Saturday, March 14, 2009

"बस, इतनी मौहलत मिल जाये के किसी को कुछ सुना सकूँ।"

उनके घर तक सर्वे वालों को आने में अभी दो दिन और लगेगें। उससे पहले ही वो अपने घर के सारे कागज़तों को सुधारने में जुट गई। वो अपने घर के सारे तालों को खोलकर बैठ गई।

उनके हर कागज़ पर उंगलियों के निशान थे। कोई भी कागज़ ऐसा नहीं था जिनपर कोई पैन चला हो। वो उन सभी कागज़ातों को खोल-खोलकर ज़मीन पर बिछा रही थी। अपने घर के सभी कागज़ातों को उन्होंने अलग-अलग गठ्ठियों में बाँधा हुआ था। किसी को काले रंग के धागों से तो किसी को लाल रंग के रिब्बनों से तो किसी को कपड़ों की कत्तरों से। वे उन सभी कागज़ातों को ज़मीनपर रखकर उनपर बड़े प्यार और स्नेह से हाथ फैर रही थी। वे उनपर हाथ फैरती हुई कहती, "इनमें देखो ज़रा की इनमें अनवर अहमद के नाम का कागज़ कौन सा है?"

देखते-देखते उन्होनें सारे कागज़ों को खुला छोड़ दिया था, अब तो बस, काम बाकि रह गया था उनमे अनवर अहमद के नाम का कागज़ देखने का। जब वे अपनी उस पन्नी में से कागज़ों को निकालती तो कुछ कागज़ों को छुपा लेती। ऐसा लगता जैसे कुछ कागज़ों को वो दिखाना नहीं चाहती। उन्हे वे उसी पन्नी में लपेटकर रखती जा रही थी।

दोबारा से अपनी उधड़ी सी पन्नी में वो हाथ डालती, कई और कागज़ों से लिपटा बंडल निकाल लेती उनको साफ करती हुई कहती, "हम तो साफ़ कहते हैं भईया की हमनें तो ये आशियाना ख़रीदा है मगर एक बात कहें दिल की, ये जब ख़रीदी थी तो तब ये झुग्गी थी, इसे आशियाना मैंने बनाया है। आशियाने का मतलब क्या होता है जानते हो, वो घर जिसमे सब प्यार और मोहब्बत से रहते हो और पड़ोसियों का भी आना-जाना हो। मैंने जब ये झुग्गी ली थी तो यहाँ पड़ोस नहीं था मैंने बनाया है यहाँ पड़ोस।"

अपनी सारी बातें वो आँखों में आँखें मिलाकर वो बड़ी सहज़ता से सुना डालती रही। एक बार भी ऐसा नहीं लगा की ये कहानी उनके ख़ुद को बता रही है या उनके घर को या फिर वक़्त को जिसको उन्होनें बनाया है। इससे बड़ी बात तो वे थी जब वो अपने आशियाने को अकेला नहीं कर रही थी। उनके आशियाने के साथ में जुड़ा था उनका पड़ोस जिसके साथ रिश्ता उन्होनें ख़ुद से बनाया था। बाकि तो हर माहौल उसका गढ़ था। यहाँ पर हर बात कहानी बनती और हर माहौल उस कहानी का गढ़।

दरवाज़े पर खड़ी होकर वो किसी को आवाज़ देने लगी, “रज़िया बाज़ी, ओ रज़िया बाज़ी ज़रा यहाँ तो आना।"

वो वापस आई और उन्ही कागज़ों में दोबारा से लग गई, कहती, “ये तो नहीं है, देखो ये, इसे देखना, कहीं नीचे दबे वालों में तो नहीं है।"

उनके चेहरे पर बैचेनी साफ़ झलक रही थी। कागज़ों को टटोलती हुई उनकी नज़रें कहीं टिक ही नहीं रही थी। वे लगातार एक ही कागज़ को पलटती रहती। उन्हे सच में नहीं पता था की वे एक ही कागज़ को कितनी बार देख चुकी हैं और कितनी बार दिखा चुकीं है। बस, किसी चेहरे को खोजने मे उनका वक़्त निकल रहा था। बस, हर कागज़ को देखते हुए वे यही दोहरा रही थी, “इसमे देखों जरूर होगा।"

रज़िया जी कमरे में घुसते ही बोली, “अरी बहन हमें भी दिखा देती की तू कागज़ दिखा रही है तो मैं भी लेती आती।"

लेकिन वो गई नहीं वहीं पर बैठकर उन्ही के कागज़ातों में लग गई। वो रज़िया जी को टोकते हुए बोली, “बाज़ी ज़रा बताओ इन्हे की कितना बख़्त हो गया है हमें यहाँ। याद है न जब आशिया को देखने वाले आए थे तो मैंने पहली बार इस झुग्गी को खोला था। कितना बख़्त हो गया होगा उस बात को?”

रज़िया जी बोली, “हो गए होगें 15 साल तो, उसके दो बच्चे हैं अब बड़ी लड़की 14 साल की है। मुझे तो खूब अच्छी तरह से याद है। पता है न बड़े-बड़े गढ्ढे हो रहे थे तेरी झुग्गी में। ऐसा लगता था जैसे किसी ने ख़ूब पैसा गाड़ रखा होगा। लेकिन वो तो घूसों और मूसों ने किए थे। सफ़ाई करके मोटा कारपेट बिछवाया था। तुर्कमान गेट से लाये थे कारपेट वहीं पर एक अकेली दुकान थी टेंट की। गढ्ढों मे ख़ूब कपड़े ठूसकर बिछाया था कारपेट फिर भी पूरा ध्यान उन्ही पर जमा था कि कहीं किसी मेहमान का पाँव न घुस जाये उसमे।"

रज़िया जी के किस्सा दोहराने का चाव देखने से बनता था। बड़ा जोश़ था उनमें। हर बात को उसके भाव के साथ बताती, सुनने में बेहद मज़ा आ रहा था। दोनों की दोनों कागज़ों को भूलकर बस, उस वक़्त की बातों में मशगूल हो गई। दोनों ख़ूब हँस रही थी शायद उस वक़्त से जुड़ा कुछ और भी याद आ गया था लेकिन बताना जरूरी नहीं था, शायद वक़्त की नज़ाकत वे नहीं थी कि हर बात बोली जा सकें। दोनों एक-दूसरे को देखती फिर हँसी छूट जाती। रज़िया जी बोली, “अनवर के कागज़ात निकलवा रही हो क्या?”

वो पन्नी में सिर झुकाते हुए बोली, “हाँ बाज़ी उसी के निकलवा रही हूँ।"

रज़िया जी ये पूछ चली गई लेकिन दोबारा आने के लिए। वे भी अपने घर कागज़ लेने गई थी।

वो मेरी नज़रों में नज़रे मिलाती हुई बोली, “बड़ी मुश्किल से काम लगा था अनवर के अब्बू का। ज़ामा मस्ज़िद के पास में कार के कारखाने में काम था। वहाँ बड़े-बड़े ट्रकों में समान आता था तो वो उतारते थे। रोज़ खाते-बचाते कुछ पैसा जमा किया था जिससे ये झुग्गी ख़रीदी थी। 15 हजार में करीब 25 – 26 साल पहले। यहाँ पर तक कोई भी किसी को जानता नहीं था। तो अनवर के अब्बू हर ईद और ज़ुम्मे दिन यहाँ पर हर दरवाज़े पर जाकर मुबारक बाद दिया करते थे। जैसे उनका दिन ही यहीं बितता था। वे तो जैसे हर एक से लगाव बनाकर रखते थे। तभी तो उन्होनें यहाँ पड़ोस को इतना करीब कर दिया हमारे। पड़ोस तो उन्होने ही बनाया था हम तो बस, उसे निभा रहे हैं। ऐसा बार-बार बन सकता है। लेकिन क्या ये आसान होता है। भरोसा बनाने में ख़ूब बख़्त लगता है।"

एक बेहद नाज़ुक और पतली डोरी से लपेटा हुआ उन्होनें एक और पत्रा खोला। उसमे उर्दू में कुछ लिखा था। उसमें क्या लिखा है ये वो भी नहीं जानती थी। बस, वे इतना जानती थी की ये उनके निकाह का कागज़ है। बड़ी सरलता से उसे वे दिखा रही थी।

"हमारी झुग्गी के कभी चार दरवाज़े हुआ करते थे। ऐसी थी कि मानों हर दरवाज़े से हवा आती थी। हमारा घर किसी हवा महल से कम नहीं था। सबका काम निबट जाता तो पूरा-पूरा दिन यहीं पर बैठकर खूब बातें होती। हमें तो हीं पता चल जाता था कि किस कोने में क्या हो रहा है? नमाज़ हो या ईद हर बख़्त यहीं पर सब अपनी अपनी बातें कहने चले आते। सबकी बातो में बख़्त कैसे गुज़रा हमें तो पता ही नहीं चला। सारा समय छप गया है हमारे सीने में।" वो यह बोलती हुई अंदर चली गई।

रज़िया जी, इतने समय में आ गई थी। उतने हाथों में एक बेहद चमकीला लेडिस पर्स था, जिसके तले पर घुँघरू बँधे थे। नीचे से वे सारा अलग-अलग धागों से सिल रखा था मगर चमकीलापन बरकरार था। उन्होंने जैसे ही अपना पर्स खोला तो एक बेहद दिलनशीं सी महक बाहर आई। उन्होंने सारे पेपरों को अपने एक ही हाथ की उंगलियों में दबोचकर बाहर निकाल लिया।

"रज़िया बाज़ी, बड़ा संभालकर रखा है तुमने सारे कागज़ातो को! क्या इत्र छिड़का है जो बड़ी खुशबू आई है?”

रज़िया जी मुस्कुराते हुए बोली, “उनकी यही तो यादें बची हैं जिन्हे मैं हमेशा ताज़ा रखती हूँ। उनको यह खुशबू बेहद पसंद थी तो इनमें हमेशा इत्र छिड़ककर रखती हूँ।"

अब तो जैसे उनके हर एक कागज़ के साथ उनका एक-एक ज़ज़्बात तड़पकर बाहर निकल आये। जो बाँटा जा रहा था वो न तो कागज़ातों की दुनिया थी और न ही कोई शक था और न ही खाली यादें। वो ज़ज़्बात थे जो उस इत्र की खुशबू से तर थे जिसमें न जाने कितने पलों को सहेजकर रखा गया था।

लख्मी

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