Saturday, March 28, 2009

वे दास्तान जो अनथक है

अतीत के कुछ सवाल हमारे समाने एक चित्र की भांति खड़े रहे हैं जिसे हम न भी सोचें तो भी चलता है। ये ख़ुद की कहानी से जुड़े हैं। जिसमें "अपना ख़ुद" जहाँ से बोलना शुरू करता है वो जगह अपने आप बुनाई में आ जाती है। इन दोनों को कोई कहानी बुनती है या ये एक-दूसरे के रूपक हैं?

अपने बनने की कहानी में अक्सर हम अकेले हो जाते हैं लेकिन जब बीते हुए वक़्त को आज के समीप लाते हैं तो उसमें कई चेहरों का बोलबाला होता है। ऐसा क्यों है?

ख़ुद को बतलाने की कई दास्तानें आज के रास्तों में धरी पड़ी हैं। जिनमें से एक लाइन तो ये भी है, "मैं चला था अकेला मंजिल पाने को मगर लोग साथ आते गए कारवाँ बनता गया।"

इसमें ख़ुद को बतलाने की हवस में जगह की परत बनने के चित्र शामिल हैं।

लेकिन फिर भी जैसे अपने बनने के मैप में शुरूआत होती है एक झुंड से, फिर कोई गुट में शामिल होने की दास्तान उभरती है, उसके बाद में राहें खोज़-विचार के बलबूते तैयार होते हैं जिसमें "साथ निभाने" को बयाँ करने के कई अवशेष हाजिर होते हैं।

(इन राहों की संभावनायें भी यही हैं कि इसमें आने वाले लोग, चेहरे या रिश्ते ज़्यादा देर तक भले ही साथ न रहे हो लेकिन अपनी बुनियाद को पुख़्ता रखते हैं और आज़ादी भी है इन राहों में भरमार करने की।)

फिर रास्तों पर निकलने जाने वाले की राहों के उसपार अनदेखी मंजिल पाने का पुलिंदा होता है। इस मंजिल को तय करने के ऑपश्न भी किसी साथ वाले से प्रेरणा भरे होते हैं। उसके बाद में बस, भागदौड़ शुरू होती है, भड़ास होती है, लड़ाई होती है, रिश्ते बनते हैं, ख़ुद की जगहें बनती हैं, मान-अपमान होता है, समझौता होता है, जानी-अंजानी कल्पनायें बनती है।

यही दौर है जिसे बताने वाले बड़े चाव से बोलते हैं। जो उसकी वे बातें होती हैं जिसमें एक ऑदा और जिद्द दिखा पाने की कोशिश है। ख़ुद की अहमियत क्या है वे जाहिर करने की चाहत होती है।

जब वे उस जगह पर पहुँच जाता है जहाँ की वे राहें हैं तो अकेला हो जाता है। इस अकेलेपन का मतलब किसी शख़्स के सबसे जुदा होने की बात नहीं है और न ही कटकर कहीं छिटक गया है वे है।

एक भीड़ निकली थी राहों पर कहीं के लिए,
चलते-चलते बहुत साथी पहुँचे वहाँ की तलाश में।
लेकिन तलाशे स्थान पर पहुँचने के बाद सब अकेले थे।

जगह ढूँढते हुए यहाँ आये, जगह मिली उसे बनाया फिर सब अपने-अपने कामों, परिवारों में जुट गए।

इस अहसास से बना है, अकेलापन.....

बस्ती में जैसे आज का दोहराना, उस बीते वक़्त को, नक्शे को और जगह मिली-उसे बनाने को बताना है। जो झुंड की डिमांड करता है जब उसकी डिमांड पूरी गई तो क्या हुआ?

बीता हुआ समय, कहीं नहीं जाता या कहीं नहीं गया। बस्ती में कहानियाँ जगह के साथ रिश्तों से निकलकर अब जगह के बनने तक सफ़र कर चुकी हैं। इस सफ़र में किसी चीज के धूंधलेपन का असर मौज़ूद है।

कभी-कभी किसी चीज़ की तफ्तिश करना किसी कोने को कुरेदने से आगे निकल जाता है। वे नौंचना, खदेड़ना, चुनना और काटने के अलावा वो छेड़ने के समान हो जाता है।

जैसे आज के समय ने उन हिस्सों को छेड़ दिया है जिसको अपने बनने की कहानी के नक्शे में शामिल नहीं किया जाता। ये कहानियाँ उस नक्शे के बाहर होने के वे कण हैं जिससे नक्शा बनने की बिन्दूएँ तैयार जरूर होती हैं।

ये एक ऐसा दौर है जिसमें बीते हुए वक़्त का हर पहलू इतना वज़न लिए है कि उसको आज के समय में जब भी उतारा जायेगा वो अपना स्थान जरूर बनायेगा। ये धारणा हर ज़ुबान में बसी है। इसको तोड़कर सोचना या इसको अपनाकर सोचना दोनों ही इसके विपरित हो जाते हैं। इसमें या तो हम उसके उदाहरण खोजने लगते हैं जो इस बात को नगवारा करदे या फिर वो कहानियाँ खोजने की कोशिश करते हैं जो इसको भरपूर संभावनायें दे। इनमें कहानियों और बातों के अहसास में बस, माना या न माना शामिल रह जाता है। उसकी निर्मलता गायब हो जाती है। जो बेहद कठोर समय के छानने से बनी है। हाथों मे पड़ी गांठो से हाथ भरा है लेकिन जब किसी को खड़ा करने के लिए हाथ दिया तो वे निर्मल ही था। इस अहसास से भरा है बस्ती का बीता हुआ कल।

मगर यहाँ इस समय के बहाव में आकर ख़ुद को दोहराने का सिलसिला पस्त पड़ने लगता है। लोग दोहराते हैं जगह के वक़्त को तो उभरता है ख़ुद का आना, जब ख़ुद के आने को बतलाते हैं तो निकलता है आसपड़ोस और जब आसपड़ोस को बयाँ करते हैं तो जगह के बनने की छवियाँ टुकड़ों मे बयाँ होने लगती हैं।

इसी के बीच में है बीता समय और अभी के समय का बहाव। हर कोई जैसे ख़ुद को मैनेज़ करने की कगार पर चल रहा है। वो कैसे इस बहाव में हाज़िर हो सकता है ये एक अंनतिम जद्दोजहद की तरह से उसके साथ रहती है।

हर शख़्स उसी से जूझ रहा है। हर घर, परिवार और रिश्तेदारी इस के घेरे मे घूम रही है। समय के इस बहाव मे जैसे बीता हुआ समय जो छूट गया है, अतीत जिसे संभाला हुआ है उसके वे पल बयाँ करने की ललकता है जो किसी अनुदान के लिए पथ प्रदर्शक बनने का जोर रखती हैं।

बीता हुआ वक़्त छुपा है, खोया है, मौज़ूदा है मगर आज उसके मायने बदल गए हैं या वे दोहराने लायक समय के इंतजार मे लगातार रहे उसके चक्कर मे फँसने के पारंगत नहीं है।

अतीत और इस दौरान का समय, एक सैलानी की तरह से बना हुआ है। एक ही जगह मे रहकर ये रोल निभा रहा है। पहले ये जमापूंजी था लेकिन आज ये सैलानी के रूप ने अंक्लात बन गया है।

आज के दौर मे बस्ती कैसे भी दिख रही है लेकिन वो अपने हर घर, किस्से और रफ़्तार से भरे अतीत को इस बिना थके के रूप में ख़ुद के वक़्त को बताने की कोशिश में है।

कोई जब अपने बारे मे कुछ सुनाती है तो उसके दिल में कुछ भी चला हो लेकिन उस वक़्त के वे बहुत करीब होता है जिसे मिटे कई साल बीत चुके हैं। वे अपनी बातों मे उसे ज़िन्दा करने की चाह मे रहती हैं। उनकी बातों में जैसे घर बनने की कहानी मे लोग ख़ुद को बताये लेकिन जगह के बनने की बातों में कभी अकेले नहीं होते। ये बीता हुआ कल क्या है उनके लिए आज? इस कल और आज में क्या मिट गया है? दोनों एक-दूसरे के बेहद नज़दीक हैं। कुछ तो है जो मिटा है। एक झटका है, जिसने रोज़ाना और धरा हुआ कल दोनों को झंझोर दिया है। जैसे दोनों वक़्त किसी पालने में है और एक-दूसरे को इधर से उधर पलटा रहे हैं।

लख्मी

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