। मेरा एक साथी कभी-कभी कहता है, “साला रात तो अपनी है।"

रात के साथ में हमारा रिश्ता उन अहसासों के साथ सम्बंध रखता है जिसकी डोर हमारे खुद के हाथों में होती है। जिसे कभी हम किसी सितारवादन के तार की तरह से छूते हैं तो कभी उसे कहीं पहूँचने के लिए मजबूत रस्सी सा बना लेते हैं। एक लड़की जिसकी ज़ुबाँ पर ये बोल आने से उसके लिखे पन्ने पर आ गए थे। पन्नों के साथ उसका नाता कहकर चुप्पी साधना नहीं था वे शायद अपनी ही संभावनाओं को उन बोल को बी खींच लेता है जिसको बाहर आने से पहले कई चीज़ों को सोचना पड़ता है।

उसके पन्नों से,
मैं पहली बार घर के बाहर दर्ज़ी की दुकान पर जा रही थी। ये पता नहीं था की बाहर में लड़कियों के कपड़े सिलने वाले आदमी होते हैं। न चाहकर भी मुझे उस दर्ज़ी के पास दुकान पर जाना पड़ा। सब कुछ तो ठीक था। कैसा सिलवाना है? कितना बड़ा होगा? क्या रंग होगा? ये सब उन दर्ज़ी की बातों में तय हो चुका था। बातों ही बातों में उन्होनें मेरे शरीर को आकार और रूप दोनों दे दिए थे। मुझपर वो सूट कैसा लगेगा और मैं उस सूट में कैसी दिखुगीं?

वो तारीफ़ पर तारीफ़ कर मुझे अपनी बातों में इतना लुभा दिए थे कि मैं अपने ही शरीर की कल्पना करके, खुद को बेहद खूबसूरत समझने लगी थी।

अपनी इन्चीटेप लेकर वो मेरे आगे खड़े हो गए और माप लेने को कहने लगे। अपने आपको एक झिझक के साथ में बाँधा था अभी तक मैंने पर क्या करती दिमाग में यही था की "एक दर्ज़ी ही तो है।" ये कहकर मैंने उसे- अपने आपको सोंप दिया। उसने पहले टाँगों की लम्बाई ली। फिर कमर में उसने अपने दोनों हाथ घुमाएँ और एक इन्च की दूरी पर अपना हाथ रखकर माप ले लिया। धीरे-धीरे वो मेरी कमीज़ की लम्बाई लेते-लेते मेरे सीने तक आ चुके थे।
बस, एक ही बात दिमाग में घूम रही थी की ये हो क्या रहा है?, कुछ पल के लिए तो ये दुनिया ऐसी लगी जैसे जीने के लायक इसमे बहुत कुछ सिमटा हुआ है जिसमें किसी भी किस्म की बन्दिश नहीं है। वो कुछ बी नहीं है जो मुझे मेरे ही बनाये कोनों में अकेला छोड़ देता है। छोटा सी ये घटना लेकिन इसमें घुस जाना मेरे उस एकांत से वास्ता रखता था जो कि कहीं मरता नहीं है। मुझे खुद में और मैं उसे खुद में खींच लेती हूँ। अब तक तो मेरा एकान्त, मेरा अकेला आईना, मेरी अपलमारी जिसमें मेरे कपड़ों को कोई नहीं छू या देख सकता था। जिन्हें मेरी अम्मी छत पर धोने के बाद में छोटे कपड़ों को बड़े कपड़ों के नीचे डाल देती थी। उन्हे दबा देती या फिर छुपा देती। उनका ये रवैया भी मेरे लिए न जाने कितने ऐसे सवाल खड़ा कर देता जिन्हें मैं चाहकर भी सुलझा नहीं सकती थी। ये कोई अभी के बनाये तरीके नहीं थे, ये तो जैसे चैन की तरह से हमारे रवैयों को बना रहे थे। एक बड़ा होता तो छोटे को बनाता, इतने छोटा बड़े होने की तैयारी करता, और साथ-साथ बड़ा भी होता। ये चैनसिस्टम था।

वो इन्चीटेप को मेरी पीठ से लेते हुए सीने की तरफ में लाए और जैसे ही उन्होनें सीने के बीचोंबीच साइज़ देखने के लिए इन्चीटेप और अपने हाथ घूमाए तो एक समय जैसे ठहर सा गया। ये क्या हुआ जहन में वो भी समझ नहीं आया था। मन में उनको लेकर बहुत सी बातें कौंध गई, वहाँ खड़ी मैं बस, ये सोचने लगी की इस नाप को लेने के और भी तो तरीके हो सकते थे। ये अंदाज़ा भी तो लगा सकते थे। ये साइज़ तो पीठ की तरफ से भी ले सकते थे। मगर इन्होनें ये नहीं किया शायद इसलिए कि साइज़ ये ही देख पाते। मैं भी तो पहली बार ही अपना साइज़ देख रही थी।
वो माप का पहला दौर था जिसमें मेरे दायरों को बड़ा कर दिया था। पहले तो मुझे लगा की कहीं ये इसलिए तो नहीं है कि वे एक आदमी था जो मेरा नाप ले रहा था, कहीं इसलिए तो नहीं है कि मैं पहली बार अपना नाप देने खुद आई थी, कहीं इसलिए तो नहीं है मैं कुछ ज़्यादा ही सोच रही थी।

मेरी ये अन्दाजन दुनिया जो खुलने को तैयार थी, खुले आसमां की तरह से कहीं जाने को बेकरार थी। ऐसा लग रहा था कि जैसे यहाँ, मेरे समीप और मेरे अंदर बना सबसे पहला कमरा, कोई रहने के लिए नहीं था। खाली सिर छूपाने का और न ही कुछ ऐसा था कि जिसे आसरा मिल गया हो फिर भी हम अपने को छुपाने के लिए कोई न कोई ठिकाना जरूर ढूँढते हैं। यहाँ उस जगह को तलाशने कि ज़रूरत नहीं लगती थी। इस वक़्त को जीने के बाद में जैसे मेरे घर की हर दीवार खुली सी लग रही थी। वो सब कुछ खुला था जिसके आगे लगे दरवाज़ों पर मैं हमेशा खड़ी रहती थी। वे सभी कमरे और कोनों जिनमें मैं जाना-आना करती थी। वे सभी किनारे जहाँ पर मैं खुद छुपती थी। वे भी खुल गए थे। अब तो खुला गुसलखाना, खुला सोने का कमरा, खुली खाने बनाने वाली जगह जिसमे नज़रे बिना इज़ाजत अंदर चली जाती है और आपको छूकर वापस दौड़ आती।

लख्मी

No comments: