Friday, March 20, 2009

अपने से संधिविछेद करना...

जब हम किसी शख़्स या उसके जीवन को लिखने की कोशिश करते है तो हमारे सम्मुख उस शख़्स से संबधित क्या होता है? उसके रिश्ते, उसके ख़ुद से बनाये कोने और उसका आसपास। इन तीनों चीज़ों का नाता उसके साथ किन्ही जीवन के दृश्य में बयाँ होते हैं। जो उसके जीवन के आधारों और मौकों से जुड़े हैं। ये सभी दृश्य उस शख़्स के साथ बखूबी उभरते हैं। जब हम उस शख़्स के जरिये किसी जगह मे दाखिल होते है तो ये सारी चीज़ें जैसे बिखरी पड़ी होती हैं। वे शख़्स अपने जीने के तरीकों से, अपने अंदाजों से और रिश्तें के मेल-मिलाव के तहत इन सभी से रिश्ता बनाता चलता है, जोड़ता चलता है। ऐसा करने में कभी वो उन सभी दृश्यों से टकराता है तो कभी उनसे संधि कर लेता है। कभी बहस करता है तो कभी मुँहजोरी। लेकिन फिर भी उन सभी में उसका आसपास दिखता है, मौज़ूद होता है। इस आसपास में भी कई ऐसे दृश्य भी शामिल हैं जिनको हम छूते भी नहीं हैं और शायद किन्ही को छोड़ भी देते हैं। वे शायद इसलिये की उनको दोहराने और बयाँ करने की भाषा हमारे पास मौज़ूद नहीं है या फिर हम उनसे अन्जान हैं।

कभी-कभी अन्जान बनकर जीना भी मज़ेदार होता है। जो हमें सोचने के नये आयाम देता है। वे मूल चीज़ों को उभार देता है जिनसे हम अपना नाता ख़ुद से तैयार कर सकते हैं। ये उस अन्जान बनकर जीने की संभावनाएँ हैं। मगर ये संभावनाएँ हमारे ख़ुद के लिए ही है या फिर उस शख़्स के लिए हैं? क्या है जिसको अन्जान बनकर हम जीने लगते हैं?

ये सिलसिला कई समय से चलता आया है। अंजानेपन के दौर में संभावनाओ के साथ-साथ किसी चीज़ का छुपना भी तय होता है। क्या हम कभी ये सोचते हैं कि 'भाषा का न होना' और 'अंजानेपन में जीना' इन दोनों के बीच में हम कहाँ खड़े होकर कुछ रचते हैं? और जो रच रहे होते हैं उसका रिश्ता उसमें चलते क़िरदार, पात्र व जीवन से क्या होता है?

मेरे सवाल, उन दृश्यों को लेकर उभरते हैं जो किसी शख़्स के जीवन के लेखन से ताल्लुक रखते हैं। मेरे जीवन के चित्र और मेरे जीवन के बोल दोनों में क्या दूरी है और क्या संधि?

मेरी भी यही बहस चल रही है। इस दौरान मुझे अपने आसपास अंजानेपन में घूमने का अहसास हुआ। जिसमें ये पूरी संभावनाएँ हैं कि किसी भी चीज़ या जगह को आप बेधड़क बयाँ कर सकते हो। ये अंजानापन असल में एक रूप ये भी बनाता है कि इसमे जगह की कोई भूमिका ही नहीं है। जगह तो मात्र एक बेसलाइन बनी है। वो आधार बनकर रहती है, जिससे "कहाँ" का सवाल ख़त्म हो जाता है। ऐसे ही हम अपने काल्पनिक मन में अनेकों ऐसे जीवन, शख़्स लिए चल रहे हैं जिनको आधार देने की जरूरत है। तो सामने दिखती जगहें उसका आधार बन जाती हैं।

जैसे मान लेते हैं, हमारे हाथों में कोई गर्मा-गर्म चीज़ है जिसे हम अपने हाथों में ज़्यादा देर तक नहीं रख सकते। तो क्या करते हैं, जैसे- कभी उसे अपने दोनों हाथों में इधर से उधर उछालते हैं, कभी एक हाथ में रखते हैं जैसे ही वे बरदास्त से बाहर होता है तभी उसे दूसरे हाथ में ले लेते हैं। अपने हाथ के ठोस और मजबूत हिस्से में उसे फँसा लेते हैं। जब ये भी मुश्किल होता है उसे किनारे से पकड़कर अपनी उंगलियों में अटका लेते है। ये करने से भी उसकी गर्माहट कम नहीं होती या फिर कहिये की अपनी बरदास्त में वे गर्म अहसास अपनी जगह नहीं बना पाया तो फिर उसे किसी और मजबूत चीज़ का सहारा देकर पकड़ लेते हैं।

यही खेल चलता रहता है हर वक़्त जिसमें वो गर्मा-गर्म चीज़ हर दृश्य में पंजीकृत होती है। अब उस गर्मा-गर्म चीज़ को आप कैसे सोचेगें? और उस मजबूत आधार को कैसे जिसे उसका सहारा देकर आपने थामा है?


लख्मी

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