Saturday, March 28, 2009

अपने से पार के रास्ते ...

वो बीते हुए को लाना जानती हैं ...
उनके हाथों के कागज़ात बहुत कम हैं वे जानती हैं। वे कागज़ात वे नहीं बता पायेगें जो कोई सुनने आ रहा है। उन कागज़ातों में बोल बहुत पुछल्ले हैं। शायद कोई सुने या न सुने। उनके कागज़ातों में पुराने जमाने की कहावतों की तरह जान है तो नये जमाने के सबूत नहीं है। ये वे जानती हैं, बखूबी कोई उन्हे बतला कर चला गया है कि आपके कागज़ातों मे समय गूँगा है। लेकिन वे कहती है कि समय को सुनना है या कागज़ों मे ज़ुबान फूँकनी है? ये सवाल उनके दिलो -दिमाग मे घर कर गया है। मगर ये दावेदारियाँ उनकी ख़ुद की ज़ुबान के तले नाज़ुक ही हैं। उनके ख़ुद की ज़ुबान में कोई भरपूर सहर्ष उदाहरण हैं जो हर समय के स्वागत से बने हैं। जिसमे उनके पिता से लेकर पति तक का सफ़र बयाँ होता है। बचपन के खेलों मे काम करने की महक है तो जवानी के वे पल है जिसमे कुछ जिम्मेदारियाँ निभाने की कोशिशें शामिल हैं।

वे ये भी जानती हैं कि ये सारी गाथाएँ शायद आज झूठी साबित हो जायेगीं। सुनाने से उनकी बेज़ती होने के आसार हैं। हर बात में किसी बनने के अहसास शामिल होने के बाद भी, ख़ुद को तैयार करने के बाद भी, जगह की ख़ुदाई से लेकर उसके भराव तक के मुकम्बलित हथियार बन जाने के बाद भी, नया चेहरा बन जाने के बाद भी, अकेले न रहकर परिवार बनाने के बाद भी। इन कहानियों-बातों मे सब कुछ झौंक देने के बाद भी इनका वज़ूद हल्का रह जाना है। चाहें सारा शरीर शब्दों, बातों से रच दो लेकिन वे सब बेमायने हो जाना है। क्योंकि कागज़ातों मे बोल नहीं हैं। वे जानती हैं। मगर कहती हैं, "कागज़ातों में ज़ुबान नहीं है तो क्या मेरे में भी नहीं है कोई ज़ुबान? मेरे पिता और पती दोनों चुप हो गए लेकिन मैं तो ज़िन्दा हूँ बोल सकती हूँ। जब मैं सुन सकती हूँ तो"

जानने की इच्छा से गुज़रना...
वो अपने मे ही बातें करती हैं और ये उनके लिए कोई बड़ी बात नहीं है। कितनी जल्दी वे घर से बाहर जा सकती हैं उसकी तैयारी मे रही हैं। पिछले चार सालों के दरमियाँ उनका बाहर बड़ा हुआ है।

देखा जाये तो वे पिछले चार सालों में ही नज़र आई हैं। नहीं तो वे कहाँ और क्या जानती है वे किसी को नहीं मालुम था। उनकी तालीम उनकी ख़ुद की चीज़ों को जानने की इच्छा से बनी है। चाहें कोई भी काम अपने मतलब का हो या न हो मगर वे उस काम मे घूस जाती हैं। क्या पता वे उनके अलावा किन्ही औरों के काम आ जाये जिनको वे जानती है या नहीं भी जानती। इससे क्या फर्क पड़ने वाला है। बस, सरकारी कागज़ात कैसे बनवाने हैं?, क्यों बनवाने हैं और ये किस काम मे आयेगें ये समझने की चाहत में वे हर रोज़ फिरती हैं। सरकारी महकमों की जानकारी लेना, सरकारी कामों के बारे मे जानना और क्या नया आया है? वे किसके काम मे आ सकता है? और किसके लिए वे जरूरी होगा उसको सोचकर वे इन जगहों मे दाखिल हो जाती हैं। उनकी तालीम यही है जो उन्हे उनके यहाँ पर, आसपास में जीवित रखती है।


उनको देखना है तो यहाँ आओ ...
वे कभी अपने घर मे नहीं दिखेगीं। बस्ती मे कोई भी सार्वजनिक काम हो रहा हो वे वहीं पर नज़र आती हैं। अपने बच्चों का हाथ थामें ‌वे उस माहौल मे हाज़िर रहती हैं। करने को तो कुछ नहीं करती लेकिन उन्हे इस तरह के काम में खड़े रहने मे मज़ा आता है। कहती हैं, "घर मे रूखे-रूखे बैठे रहने से क्या होगा ? इससे सही तो कहीं बाहर जाकर देखें तो सही की आसपास हो क्या रहा है। क्या पता हमारे लिए ही उसमे कुछ हो।"

बस्ती मे किसी काम का या अन्य माहौल कोई कब बना था उनसे जाना सकता है। चाहें वे गर्भवती महिलाओ के लिए दाल-मोठ, चाट या पोस्टिक चीज़ें बाँटने का माहौल हो या पोलियों का टीका लगवाने का काम, नर्सरी वालों का खिचड़ी बाँरना हो या फिर कब बस्ती के बारे मे बोला जा रहा है वे हमेशा वहाँ पर खड़ी रहती हैं। लेकिन आज कह रही थी, "हम तो इतनी बार सरकारी कामों मे गए मगर यही पता न चला की हमें कुछ बनवाना भी है।"



उनके हाथों के इशारों मे है वो सब......
जल जाना किसी के बस का नहीं है। लेकिन फिर भी ज़िन्दगी का आधे से ज़्यादा समय तो जल फुँक गया। हर टुक़डा जैसे आज सहेजा हुआ है पहले भी वे बहुत सजोंकर रख गया था। इस पहले और आज के घेरे मे ये जगह आई है वे टुकड़े नहीं। जिनको ये सोचकर रख गया है कि जगह को निलंबित होने से रोका जायेगा। ये यादें समाये रखे हैं। वे यादें जो भुलाई नहीं जा सकती। वे यादें जिन्हे कोसा भी जा सकता है कभी दुख मे तो कभी खुशी में। वे यादें जिनसे परिवार का अहसास होता है। वे यादें जिनके जरिये नैतिक गुटों में पहचान बनाई जा सकती हैं। यादों का आकार क्या है वे जानना किसी के मतलब नहीं होता होगा। लेकिन आज मतलब किन्ही के लिए बेहद मायने रखता है। एक फासला जो मिटने लगा है। इस फासले में कई चेहरे ज़िन्दा है।

आधे से ज़्यादा जले चेहरे को उनके हाथ अपनी छाती पर रखकर ये समझा देते की इन पक गए धूँए की आड़ मे कौन बसा है। हर कागज़ के साथ उनके हाथ एक दूरी तय करने लग जाते और हर दूरी उनकी छाती से होकर कहीं किसी कोने में चली जाती। ये कोना उनके घर के अन्दर नहीं जाता था। कभी वो बस्ती की तरफ रुख करता तो कभी आसमान की तरफ। पर उसी नक्शे मे सारे समाये थे। जिनमें एक वे भी शामिल थी।

लख्मी

वे दास्तान जो अनथक है

अतीत के कुछ सवाल हमारे समाने एक चित्र की भांति खड़े रहे हैं जिसे हम न भी सोचें तो भी चलता है। ये ख़ुद की कहानी से जुड़े हैं। जिसमें "अपना ख़ुद" जहाँ से बोलना शुरू करता है वो जगह अपने आप बुनाई में आ जाती है। इन दोनों को कोई कहानी बुनती है या ये एक-दूसरे के रूपक हैं?

अपने बनने की कहानी में अक्सर हम अकेले हो जाते हैं लेकिन जब बीते हुए वक़्त को आज के समीप लाते हैं तो उसमें कई चेहरों का बोलबाला होता है। ऐसा क्यों है?

ख़ुद को बतलाने की कई दास्तानें आज के रास्तों में धरी पड़ी हैं। जिनमें से एक लाइन तो ये भी है, "मैं चला था अकेला मंजिल पाने को मगर लोग साथ आते गए कारवाँ बनता गया।"

इसमें ख़ुद को बतलाने की हवस में जगह की परत बनने के चित्र शामिल हैं।

लेकिन फिर भी जैसे अपने बनने के मैप में शुरूआत होती है एक झुंड से, फिर कोई गुट में शामिल होने की दास्तान उभरती है, उसके बाद में राहें खोज़-विचार के बलबूते तैयार होते हैं जिसमें "साथ निभाने" को बयाँ करने के कई अवशेष हाजिर होते हैं।

(इन राहों की संभावनायें भी यही हैं कि इसमें आने वाले लोग, चेहरे या रिश्ते ज़्यादा देर तक भले ही साथ न रहे हो लेकिन अपनी बुनियाद को पुख़्ता रखते हैं और आज़ादी भी है इन राहों में भरमार करने की।)

फिर रास्तों पर निकलने जाने वाले की राहों के उसपार अनदेखी मंजिल पाने का पुलिंदा होता है। इस मंजिल को तय करने के ऑपश्न भी किसी साथ वाले से प्रेरणा भरे होते हैं। उसके बाद में बस, भागदौड़ शुरू होती है, भड़ास होती है, लड़ाई होती है, रिश्ते बनते हैं, ख़ुद की जगहें बनती हैं, मान-अपमान होता है, समझौता होता है, जानी-अंजानी कल्पनायें बनती है।

यही दौर है जिसे बताने वाले बड़े चाव से बोलते हैं। जो उसकी वे बातें होती हैं जिसमें एक ऑदा और जिद्द दिखा पाने की कोशिश है। ख़ुद की अहमियत क्या है वे जाहिर करने की चाहत होती है।

जब वे उस जगह पर पहुँच जाता है जहाँ की वे राहें हैं तो अकेला हो जाता है। इस अकेलेपन का मतलब किसी शख़्स के सबसे जुदा होने की बात नहीं है और न ही कटकर कहीं छिटक गया है वे है।

एक भीड़ निकली थी राहों पर कहीं के लिए,
चलते-चलते बहुत साथी पहुँचे वहाँ की तलाश में।
लेकिन तलाशे स्थान पर पहुँचने के बाद सब अकेले थे।

जगह ढूँढते हुए यहाँ आये, जगह मिली उसे बनाया फिर सब अपने-अपने कामों, परिवारों में जुट गए।

इस अहसास से बना है, अकेलापन.....

बस्ती में जैसे आज का दोहराना, उस बीते वक़्त को, नक्शे को और जगह मिली-उसे बनाने को बताना है। जो झुंड की डिमांड करता है जब उसकी डिमांड पूरी गई तो क्या हुआ?

बीता हुआ समय, कहीं नहीं जाता या कहीं नहीं गया। बस्ती में कहानियाँ जगह के साथ रिश्तों से निकलकर अब जगह के बनने तक सफ़र कर चुकी हैं। इस सफ़र में किसी चीज के धूंधलेपन का असर मौज़ूद है।

कभी-कभी किसी चीज़ की तफ्तिश करना किसी कोने को कुरेदने से आगे निकल जाता है। वे नौंचना, खदेड़ना, चुनना और काटने के अलावा वो छेड़ने के समान हो जाता है।

जैसे आज के समय ने उन हिस्सों को छेड़ दिया है जिसको अपने बनने की कहानी के नक्शे में शामिल नहीं किया जाता। ये कहानियाँ उस नक्शे के बाहर होने के वे कण हैं जिससे नक्शा बनने की बिन्दूएँ तैयार जरूर होती हैं।

ये एक ऐसा दौर है जिसमें बीते हुए वक़्त का हर पहलू इतना वज़न लिए है कि उसको आज के समय में जब भी उतारा जायेगा वो अपना स्थान जरूर बनायेगा। ये धारणा हर ज़ुबान में बसी है। इसको तोड़कर सोचना या इसको अपनाकर सोचना दोनों ही इसके विपरित हो जाते हैं। इसमें या तो हम उसके उदाहरण खोजने लगते हैं जो इस बात को नगवारा करदे या फिर वो कहानियाँ खोजने की कोशिश करते हैं जो इसको भरपूर संभावनायें दे। इनमें कहानियों और बातों के अहसास में बस, माना या न माना शामिल रह जाता है। उसकी निर्मलता गायब हो जाती है। जो बेहद कठोर समय के छानने से बनी है। हाथों मे पड़ी गांठो से हाथ भरा है लेकिन जब किसी को खड़ा करने के लिए हाथ दिया तो वे निर्मल ही था। इस अहसास से भरा है बस्ती का बीता हुआ कल।

मगर यहाँ इस समय के बहाव में आकर ख़ुद को दोहराने का सिलसिला पस्त पड़ने लगता है। लोग दोहराते हैं जगह के वक़्त को तो उभरता है ख़ुद का आना, जब ख़ुद के आने को बतलाते हैं तो निकलता है आसपड़ोस और जब आसपड़ोस को बयाँ करते हैं तो जगह के बनने की छवियाँ टुकड़ों मे बयाँ होने लगती हैं।

इसी के बीच में है बीता समय और अभी के समय का बहाव। हर कोई जैसे ख़ुद को मैनेज़ करने की कगार पर चल रहा है। वो कैसे इस बहाव में हाज़िर हो सकता है ये एक अंनतिम जद्दोजहद की तरह से उसके साथ रहती है।

हर शख़्स उसी से जूझ रहा है। हर घर, परिवार और रिश्तेदारी इस के घेरे मे घूम रही है। समय के इस बहाव मे जैसे बीता हुआ समय जो छूट गया है, अतीत जिसे संभाला हुआ है उसके वे पल बयाँ करने की ललकता है जो किसी अनुदान के लिए पथ प्रदर्शक बनने का जोर रखती हैं।

बीता हुआ वक़्त छुपा है, खोया है, मौज़ूदा है मगर आज उसके मायने बदल गए हैं या वे दोहराने लायक समय के इंतजार मे लगातार रहे उसके चक्कर मे फँसने के पारंगत नहीं है।

अतीत और इस दौरान का समय, एक सैलानी की तरह से बना हुआ है। एक ही जगह मे रहकर ये रोल निभा रहा है। पहले ये जमापूंजी था लेकिन आज ये सैलानी के रूप ने अंक्लात बन गया है।

आज के दौर मे बस्ती कैसे भी दिख रही है लेकिन वो अपने हर घर, किस्से और रफ़्तार से भरे अतीत को इस बिना थके के रूप में ख़ुद के वक़्त को बताने की कोशिश में है।

कोई जब अपने बारे मे कुछ सुनाती है तो उसके दिल में कुछ भी चला हो लेकिन उस वक़्त के वे बहुत करीब होता है जिसे मिटे कई साल बीत चुके हैं। वे अपनी बातों मे उसे ज़िन्दा करने की चाह मे रहती हैं। उनकी बातों में जैसे घर बनने की कहानी मे लोग ख़ुद को बताये लेकिन जगह के बनने की बातों में कभी अकेले नहीं होते। ये बीता हुआ कल क्या है उनके लिए आज? इस कल और आज में क्या मिट गया है? दोनों एक-दूसरे के बेहद नज़दीक हैं। कुछ तो है जो मिटा है। एक झटका है, जिसने रोज़ाना और धरा हुआ कल दोनों को झंझोर दिया है। जैसे दोनों वक़्त किसी पालने में है और एक-दूसरे को इधर से उधर पलटा रहे हैं।

लख्मी

Saturday, March 21, 2009

परछाई मे बहते अक्श

जगह कोई भी हो उस में समय की रफ़्तार अपनी परछाइयाँ छोड़ती जाती हैं। समय का आकार चीज़ों, मौज़ूदगी के बिखरे हुए बिन्दुओं को अपनी तरफ खींच लेता है फिर समय के सम्पर्क में आने के बाद समय का आकार गहरा हो जाता है।

समय का आकार एक छवि देता है। छवि में प्रतिभाएँ होती है। जो परछाई को जन्म देती है। कोई रोशनी उस पर पड़ती है तो परछाई से टकराती है। टकराने से दोनों में स्थिरता पैदा हो जाती है। जो परछाई से समय के आकार को जकड़कर रखती है।


दिनाँक- 19-03-2009, समय- रात 8:00 बजे

राकेश

मुलाकातों की दूनिया

लोग कहते हैं की मैं गुमशुदा हूँ
मेरा कोई पता नहीं
इसलिए मैं लापता हूँ।

मैं ढूँडता हूँ किसी को इस शहर -ए- महफ़िल में
कभी वो पास होता है, कभी वो दूर होता है
मुलाकातों की दूनिया में
मेरा छोटा सा किस्सा हैं।

कोई कहता है की मैं एक व्यक़्ति हूँ
कोई कहता है की मैं एक शख़्स हूँ
कोई कहता है की मैं एक आदमी हूँ
तो कोई कहता है की मैं पागल हूँ
मगर मुझे लगता है की मैं काज़ल हूँ

जो आँखों में सजता है शाम को और सुबह उन्हीं आँखों से उतरता है।
कोई माने या न माने मेरी यही दास्ताँ है।

वक़्त के कोरे पन्नों में मेरा नाम खून की शाही से लिखा है।

कोई मुझे मलंग कहता है, कोई मुझे कटी पतंग कहता है
कोई मस्ताना कहता है , कोई दिवाना कहता है
मगर मेरे दिल से जरा पूछो, उसे कहाँ चैन मिलता है?

किसी छाँव तले बैठ जाऊँ तो क्या गम है
किसी का बन के रह जाऊँ ये क्या कम हैं।

मैं भूल जाऊँ की कहाँ से आया था
कहाँ जाना है न ये पता था
कहाँ जाना है न ये पता है , किसे पाना न ये पता है।
मेरी तबियत तो बस, यारों बहकता सा इक नशा है।

कभी दूरी को जीता हूँ, कभी सपनों को पीता हूँ
मेरी हक़ीकत बस, यही है की मैं ख़ुद को भूला के जीता हूँ

मैं जब तक हूँ मेरी अदा है
उसके न जाने किसी किसी क्या पता है।
लोगों को बस, ये पता है की लापता हूँ
मगर मैं ढूँढता हूँ किसी को इसलिए इस दूनिया में खड़ा हूँ।

लोग कहते हैं की मैं गुमशुदा हूँ
मेरा कोई पता नहीं इसलिए मैं लापता हूँ।

राकेश

Friday, March 20, 2009

बैचेन बत्ती के नीचे

चाहें इससे पहले ये कभी जरूरी न रहा हो लेकिन आज के दिन में ये बेहद जरूरी हो गया था। सर्वे के दौरान छाई कागज़ों की कशमकश ने बस्ती के अन्दर के कई ऐसे कारणों को बड़ा कर दिया है कि उसमें मौज़ूद हर कहानी बेहद बड़ी और गहरी हो गई है।

मगर, लोगों के लिए ये बेहद अच्छी बात है कि सर्वे के बीचों-बीच बने ये वोटर आईकार्ड कई घरों व लोगों को यहाँ का बासिदां कहलवाने में मदद कर सकते हैं। एक तरफ दरवाज़े पर हो रहा सर्वे और दूसरी तरफ बन गए वोटर आईकार्ड लेने वालों की भीड़ रूकते नहीं रूकती है।

ये बेहद ठोस दस्तावेज़ है दिल्ली शहर में रहने का। हर तरफ जैसे कागज़ों की ही मारामारी छाई है। हर कोई अपने घर के असली दस्तावेज़ों को पकड़े कभी यहाँ तो कभी वहाँ भागाफिर रहा है।

सत्ता एक तरफ घरों के मौज़ूदा दस्तावेज़ों को छाँट रही है तो दूसरी तरफ इलैक्श्न के मध्यनज़र, इस जगह के हर बन्दे को वोटर बनाया जा रहा है। ये तो साबित ही है कि यहाँ पर रहने वाला हर एक शख़्स सरकार की नज़र में दावेदार है। ये सच है या फिर वोट बैंक है?

एक हजार लोगों के वोटर आई कार्ड लिए सरकारी आदमी बड़ी मुस्तेदी से सबको संभाल रहे थे। दस्तावेज़ों की बहुत बड़ी भूमिका है। टेबल पर लगे चिट्ठे इसको साबित कर देते हैं। ये इस जगह में छाई बैचेनी में बड़ावा करती है। न कि उसे हल करती। आज भीड़ देखने से बनती थी। कई सारी बैचेनियाँ आज खाली कुछ लेने के लिए नहीं बनी थी और न ही किसी दस्तावेज़ को लेने की ही थी। ये आज दस्तावेज़ नहीं रहा था। ये वो चाबी बन गया था जिससे कई लोगों के आसरों के दरवाज़े खुलेगें। ये कसक सभी अपने अंदर लिए खड़े थे। जिनमें हर कोई ये देखने की कोशिश करता की कहीं किसी में मकान नम्बर गलत तो नहीं है, कहीं नाम तो नहीं बदल दिया। तो कोई ये देखने की कोशिश करता की उसके हाथ के आखिरी दस्तावेज़ में जो पता व नाम है काश वही हो ताकि वे यहाँ के रहने वाले के नामों मे अपना भी नाम जुड़वा सकें। उसी से ये बहस कर सकें की वे भी दावेदार हैं।

ये भीड़ के अंदर फैली वे कसक की थी जिसको वहाँ पर खड़ा हर कोई महसूस कर सकता था। एलएनजेपी बस्ती में कागज़ों की भूख बड़ने लगी है। कागज़ों के रूपो में बच्चे, यादें, कहानियाँ और रिश्ते भी उसको भरापूरा करने की कगार पर हैं। किसी पर सारे कागज़ पुराने हैं तो नया नहीं है, किसी पर नये हैं तो पुराना नहीं है। तो किसी के पास दोनों है लेकिन पता गलत छपा है। ये तो अब रेज़गारी बन गया है। बस, झड़प तो लाइन मे अपना नाम दर्ज करवाने की भूख है।

अनाउंसमेन्ट, एलान या पर्चे बँटवाना अब ना भी हो तो भी ठीक है। बोलों के जरिये ही लोगों तक वे सभी बातें पँहुच जाती हैं जिनका उन दरवाज़ों से लेना-देना है जो अभी खुले नहीं हैं। दो तरह के विभाजन बन गए हैं। एक तरफ में आने वाले कल की कल्पना है, जिसका आधार गायब है तो दूसरी तरफ मे यहीं के होने के आसार गायब हैं। सत्ता यहाँ पर खींचने के कोशिश में हैं और लोग समान जुटा कर यहाँ से कब रवाना हो जायेगें की तड़प लिए किसी नये दरवाज़े की राह में हैं।

ये कहाँ के घेरे में रहेगी उसका अहसास होने के इंतजार में हैं। एक-दूसरे की सकल-सूरत में लोग वे आसार देखने की चाहत रखकर ही दिन बिता लेते हैं। मालुम है दिन के ख़त्म होने की सबसे अच्छी बात क्या है, कि कल फिर से यही होगा।

दिनाँक- 18-03-2009, समय- शाम 3:00 बजे

लख्मी

वो छवि माहौल की


दिनाँक- 19-03-2009, समय- शम 4:30 बजे
रोज़ाना में क्या हमारे लिए अलग होता है जिसे हम रोज़ाना में एक नये छवि में देख पाते हैं। माहौल में सारी वस्तुएँ और जगह, समय और हम परछाई बनाते हैं जिसमें बीत रहे या बीते हुए की छाप रह जाती है। जिसे कोई दूसरा आकर वहीं से शुरू कर देता है जहाँ से पहले वाली सम्भावना रुकी थी।

कहीं से भी वो छवि माहौल में आ सकती है। जो समय के पहले कभी दिखाई नहीं देती। जीवन के चिन्ह जब किसी जगह में दिखाई देते हैं तो आज, कल और अतीत में जाने की कोशिश करते हैं और ये जरूरी भी समझता है। शायद कोई जीवन की छवि मिल जाये जिससे आज को संपन्न तस्वीर दे सकें।

राकेश

अपने से संधिविछेद करना...

जब हम किसी शख़्स या उसके जीवन को लिखने की कोशिश करते है तो हमारे सम्मुख उस शख़्स से संबधित क्या होता है? उसके रिश्ते, उसके ख़ुद से बनाये कोने और उसका आसपास। इन तीनों चीज़ों का नाता उसके साथ किन्ही जीवन के दृश्य में बयाँ होते हैं। जो उसके जीवन के आधारों और मौकों से जुड़े हैं। ये सभी दृश्य उस शख़्स के साथ बखूबी उभरते हैं। जब हम उस शख़्स के जरिये किसी जगह मे दाखिल होते है तो ये सारी चीज़ें जैसे बिखरी पड़ी होती हैं। वे शख़्स अपने जीने के तरीकों से, अपने अंदाजों से और रिश्तें के मेल-मिलाव के तहत इन सभी से रिश्ता बनाता चलता है, जोड़ता चलता है। ऐसा करने में कभी वो उन सभी दृश्यों से टकराता है तो कभी उनसे संधि कर लेता है। कभी बहस करता है तो कभी मुँहजोरी। लेकिन फिर भी उन सभी में उसका आसपास दिखता है, मौज़ूद होता है। इस आसपास में भी कई ऐसे दृश्य भी शामिल हैं जिनको हम छूते भी नहीं हैं और शायद किन्ही को छोड़ भी देते हैं। वे शायद इसलिये की उनको दोहराने और बयाँ करने की भाषा हमारे पास मौज़ूद नहीं है या फिर हम उनसे अन्जान हैं।

कभी-कभी अन्जान बनकर जीना भी मज़ेदार होता है। जो हमें सोचने के नये आयाम देता है। वे मूल चीज़ों को उभार देता है जिनसे हम अपना नाता ख़ुद से तैयार कर सकते हैं। ये उस अन्जान बनकर जीने की संभावनाएँ हैं। मगर ये संभावनाएँ हमारे ख़ुद के लिए ही है या फिर उस शख़्स के लिए हैं? क्या है जिसको अन्जान बनकर हम जीने लगते हैं?

ये सिलसिला कई समय से चलता आया है। अंजानेपन के दौर में संभावनाओ के साथ-साथ किसी चीज़ का छुपना भी तय होता है। क्या हम कभी ये सोचते हैं कि 'भाषा का न होना' और 'अंजानेपन में जीना' इन दोनों के बीच में हम कहाँ खड़े होकर कुछ रचते हैं? और जो रच रहे होते हैं उसका रिश्ता उसमें चलते क़िरदार, पात्र व जीवन से क्या होता है?

मेरे सवाल, उन दृश्यों को लेकर उभरते हैं जो किसी शख़्स के जीवन के लेखन से ताल्लुक रखते हैं। मेरे जीवन के चित्र और मेरे जीवन के बोल दोनों में क्या दूरी है और क्या संधि?

मेरी भी यही बहस चल रही है। इस दौरान मुझे अपने आसपास अंजानेपन में घूमने का अहसास हुआ। जिसमें ये पूरी संभावनाएँ हैं कि किसी भी चीज़ या जगह को आप बेधड़क बयाँ कर सकते हो। ये अंजानापन असल में एक रूप ये भी बनाता है कि इसमे जगह की कोई भूमिका ही नहीं है। जगह तो मात्र एक बेसलाइन बनी है। वो आधार बनकर रहती है, जिससे "कहाँ" का सवाल ख़त्म हो जाता है। ऐसे ही हम अपने काल्पनिक मन में अनेकों ऐसे जीवन, शख़्स लिए चल रहे हैं जिनको आधार देने की जरूरत है। तो सामने दिखती जगहें उसका आधार बन जाती हैं।

जैसे मान लेते हैं, हमारे हाथों में कोई गर्मा-गर्म चीज़ है जिसे हम अपने हाथों में ज़्यादा देर तक नहीं रख सकते। तो क्या करते हैं, जैसे- कभी उसे अपने दोनों हाथों में इधर से उधर उछालते हैं, कभी एक हाथ में रखते हैं जैसे ही वे बरदास्त से बाहर होता है तभी उसे दूसरे हाथ में ले लेते हैं। अपने हाथ के ठोस और मजबूत हिस्से में उसे फँसा लेते हैं। जब ये भी मुश्किल होता है उसे किनारे से पकड़कर अपनी उंगलियों में अटका लेते है। ये करने से भी उसकी गर्माहट कम नहीं होती या फिर कहिये की अपनी बरदास्त में वे गर्म अहसास अपनी जगह नहीं बना पाया तो फिर उसे किसी और मजबूत चीज़ का सहारा देकर पकड़ लेते हैं।

यही खेल चलता रहता है हर वक़्त जिसमें वो गर्मा-गर्म चीज़ हर दृश्य में पंजीकृत होती है। अब उस गर्मा-गर्म चीज़ को आप कैसे सोचेगें? और उस मजबूत आधार को कैसे जिसे उसका सहारा देकर आपने थामा है?


लख्मी

ये उनका जीवन है

पैंट का झोल बड़ गया है। अब तो बेल्ट भी किसी काम की नहीं रही। कब तक उसमें छेद ही छेद करने होगें। इतने छेदों से भर गई है कि अगर उसमे फूँक मारी जाए तो बाँसूरी की बजने लगेगी।

खाट में झूले की तरह से वे बैठे अपनी पैंट की कमर को सिल रहे थे। इतनी बार सिलाई हुई है कि पीछे की दोनों जेबें आपस मिल गई हैं। लेकिन आज भी ख़ुद ही उसकी तुरपाई करने में जुटें हुए हैं। आँखों पर मोटी और भारी फ्रेम का चश्मा बार-बार उनकी नाक से फिसलकर नीचे आ जाता पर उनकी तुरपाई करना बन्द नहीं होता।

कई बार सिलाई होने से पैंट में कई झोल आ गए हैं। लेकिन उन्होंने इस तरह से उसे सिला था की वे झोल भी किसी पैंट की प्लेटों से कम नहीं लग रहे थे। पैंट में लुप्पियाँ महज़ नाम मात्र के लिए ही बची थी। उन्ही में वे अपनी बेल्ट को घुसाकर अपनी कमर से लपेट लेते और कमीज़ को थोड़ा सा बाहर निकाल लेते बस, जहाँ से पैंट में ज़्यादा झोल होता वहीं से कमीज़ ज़्यादा बाहर लटकी रहती। बस, हो गया मेनेज़।

शामू नवाब कपड़ों की मेचिंग पर बहुत ध्यान देते हैं। अगर कमीज़ का मेल पैंट नहीं होता तो दोनों में से कोई नहीं पहनते मगर आजतक ऐसा हुआ नहीं है। वे जैसे हर चीज़ को आखिरी वक़्त तक चलाते। आखिरी साँस तक उसको जीने लायक मानकर चलते।

आज भी उनकी सुई और धागे की ताल बज रही थी और उस ताल पर उनकी पैंट नाच रही थी। पूरी पैंट पर अलग-अलग धागों की रेखाएँ चमक रही थी। नीचे के पायचें पर अलग, जेब पर अलग और लुप्पियों पर तो अनेकों रंग झलक रहे थे।

क्या ये रंग-बिरंगा दोस्ताना खाली उनकी पैंट व मेचिंग की ही भूमिका निभाता है? शामू नवाब अपनी इस ताल की रिद्दम पर ख़ुद भी थिरकते हैं। ये थिरकना माना की भागदौड़ को ही बयाँ करता है लेकिन इसे थिरकना कह देने से इसकी अहमियत में बेहद फर्क पड़ता है। थिरकना अपने आपको शहर के बीच में रखने का एक नया पैमाना बनकर उभरता है। थिरकना लगता है जैसे ख़ुद में कुछ अलग अहसास लिए हैं। भागदौड़ कहलो या फिर हर दिन का खेला, इसे बतलाने और सुनाने के आयाम अगर ख़ुद से बना लिए जाये तो ये बेहद ख़ुशमिज़ाज़ बनकर खेलता है, चेहरे पर ताज़गी से भरा रहता है। शामू नवाब यही नारा सबको कहते फिरते हैं। उनके हर एक बोल में इसी की महक शामिल रहती है। वो तो कभी-कभी कहते हैं कि "जब मैं लालबत्ती पर खड़ा होता था और नम्बर चलते थे तो मैं उन्हे साथ की साथ गिना करता था। ऐसा लगता था की मेरे ज़ीरों कहने से सारी गाड़िया चल पड़ेगीं"

ये खेल खाली उस पैंट, कपड़ों की मेचिंग या फिर लालबत्ती के साथ दिन को भरना ही एक मात्र अंदाज़ नहीं बनता। शामू नवाब अपनी जेब में कई ऐसी मेचिंग लेकर चलते हैं, लोगों में घुसते हैं और उनके लिए कुछ कहते हैं। ये कहना कई नये रिश्तों के दरवाज़ें खोल देता है। इसमें अंजान बन्दा भी तुरंत शामिल हो जाता है। ये कैसे मुमकिन है? ये कहना थोड़ा अटपटा है वो भी आज के वक़्त में। जबकि हमारे बीच में कई ऐसे चेहरे व लोग हैं जो एक-दूसरे को पढ़कर नये रास्ते खोजते चलते हैं या तो वो एक-दूसरे को पढ़ लेते हैं या फिर समय की नज़ाकत तो पढ़कर अपनी भूमिका तय कर लेते हैं। उन सभी भूमिकाओं के बीच में शामू नवाब भी शामिल हैं।

उनकी दौड़ तो सुबह छ: बजे से ही शुरू हो जाती है। यही टाइम है जब काम पर भागने की जल्दी में लोग अपने अन्दर ताज़गी भरने के लिए पंद्रह से बीस मिनट बाहर निकल आते हैं। हर रोज़ सुबह छ: बजे अख़बार वाले के साथ मे बने बस स्टेंड पर वो कई अंजाने लोगों के बीच किसी न किसी विषय पर बातें करने का काम करने लग जाते हैं। जिससे उनका भी वे काम हो जाता है जिसका चश्का उन्हे पंद्रह साल से है। उन अंजान लोगों के बीच में वो इस तरह से खड़े हो जाते हैं जैसे अख़बार बिकने से पहले ये जगह कई बातें का अड्डा है।

सुबह-सुबह का यह आलाम लोगों को एक-दूसरे में घुलने-मिलने का बेहद न्यौतेदार समय बनता है। उन्हे मालुम था इस न्यौतेदारी रिश्ते का। अपने हाथों में थामें कई अलग-अलग कामों के विज़िटिंग कार्ड और मुख पर कई बातें लिए वे बेहद आसानी से लोगों के बीच में खड़े हो जाते हैं। अपनी हर मुस्कुराहट के साथ वे उसे तैयार रखते हैं और बस, लोगों से मिलने का सिलसिला आरम्भ हो जाता है।

उनकी जेब में वे सब होता है जिसकी हर किसी को जरूरत है। वे सब मौज़ूद है जिसकी लोग चाहत रखते हैं। बस, किसी ने कुछ चाहत रखी और उनकी जेब खुल गई। जेब में हाथ डालते ही वे दस, दस चीज़ें एक साथ निकाल लेते हैं।

आज की तारीख में शामू नवाब क्या नहीं करवा सकते। हर चीज़ का ठेका उन्ही ने ले लिया है जैसे। सड़क के एक किनारे वे खड़े होकर लोगों के हाथों को पकड़कर उनको कुछ न कुछ पकड़ाते रहते हैं। पहली नज़र मे चाहें कुछ भी सोचे लोग लेकिन हाथ मे आई चीज़ को एक बार तो नज़र भर देख लेते हैं। उनको तो इसी से तसल्ली हो जाती है।

उनकी जेब में वो सब है जो आपको चाहिये। बस, उनके हाथ पकड़ने की देरी है।

लख्मी

Tuesday, March 17, 2009

वक़्त के बाहर


दिनाँक- 13/03/2009, जगह- दक्षिणपुरी मार्किट, समय- दोपहर11:30 बजे

चेहरों के पीछे भी चेहरे होते हैं बस, उन्हे पहचानने की नज़र तलाशनी और बनानी होती है। एक गुमश़ुदा व्यक़्ति ख़ुद को तलाश रहा है। इसलिए उसे देखकर लोग कहते हैं ये लापता है। मगर उसके तलाशने को कोई नहीं जानता। सब उसके गुम होने को देखते है।

हमारे बीच आइने बहुत है पर कोई ऐसा चेहरा सामने नहीं आता जो आइने को पारदर्शी कर सके। वो तस्वीरें ही हैं जो आइने में ढले वक़्त के बाहर भी मंजर दिखाती है।

राकेश

सब कुछ चल रहा है


दिनाँक- 13/02/2009, जगह- नेहरू प्लेस, समय- शाम 4:25 बजे


सब कुछ चल रहा है लेकिन इस सब कुछ चलने में भी एक ठहराव है जो न अपना है न सार्वजनिक है। उसे देखा जा सकता है, सुना जा सकता है और उसमें ख़ुद को उतारा भी जा सकता है। उसमें रंग-बदरंग पहलू भी है। जहाँ पर ख़ुद को अपने रूप से हटकर समझा जा सकता है।

उस स्थान में समय आकाशगंगा की तरह फूट कर चारों तरफ बिख़र जाता है। फिर ज़मी पर धीरे-धीरे उतर जाता है।

राकेश

Sunday, March 15, 2009

एक रास्ता जो कहीं निकलता है

निगाह कभी जमीन से ऊपर नहीं उठती। ऐसा लगता है जैसे किसी के पैरों के निशानों पर अपने पाँव रखकर अपने लिए राह तलाशी जा रही है। दरवाज़े से हमेशा आवाज़ों का काफ़िला सा निकलता है। अभी जैसे कोई कुछ ही पल यहाँ पर ठहरा है। दिल और दिमाग का खेल भी हो सकता है पर ये सच है।

न तो इसमें दाखिल होने का रास्ता देखने की कोशिश रहती है किसी की और न ही इससे बाहर निकलते छोर को समझने की। यहाँ के हर रास्ते जैसे किसी के पैरों के ही निशान हैं। हर रास्ते में हजारों लोगों को महसूस करने की आज़ादी है। कोई कब और कैसे आपके काँधों से टकरा जाये इसका अंदाज़ा भी लगाना न के बराबर हो। पर जैसे अब तक तो पैरों का रिश्ता यहाँ के हर मोड़, हर ऊँच-नीच, हर चौख़ट और कौने से हो गया है। ये हुआ सिर्फ़ सात ही दिनों में।

रास्ता जो कहीं का इशारा देता है तो कहीं के इशारों को चित्रों में बदल देता है, एक रास्ता ये भी...


दिनॉक- 13-03-2009, समय- दोपहर 1:00 बजे

लख्मी

Saturday, March 14, 2009

किसी को कुछ सुनाऊँ

मैं रोज़ जगता हूँ अलसाते हुए
न जाने मेरे अरमाँ चहकते से जगते क्यों है

कभी मन करता है कि दुनिया को आँखें बन्द करके देखूँ
मगर न जाने लोग आँख खोले चलते क्यों है

शहर दौड़ा जा रहा है न जाने कहाँ के लिए
फिर भी ज़िन्दगी इतनी आहिस्ता सी दिखती क्यों है

रोज़ निकलती है दिल से सबके कल्पना कहीं उड़ जाने की
पर न जाने हाथ किसी पँख की तरह फड़फड़ाते क्यों नहीं है

रोज़ सुबह को जाना, शाम में फिर वापस आना।
पहिया इसी मे घूमता है हर दम पर जाने क्यों लोग इससे अलसाते क्यों नहीं है

ढेहरों बातें हैं समाई दिल-ए-गुलिस्ताँ में।
फिर भी लोग एक-दूसरे को बतलाते क्यों नहीं हैं

अनेकों साथी बैठे हैं किसी के इंतजार में
लोग उनको हाथ बढ़ाकर उठाते क्यों नहीं है।

मैं रोज़ जगता हूँ अलसाते हुए
न जाने मेरे अरमाँ चहकते से जगते क्यों है



दिनॉक- 12/03/2009, समय- रात 8:00 बजे

लख्मी

"बस, इतनी मौहलत मिल जाये के किसी को कुछ सुना सकूँ।"

उनके घर तक सर्वे वालों को आने में अभी दो दिन और लगेगें। उससे पहले ही वो अपने घर के सारे कागज़तों को सुधारने में जुट गई। वो अपने घर के सारे तालों को खोलकर बैठ गई।

उनके हर कागज़ पर उंगलियों के निशान थे। कोई भी कागज़ ऐसा नहीं था जिनपर कोई पैन चला हो। वो उन सभी कागज़ातों को खोल-खोलकर ज़मीन पर बिछा रही थी। अपने घर के सभी कागज़ातों को उन्होंने अलग-अलग गठ्ठियों में बाँधा हुआ था। किसी को काले रंग के धागों से तो किसी को लाल रंग के रिब्बनों से तो किसी को कपड़ों की कत्तरों से। वे उन सभी कागज़ातों को ज़मीनपर रखकर उनपर बड़े प्यार और स्नेह से हाथ फैर रही थी। वे उनपर हाथ फैरती हुई कहती, "इनमें देखो ज़रा की इनमें अनवर अहमद के नाम का कागज़ कौन सा है?"

देखते-देखते उन्होनें सारे कागज़ों को खुला छोड़ दिया था, अब तो बस, काम बाकि रह गया था उनमे अनवर अहमद के नाम का कागज़ देखने का। जब वे अपनी उस पन्नी में से कागज़ों को निकालती तो कुछ कागज़ों को छुपा लेती। ऐसा लगता जैसे कुछ कागज़ों को वो दिखाना नहीं चाहती। उन्हे वे उसी पन्नी में लपेटकर रखती जा रही थी।

दोबारा से अपनी उधड़ी सी पन्नी में वो हाथ डालती, कई और कागज़ों से लिपटा बंडल निकाल लेती उनको साफ करती हुई कहती, "हम तो साफ़ कहते हैं भईया की हमनें तो ये आशियाना ख़रीदा है मगर एक बात कहें दिल की, ये जब ख़रीदी थी तो तब ये झुग्गी थी, इसे आशियाना मैंने बनाया है। आशियाने का मतलब क्या होता है जानते हो, वो घर जिसमे सब प्यार और मोहब्बत से रहते हो और पड़ोसियों का भी आना-जाना हो। मैंने जब ये झुग्गी ली थी तो यहाँ पड़ोस नहीं था मैंने बनाया है यहाँ पड़ोस।"

अपनी सारी बातें वो आँखों में आँखें मिलाकर वो बड़ी सहज़ता से सुना डालती रही। एक बार भी ऐसा नहीं लगा की ये कहानी उनके ख़ुद को बता रही है या उनके घर को या फिर वक़्त को जिसको उन्होनें बनाया है। इससे बड़ी बात तो वे थी जब वो अपने आशियाने को अकेला नहीं कर रही थी। उनके आशियाने के साथ में जुड़ा था उनका पड़ोस जिसके साथ रिश्ता उन्होनें ख़ुद से बनाया था। बाकि तो हर माहौल उसका गढ़ था। यहाँ पर हर बात कहानी बनती और हर माहौल उस कहानी का गढ़।

दरवाज़े पर खड़ी होकर वो किसी को आवाज़ देने लगी, “रज़िया बाज़ी, ओ रज़िया बाज़ी ज़रा यहाँ तो आना।"

वो वापस आई और उन्ही कागज़ों में दोबारा से लग गई, कहती, “ये तो नहीं है, देखो ये, इसे देखना, कहीं नीचे दबे वालों में तो नहीं है।"

उनके चेहरे पर बैचेनी साफ़ झलक रही थी। कागज़ों को टटोलती हुई उनकी नज़रें कहीं टिक ही नहीं रही थी। वे लगातार एक ही कागज़ को पलटती रहती। उन्हे सच में नहीं पता था की वे एक ही कागज़ को कितनी बार देख चुकी हैं और कितनी बार दिखा चुकीं है। बस, किसी चेहरे को खोजने मे उनका वक़्त निकल रहा था। बस, हर कागज़ को देखते हुए वे यही दोहरा रही थी, “इसमे देखों जरूर होगा।"

रज़िया जी कमरे में घुसते ही बोली, “अरी बहन हमें भी दिखा देती की तू कागज़ दिखा रही है तो मैं भी लेती आती।"

लेकिन वो गई नहीं वहीं पर बैठकर उन्ही के कागज़ातों में लग गई। वो रज़िया जी को टोकते हुए बोली, “बाज़ी ज़रा बताओ इन्हे की कितना बख़्त हो गया है हमें यहाँ। याद है न जब आशिया को देखने वाले आए थे तो मैंने पहली बार इस झुग्गी को खोला था। कितना बख़्त हो गया होगा उस बात को?”

रज़िया जी बोली, “हो गए होगें 15 साल तो, उसके दो बच्चे हैं अब बड़ी लड़की 14 साल की है। मुझे तो खूब अच्छी तरह से याद है। पता है न बड़े-बड़े गढ्ढे हो रहे थे तेरी झुग्गी में। ऐसा लगता था जैसे किसी ने ख़ूब पैसा गाड़ रखा होगा। लेकिन वो तो घूसों और मूसों ने किए थे। सफ़ाई करके मोटा कारपेट बिछवाया था। तुर्कमान गेट से लाये थे कारपेट वहीं पर एक अकेली दुकान थी टेंट की। गढ्ढों मे ख़ूब कपड़े ठूसकर बिछाया था कारपेट फिर भी पूरा ध्यान उन्ही पर जमा था कि कहीं किसी मेहमान का पाँव न घुस जाये उसमे।"

रज़िया जी के किस्सा दोहराने का चाव देखने से बनता था। बड़ा जोश़ था उनमें। हर बात को उसके भाव के साथ बताती, सुनने में बेहद मज़ा आ रहा था। दोनों की दोनों कागज़ों को भूलकर बस, उस वक़्त की बातों में मशगूल हो गई। दोनों ख़ूब हँस रही थी शायद उस वक़्त से जुड़ा कुछ और भी याद आ गया था लेकिन बताना जरूरी नहीं था, शायद वक़्त की नज़ाकत वे नहीं थी कि हर बात बोली जा सकें। दोनों एक-दूसरे को देखती फिर हँसी छूट जाती। रज़िया जी बोली, “अनवर के कागज़ात निकलवा रही हो क्या?”

वो पन्नी में सिर झुकाते हुए बोली, “हाँ बाज़ी उसी के निकलवा रही हूँ।"

रज़िया जी ये पूछ चली गई लेकिन दोबारा आने के लिए। वे भी अपने घर कागज़ लेने गई थी।

वो मेरी नज़रों में नज़रे मिलाती हुई बोली, “बड़ी मुश्किल से काम लगा था अनवर के अब्बू का। ज़ामा मस्ज़िद के पास में कार के कारखाने में काम था। वहाँ बड़े-बड़े ट्रकों में समान आता था तो वो उतारते थे। रोज़ खाते-बचाते कुछ पैसा जमा किया था जिससे ये झुग्गी ख़रीदी थी। 15 हजार में करीब 25 – 26 साल पहले। यहाँ पर तक कोई भी किसी को जानता नहीं था। तो अनवर के अब्बू हर ईद और ज़ुम्मे दिन यहाँ पर हर दरवाज़े पर जाकर मुबारक बाद दिया करते थे। जैसे उनका दिन ही यहीं बितता था। वे तो जैसे हर एक से लगाव बनाकर रखते थे। तभी तो उन्होनें यहाँ पड़ोस को इतना करीब कर दिया हमारे। पड़ोस तो उन्होने ही बनाया था हम तो बस, उसे निभा रहे हैं। ऐसा बार-बार बन सकता है। लेकिन क्या ये आसान होता है। भरोसा बनाने में ख़ूब बख़्त लगता है।"

एक बेहद नाज़ुक और पतली डोरी से लपेटा हुआ उन्होनें एक और पत्रा खोला। उसमे उर्दू में कुछ लिखा था। उसमें क्या लिखा है ये वो भी नहीं जानती थी। बस, वे इतना जानती थी की ये उनके निकाह का कागज़ है। बड़ी सरलता से उसे वे दिखा रही थी।

"हमारी झुग्गी के कभी चार दरवाज़े हुआ करते थे। ऐसी थी कि मानों हर दरवाज़े से हवा आती थी। हमारा घर किसी हवा महल से कम नहीं था। सबका काम निबट जाता तो पूरा-पूरा दिन यहीं पर बैठकर खूब बातें होती। हमें तो हीं पता चल जाता था कि किस कोने में क्या हो रहा है? नमाज़ हो या ईद हर बख़्त यहीं पर सब अपनी अपनी बातें कहने चले आते। सबकी बातो में बख़्त कैसे गुज़रा हमें तो पता ही नहीं चला। सारा समय छप गया है हमारे सीने में।" वो यह बोलती हुई अंदर चली गई।

रज़िया जी, इतने समय में आ गई थी। उतने हाथों में एक बेहद चमकीला लेडिस पर्स था, जिसके तले पर घुँघरू बँधे थे। नीचे से वे सारा अलग-अलग धागों से सिल रखा था मगर चमकीलापन बरकरार था। उन्होंने जैसे ही अपना पर्स खोला तो एक बेहद दिलनशीं सी महक बाहर आई। उन्होंने सारे पेपरों को अपने एक ही हाथ की उंगलियों में दबोचकर बाहर निकाल लिया।

"रज़िया बाज़ी, बड़ा संभालकर रखा है तुमने सारे कागज़ातो को! क्या इत्र छिड़का है जो बड़ी खुशबू आई है?”

रज़िया जी मुस्कुराते हुए बोली, “उनकी यही तो यादें बची हैं जिन्हे मैं हमेशा ताज़ा रखती हूँ। उनको यह खुशबू बेहद पसंद थी तो इनमें हमेशा इत्र छिड़ककर रखती हूँ।"

अब तो जैसे उनके हर एक कागज़ के साथ उनका एक-एक ज़ज़्बात तड़पकर बाहर निकल आये। जो बाँटा जा रहा था वो न तो कागज़ातों की दुनिया थी और न ही कोई शक था और न ही खाली यादें। वो ज़ज़्बात थे जो उस इत्र की खुशबू से तर थे जिसमें न जाने कितने पलों को सहेजकर रखा गया था।

लख्मी

Monday, March 9, 2009

किसी में रंगने का सबब क्या है?

किसी नई जगह को बनाना क्या होता है? एक ऐसी जगह को जो पहले से बनी है? उसमें सबसे ज़्यादा महत्व क्या रखता है? मैं कुछ समय से एक ऐसी के साथ में घुला मिला रहा हूँ। जिसके बनने का कोई निर्धारित वक़्त नहीं होता। शायद कोई ठोस रूप भी नहीं होता। ये कहीं भी बन जाती है। जैसे- कभी गली के बाहर तो कभी सड़क के किनारे तो कभी किसी की छत के ऊपर। बस, इसका बनना तय होता है। जहाँ कुछ लोग मिले वहीं जगह बनने शुरू हो जाती है। इसके अंदर सबसे महत्वपूर्ण बात क्या होती है वे मैंने महसूस किया। वे थी किसी को शख़्स को या बात को, "जगह देना"।

जगह देना, यानि के अपनी ज़िन्दगी के किसी चलते हुए या बितते हुए पल में शामिल करना जिसमें 'शामिल करने' कि क्रिया कोई जोड़ना ही नहीं है। इसमें अपने समय में आते-जाते, ठहरते अहसास में घोलन के समान होता है। एकदम किसी स्वाद की तरह जो चख़ने पर ही महसूस होता है। वो चाहें किसी भी चीज़ का क्यों न हो पर वो स्वाद ही कहलाता है। हम जब चाहें नये या रोज़ होती बातों के समुह में बैठते हैं तो कोई न कोई हमें अपने किस्से सुनाने बैठ जाता है क्यों? एक-दूसरे की कमी को कोई क्यों महसूस करता है? चाहें कोई करीब न हो पर उसे अपने नज़दीक ही महसूस करता है। हक़ीकत की बनी ठोस तस्वीर के फ्रेम में कल्पना की उड़ानो के रंग क्यों भरता है? इसका मतलब ये नहीं होता की इस अहसास ने किसी को ख़ास बना दिया है या उसे हमारे सामने कोई कुर्सी दे दी है। बल्कि ये तो एक घुलनसील नमी है। जो हम अक्सर अपने कानों के पास ही महसूस करते हैं। जिसमें 'शामिल होना' एक हिस्सा नहीं बनता बल्कि एक साथ चलने वाला साथी बन जाता है। जिसका होना उस रूप की तरह होता है जो कदम पर कदम रखकर उसे दो नहीं करता बस, उसका आकार बड़ा कर देता है। जिसकी दूरी और नज़दीकी को हम अपने से तैयार करते हैं।

ऐसा ही कुछ हाल-फिलहाल में हुआ। किसी एक नई जगह को रूप मे लाना जिसका आकार तो समझ में आता है पर रूप क्या होगा? ये तय कर पाना बेहद मुश्किल बन जाता है। गली के बाहर लगने वाले माहौल, बनकर टूट जाने वाले माहौल, सड़कों से गुज़रते लोगों के चेहरों मे खो जाने वाले माहौल और बातों ही बातों मे हर रोज़ मिलने वाले माहौल। हमारे लिए ये महज़ जगह नही होते। इसे एक सदंर्भ मानकर हम अक्सर चलते हैं। जो 'जगह' पहले से ही अपने मजबूत ढाँचों और इरादों पर टिकी हो, उसमे अपने आपको रखकर एक नया सदंर्भ बनाना बेहद मज़ेदार होता है। मगर, जब किसी बड़े से माहौल में हम कोई नया सदंर्भ बनाते हैं तो क्या होता है? उस सदंर्भ के लिए और उस बड़े माहौल के लिए?

ये सवाल ख़ुद के लिए कभी-कभी कुछ नई राहें खोल देता है। इन जगहों के बारे में महसूस करें तो इसमें एक चाहत होती है। जो लोगों, अनुभवों को साधकर रखती है। जैसे- किसी पेज का मार्जिन करना। वो पेज के हिस्से नहीं करता या किसी भाग को अलग नहीं करता बल्कि वो अंदर आते हर शब्द, लाइन और तस्वीर को साध देता है। उसका साधना उसे एक फ्रेम दे देता है जिससे कुछ भी बिख़रा सा नहीं लगता। उसी में एक सामान्य रूप नज़र आता है। जिसका बैलेन्स और लेवल एक साँचे मे ढलकर एक मूरत के जैसा इख़्तयार होकर ख़ुद को पेश करता है। ये जो माहौल हैं जो हमारे आसपास कहीं भी, कभी भी बने नज़र आते हैं इन्ही में कई सारी ज़िन्दगियाँ, खूबसूरत पलों में दोहराई जाती हैं। कहीं चलते रास्तों पर, कहीं ठहरते चौंबारों पर, कहीं बस की उछलती सीटों पर, कहीं गली या आंगन में। ये हमारी आँखों मे बस, गए हैं। जो कभी-कभी ज़िन्दगी के अनुभव में गिने जाते हैं।

इन्ही की तरह अपने ख़ुद को भी एक नये तरीके से एक नई छवि मिलती है। उसी जगह पर जो पहले से बनी है। लेकिन उस नये संदर्भ में लोगों का मान-भाव कैसे हो? और वो अपने को कहाँ और कैसे महसूस करें? जहाँ एक ऐसा माहौल है की लोग एक जुट में आते-जाते हैं। उनका रहना, खाना, चलना, हँसना और पूरे दिन को एक ही साथ बिताना चलता है जिनका पूरा दिन 45-45 मिनट के हिस्सों में बँटा है जिसमें वो अपने लिए सीखने का एक समाज लिए जी रहे होते हैं। अपने हाथ के हुनर को लेकर ही अपने आने वाले कल की कल्पना करते हैं। हर रोज़ अपने कई साथियो के साथ में रहना, बोलना, गाना और अपने कपड़े शेयर करने बाद भी जब अपने भष्विय की बात करते हैं तो एकदम अकेले हो जाते हैं बस, इन रिश्तों को ऐसा बना देते हैं कि ये साधन हैं ज़िन्दगी को बिताने और हरा-भरा करने के।

रिश्तों की कतार में खड़े हम कहाँ-कहाँ नज़र मारते हैं? जहाँ से हम कुछ चुन सकें। इतना तो पता है की कुछ रिश्ते हमें तोहफे में मिलते हैं जो इंसान का अकेलापन दूर करने के लिए होते हैं। कहा जाता है कि हम बचपन में जिस-जिस कि गोद में जाते हैं उनसे हमारा एक रिश्ता बना होता है पर कुछ रिश्ते हम ख़ुद से बनाते हैं। वो रिश्ते होते है तोहफे। जो हम हर रोज़ बनाते हुए चलते हैं। तो इन रिश्तों का और लोगों के अनुभव में हम अपने को कहाँ तलाश सकते हैं? या शामिल हो सकते हैं?

अगर ये बात किसी जगह पर निर्भर करती है तो, हर जगह अपने साथ कुछ शर्ते लेकर जीती है पर यहाँ नहीं होगी। माहौल बन जाना अपने आपमें बहुत मायने रखता है। उसमे हम कई सारे अनुभवों के बीच बैठे होते हैं जिनमें कई पल, रिश्ते, रास्ते, गलियाँ, पड़ोसी, यादें, निशानियाँ होती है। अपने अनुभव से बाहर निकलकर बाकी अनुभवों को अपने में उतारना अलग-अलग अनुभव जिनमें अपना-अपना रंग है और हमारा एक अनुभव जिसका अपना भी एक रंग है तो हमें उन सब रंगो में देखना होता है कि वो कौन सा रंग है जो सबमें "कोमन यानि एक जैसा है" क्योंकि अपने रंग मे ढ़ालने से ज़्यादा जरुरी होता है उनके रंगो मे ढ़लकर एक माहौल को बनाना और फिर उन्ही रंगो कि रंगिनियत को वापस उसी माहौल में पेश करना। क्योंकि मैं खाली अपना-अपना अनुभव ही शेयर करने नहीं आया हूँ बल्कि मैं कई सारे अनुभवों को एक साथ जी रहा हूँ जिसे मैं नाकार नहीं सकता। उनमें घूम रहे किसी ख़ास रिश्ते में बैठा हूँ और उनके बने रंग उभारता है। उसे वापस रखा जाता है। एक ही चीज़ है जिसे हर शख़्स निभाता आया है।

शहर के बड़े अनुभवी और उम्रदराज़ शख़्स ये बात अक्सर कहते हैं, गर किसी शख़्स या माहौल से रिश्ता बनाना हो तो, दो चीज़ों में एक चीज़ को अपनाओ, या तो उसके रंग मे घुल जाओ या फिर उसे अपने रंग में घोल लो।

लख्मी

मैं बनकर क्यों रहूँ?


दिनॉक- 06-03-2009, समय- दोपहर 3:00 बजे


ज़िन्दगी की सच्चाइओं की जमा पूँजी क्या है? जिनका रफ़्ता-रफ़्ता हम अनुभव करते हैं। कुछ ख़्याल, कुछ कल्पना और कुछ सच -जिसका मिलाजुला रूप हमारी पहचान बन जाता है। शायद अपने से जुड़े रिश्ते भी!

अपने होने का भरोसा दिलाते हैं वरना मेरी अपनी क्या औक़ात की मैं ज़िद करूँ।
मेरा वज़ूद मेरे अपनों के अनुभवों से इस दुनिया में जाहिर है तो फिर क्यों मैं दुश्मनों की परवाह करूँ।
मेरी परछाइयाँ मेरा साथ न छोड़े बस, इतना बहुत है।
क्यों न मैं ज़िंदा रहने के लिए कुछ करूँ।

बना लूँ वो चेहरा जो दुनिया को हँसाता है, लुभाता है। इसके बाद मैं कोई तमन्ना करूँ।
तब मुझे पहचान पाने का न कोई निशान होगा, न कोई सवाल।
फिर क्यों मैं सामने आने की तकलीफ़ करूँ।

जीवन असीम है, निराकार है। इसमें समाकर मैं वक़्त के अंधेरों को रोशन करूँ।
मेरा ढंग, मेरा पहनावा तुम्हें मेरी ज़ीनत बता देगा इसलिए मैं, मैं बनकर क्यों रहूँ?
जो पीछे छोड़कर चल रहा हूँ, वो परछाइयाँ आज भी मौज़ूद हैं तो क्यों न मैं बहुरूपिया बनकर जीयूँ।

राकेश

उनकी पेटी में है दुनिया

एक ऐसा रिश्ता जिसमें भले ही कुछ रौब या औदा भरा हो पर वो किसी न किसी समय में अपने आपको कुछ नये ही रूपों से हमारी भेंट करवाता है। तो इन रिश्तो को कैसे हम अपनी ज़िन्दगी मे सोचते है? और अपने रोज़ाना के चलते अनुभव में देखते है?

अपने ऐसे ही नये रूप के साथ वे मेरे पास में आये लम्बी-लम्बी सासें भरते हुए, ये यहाँ दक्षिणपुरी के उन लोगों में से हैं जो अपने बिताये समय मे किसी जगह को बहुत संभालकर रखते हैं। ताकि उसके हर बदलाव पर ये हक से कुछ बोल सकें। उन्होनें मुझे कुछ पेपर पकडाए जिनमें उनके बारे में कुछ लिखा था। ये लिखा हुआ उस समय का था जिससे महज़ वे अक्सर अपने घर के ही कुछ हिस्सो में सुनाया कर दिया करते थे और उसे सुनाते समय में अपने पूरे परिवार को समेट लेते। उन्हीं पलों को सोचते हुए उनकी एक ऐसी छवि उभरती की उनसे मिलने के अहसास में लगता जैसे मैं अकेला उनसे ही नहीं बल्कि कई अनेकों लोगों से मिला हूँ जिनमें कुछ अपना सा समाया हुआ वे अहसास है जो कभी किसी उन रास्ते पर भी नहीं दिखता जो लोग मन्जिल पाने अथवा बनाने के लिए चुनते हैं।

यहाँ पर मुझे उन्ही की कही कुछ लाइने याद आती हैं जिनको शायद मैं नहीं कई और जनों ने सुना है पर शायद किसी को याद न हो।

अपने हिस्से की ज़िन्दगी को बसाके।
अपने मन मुताबिक सपनों को सजाके।
अपनी हिम्मत और ताकत को जीने की जिद्द में अडाके।
कुछ अन्दर भड़कती जद्दोजहद से शहर की घटनाओं को डराके।

अपने लिए कल की कुछ तरकीबें, मनसूबें बनाके।
बिना चाहत के कामों में अपनी ज़िन्दगी को थोड़ा अलसाते।
किसी अटकती जिज्ञासू नज़र को शहर में दौड़ाते।

अपने अन्दर हर समय किसी न किसी रहती, इच्छा को अन्दर-बाहर के मनसूबों में अटकाके।
हर वक़्त किसी न किसी नज़र के घेरे में ताड़ते हुए अपने को फँसाके।
रहते, चलते कुछ बनाते, मनभावूक नज़रें, इच्छा और चाहत को पालते जीने की चाह में, चाव में, कल की तैयारी में लग जाते हैं कई हाथ-पावं। जिनमे हर वक़्त पूरे दिन का तौड़ और हाज़िर जवाब होता है। तभी वो अपने खुद के वक़्त को जीत पाते हैं।

मगर, किसके लिए कुछ साधन इख़्तयार करते हैं? जबकि मौज़ूदा समय, दिन के सोलह घन्टे, रहते-चलते अपने वज़न की मार हर समय ज़िन्दगी कि तस्वीर पर जा गिरती है। कहीं आने वाला समय अपना पूरा वज़न न डालदे? यही सोच है वो वज़न जो रोज़ गिरता है। वैसे देखा जाए तो कई अगल-अलग तरह की ज़िन्दगियाँ हैं और उनके रूप हैं। काफी कठोर, काफी तेज और काफी वज़नदार पर इसका कोई एक हिस्सा है जिसे बेहद हँसकर बिताना मुनासिब समझा जाता है। भले ही कितनी भारी लगे ज़िन्दगी लेकिन इस भटकती दुनिया पर यहाँ हर कोई जैसे कुछ सपने और खुशियों को पालता है और कुछ शौक भी रखता है। कहते हैं, "इतना कमाना भी किस काम का जब कोई शौक ही न हो तो?”

तभी एक-एक दिन को सजाकर बड़े पैमाने को छलकाने की ताकत रखता है और 'ज़िन्दगी चार दिन की ही तो है हँसकर जी लो' बस, इसी पर पूरी दुनिया बिताने की हिम्मत बटोरता रहता है। अब बात आती है इन चार दिनों के अन्दर चलती रोज़ाना की मार-धाड़ और हर समय बनते नये प्लान। इसमें क्या-क्या सोचता चलता है हर शख़्स? इसके लिए वो कई ऐसे माहौल तैयार करता है। जो इन सभी शौक, चाहत, पाने की कशिश को उपजाऊ बना सकें और अपने घर या ज़िन्दगी, इन पलों को सजाने और हमेशा बनाये रखने के वास्ते वे कोने तलाशता है।

यहाँ पर राधे श्याम जी ने अपना वो पेपर और उसमें अपने उस समय को दुहराना शुरू किया की कान उनके साथ में रवाना हो चले। ये उनकी ज़िन्दगी वो पहले शब्द थे जो वो शायद पहली बार लिखकर सुना रहे थे। आज उनके आगे उनका बेटा नहीं था बस, उनका वो हिस्सा था जो उनके पिछले समय के अहसास को बाँटने वाला हमनामा बना था। जो आज उनके उस दौर को जी रहा था। उन्होने अपने खुद के शब्दों मे अपनी उस पेटी के बारे में बोलना शुरु किया। जो उनके लिए वे जमापूजीं थी जिसकी जगह उनके पूरे घर में उनके हर रिश्ते से भी ज़्यादा मायने रखती थी। ये पेटी और उसके अन्दर के हर टुकड़े में उनका वे मान जुड़ा था जिसे वे कभी खुद से अलग सोच ही नहीं सकते थे। किसी माहौल, कार्यक्रम या ज़्ज़बात ही नहीं थे उसके अलावा ये एक ऐसी जिम्मेदारी थी जिससे कटा नहीं जा सकता था और न ही उसे अपने अल्लड़ शब्दों में रखा जा सकता था। आज भी ‌वे उसे, उसमें कैद समय को खुद में समाये हुए है? उनमें लिखे हर ख़त की बुनियाद में ऐसे चित्र थे जिनको जरूरत की भाषा में तोला नहीं जा सकता था। ऐसा लगता था जैसे ख़तों मे उनके वे पल शामिल हैं जिनको खाली वही जी सकते हैं। हम तो केवल अंदाज़ा भर सकते हैं उन पलों के अहसास का।

ख़त जो सिमटे नहीं थे, ख़त जो उदास नहीं थे, ख़त जो हताश नहीं थे और ख़त जो भार नहीं थे। ये ख़त उनके जीवन में चाहतों के समंदर बनकर उनके बीच मे जी लेते थे। जिनमे कभी कहीं जाने का आसरा रहता तो कभी एक कहानी के साथ कुछ माँग होती। हर ख़त में जैसे कोई कहानी लिखकर इनको दे देता। तभी इनके ज़हन में उनकी अहमियत और गहरी रहती। वे कहते,

“मेरे लिए ये बक्सा, बक्सा नहीं है। मानलो उस समय तो मेरी ऐसी जिम्मेदारी थी की जैसे मैं इसे सम्भाल नहीं बल्कि इसमें कई लोगों के महिने, साल के कामों और सपनों को सम्भालकर रख रखा हूँ। इसमें लिखा एक-एक नाम, पैसा और शब्द किमती है, मायने रखता है आज भी। इसका एक-एक पन्ना मेरे लिए कई पन्नों की कहानी की तरह है जिसे मुझे याद रखनी हैं उम्र भर, जीवन भर। लोग चले गए तो क्या हुआ उनके सपनों के बनने के शुरूआती दिन आज भी इसमे दर्ज़ है और कमाई का एक-एक हिसाब भी। आप जानते नहीं हैं श्री मान कि इसके मायने क्या हैं? कैसे मीलों पैदल चलकर, काम करते थे और परिवार पालने के लिए पैसा कमाकर इसे रोज़ बनाते थे। हर रोज कोई न कोई छोटी से छोटी बात को एक अपने दिमाग में बड़ा करके उसे परेशानी बनाते थे और सभी के सामने रखते थे। हर रोज आती थी और लोग इसी के लिए पैसा ब्याज पर उठा लेते थे। बस, वही समय है इसमें। उनकी बहुत सारी दिक्कते हैं और बहुत सारे सपने हैं। जानते हो जब कोई ब्याज पर पैसा उठाने आता था। तो पहले दो-ढाई दिन तो ऐसे ही बातों में अपनी परेशानी को जाहिर करता था। इस तरीके से की किसी को ख़ास पता न चले बस, इतमा गुमा हो जाए कि इस बार इसे ब्याज पर पैसा चाहिये। यह है उस बक्से में। एक बात और लोग मुझे "खजानची" कहते थे। कहते क्या थे मुझे उसका पद दिया था उन्होनें। तो सभी के परिवारों की कल कि इच्छाएँ सहेजकर रखना मेरा काम भी था और जिम्मेदारी भी। अब पता नहीं वो सभी लोग कहाँ होगें? मगर आज भी तो इस बक्से में कहीं होगें जरूर। बाइचाँस कोई अगर आ जाए तो मैं उन्हे ये दिखा तो सकता हूँ। हमारी गली के लोग या हम चाहे उन्हे भूल गए हो पर ये बक्सा तो कभी नहीं उन्हे भूलेगा। क्योंकि पैसा लेते समय और वापस देते समय इसमे लिखी अर्ज़ियों मे वो सारी दिक्कतें और वज़हें, सपनें, इच्छाएँ खुद से लिखे शब्दों में बसी हैं। जो इसके अन्दर कहीं तो है और वो क्या कहते है गूँजती है।"

समय जैसे चमक रहा था उसके ढकने में।
समय ज़ंग खाया था ऊपर-नीचे के तलवे में।
समय सूखा था मोहर की पड़ी महरूम सी डब्बी में।
समय उछल रहा था छोटे काग़जो के टुकड़ो में।
समय चिपका था तले से लगे पेपरों में।

समय अकड़ा था फाइलों में अड़े काग़जो में।
समय अटका था गुड़मुड़ी पड़े काले कार्बन पेपरों में।
समय रंगा था स्टेम्प की ख़ुर्दरी लाइनों में।
समय टिका था टिकट पर पड़े अँगूठाई निशानों में।
समय ठुसा था नीली सी पन्नी में भरी बिलबुको में।

समय छन गया था चूहों की कुतरी पनशनी, कागज़ों के छेदो में।
समय सम्भाला था रजिस्टरों और फाइलों के ऊपर बधीं छोटी-छोटी डोरियों में।
समय गूँज रहा था फाइलों और रजिस्टरों में लिखे अलग-अलग नामों में।
समय धूँधलाया था गत्तो में कवरपेज पर लिखे मानो से उड़ती गाढ़ेपन कि चकम में।

समय फैला था बिलबुक से काटी गई पर्चियों में।
समय खुद को दोहराया सा था कुछ सरकारी महकमों के दस्तावेजों में।
समय बेबसा सा था रजिस्टरों से आज़ाद होती बाईडिगों में।
समय जिज्ञासू सा अलग-अलग पन्नों पर लिखी अर्जियों में।

समय मान था उधार चुकाते शब्दों में।
समय पाबंद था उनमें पड़ी तारीखों में।
समय भीड़ था कई अलग-अलग पन्नों में छपे हस्ताक्षरों के प्रतिबिम्बों में।
समय ताकत था अन्दर कई नामों के अन्तर्राल बने रिश्ते में।
समय जिद्द था कई जाने-पहचाने नियमों में।
समय जिम्मेदारी था इसमे समय को महफूज़ रखने में।

उनकी ज़ुबाँ से निकलने वाले लोग अब कई कहानियों मे शामिल उनके बोलो में अटक गए हैं। वे लोग तो हैं नहीं मगर, उनकी छाप मौज़ूद है। अभी कई कहानियाँ बाकी हैं उनके अन्दर।

लख्मी

Sunday, March 8, 2009

सौगात के रूप में


दिनॉक- 06-03-2009, समय- दोपहर 2:30 मिनट

ज़िन्दगी में रंग का बड़ा महत्व है। ये हमारे अन्तरमन को ताज़गी देते हैं जिसमें हम किसी ख़्याल को बनाकर किसी को सौगात के रूप में भेंट कर देते हैं। रोज़ जीवन को एक ठंडक देने वाली चीज़ें हमें, हमारे तनावों से मुक़्त कर देती हैं।

सब के बीच सारी परीस्थितियों में फ़ँसने के बाद भी कोई शख़्स अपनी आँख वक़्त के बदलते दौर की याद्दाश बनाती है। वो आँख दर्द, ख़ुशी, शौर, चुप्पी पर बनी रहती है जिसे कोई नहीं देख पाता पर वो छुपकर सबको देखती है और आकार बनाती रहती है।

मुलायम हाथों में आकर ठोस चीज़ भी अपना आत्मसर्मपण कर देती है। जगह में सब अपनी श़िरकत से माहौल की रचना में शामिल हो जाते हैं।

राकेश

पुरानी दिल्ली का मशहूर पान भंडार


दिनॉक- 07-03-2009, समय- रात के 8:00 बजे

पुरानी दिल्ली को हम कई ख़ासियतों से जानते व पहचानते हैं। वहाँ के लोकगीत, वहाँ का माहौल, वहाँ का खाना, वहाँ की कमाई के ठिकाने, वहाँ की ज़ुबान और वहाँ के यातायात के साधन। इन सभी ख़ासियतों में कुछ ऐसा भी है जो छुपा सा रहता है। इतनी भीड़ के होने के बावज़ूद भी लोग एक-दूसरे के बीच मे से अपने लिए जगह खोज़ निकलाते हैं। काँधों से काँधे टकराते हुए लोग एक-दूसरे पर नज़र मारते हुए निकलते हैं।

जामा मस्ज़िद नम्बर एक गेट। ये हमेशा भरा दिखता है। इसके सामने की मार्किट से ना जाने कितनी तरह की आवाज़े हमेशा चलती रहती हैं। इतनी आवाज़ों के बीच मे भी लोग उस आवाज़ को सुन लेते हैं जिसे वे सुनना चाहते हैं। चितलीकबर बाज़ार से निकलने वाले लोग बहुत जल्दी मे दिखते हैं। एक-दूसरे से टकराने की तो जैसे सभी को आदत सी हो गई है। बस, टकराते हैं एक-दूसरे की नज़रों मे देखते हैं और फिर निकल जाते हैं। ये मिलना यहाँ की एक ऐसी ख़ासियत है जिसे याद में रखा जाता है और इस मिलन को ख़ुद मे दोहराया जाता है।

ज़ामा मस्ज़िद के एक नम्बर गेट के सामने लगी एक छोटी सी पान की दुकान जिसे यहाँ के हुए कई साल हो गए हैं। वे अगर ख़ुद अपने पिछले सालों को बतलाये तो वे कहते हैं, “हम तो तब के हैं यहाँ के जब यहाँ पर बस, दो चार ही दुकानें हुआ करती थी।"

बस, यही कहकर वो यहाँ के हो जाते हैं। कई बातों मे वे पअने आसपास लगी दुकानों का ज़िक्र करते वक़्त उनके भी पिछले सालों को दोहराने को तैयार हो जाते हैं। साथ वाली दुकान को वो अपना हमनवाज़ कहते हैं।

ज़्यादातर इस दुकान पर बड़े मियाँ बैठे नज़र आते हैं। उनके पान बनाने का अंदाज़ ही कुछ गज़ब है। वे जब पान बनाते हैं तो किसी की भी तरफ देखने मे उन्हे मज़ा नहीं आता। बस, जिसके नाम का पान बन रहा है उसके मुँह की तरफ देखते हुए वे पान में चीज़े डालते रहते हैं। कभी-कभी तो वे इतने खुशमिज़ाज़ हो जाते हैं कि पान की ख़ासियते बताते हुए वे कई और लोगों के बारे मे भी बोलने लगते हैं। जो भी उनकी दुकान पर पान खाने के लिए आता है। उसे वे अपने सबसे पसंदीदा पान खाने की सलाह दे डालते हैं। उनकी बोली मे, उनके पान की तरह ही मिठास भरी होती है।

वे पान को बनाने का मतलब कुछ और ही कहते हैं, “ये पान ही थोड़ी है मियाँ, ये मिठास है, याद है यहाँ की। जा रहे हो तो कुछ तो लेकर जाओ। चीज़ें ले जाकर क्या करोगें। थोड़ी लाली लेकर जाओ यहाँ की तब बात बने।"

चेहरे मे देखते हुए कहते है, “ये उस खूबसूरत सपने की तरह से बना देगें की मियाँ की रात मे जब आँख बन्द करोगें तो ये लाली ही याद आयेगी। जो भी देखेगी मग मिटेगी आप पर।"

पान मे चीज़ें डालते हुए कहते हैं, “पान में खाली चीज़ें ही नहीं डलती मियाँ, ये तो थाल की तरह से तैयार करते हैं हम आपके लिए। समझलो की कोई परदेशी आपको अपनी यादें भेंट मे दे रहा है।"

उनके बोल और उनके अंदाज़, उनको कभी न भूलने की सौगात थमा देता है। उनके पास दोबारा जाने को कहता है। ये ख़ास ख़ासियत है जो दिल मे उतरी है।

पान बनाना क्या है हमारे लिए? ये हम सोचकर भी अंजान बने रहते हैं। उनके लिए क्या है ये उनसे सुनते हैं। मगर ये सजाना, बनाना और परोसना तीनों के मेल से बना। एक ख़ास अवसर बन जाता है।

लख्मी

Saturday, March 7, 2009

दिन प्रतिदिन चलती जगह


समय- दोपहर 1:25 बजे, तारीख- 12/02/2009

दिन प्रतिदिन चलती जगह जो अपने ही अहसास मे डूब कर किसी आँख को एक छवि देती है।जिस मे खेलते मस्ती करते हुए भी अपने आपको भुला नहीं पाते हैं। समय का रवैया जो अपनी दास्तान कहने के लिए इंतज़ार नही करता।


राकेश

अपने कोनों को सवाँरना


दिनॉक- 6-03-2009, समय- दोपहर 3:00 बजे



दिल्ली जैसे बड़े शहर के आगोश मे पनपने वाली कई ऐसी जगहें हैं जो कभी दिखती नहीं है मगर क्या हमें पता है कि वे शहर में कैसे घूमती हैं?

इस रास्ते को लोग बेहद सवाँरकर रखते हैं। हर रोज़ सुबह से ही यहाँ से जाने की तैयारी शुरू हो जाती है। यहाँ की हर सुबह तलाश से शुरू होती है और शाम आराम की थकावट मे खो जाती है।

दोपहर के वक़्त मे जब वो अपने चूल्हे को लीप रही थीं। दिमाग मे अलग ख़्याल चल रहे थे और शब्दों में कुछ और ही गूँज रहा था। हर हाथ पर उनके चूल्हे की नक्काशी को देखने की तमन्ना गहरी होती जाती। उनके छोटे से कमरे में खड़े होना ऐसा लगता जैसे मिट्टी पर पानी की बूँदे डालकर उसको महकाया जा रहा हो। कभी वे हाथों से उसकी किनारियाँ बनाती तो कभी उस पर लगी गोबर और मिट्टी को पानी मे लिपटे कपड़े से नर्म कर देती।

ये ख़ाशियत भी हो सकती है उस कोने की और वही सवाँरना एक नक्काशी की तरह अपने ठिकानों को कोई ऐसा चेहरा बनाने की कोशिश उभरती जो किसी के अंदर के अहसासों को खोलने की चाहत रखता है।

ये चित्र कोई अंदेखे नहीं हैं और न ही ये कोई ऐसे दृश्य हैं जो याद रखे जाए मगर क्या ये ख़ुद मे खो जाने के जैसे नहीं है?

लख्मी

हक़ीकत की दूसरी तस्वीर

हक़ीकत की वो तस्वीर है जिसमें जगह का बनना और उस बनने में जो ढाँचा दिखाई दे रहा है। उसमे हिलने-डुलने वाला माहौल, चीजें, शख़्स अपनी ज़रूरत के मुताबिक जीते हैं। हर चीज़ का जीवन है जिससे की हम उसको ठीक वैसा ही मानकर नकार कर उसकी स्थिती को जस का तस रखते हैं। जहाँ हम हैं वो जगह कैसे हमें बना रही है? किसी दूसरे की नज़रों से। ये सोचने की ज़रूरत है कि हम किन-किन छवियों में जी रहे हैं।

इन बहुत सी छवियों में जीने का हमारा अलग-अलग दायरा होता है या शायद वो सब कुछ मिलाकर एक ही दायरा है। ये फ़र्क करना तो हालात पर छोड़ देना ही बड़िया होता है। क्योंकि हम जिनके बीच है या जो हमारे साथ हालात है उनको सहजता से अपने अन्दर लेना और वापस छोड़ना कठीन भी होता है और आसान भी होता है या फिर यूँ कहीये की अपने ख़्याल का कोई चित्र बनाने का तीसरा अंदाज भी हमारे पास होता।

हमारा शरीर जब कहीं होता है तो रोशनी हो या न हो, शब्द, चेहरा, आवाज़ हो या न हो पर शरीर का वज़ूद कहीं तो गिरता है। जिसके गिरने से किसी नदी के धीरे-धीरे बहते पानी में उसके प्रतिदिन के बहाव या कह सकते हैं की स्वभाव या छवि के दरमियाँ जब गिरता तो सारा माहौल एक बदला तस्वीर में आ जाता है। बस, हम उसी तस्वीर को ही पकड़ लेते हैं।
फिर उसमे जीने लग जाते हैं। चाहें वो जिस तरह भी हो। शरीर का एक अपना ढाँचा होता है।
जिसके साथ बने हालातों के कई प्रकार होते हैं। हालात का चेहरा साफ, तराशे हुए, धूंधले, खुर्दरे, मठमैले, अलग-अलग दिशा में मोड़े हुए चुप्पी साधे हुए, तेजी थामें हुए, गुस्साए हुए, क्रूरता से भरे हुए, नादानी में खेलते हुए, हँसते, मुस्कुराते, सहमे और सब कुछ देखते सोचते पर कुछ नहीं बोलते हुए हैं। इनके साथ हम कहीं न कहीं जीते हैं।

कभी अपनी परछाई से वास्ता रखते हैं और कभी वास्ता नहीं भी रखते। लेकिन वो अपनी परछाई को अपने साथ चलने वाली एक छाया समझते हैं जिसका अहसास कभी पा लेते हैं कभी उसके अहसास से महरूम रह जाते हैं।

जो हक़ीकत के घटने या कुछ होने का सकेंत देती है। इसके साथ-साथ चलते हुए भी खूद के ख़्याल या खाली स्थान को किसी दुनिया से हम भर देते हैं। लेकिन हक़ीकत के पीछे कई सारी कतारों में लगी शख़्सियतें हैं जो विभिन्न रूपों को बनाकर रहती हैं और कभी कतारों को तोड़कर जीने की कोशिशें करती हैं।

शरीर का वज़ूद कभी मरता नहीं है उसे ज़िंदा रहने की वज़ह मिल ही जाती है। किसी जगह भी रहने पर या बसनें पर लोगों कि पहचान बनाने का और जगह में आने की गणना शहर माँगता है। वो चाहें पहचान पत्र से हो अक्षरों में हो या अंको में उस से कोई फ़र्क नहीं पड़ता।जगह में किसी के आने की ख़बर सत्ता होनी चाहिये जिससे आबादी का एक बदलाव के बाद दूसरे बदलाव से क्या किया या क्या आया इस का ब्योरा सत्ता अपने पास जमा करती है।

शहर सत्ता की वो दूनिया है जिसमें हक़ीकत का रोल अदभूत ढ़ंग से बनाया है या किसी के लिए नियमपद और किसी के लिए आज़ादी । शहर में जैसे बनी एक जगह जो सबको अमंत्रित करती है। सार्वजनिक स्थान का ढाँचा लिए हुए ये जगह खुले मंच के रूप में है फिर भी कहीं इसमे सत्ता के बनाये कई नियम और कानून है जो हर व्यक़्ति को अपने मुताबिक घुसने ही नहीं देते।

बस, सबको एक न्यौता है जो आना चाहें अपना अंदाज हटाकर आए और जो हम दे रहे हैं उस शख़्स के अंदाज को खुद में ढ़ालकर जीना पड़ेगा। ये कैसा शहर है? मैं ये कहकर शहर पर कोई प्रश्न चिन्ह नहीं लगाना चाहता क्योंकि मैं भी इस शहर या उस जगह में कहीं होकर आता हूँ। शहर के सभी नियम कानून का आदर भी करता हूँ और उन्हे तोड़ता भी हूँ की
इससे एक-दूसरे की तरफ खिचने में आसानी होती है जिससे ये पता चलता है की छोटे-छोटे स्तर पर लोग एक स्थान में आकर जीवन को रखते हैं जिसमे इंसान उसके और अपने बीच क्या रिश्ता है?

वो चेहरे जो जगह में रहने के लियए कुछ इस तरह के चेहरे लगाये रहते हैं उनका एक से दूसरे का क्या मेल है? उनकी सही पहचान कौन सी है? ये फ़र्क हम कर ही नहीं पाते। क्योंकि जो दिख रहा है वो भी एक हक़ीकत है और जिसे रोज़ाना अपनाकर चल रहे हैं वो भी एक हक़ीकत है। चाहें कोई फ़र्जी राशन कार्ड हो, पहचान पत्र या पासपोर्ट क्यों न हो। इस फ़र्जी और असली पहचान के पीछे वो शख़्स छुपा है। दुनिया से अपने आप को छुपा कर रखता है।
पीड़ित, शोशित और राजनैतिक दामन को स्वीकरने के बाद भी अपने समाज मे सुखमय और सुंदर जीवन जी रहा है। क्योंकि हम जहाँ है वहाँ सच है झूठ है। मज़ा है बैचनी है, थकावट है उत्तेजना है, महिनता है तो ख़ोखला है। मगर सबसे कहीं न कहीं रिश्ता है जिसे आप के मानने या न मानने से किसी फ़र्क नहीं पड़ता मगर रिश्ते में खुद को देखने से बहुत कुछ मिलता है जिससे की ज़िन्दगी का उद्देश्य आप पा जाते हैं।

तो फिर ये कौनसी ज़िन्दगीं है? जिसमें अपना आशियाँ बनाकर ये सब हक़ीकतों के पीछे अपने अतीत का हाथ थामे उसे दिन-प्रतिदिन गहरा कर रहे है। कहीं फैला रहे हैं।

सबके पास एक चेहरा है जिसके पीछे भी एक चेहरा है। वो समाज की नज़रों से गायब है वो एक तसल्ली पाने की दुनिया बनाकर माहौल में मौज़ूद है और अपने मन को किसी पंछी की भाँति लिए उड़ रहा है। वो आज को लेकर चिन्तित नहीं है न उसे भविष्य की फ़िक्र है और न उसे बीते कल की परवाह है।

ये तो कुछ और ही माझरा है जिसमें तमाशा दिखाने वाला बाज़ीगर भी वही है। तमाशा देखने वाला दर्शक भी वही है और बाज़ीगर के इशारों पर नाचने वाला भी वही हैं। अब ये फ़र्क करना बड़ा कठीन सा हो जाता है की इंसान को कौनसी श्रैणियों में लेकर उसे चिन्हित किया जाए और तब ये जरूरी हो जाता है की इस बहुरूपिया जीवन को देखने की कोई नई आँख तो है।

एल.एन.जे.पी बस्ती, जिससे सटी हुई सड़क जो दिल्ली को दो तरह से विभाजित करती है। यहाँ बिचो-बीच बनी इस सड़क से जो दिल्ली शहर को पुरानी दिल्ली और नई दिल्ली के नामों से परीचित करवाती है।

इसके साथ कुछ और भी जुड़ा है जो शहर को एक नई पौशाक देते हैं और एक प्रक्रिया भी देते हैं जिससे ख़ुद-ब-ख़ुद एक जीवनशैली बन जाती है। वो जगहें जो अपने हुनर और तर्ज़ुबों से बनाये और सजाई सौंगातों को दिल्ली शहर को पेश करते हैं। इन जगहों में केवल वो सौंगाते ही नहीं बनती बल्कि वो कलाकार और तर्ज़ुबेकार लोग यहाँ रहते हैं। जो जीवन की असम्भवता से जूझकर हर पल मुस्कुरातें रहते हैं।

एक बड़े पैमाने पर टिका लोगों की ज़िन्दगी का सफ़र कभी तो वक़्त की चर्मसिमा पर आ जाता हैं। वो चर्मसिमा जिसे बहुत साल पहले ही खींच दिया होता है। जैसे घर मे पैदा हुए बच्चे का नामकरण और वो बड़ा होकर क्या बनेगा ये भी सोच लिया जाता है फिर एक निश्चित होने छाप सब की जूबाँ पर होती है।

जिसकी पहले ही घोषणा करदी जाती है। इसी तरह जगह का भी और किसी नये आने वाले का भी एक निश्चित दायरा तयकर दिया जाता है जिसमें होने वाला कोई भी शख़्स कुछ सीमाओं तक ही ख़ुद को सोचता है पर उसका जो समय है वो तो ख़ुद के हाथ में होता है इस लिए वो अपने को ऐसे रचना शुरू करता है की किसी दायरे का बोझ उसके ख़्याल को या अपने अहसास को मरने ही नहीं देता। वो जिस जगह में जायेगा अपमा छाप बनायेगा।

सत्ता तो सीमित दायरो में एक दूनिया बसाने के बाद दूसरी दूनिया को बसाने के लिए पहली वाली को उजाड़ती है। वो ये ख़बर सब को दे देती है की जिस ज़मी पर आप कदम रख रहे हो और अपना घौंसला बना रहे हो वो ज़मी आप की अपनी नहीं है।

उसका मालिक कोई दूसरा है जो कभी भी अपनी योजनाओं का यहाँ नक्शा खींच सकता है।
सारी घोषणाओं के बावज़ूद सारे नियमों और कनून को तोड़कर भी लोग किसी तरह अपने रहने-सहन के लिए जगह बना ही लेते हैं। ये लोग कौन हैं? जो इतना परिश्रम के जीवन को जीते हुए किसी जगह को अपना कहकर पुकारते हैं।

मैं सोचता हूँ की मानव जीवन में हर कोई ऐसा नहीं होता ही इतनी गहराई होती है की समय के किसी पताल में समाय होने पर भी हम अपने को दिखाने साबित करने के लिए उस जगह को अपनाकर अपने पर सोचकर किसी समझाते हैं। मैं इस जीवन को और समझना चाहता हूँ और समझने की कोशिश कर रहा हूँ।
हर इंसान को ये अधिकार है कि वो अपने जीवन को जीनें का ढाँचा ख़ुद बना सके जिसमें उसके अपने सपने हो उसकी अपनी चाहतें हो तरीके हो। वो किसी भी नियम या कानून का उलंघन किए बिना हो तो सरकार या समाज उसको चाहेगा। उसे अपने मांपडण्ड में रखेगा।
अगर कोई शख़्स सरकार के बनाये कानून और नियमों के बाहर जाता है तो वो सरकार की नज़र में दोषी ठहराया जाता है।

लेकिन सारे तकल्लुफों के बाद भी इंसान अपने मुताबिक अपने आपको कहीं रोक ही लेता है या किसी ढाँचे की वो ख़ुद रचना करता है या फिर किसी ढाँचे में दाखिल हो कर वो जीने के साधन और समाग्रियाँ बना लेता है।

एल.एन.जे.पी अस्पताल की कॉलोनी के पास बनी बस्ती एक जगह जो सैकड़ों-हज़ारों लोगों का घर है जिसमें गोदाम, कारखाने हैं। उठने-बैठने और अपने ख़्यालों को, सपनों को सोचने की निशस्तगाहें हैं, मंदिर और मस्ज़िद हैं। इस जगह को कई अलग-अलग नाम से जाना जाता है। ज़िन्दगीं की सारी जमापूँजी को लेकर यहाँ पर जगह-जगह से लोग आकर बस गए और अपनी कलाकारी, हुनर के आधार पर अपनी दुनिया बना कर रहने लगे हैं।


जैसे-जैसे लोग सरकार की नज़र में आते जाते गए सरकार उन्हे एक दायरे में रखती गई। अपने जारी किए गए दस्तावेज़ों में सम्मिलित करती जाती है। सरकार के पास अगर दस्तावेज़ों का चिठ्ठा हैं तो एल.एन.जे.पी बस्ती के लोगों के पास कई बयाँन और सबूत हैं जो सरकार के बसानें और सरकार के ही नूमाइदों के उजाड़ने के बीच ही में कहीं अपनी पकड़ बनाये हैं।

वो बयाँन और सबूतों को लेकर अपनी मौज़ूदगी का ब्यौरा बताते हुए उन परीस्थितियों के बारे मे बताते हैं जिसकी वज़ह से आज तमाम लोग सरकार के ही कटघरे में खड़े हैं। इन्हे कटघरे मे लाने वाले भी वही हैं जो पहले कभी इनको पहले यहाँ भराव के लिए रोकते गए।

सरकार ही है जो की बार-बार बदलने पर नये सिस्टम लागू करती है और लोगों को बसाने के बहाने उनका मत हासिल करती है। ये सब एक प्रक्रिया के तहत होता है। जो बसाने के बहाने अपनी जगह का भराव लोगों की ज़िन्दगीं की मूल्यवान सामाग्री के ऊपर अपना राज कायम करना है।

ये तो हुकूमत है जिसका शासन चल रहा है जिसकी लाठी उसकी भेंस। पर जो लोग हैं वो अपने आपको ज़िन्दा रखने के लिए कभी वक़्त से समझौता करते हैं और कभी समझौता नहीं भी करते हैं। वो जीनें के लिए नये नाम, पहचान को अपनी छवि बना ही जीते हैं और हर छवि चाहें वो राजनेता हो मजदूर, काफ़िर या एक लेखक हो छवि तो छवि होती है जिसमें प्रतिभाएँ छलकती हैं। सूरज की तरह किरणे जगमगाती हैं जिसके नूर में इंसान अपने को सम्मपन्न देखता है। जिसके आगे चट्टाने भी सिर्फ़ एक पत्थर की तरह लगती है। जब चट्टान से कोई पत्थर गिरता है तो इंसान उसके सामने एक चट्टान बनकर खड़ा हो जाता है।

आज बस्ती में जब सत्ता का ही एक पत्थर गिरा तो लोग हैरान होते हैं। जूँझलाते है। तो कुछ अपने सफ़र को खानाबदोस की तरह बयाँ करते हैं। कुछ वक़्त की कालगुजारियों में कहाँ-कहाँ आकर ठहरे तब की किस्सगोही करते हैं। यूँ तो कई किस्से और घटनाओं को सूनकर लगता है की शायद लोग दुनियाँ में मनोरंजन के लिए पैदा होते हैं। ऐसा लगता है की ज़िन्दगी भर लोग कड़ी महन-मश्कत करने के बावज़ूद शरीर को आराम देकर रोज़ाना की भूख को शान्त करके सरकार का खेल देखते रहते हैं। सब कुछ उनके सामने हो रहा है फिर वो बेख़बर कैसे हो गए। रोटी, कपड़ा और मकान के अलग इंसान की और भी भूख होती है जिसको वो बार-बार मिटाता है और वो बार-बार पैदा हो जाती है।

ये भूख इंसान को जहाँ ले जाती है वो वहाँ-वहाँ चलता है। अपनी ख़्वाइशों और कल्पनाएँ लेकर इंसान वक़्त की बराबरी में जूँझता हैं। वो इंसान समाज के गठनों कानून की अवहेलना नहीं करता। किसी को भी दोषी नहीं ठहराता, वो मस्तमलंगा की तरह ये दुनिया जैसी भी हो उसमें अपने को बनाकर अपनी चाहतों, कल्पनाओं की छाँव में बैठा किसी हवा के ठंडे झौंको का मज़ा लेता है। जहाँ से उसे कोई सत्ता, सरकार या कानून नहीं हटा सकता क्योंकि इंसान की अपनी दुनिया उसके अपने पास होती है जिसमें कैसे जीना है। क्या करना है? ये उसे पता होता है।


राकेश

Thursday, March 5, 2009

सत्ता अपने को धूंधला रखकर क्या-क्या उभार सकती है?

धूंधलापन यानि पीछे का कुछ न दिखना,
धूंधलापन यानि सिर्फ सामने का ही दिखना
धूंधलापन यानि इन दोनों के बीच के अंदेखे वाक्यों का अनुमान भरना।

कोई भी चीज ऐसी नहीं थी जो इस धूधंलेपन की साख़ पर न टीकी हो। धूंधलापन चीजों के पीछे छुपे वो तमाम छेदों को कुरेदने की ताकत रखता है जिन्हे कभी छुआ भी नहीं जा सकता। वे सभी दर्रारों को हरा करने मे सहायक बन जाता है जिनपर अनुमान की तलवार चलती है।

चीजों के बनने से उनके बने रहने तक के वे सभी पन्ने बन्द दस्तावेज़ों की तरह से बन जाते हैं जैसे उनपर अतीत की मिट्टी से कुछ नक्काशी की गई हो। ये वे परत हैं जिनको अंदेशो और आवरणों का पहला पृष्ठ बना दिया जाता है।

धूंधलापन शायद, किसी भी चीज का वे रूप नहीं दिखाना जिसे आसानी से देखा जा सकता है या वे नहीं दिखाना जिसे स्वभाविक मानकर जीते हैं। इसमे वक़्त, एक झिल्ली की तरह से बना रहता है जिसमे बातों और ज़ज़्बातों को छुपाये रखने की ताकत नहीं होती।

आज इस ठिकाने में इस शब्द कि कीमत कुछ और ही है। इसे समीकरणों में तोला नहीं जा सकता और न ही इसे खुद के खेलों मे खेला जा सकता। ये दौर बिना कुछ दिखाये आपको आपसे छीनकर ले जाने की करार पर पनपता है। ये सिलसिला है, असल में धूंधलापन एक ट्रिक यानि पैंतरे की भांति अपनाया गया है।

इस दौरान हो रहे इस सर्वे में धूंधलेपन को बेहद नज़दीक से महसूस किया। जिसके जरिये इतने जीवन, फैसले, गैरकानूनी इंतजामात और कुछ ऐसे दबे रिश्ते खुलकर सामने आये जो अभी तक बन्द दस्तावेज़ों और कहानियों मे बसे थे। इस सर्वे ने वे सब बस्ती के बीचों-बीच खोलकर रख दिये। सत्ता का धूंधला होना इन सभी चीजों को बाहर आने पर मजबूर कर देता है। जिसमे आपको ये तक पता नहीं होता कि आप जो भी कहने वालों हो उसका इस प्रक्रिया से क्या लेना-देना? बस, खुद को मौज़ूद रखने के लिए कुछ गढ़ते हो। वही गढ़ना ऐसी बातों का जन्म होती है जिससे आधार को आँकने की एक और राह खुलती है।

ये गढ़ना क्या है? वे सभी कहानियाँ क्या है जिसे रचा गया है? या वो असली कहानियाँ क्या है जिससे किसी जगह का जन्म हुआ है? वे लोग कौन हैं और कहाँ है जो इन कहानियों मे मौज़ूद हैं?

सत्ता जिसके पास ये आज़ादी होती है कि वे अपने को और अपने पैंतरों को धूंधलेपन मे रखकर किसी जगह मे दाखिल हो सकती है। उसी मे से एक पैंतरा है सर्वे। जिसे वो आज के वक़्त मे एलएनजेपी बस्ती मे आज़ामा रही है। सर्वे का आधार क्या है वे धूंधला‌ है, सर्वे का निर्णय क्या है वे धूंधला है और सर्वे में सवाल अथ‌वा माँग क्या है वे धूंधला है। इन चीजों को धूंधला रखने का मतलब क्या है?

उस सभी दबी बातों, कारीगरी और चालाकियों को खींचकर निकाल लेना जो आम बातों मे कभी अपनी जगह नहीं बनाती। एक बार कूद जाओ बस, फिर तो जैसे घर, परिवार, रिश्ते, बीता हुआ वक़्त, क्या बचत है?, अस्त्विव सब कुछ बिखर कर बाहर आने लगता है। खुद को जाहिर करने की मुहीम मे वे सब निकलकर आ जाता है। अपने मालिकाना दावेदारी दिखाने के लिए सम्मिट किया दस्तावेज़ों मे वे तमाम चीजें उभर जाती है जो बीते हुए कल, आज और इस वक़्त की हैसियत को भी जाहिर कर देता है।

एलएनजेपी बस्ती मे भी कुछ ऐसा ही हुआ। दस्तावेज़ों के दुनिया में कई ऐसी कहानियाँ और दिक्कतें उभरी जो बिना इस धूंधलेपन के कभी ज़ुबान पर भी नहीं आ सकती थी। लोगों के मुँह से सुने कई ऐसे वाक़्या जो बस्ती को कोई और ही रूप दे देते हैं। ऐसा लगा जैसे बस्ती की कहानियों मे इन लोगों की कोई जरूरत नहीं है जो अपने हाथों मे आज अपने दस्तावेज लिए खड़े हैं।

एक ही घर का एक से दूसरे तक जाना, दूसरे से तीसरे तक पहुँचना। बेटो मे खटास होना और कागज़ातों मे हेरा-फेरी होना। पति का बीवी के नाम कुछ न करना।

सर्वे अधिकारी की एक शख़्स से बातचीत,
सर्वे अधिकारी, "मकान नम्बर क्या है?"
दावेदार, "सी 4ए / 232"
सर्वे अधिकारी, "किस के नाम पर है ये झुग्गी? लाओ कागज़ात दिखाओ।"
दावेदार, "जी ये नूरमोहम्मद के नाम पर है। वो हमारे चचा हैं। ये है उनका राशन कार्ड।"
सर्वे अधिकारी, "नूर मोहम्मद कहाँ है उसे बुलाओ और बी.पी सिंह का कार्ड है तो वो लाओ।"
दावेदार, "जी वो तो अभी हैं नहीं, कार्ड ये रिया।"
सर्वे अधिकारी, "क्यों वो क्यों नहीं है? राशनकार्ड को किसी रसीफ के नाम पर है।"
दावेदार, "हाँन, जी ये मैं ही हूँ, हमारे चचा हमें ये बैच गए हैं। हमारा निकाह हो जाने के बाद में। वे तो अब रहवे न हैं यहाँ हमी रह रहे हैं बाहर सालों से।"
सर्वे अधिकारी, "खरीदी है, कोई खरीदी पेपर तो होगें दिखाओ।"
दावेदार, "हाँन जी, ये रिये।"
सर्वे अधिकारी, "ये सन 1998 के हैं मगर ये तो किसी इस्माइल के नाम के हैं 80.000 मे खरीदी है। ये इस्माइल कौन हैं?"
दावेदार, "ये हमारे अब्बू हैं।"
सर्वे अधिकारी, "तो भाई अपना राशनकार्ड क्यों दिखा रहे हो, उनका दिखाओ।"
दावेदार, "वो त मर गए।"
सर्वे अधिकारी, "तो मरने के कागज़ात तो होगे।"
दावेदार, "हाँन जी हैं ये रिये।"
सर्वे अधिकारी, "ये सन 2002 मे मरे हैं, ठीक है।"

सत्ता का ये धूंधलापन जगह के बनने की कहानी-बनते रहने की कहानी, जीने के तरीके- जीने की जिद्द, कानून मानने और न मानने के सारे चित्रों को एक ही सूची मे पिरो देता है। ये जैसे खुद-ब-खुद होने लगता है। बिता हुआ समय, आज और इसी वक़्त, सभी की बुनाई एक ही तार से कर देता है। वे सभी किस्से इसमे उभरने लगते हैं जिसका आधार बना नहीं होता। वे आज के वक़्त मे अपने आधार को खोजते हुए निकलत आते हैं।

इन सभी चित्रों मे मौज़ूदा हालात, रहन-सहन, जगह बनाने और समान जोड़ने, बचत और करोबारी, दरवाजें और आँगन, दस्तावेज़ मे मेम्बर और मुखिया। ये सब उस वक़्त मे पसरे होते हैं। वे बातें और बुनकर रखे रिश्ते सभी उनके पन्नों मे दर्ज हो जाते हैं।

ये खेल धूंधलेपन का नहीं बल्कि खुद को साबित करने के चक्कर मे लोग खेलने लगते हैं। खुद को बतलाने के तरीके, वज़ूद दिखाने के सबूत, समय दिखाने के कागज़ात और रिश्तों को बताने की कहानियाँ जो कभी सुनाई नहीं जाती वे इस वक़्त की सबसे बड़ी शिकार होती है।

धूंधला होना, चीजों को स्पष्ट रूप मे देखने की चाह मे पनपता है। स्पष्ट हो जाना चीजों के पीछे छुपी कहानियों को पी जाता है। उन्हे गोल कर जाता है। ये वे नहीं होने देता। सब कुछ धूंधला होने उन छुपी बातों को स्पेस मिल जाता है।

तीन चीजों मे इस आधार का संदेह होता है।
पहला- अनुमान और हकीकत के बीच का दौर।
दुसरा- रहन-सहन करना और खुद को बताना
तीसरा- आर्थिक व्यवस्था दिखाना और बचत को दोहराना।

इसके पीछे छुपा है सब कुछ, इसी को आज़ाद कर देता है ये दौर।

मगर, इस संवाद और माहौल के ऊपर मेरी ख़ुद की एक नज़र रही है। क्या मैं सत्ता की नज़र मे फँस गया हूँ? क्या मैं अपनी ख़ुद की नज़र से कोसो दूर हूँ? या फिर इस दौरान कोई ऐसी नज़र है जो हर नज़रिये पर हावी है?
मैं सत्ता की नज़र और अपनी नज़र में कोई विभाजन नहीं बना पाया हूँ? इसके लिए मेरे पास क्या होना चाहिये क्या कोई सवाल?, नये तरह से बस्ती के लोगों के बीच में दाखिल होना? वे क्या हो?

लख्मी

Wednesday, March 4, 2009

दरवाजे के सामने से

चौथा दिन
दिन सोमवार, 2 मार्च 2009, समय सुबह 09:30 बजे।

आज का अनुभव मेरे ख़्याल से कभी गायब या ओझल नहीं होगा। आज का दिन जैसे बहुत जल्दी ही शुरू हो गया था। ऐसा लगता जैसे आज मैं लोगों मे उतरा हूँ। उनके अतीत में, उनकी यादों मे और उनकी कहानियों में। ये कहानियाँ कहने और सुनाने के जैसी ही नहीं थी। ये किसी को भी पकड़कर सुना देने के जैसी भी नहीं थी और न ही ये जबरदस्ती अपनी बाते बोल देने के समान थी।

पूरी बस्ती जैसे खुली हुई लगी। घर और उनके जमा किए कागज़ातों मे आज दाखिल होना बिलकुल भी मुश्किल नहीं था। हर दरवाजा जैसे उसके लिए चौपट खुला था जो उनके कागज़ातों मे उनके बीते 35 से 36 साल दिखा सकें। रिश्तों के मायने दो लोगों के दरमियाँ एक दूसरे के लिए बन गए थे। कोई भी न तो अंजाना था और न ही बैगाना। हर कागज़ात, हर कहानी, हर चेहरा और हर दरवाज़ा समान हो गया था। तेरा-मेरा कुछ भी नहीं रहा था। सन 1990 और 2009 के बीच की दूरी कई कहानियों से भर गई थी।

लोग वो समय देखने की चाहत में आपके सामने खड़े हो जाते जो वे खुद बना चुके हैं। जो उनके घर के कागज़ातों मे मौज़ूद है। उनकी तारीखों मे गढ़ा है और उनके परिवार के सदस्यों के नाम मे दर्ज है। मगर ऐसा कब होता है? ये देखना कब जाहिर होता है? क्या कोई बड़ा बदलाव आने वाला है? बदलाव का कीला ठोक दिया है? क्या समय है ये?

किसी को ये पता हो या न हो लेकिन मन मे एक बात जम गई थी के जिस जगह मे वे रह रहे हैं वे बहुत जल्दी विस्थापित कर दी जायेगी और कुछ वक़्त के बाद मे सब कुछ जैसे बिखर जायेगा। इसलिए जितना हो सकें अपने यहाँ रहने के समय को बताना था। इस बस्ती का सबसे बड़ा घेहरा जिसमे लगभग 100 मकान होगें। वे सभी एक घर के सामने इक्ठ्ठा हो गए थे। सभी के हाथों मे अपने घर के दस्तावेज़ थे। किसी के पास जल हुए दस्तावेज़ों के टुकड़े थे तो किसी के पास खाली वी.पी सिंह के जमाने का आईकार्ड।

अब इन दस्तावेज़ों के बीच में भी कई तरह के खेल छुपे थे। नियमअनुसार अगर चला भी जाये तो भी इनका होना मुश्किल ही होता। जैसे अगर आप अपने घर के खाली पुराने दस्तावेज़ दिखाते हैं तो आप NDS ( Non docoment show) घोषित कर दिये जाते और अगर आप सारा नया दिखाते तो आपको नया ही घोषित कर दिया जाता। यानि आप अभी आकर बसे हैं। सरकारी टाइम लाइन के बाद। यानि 1990 से 1998 के बाद हैं।

इसी डर को लिए सभी लोग उस घर के बाहर आकर जमा हो गए। देखते-देखते वो घर का दरवाज़ा कई आवाज़ों से भर गया। कहीं से लोग अपने कागज़ात दिखाते तो कभी अपने घर के बने कागज़ों मे दिक्कते बतलाते। किसी मे मुखिया बदल गया होता, किसी में खरीदी होती, किसी में पता बदल गया है तो किसी में जिसके नाम का घर है वे मौज़ूद होने के बाद भी तस्वीर मे तब्दीली हो गई है। फिर भी दस्तावेज़ों मे अपने को खोजने की उम्मीद चेहरों मे भरी दिखती।

मैं उन सभी बातों का हिस्सेदार था। कभी फैसला देने वाला तो कभी शुभचिंतक तो कभी सलाह देने वाला। हर घर के किस्से मे मेरे रूप बदलते रहते। लगातार बदल रहे थे। किसी- किसी जगह पर मैं उनके ही घर का वे सदस्य बन जाता जिससे वे भी बोला जाता है जो किसी सर्वे टीम को नहीं बताया जा सकता। उसके साथ-साथ लोग वे ख़्याइस भी बताते जिसे वो चाहते हैं कि उसक नाम पर शहर मे कोई आसरा हो।

आज जैसे लोग टूटने को नहीं आसरा मिलने की आस में जी रहे थे। ये सारी लड़ाई, भागदौड़, बैचेनी और हड़बड़ाहट उस आसरा पाने की चाहत मे पनप रही थी। शहर से टूटने को लोग भूलाकर कुछ पाने की उम्मीद मे अपने बीते समय को माँज रहे हैं। ये एक ताकत है जो इस समय की आस होती है।

उस आस में मैं आज रहा हूँ।

लख्मी

सिर्फ दो दिन हैं आपके पास,

28 फरवरी 2009, सुबह के ग्यारह बजे।
तीसरा दिन...

पिछले दो दिनों मे यहाँ बस्ती मे क्या हुआ है उसका प्रभाव हर घर, हर परिवार, हर कोने और सामुहिक जगहों मे फैल गया है। यहाँ अब तक हर कोई ये तय करने की जद्दोजहद में है कि वे कैसे अपना वे वज़ूद दिखा सके जिसमें बस्ती की उस भूमिका का नज़ारा हो सके जो उस घर परिवार ने पिछले कई सालों मे बनाई है।

चप्पे-चप्पे में हर कोई अपने घर के वो कागज़ात निकाल लाए हैं जो अभी तक न जाने घर के किस गहरे कोने मे दफ़न थे। इस हलचल मे वे कोने दोबारा से उधेड़ दिए गए हैं। कहीं पुराने से पुराना आईकार्ड, सबसे पुराने राशनकार्ड की प्रतिलिपी, अपने सबसे बड़े बच्चे की जन्मपत्री, मृत्यु का सार्टिविकेट, सबसे पुरानी घर की तस्वीर, घर का सबसे पहला बिजली का बिल, बैंक की कॉपी, एलआईसी और यहाँ तक की लोगों ने पास ही के अस्पताल के वे बिल वे रसीदे भी निकालकर रख ली हैं जिससे ये आसानी से साबित हो जायेगा की वे यहाँ इस बस्ती मे कब से रह रहे हैं। कितने कागज़ात तो ऐसे भी थे जिनपर तारीखें तक मिट गई हैं।

बस्ती का कोई न कोई किसी न किसी को पकड़ता और उन्हे अपने उन सारे कागज़ातों को दिखाकर अपने होने की पुस्टी करता। किसी को दिखाना जैसे सभी के लिए आज की तारीक मे बेहद जरूरी हो गया है। आज तो जैसे हर गली के कोने पर घरों के कागज़ातों की बातें बिखरी पड़ी हैं। चार लोगों मे अगर एक भी समझदार होता तो सभी के कागज़ों को व्यवस्थित कर देता। कौन सा लगाना है?, कौन सा दिखाना है? और कौन सा पहले दिखाना है?

आज जैसे लोग एक-दूसरे को खोज रहे हैं। कोई तो ऐसा जो उन्हे इस दुविधा से पार पाने का तरीका समझा सके। जहाँ पर भीड़ लगी देखते वहीं पर जाकर अपने घर के कागज़ों की थैली खोल देते।

आज यहाँ बस्ती मे छोटे-छोटे समुहों में कुछ लोग, बस्ती के बाकी घरों को ये सब कुछ समझाने की कोशिशें कर रहे हैं। कहीं पर महिलाओ को बताया जा रहा है तो कहीं पर आदमियों को। छोटे-छोटे समुह में ये बातचीत के माहौल बनाये जा रहे हैं। आज की तारीख मे लोगों को ये पूर्ण कर लेना था कि कल जब सर्वे वाले हमारे घर पर आये तो हमें क्या दिखाना है।

जहाँ पर भी ये माहौल बनने की लोग सुनते तो चले आते अपने-अपने दस्तावेज़ों को संभाले। इनमे ज़्यादातर महिलाएँ ही हैं। पहले तो काफी देर तक खड़े होकर देखती कि क्या समझाया जा रहा है उसके बाद मे अपने कागज़ों को दिखाती। उसके साथ-साथ एक नई दिक्कत भी। यहाँ पर को माज़रा था वो पहले कभी नहीं सुना था। सारे खेल ही एक-दूसरे से ज़ुदा हैं।

एक बुर्ज़ुग महिला, जिनकी उम्र लगभग 67 साल की होगी। वो सीधा माहौल मे दाखिल हुई। पहले तो कुछ भी उनके समझ मे नहीं आ रहा था। वे थोड़ी देर तक वहीं पर ख़ामोश खड़ी रही। कुछ देर के बाद मे बैठ गई। फिर अपने आँचल में एक छोटी सी पन्नी निकाली और कुछ कागज़ात वहाँ पर रख दिए। उनमे एक सिलवर का बिल्ला था और आईकार्ड, उसके अलावा कुछ बी नहीं था। उस समय जब वे यहाँ पर रहने आई थी तो उनके पती का इलाज़ यहाँ इरबिन अस्पताल मे चल रहा था। उसके चलते वे कोई कागज़ात नहीं बनवा पाई थी।

एक राशनकार्ड बना था सन 1984 में, लेकिन वो भी यहाँ आग लगने के बाद मे जल गया। बस, यहीं टोकन और आईकार्ड उनके पास रहा। एक राशनकार्ड की फोटोस्टेट भी थी लेकिन उसपर भी तारीख और पंजीकरण संख़्या देखना बेहद मुश्किल था। अब समझ में ये नहीं आ रहा था कि उनके इन दो दस्तावेज़ो को कैसे उनके होने का माना जाये? बिल्ला से तो नहीं लेकिन आईकार्ड से तो पता चल सकता था। मगर राशनकार्ड के बिनाह ये कैसे मुमकिन था पर राशनकार्ड ही यहाँ पर कब से रह रहे हो उसका असली दस्तावेज़ कैसे हो सकता है?

वे भी उन सभी में ये देखने चली आई हैं ये जानने की वे भी दावेदार हैं मकान के यहा नहीं? सभी की तरह से वे भी अपने दस्तावेज़ दिखाते समय उनके बनने के बारे मे बतलाती जाती रही।

आज का माहौल एकदम गर्म रहा, पूरी बस्ती मे सभी कुछ अपने नियमअनुसार चल रहा है। अज़ान से लेकर, दुकानदारी तक। काम से लेकर सरकारी काम भी। नालियाँ सही टाइम पर साफ की जा रही हैं। बिजली भी टाइम पर है। उसके साथ-साथ बस्ती की आवाज़ें भी गानों से भरी हैं। माहौल मे ज़्यादा कुछ तब्दीली तो नहीं है लेकिन सोमवार के इन्तजार मे हैं। सर्वे के शोर मे बस्ती खोने को तैयार है।

लख्मी

बस, दो ही मिनट हैं आपके पास,

दूसरा दिन- 27 फरवरी 2009, दिन शुक्रवार।

सर्वे की टीम ने ठेका लिया एलएनजेपी बस्ती के एक हजार से भी ज़्यादा घरों को पंजीकृत करने का। सर्वे करने आये ये आठ लोग तीन टीमों मे तब्दील हो गए। जिनमे से एक स्लम का शख़्स होता और दो मोलाना आज़ाद इंस्टिटूड के बन्दे। जैसे ही सर्वे की टीम बस्ती मे उतरी तो खेल शुरू हो गया बस्ती के स्थानीये नेताओ का, इस खेल मे ये जरूरी नहीं था की कितनों को मकान मिलेगें या ये नहीं था कि कैसे ये साबित किया जाये कि ये यहाँ इस बस्ती मे कितने समय से हैं। बस, उस खेल में था अपना रूतबा दिखाना। "चिंता मत किजिये हम हैं ना!"

इस ज़ुमले को कहकर सर्वे को संतुष्टिकजनक बनाया जा रहा है। मगर सरकारी सर्वे में स्थानीय नेताओ का क्या काम? एक जानकारी लेने वाला, दूसरा जानकारी देने वाला समझ मे आता है लेकिन ये तीसरा शख़्स क्यों? अपना-अपना इलाका बताने और वहाँ पर अपना रूतबा दिखाने चले आते। सर्वे टीम को इससे कोई आपत्ती नहीं।

एलएनजेपी मे ये खेल पहली बार देखने को मिला। एक ही शख़्स जो यहाँ का स्थानीये नेता है। स्थानीय नेता यानि वो शख़्स जिसे सरकार ने नेता नहीं बनाया ये वे लोग होते हैं जो खुद से खड़े हो जाते हैं सौ लोगों के बीच में और लोगों को कैसे न कैसे ये विश्वास दिला देते हैं, आपके सारे काम हम करवा देगें। उस सौ मे एक आदमी, जिसके पास मे सौ घरों के सारे कागज़ात होते हैं। वे साबित करने चला आता है लोगों को मकान दिलवाने।

आज 120 घरों का सर्वे हुआ। सर्वे टीम सुबह ग्यारह बजे से सर्वे करने उतरती और शाम के चार बजे तक ये काम होता। जिसमे उनका लंच भी शामिल होता। हर घर के सामने ये दो मिनट ही रुकते। उसी मे ये फैसला किया जाता कि कौन कब से है? और कितना दावेदार है? उस दो मिनट में यहाँ बसे लोगों के 35 से 36 साल यूहीं खदेड़ दिये जाते। कोई भी अपनी कहानी नहीं सुना सकता। जो है वो दिखाओ और जो नहीं है तो साइड मे हो जाओ। दो मिनट फैसला करते हर दिन और रात का, हर कहानी और ज़्ज़बात का। बल्की ये भी तय करते की मुखिया कहाँ है?, अब कौन है?, आप कौन है? और अगर दरवाजे पर कोई नहीं दिखा तो दरवाजे पर ही लिखा जाता "लॉक"। उसके साथ-साथ ये नियम के बेहद पक्के होते हैं, एक बार जिसके घर से अगले वाले घर पर चले जाते हैं तो पीछे मुड़कर नहीं देखते। फिर चाहे वे उस दो ही मिमट के ख़त्म होते ही आ जाए। अब तो हो गया फैसला।

एक औरत मिली, वे कह रही थी, "मैं नमाज़ पढ़ने मज़िद गई थी तभी वो घर पर आये, जब मैं वापस आई तो मेरी पड़ोसन ने बताया कि तुम्हारे घर पर सर्वे वाले आये थे। मैंने उनसे खूब दरख़्याज़ करती रही लेकिन मेरी नहीं सुनी उन्होनें और देखो मेरे दरवाजे पर ये लिख (लॉक) गए।"

ऐसा ही सर्वे पिछले दो साल पहले यमूनापुस्ता मे बसे नंगलामाची मे भी हुआ था। मगर यहाँ का खेल कुछ समझ मे नहीं आ रहा है। यहाँ पर बस्ती लोगों से बात करने पर लगा जैसे किसी को पता ही नहीं है कि सर्वे वालों को कौन से समय के कागज़ात दिखाने हैं? सर्वे टीम भी लोगों से जैसे नये बन कागज़ात माँग रही है। लेकिन कुछ कहते कि हमने तो पुराने दिखाये हैं। दस लोग अगर मिलते तो उनमे से 2 ही कहते कि हमारे तो पुराने कागज़ात लिए हैं। ये खेल क्या चल रहा है वे समझना अभी के लिए तो मुश्किल सा महसूस हो रहा है।

एलएनजेपी बस्ती में हर घर के पास मे बीपी सिंह के समय का बनाया गया 'बिल्ला-टोकन सन 1981 का, आईकार्ड सन 1990 का, राशनकार्ड सन 1982 से बनना चालू हुआ, वोटर आईकार्ड सन 1994 का है। लगभग सभी के पास ये मौज़ूद है।

ये बस्ती कई बार उजड़ी है। कभी आग से तो कभी किसी और वज़ह से। कईओ के कागज़ात उसमे चले हैं लेकिन फिर भी वे कुछ संभाल पाये हैं। राशनकार्ड अगर हम देखते हैं तो वे तो हर 5 साल मे बनते हैं जिनपर जारी करने की तारीख हर बार बदल जाती है। वो ये कैसे साबित करता है कि जिस घर का वह बन रहा है वो उस जगह मे कब से है? नये राशनकार्ड बनाने के सिलसिले मे पुराना हमेशा जमा किया जाता है, कोई अगर ज्ञान रखता है तो पुराने की फोटोकॉपी करवा लेता है तो कोई नहीं। तो क्या जिसमे नहीं करवाई वो उस जगह मे नया हो गया?

कई तरह के सवालों के बीच मे चल रहा है ये सर्वे। आज के बाद मे दो दिन की छुट्टी है। सोमवार को के इन्तजार में दोबारा से तैयार होगी ये बस्ती।

लख्मी

सर्वे की मुहीम

पहला दिन
26 फरवरी 2009, दिन गुरुवार।

पिछले कई सालों से चलती अफ़वाहों के बाद आज ये तय हो गया था की आज के दिन सर्वे की मुहीम शुरू हो गई। ये सर्वे, न ही जनगड़ना थी, न ही पोलियो का टीका देना था, न ही सफ़ाई अभ्यान था, न ही पाँच साल के बच्चों की जानकारी लेना था और न ही ये स्वास्थय को लेकर था। ये तो कुछ और ही था।

बस्ती के एकमात्र सरकारी कार्यालय यानि कम्यूनिटी सेन्टर की सुबह से ही सफाई होना शुरू हो गई थी। वहाँ जैसे ही थोड़ी भीड़ होनी शुरू हुई तो बस्ती के लोगों का भी वहाँ पर आना चालू हो गया था।

दोहपर के बारह बजे तो किसी को भी ये नहीं पता था कि यहँ होने क्या वाला है? लोग वहाँ पर यही देखने और समझने की उम्मीद लेकर चले आते। भीड़ कभी एक ही बार मे उमड़ पड़ती तो कभी वहीं पर रूकी रह जाती।

कम्यूनिटी सेंटर के कमरे में सर्वे करने आये आठ लोग थे। चार स्लम एमसीडी के और चार मोलाना आज़ाद इंस्टीटूयट के। मगर उनमे से ये कोई नहीं बताना चाहता था कि ये सर्वे किये क्यों जा रहे हैं? इसके बावज़ूद लेकिन हाँ जैसे ही सर्वे शब्द यहाँ बस्ती मे किसी के कानों मे दाखिल होता तो सीधा ध्यान बस्ती के टूटने की ख़बर बन जाता।

पिछले कई समय से ये सुना जा रहा था कि ये जगह जो दिल्ली मे उस जगह पर स्थित है जहाँ से एक तरफ पुरानी दिल्ली रामलीला मैदान है तो दूसरी तरफ मे दिल्ली का दिल कनॉटप्लेस है। इस जगह के ऊपर कई केस चल रहे हैं कोई इस जगह को अपनी तरफ मे खींचता है तो कोई अपनी तरफ। कभी ये जगह स्लम ही हो जाती तो कभी अस्पताल की जागीर। लेकिन ये बात तो तय थी के ये एक दिन यहाँ से टूटेगी जरूर।

यही जहन मे रखे यहाँ के लोग रोज़ सुबह जागते और रात मे सोते। आज उन सभी रातों और दिनों का हिसाब देने का समय दरवाजे पर खड़ा था। कई सच और झूठ के चलते ये मुहीम आज जोर पकड़ रही है।

सन 1975, 76 मे बसी इस जगह मे अब तक तो कई ऐसे समुह खड़े कर दिये थे की जिनके बीच मे घूसना किसी के लिए भी आसान नहीं है। कार्यालय के सामने खड़े वे सर्वे टीम यही सोच मे थी के कैसे बस्ती के अंदर घुसा जाये। तो पहले बस्ती के बड़े-बड़े स्थानीय नेताओ के साथ बातचीत करने की सोची जा रही थी। मगर इससे होता क्या?

हर कोई अपना ही तर्क देने और अपना ही तरीका बनाने की कोशिश मे लगा दिखता। इससे वे लोग कहाँ दिखते जिनको इस खेल के बारे मे पता ही नहीं था। वे लोग जो, जिनसे जैसा कागज़ माँगा जाता, जिस समय का कागज़ात माँगा जाता वे बिना कुछ सवाल किए पकड़ा देते। उनमे ये समझ कैसे डाली जाती के उनको वो कागज़ात दिखाना है जिसमे ये साबित हो जाये की आप यहाँ पर कितने पुराने हो? इसके लिए क्या तरीका अपनाया गया था इस स्थानीये नेताओ ने और सर्वे टीम ने?

बस्ती मे अब तक तो ये बात पूरी तरह से फैल गई थी कि कुछ सरकारी लोग बिल्डिंग (कम्यूनिटी सेंटर) मे आये हुए हैं। बस, वे चाहते क्या हैं वो कई रूपों मे पहुँचा। कोई कहता राशनकार्ड बनाने वाले हैं, कोई कहता वोटर कार्ड वाले है, कोई कहता फोटो खिंचेगी तो कोई ना जाने क्या कहता। मगर वे सही बात बस्ती मे ठीक से नहीं पहुँची थी जो अब आने वाले महीने मे होने वाला था।

आज पूरे दिन एक नया शौर और बिल्डिंग के बाहर भीड़ लगातार बनी रही। अब ये एक दम से आपके घर के दरवाजे पर खड़े होकर बोले की अपना स्थानिये पते का कोई कागज़ात दिखाओ तो आप क्या दिखाओगे? और क्या उनसे पूछोगे?

ये कठीन दौर यहाँ एलएनजेपी बस्ती मे शुरू हो चुका है....

लख्मी