Saturday, February 14, 2009

अपने भीतर के छुपे अंश

एक दुनिया जो अपने में गुम है, एक रचना जो कर दी गई है

अपने स्वंय से मिलने की चाहत में बनते वे नज़ारे जो न होकर भी अपने होने की भूमिका निभाते हैं। किलसते हैं शहर के तेज होने से, कहीं ठहर जाने से, भूल जाने से। असल में यही होना है। ये डर लेकर जीने वाली कुछ आकृतियाँ बिना वज़ुद या किसी ठोस अंश के चलती है। इसका वज़ुद पूछने की किसी में हिम्मत भी कहाँ? ये तो चलती है और निरतंर चलती है। कभी खेल की भांति तो कभी डर के रूप में, कभी जगह बनाने की फ़िराक में तो कभी छुपकर भी सामने होने की उंमग में।

मेरे सामने जब ये चल रहा था तो इससे हावी इसके आसपास का वे माहौल था जिसे इसकी जरूरत नहीं थी और न ही इसके होने से कुछ होने वाला था। बस, उस जगह को अपना बनाने की हिमाकत उस दृश्य मे जोरों पर थी जो कबज़े से बाहर थी। मगर ऐसा कोई भी नहीं था जिसे उस औरत के इस रूप से परहेज़ हो या ऐसा भी कोई नहीं था जो इस रूप से वाकिफ़ नहीं था।

उस औरत का अपने से बाहर जाना औ‌र अपने में कुछ नया भरने की फोर्स ही इस जगह को बांधे हुए थी। किसी के लिए खेल तो किसी के लिए ये चौंकना था। किसी के लिए ये डर था तो किसी के लिए अपनी फोर्स को बाहर लाना। सभी उस दृश्य के हिस्सेदार थे। जो देख रहे थे वे भी और जो उसमे लीन थे वे भी।

ये जगह नई बस रही है। जिसमे ये सभी दृश्य सीने में उतारे जा रहे हैं। आसानी से तो कभी नज़र छुपाकर। नये रूप के आसरे कोई रिद्दम में आ रहा है तो कोई पुराने को ताज़ा करने की कोशिश में पनप रहा है। ये जगह अभी तो सबको न्यौते में रखे है।

दिनॉक: 12-01-2009, समय: दोहपह- 03:15 बजे.

लख्मी

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