Tuesday, February 10, 2009

हम इंसानो की बस्तियों में

गली का कुत्ता करोड़पती बना, ये बोल मैंने जब पहली बार सुने तो बड़ा अजीब सा लगा। जिससे मेरे ख़्यालों में कोई बनावटी चेहरा मुझे मुँह चिढ़ाता हुआ नज़र आ रहा था। मैं जैसे अपने आप से ही दूर भाग रहा था। खुद को पास लाने की मेरी तमाम कोशिशें नाकाम हो रही थी। पर ज़मीन मेरे पैरों तले ही थी। बादलों की गर्जना से भयभीत मन कहीं आसरा पाने की चाह में भटक रहा था, तभी मेरे अन्दर कई सारी आवाज़ें घुस आई। जो मुझे खींच कर वहाँ ले आई जहाँ हक़ीकत के अलावा कुछ न दिखा। मेरे ख़्याल चट्टानों से टकरा कर वापस आने लगे। मैं जाग गया! क्या करूँ? कैसे करूँ? ये मुझे पता लगने लगा। अब मैं वापस उस जगह आ गया था जहाँ से मेरे विचारों ने करवट बदली थी। एक भद्दा प्रसंग सुनकर मुझे कतई भी वो नागवारा था जो जीवन की मार्मिकता को तेज़ाब बनाने की फिराक मे था, जो सच में मेरे ही आसपास से जन्म लेकर अब तक मेरी आस्तिनों में पला वो सर्प नामक शक मुझे डसने वाला था। अभी तक तो वो मेरे ही दिमाग मे बैठा मेरी सारी हरकतों को कंट्रोल कर रहा था। मेरी ज़ुबान के साथ वो अपनी लपलपाती जीभ से मेरे सम्मुख आने वालों पर विष अणु की वर्षा करता। जो मेरे शुभचिंतकों को मुझ से दूर कर रहा था।

किसी के पास उस के नाजायज़ होने का सबूत नहीं था। वो दरिंदा कोई भी रूप बदलकर कुशल-मंगल को हिंसा और पाप में बदल कर रख देता। वो मानवता का दुश्मन सब के मन को भंग कर देता। तब सारा भू-मंडल दूषित हवाओं से भर जाता। चारों तरफ बस चीखती, रोती और बिलखती ज़िंदगानियाँ और विद्रोह कर रही आवाज़ों में तिलमिलाती परछाइयाँ ही नज़र आती। जानवर और मानव इन दोनों में ही एक दुनिया है जिसको सिर्फ भूख से देखा जाता है। स्वार्थ से देखा जाता है। ज़रूरत से देखा जाता है, लेकिन कोई करुणा से देखे। एक-दूजे का बन के देखें तो यकीनन सच के ऊपर पड़ा पर्दा उठ जायेगा।

आज लोग जीवन में बने रिश्तों को लेकर कई बातें बनाते हैं और खुद ही किसी की नींव रख देते हैं और आप ही किसी को उखाड़ देते हैं।

कुत्तों को कई तरह के अभिनय करते हुए सबने देखा पर जब कुत्तों को बहुचर्चित होते देखा तो रहा न गया। शायद इस से बेहतर मेरे पास उदाहरण नहीं हो। लेकिन आजकल इस नस्ल को विभिन्न वर्ग के नुमाइंदों ने अपने शहर से तड़िपार कर दिया है।
इसके सिवा आसपास कुछ भी तो सुनाई नहीं दे रहा था। जिससे यह साबित होता की करोड़पती का ताल्लुक गलियों में घूमते कुत्तों से नहीं है। इस तरह की पंक्तियाँ बहुत सुनाई पड़ रही है जो हमारी रोज़मर्रा में बेइंतिहाँ शामिल है।

वरना जनाब आज के वक़्त में तो ये हालात है की गलियाँ जैसी जगह तरह-तरह के विभाजनों में अपने ही मंथन में फंसी भँवर बन गई है। जिसके शिकंजे में आने वाला शख़्स अपनी भव्यता को खो बैठता है और अपनी ही आलोचनाओं से अपनी मांसपेशियों को खरोचनें लगता है। हम अपने जीने लायक जगह बनाने में लीन रहते हैं, और कोई आता है तो एकदम से सब कुछ मिट्टी में मिल जाता है। जीवन में कई श्रृखलाएं हैं जिनके सहारे हम जीवन बनाते हैं और उसमे परवरिश करते हैं अपने विचारों की धारणाओं की। तब जाकर एक जगह में सैरगाह बनती है जिसमे हर कोई शामिल है।अपनी-अपनी मननशीलता के मुताबिक। मानव और जानवर का रिश्ता इतिहास से चला आ रहा है और इतिहास एक सच्चाई है जिसे नापा या तोला नहीं जा सकता न ही झुठलाया जा सकता है।

लेकिन हम इंसानो की बस्तियों में कुत्तों की सैरगाह नहीं होती बस, उनपर अपनी ममता और प्यार लुटाने का बहाना चाहिए होता है। जो बात मैं आप को कहने जा रहा हूँ वो बात मुझे किसी ने कही कि "कुत्तो का जीवन वैश्याओं से कम नहीं हैं।" जब चाहा अपनी जांघ पर बैठा दिया और जब चाहा उसे थपथपा दिया।
इंसान और जानवर के बीच बने फ़र्क में ही पूरा रहस्य छिपा है। जिस में मानव जीवन शैली की और जानवर के साथ बनी कहानियों की दुनिया दिखती है जो एक-दूसरे को ज़िंदा रखने के लिए जानी पहचानी जाती है।

क्यों कि ज़िंदगी के पैचीदा हालातों को आसपास की संभावनाएँ बड़ी मासूमियत से उभारती है। जैसे एक कहावत को सुनकर मेरे आसपास कुछ अपने दार्शनिक संभावनाओं की घटनायें मंडराने लगती है। जिसके कारण हक़ीकत एक अलग ही ढंग से हमारी ओर बढ़ती हैं।

वो कहावत है ,"धोबी का कुत्ता घर का ना घाट का" ये मुहावरा दो शख़्सियतों को आपस में टकराव में लाता है। जो दोनों ही के छोर से हटकर अपनी ही उधेड़बुन में जीना है। आजकल मौहल्लो में चर्चा हो रही है कि कुत्ता करोड़पती बन गया पर आम आदमी पीछे छूट गया। जिसने मौहल्ला रचा है। उसके परिकल्पना और अपने लिए जीने वाली शैलियों की तो जैसे दुनिया ही ओझल है।
हाल ही में आई फिल्म के बारे मे लोगों के ख़्यालात कुछ इस तरह के हैं। सब के मुँह पर तरह-तरह के जुमलें हैं तो किसी का चिड़चिड़ा स्वभाव है।

टीवी चैनलों और अखबारों में फिल्म के ऊपर अपने तेज दृष्टिकोण डाले हैं जो किसी शहर को छान कर भी पूरी तरह से एक तरह की जीवन शैलियों की आपस में टकराने की आवाज़ों से बना जाल है
जिसे देखकर कोई भी सिनेमा मे दिलचस्पी रखने वाला शख़्स यह कह सकता है की फिल्म किसी वर्ग से और उसके इर्द-गिर्द भटकती कल्पनाओं को पूरे तौर से शहर की रोज़मर्रा की तय मे संवारा गया है पर कुछ सवाल और अपने सोच के मुताबिक जगह में संभावनाएँ न ला पाने का फिल्म के नाम को लेकर सीधा-सीधा लोगों को क्या ये मनवाना है की वो जिस रूप को देख रहे हैं या जो जंग हमने छेड़ी है जो आप के भीतर ज्वालामुखी की तरह समाज में नकारे गए और काटे गए कोनों की है। जिसे समाज की भाषा मे असामाजिक तत्व कह कर गुज़र जाने वाले पलट कर नहीं देखते।

उस बनाई गई और कानून में गढ़ी गई हकीकत को मोटे पैमानों में कबूल किया जाये। बिना किसी विरोध के बिना बाघी हुए समाज के ही दिए गए अंत को स्वीकार कर के जिया जाए। क्योंकि हम पर सत्ता की आँख रहती है जो समय समय पर हमारे जीवन के नाप लेती रहती है।

जिसको हम ये गवाही भी देते हैं की हम उसके आधीन ही जी रहे हैं। मगर जब कोई इंसान इस आँख से बचकर या ओवरटेक करके निकलता है तो उसकी अपनी ऊर्जा को कोई क्यों भूल जाता है। जिसमे तेरा मेरा या ख़ास का ही जीवन महत्व नहीं रखता बल्कि उस में अपने से बनाई गई कहानियों, कृतियों की रचनात्मकता होती है। उसमे सच्चाई कितनी ख़री है ये परखने की ज़रूरत नहीं है। बस, जो आप के अंदर आया आपने ले लिया। उसका एक करूणायी स्पष्टीकरण है जो समाज के गठनों में फूट-फूट कर भरा है। बस, जरूरत है तो इस संम्पूर्ण ज़मीन को छानने की। जिसमे इतिहास अपने किसी वक़्त को लेकर पाताल के धरातल में समाया हुआ है। जो वो है वो नहीं है असल में जो वो नज़र नहीं आता।

जो एक रास्ता बन जाता है फिल्म की कहानी को पूर्णरूप में देखने का और जीवन की मार्मिकता को क्रूर से क्रूर रूप में दिखाने का पर आम तौर से देखा जाये तो इस फिल्म के आने से एक किस्म की लोगो मे निराशा सी आ गई है।

शायद ये छवि को लेकर सवाल है जो अपने पर भी आक्रामक प्रश्नचिन्ह लगा देता है। पडोस मे जब किसी ने पहली बार सुना तो वो फिल्म के ट्रेलर को देख कर हंसे पर दूसरे क्षण गौर फरमाया तो उनके दिमाग पर जाने पहचाने चेहरे ने दस्तक दी जिसको सामने पा कर वो बौख़ला से गए।

अभी तक लोगों के बीच में ये था कि आम ज़िंदगी को जितना भी सोचो उतना ही अपनी ज़िंदगी में इज़ाफा होगा। आपको जो पब्लिक नकारती है वही पब्लिक स्वीकार भी करती है। आखिर जीवन के सौन्दर्य को और भी नज़रियों से उभारा जा सकता है। हँस के दिखाने में करूणा से देखने में अदा को देखने मे उन तमाम संभावनाओं में जो जहाँ अपने जीवन में कल्पना करके जीने की जिद्द लाती है।

सिनेमा ने ऐसी बहुता ज़िंदगानियों से आवाम को रू-ब-रू करवाया है जिसमें फिल्म के कैरेक्टर, सीन, कहानी वगैरह जीवन की भावनात्मकता और सकरात्मक सोच से सीधे संवाद बनाती है।
ऐसा क्यों होता है कि किसी चीज़ को अद्भुत दिखाने में उसको पहले छीला जाता है, फिर छीलकर उसके रूप को मसालेदार बातों से और तरह-तरह की मिक्स सामग्रियों से बनाया जाता है। मैं इस नज़रिये से असहमत हूँ जिससे लोगो के संग जीने वाली परछाइयों को एनिमेटिड करने के साथ उनके जीवन के संविधानों को कोई बदल देता है, चाहें वो किसी भी तरह क्यों न हो? चाहें तकनीक या मीडिया का बौखलाता इरादा जो मौकों की ताक मे चौकन्ना रहता है और जरा सी आहट पाते ही तपाक से भीड़ में अपने शिकार को धर दबोचता है।

फिर जंगल और शहर का फ़र्क हमें भले ही मालूम हो या न हो। शिकारी अपना काम कर ही देता है।
केला खाने का भी एक तरीका है पर अगर उसे नंगा करके खाया जाये तो ये उस केले के साथ ज़्यादती होगी। उसका छिलका कैसे उतारना है ये तरीका बनाना होगा। वैसे उतारना है तो आँखों पर लगे उन चश्मों को भी उतारा जा सकता है जो भेदभाव, गरीबी, अमीरी, सही गलत के अलावा कुछ नहीं देख नही पाते हैं।

जो शहर को किसी सत्ता की बिखरी विरासत का टुकड़ा बोलकर शहर के ही सम्मुख एक बिलबिलाती तस्वीर रखते हैं पर वो इस शहरनुमा दुनिया को अपने नयेपन में जीने वाली प्रतिभाओ से गहरे तौर से ताहरूफ़ नहीं है। हम कैसे भुला सकते हैं जीवन में कहीं से भी आने वाली एक नई ज़ुबान को जो हमें सोचने और अपनी चाहत से जीने के आयाम देती है।
आज समाज में हर तरह की आँख है। ये पता है कि क्या देखना है? क्या नहीं देखना है? कैसे देखना है? किसी की दुखती रग पर हाथ रखोगें तो चितकारती भरी आवाज़ें तो आयेगी ही। कहते हैं कि अच्छाई और बुराई का तो चोली दामन का साथ है फिर सरेआम समाज में मानवता के कपड़े उतारने में क्या हर्ज़ है? जिसको देखना है देखो जिसको नहीं देखना वो मत देखो।

गांधी जी ने तो बिना "सिर्फ" शब्द को सोकर तीन बंदरो के स्वभाव को जीवन मे उतारा था, "बुरा मत देखो, बुरा मत सुनो, बुरा मत कहो" ये जानवर के अस्तित्व को लेकर इंसान को पाठ पढ़ाने की कक्षा में दाखिला लेने जैसा ही है।

जहाँ से हम कुछ तो सीख कर निकलते हैं और वापस समाज में उतरते हैं। ये अपेक्षा लेकर कि समाज हमें अपने मुताबिक बनें अधिकारों में जीने की अनुमति देता है। बतौर हम ये भी जानते हैं कि समाज के अपने नियम और कानून हैं जिस के बाहर आपको सोचने की ज़रूरत ही नहीं है। क्योंकि ये असंभव है और जहाँ दोमूही तलवार भी है जो काटती है और उकसाती भी है। समाज खुद ही आपके लिए सार्वजनिक जैसी जगहें बना देता है जिसको हम सांझा मान कर जीते हैं। वो सब का ढाँचा होती है जिसमें सब दाखिला पा सकते हैं। हमें उनका पालनकर्ता बनना ही पढ़ता है। नहीं तो सत्ता का संविधान अपने दस्तावेजों से हमारा नाम ख़ारिज़ कर देगा। ये डर हमें अंदर ही अंदर गलाता चला जाता है। फिर माहौल मे अपने को बचाए या अपने अधिकारों की चिंता करें। क्या करें ये फैसला लेना पड़ता है? कभी-कभी हम इस का अंतर्विरोध कर के अपने कोने बना कर जीना शुरू कर देते हैं, और कहीं हम समाज के अधीन हो जाते हैं।

ये दोनों तरीके अमेल हैं पर इसको लेकर सब जीते ज़रूर हैं। लेकिन सब जानते हुए भी हम नियमों में अपनी चाहत से जीने की वज़ह बना ही लेते हैं। जिसमें हमारी अपनी सौगातें होती हैं। इसी समाज मे बने नियम और कानूनो में कहीं न कहीं कोई कल्पना की जा रही होती है। जिससे अपने जीवन का फैलाव सत्ता के बने ढाँचे से अलग होता है। जिसमे खुद का सिद्धाँत बना कर जीवन यात्राओं को बेहद लाचिला और जीवनयापन की कालगुज़ारी के असीमित रास्तों के फाटक खुले तो कभी बंद भी होते हैं।

आश्चर्य की बात तो ये है कि आम ज़िंदगी को तो जैसे गुलामी की जंज़ीरों में जकड़ कर रखा है जिसमे श्रमिक वर्ग कहीं भटका सा लगता है। जो कि दुनिया के हर निर्माण की नींव में शामिल है। जिसे विकसित जीवन के लिए सोचा जाता है। उसका आधार ही श्रमिक वर्ग के ऊपर टिका है पर अब सवाल यह है कि शहर और बस्तियाँ कैसे अलग हैं? और क्या जो लोग यहाँ से जाकर शहर में शामिल होते हैं वो लोग कौन हैं? जिनसे सामाज काम लेता है या जो समाज की ऊर्जा है। जो अपने जीवन के साथ-साथ ये भी सोचते है कि दूसरों के प्रति हमारी ज़िम्मेदारियाँ और फ़र्ज भी बनता है।
समाज अपने इर्द-गिर्द भी किसी तरह की मलीन वस्तु को बर्दाश्त नहीं कर सकता। किसी भी तरह की वस्तु से 'बू' आने से पहले समाज अपने सिस्टमों को लागू करके अपने से दूरी में जीने वाले वर्ग को आदेशो में ले लेता है। जिससे वो वर्ग सांझी जगह मे फैले अवशेष को नष्ट करने का हुक्म बजाता है।

लेकिन सवाल ये है की जब समाज कोई चीज़ अपनाता है तो उस को भोगने के बाद जो जीवन बचता है उसे कहाँ ले जाया जाये? या फिर दोबारा किसी प्रक्रिया को शुरू करने का तरीका निकाला जाये जिससे वापस शहर में चीज़ों को लाया जाये जिससे सीखने की बिल्डिंग तैयार हो सके। प्रयोग या क्रियाकलापों को सोचा जा सके। ये अनुमति सत्ता दे ही नहीं सकती क्योंकि वो अपने ऊपर किसी तरह का प्रभाव पड़ने ही नहीं देना चाहती। वो समझती है कि जो वो खुद चाहती है वो ही प्रयोग लोगों के बीच होना चाहिए जिसे किए गए प्रयोगों का अगर कुप्रभाव पड़े तो लोगों तक ही रहे उसकी सीमाओं में कोई महामारी या किसी तरह की नाकामयाबी का असर प्रवेश न कर पायें। उसके लिए तो आबादी बची हुई है जो हर तरह के प्रभावों को अपने में समा लेती है और दोबारा से वस्तुओं में जीवन फूंकती है।

जीवन की जटिल से जटिल और ठोस सच्चाई को पिघलाने के बजाये उसे पथरीला और कांटेदार बनाने की कोशिश होती रहती है। आम ज़िंदगी को गुलाम बनाकर उसे कैद में क्यों रख दिया है। बहुत बड़े पैमाने पर शहर की आबो-हवा मे सांस लेता कोई शख़्स ज़िंदगी के सफ़र को दोहराने के बजाये वो उसमे किसी तरह सरहदों को लांघ कर सपनों को कल्पनाएँ लेकर के जीने की जिद रखता है। जो आम जीवन की ज़मीन पर जिज्ञासा भरे बीज बोना है। इस उम्मीद में के एक दिन उसी बीज से फूट कर नई प्रतिभाएँ अंकुरित होगीं। वो कहीं से भी कैसे भी हमारे समक्ष आ जायेगीं। बस, जरूरत है तो उन्हे समझाने की पर क्या करें समाज में ही मानवता के प्रति लगाव और जीवन को नंगा करके दिखाने की प्रथा पुरानी है जिसमें नई ज़ुबान है ही नहीं।

मंच वही है। बस, अंदाज बदला है तेवर बदले हैं। शरीर उतना ही है, कपड़ा छोटा हो गया है। भूख वही है कुछ नये व्यंजन आ गए हैं। जो चखने मात्र ही हैं। उनसे पेट नहीं भरा जा सकता, मन नहीं भरता। समाज वही हैं, लोग भी वही हैं पर और भी कूटनीतियाँ आ गई हैं। कहीं से भी इंसानियत के शरीर पर बने जख़्मो को कुरेद कर उन्हे ताजा किया जाने की फिराक बनी रहती है। जिससे शरीर में दौड़ता खून जब बाहर निकले तो छीटें किसी के चेहरे पर जा गिरे। ज़िंदगी को इससे ज़्यादा क्लाइमेक्स मे और कैसे देख सकते हो?

हमें ज़िंदगी में नई ज़ुबान बनाने की जरूरत है वरना इंसान के ख़त्म होने के डर है। शख़्सियतों को बोझ बना कर जीने से तो अच्छा है कि उनकी आँखों से देखा जाये उनके अहसासों से जिया जाये।तब पता लगेगा की जीवन क्या जैसे ओस की बूंद है जिसे छुने के बजाये उसे महसूस करके अपने में उतारना बेहतर है।

राकेश

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