Thursday, April 30, 2009

सारे आलम को तरोताज़ा कर देती है

उस उपजाऊ रहन-सहन को लेकर किसी की दिनचर्या रास्तों से होकर निकल जाती।

जिसमें लोगों की भागीदारी उनके बसने के बाद के सवालो मे जीती हैं कि जीवन कैसे और कोई भी परिस्थिती में, अपने आपको बनाये रखने की जिद्द को मुस्कुराकर ज़िन्दा रखता है? ये धीरे-धीरे समझ में आने लगता है। कहीं-कहीं पर पानी से भरे गढ्ढो, ऊँची-नीची मिट्टी की सतहों पर जब पाँव पड़ते हैं तो वादिओं का दर्शन हो गया है ऐसा महसूस होता है।

हवा जैसे सारे आलम को तरोताज़ा कर देती है। नीले आसमान के नीचे खुली दरोंदिवारों में मटरगस्ती करते बच्चों का दस्ता मेरी ओर आता है। उनके हाथें में मिट्टी की गाड़ियाँ और मिट्टी के बर्तन हैं। वो उन मिट्टी की सारी चीज़ों को असली का मानकर चलाते हैं। मासूम बच्चों के चेहरे में खुदा की छवि नज़र आती है। इसलिये उनको देख कर बड़ा शुकून सा मिलता है। ऐसा अभी तक न जाने कितने मुँह से मैं सुनता आया हूँ इसलिए वही शुकून मुझे भी मिला।

पानी से भरे चौराहे के गढ्ढों को आने-जाने वाले लोग लाँघ कर जाते। मैं वहीं दोपहर करीब साढ़े तीन बजे तख़्त पर अपने दोस्त सूरज के साथ बैठा बच्चों के खेल देख रहा था। कुछ मिनट ही बीते थे की न जाने पीछे से कोई जनाब आकर मेरे काँधो को जोर से मसककर बोले, "बताओ कौन?”

चौंककर मैं पलटा। ये भी कोई बात हुई आवाज़ की बुनियाद पर भला कौन किसी नहीं पहचान सकता है? आवाज़ तो सब बयाँ कर देती है। तो मुझे क्या तकलीफ़ होती।
"भाई मोहतरम ही होंगे।"

भाई मोहतरम, सुर्ख गालों पर हाथ फिराकर अपने कुरते को झिटक कर बोले, "इस बार फिर पहचान गए तुम को आवाज़ की बड़ी परख है।"

"न ऐसा कुछ नहीं पर तुम्हे पहचान ने का फोर्मुला मेरे पास है। तुम्हारा अंदाज मेरे दिमाग में ज्यों-का-त्यों छप गया है। खैर, छोड़ो ये बेकार की बातें ये बताओ किसी लिए याद किया?”

"ये लो कागज और कलम"
"इसे क्या मेरे सिर पे रखोगें?”

मुस्कुराके मोहतरम भाई ने मेरी तरफ फरमाया, "नहीं जनाब छोटे भाई जो ऐटा में एक यूनिर्वसटी में पढ़ रहे हैं उन्हे मनीऑडर भेजना है।"

"ओह ये काम था।"

सूरज ने तभी न जाने क्यों एक तड़कता-भडकता शेर सुनाया।
"न पूछ के क्या हाल है हमारा,
न पूछ के क्या हाल है हमारा।
तुझे मिला बीच संमदर और हमें मिला किनारा।
तेरे चक्कर में मैं रह गया कवाँरा।"

ये सच मे किसी को नहीं मालुम था कि उसने ये क्यों सुनाया था मगर ये शेर सुनकर हम सब उसपर वाह-वाह करते हुए सवार हो गए। सलीम भाई जो चॉक पर ही अपने हेयर कटींग का खोका लगाते हैं उनका खोका फिल्म के बड़े से बड़े ऐक्टरों के पोस्टरों से सजा पड़ा था। आइने के साथ कागज के फूलों वाला गुलदस्ता भी उनकी दुकान को गुलज़ार कर रहा था।

सलीम भाई भी अपने पज़ामे का नाड़ा कसते हुए शेरो-शायरी के खिचड़ी में छोंका लगाने चले आये। खाली बैठने से कुछ हाथ न लगेगा यहाँ थोड़ा मुफ़्त में मज़ा मिल जायेगा। वक़्त तो काटना ही था।

तपाक से वो आकर बोले, "अर्ज है कि
क्या होगा कल न तुझे पता न मुझे ख़बर है।
क्या होगा कल न तुझे पता न मुझे ख़बर है
तेरे लिए इस दिल में मगर जगह बेश़ूमार है।
मेरी दुकान में भी कभी आ जाना कैटरीना
यहाँ तेरा ही इंतजार है।"


शेर कहकर उन्होनें अपनी बनीयान में हाथ डालकर जोर-जोर से हिलाना शुरू कर दिया। तालियाँ बजनी शुरू हुई। सब अपने थे और कोई अपना नहीं था। अपने काम को से कभी मन उब जाने के कारण ये सब इक्ट्टा होकर मंडली सी जोड़ लेते।

चूल्हे का धुँआ आँख में चला आया। पलके झपने लगी तो आँखों को मसलना शुरू कर दिया। दोहपरी मे कौन चूल्हा जला रहा था ये मुझे अटपटा लगा क्योंकि कभी मैनें ऐसा नहीं सोचा था। आँखों एक हाथ से मसलता और उस के साथ खिसियाकर करता ये कोई वक़्त है आग जलाने का सारा धुँआ मेरी आँखों में चला गया।

मुझे तो जरा सा धुँआ ही लगा था जिसपर मुझे गुस्सा आया। जब कभी हालात हमारे मुताबिक नहीं होते तो अक्सर ऐसा ही होता है। मगर जगह की बौद्धिकता वो उस कल्पना को सामने लाकर रख देती है जिसे हमारा मन खोज़ता रहता है। कभी ये खोजना ही हमें हमारी असली छवि से मिलवा देता है।

राकेश

गोदाम में हैंडफोन..

आज समय कल्पनाओ के पंख लगाकर उड़ रहा था। आँख के अंदर हवा में घुले धूल के कण घुस जाते। फेरी मार कर आने वाले सभी लोग अपना माल चुनकर उसे अलग-अलग व्यवस्थित कर रहे थे। निरंतर आवाज़ें बेखौफ उस जगह के चप्पे-चप्पे से उठ कर आ रही थी। किसी ने एक कदम समीप आकर पूछा " आप कौन हो?”

उसके सुर्ख चेहरे पर मटमेले निशान पड़े थे। माथा काले ग्रीस से सना हुआ था। वो आँखों में ढेरों सवाल लेकर खड़ा था। उसके शरीर को देखकर डर सा लग रहा था जैसे अजीब सा किस्सा घट गया हो। वो काली पतलून पहने हुए था और ऊपर के शरीर पर कुछ भी नहीं पहना था। उसकी छाती पर रीछ की तरह बड़े-बड़े बाल उगे हुए थे। हाथों मे सरिये की मुड़ी हुई नौंक वाला कोई औज़ार था। जैसे ही उस की शारीरिक तरंगो ने मुझे अपनी तरफ खिचना शुरू किया कोई अधूरा सा ख़्याल पूरा होने लगा। इस ख़्याल की उर्वकता ने मुझे कई आईनों के आगे लाकर खड़ा कर दिया। उसके देखने को मैं खुदा की बंदगी समझकर मौन अवस्था खड़ा रहा।

उसके सवाल को सवाल ही समझ कर मैंने इस मौन अवस्था से बाहर आकर उसे जबाब देने की कोशिश की पर उससे पहले मेरे मन में फिर से एक ख़्याल करवटें लेने लगा की अगर मैं उसको सच्चाई बता दूँगा तो शायद ये मुझपर भड़क जाये या मुझपर शक़ करने लगे।

हो सकता है कि वो मुझे गोदाम से धक्के देकर निकाल बाहर कर दें या ये भी हो सकता की वो मेरे साथ हाथापाई पर उतर आये। इस तरह से मेरे चारों तरफ उलझन भरे मुस्किलात आने लगे और डर साया बन कर मेरी सोच पर हावी होने लगा।

मैं तसल्ली पूर्वक उस शख़्स को अधूरा सा जबाव देकर आगे बड़ा। मुझे पता था की वो मेरे जबाव से संतुष्ट नहीं हुआ है। मगर फिर भी खुद को वहाँ से ले कर चला आया।
मेरे कुछ कदमों के चलते ही अब वो चेहरा मेरी आँखों से गायब हो चुका था पर उससे मिलने का असर अभी कुछ-कुछ बाकी बचा था। चन्द कदमों को रखने के बाद अपने चेहरे पर थोड़ी खिलखिलाहट लाकर रास्ते पर पड़े कागज़ के खाली पैकेट को देखता चलता गया।

मेरे सामने कुर्सी थी जिसे देखकर लग रहा था कि वो अपने दिनों के अन्तिम पड़ाव में जी रही है। उस पर जो साहब पाल्ती मारकर बैठे थे। उन्हे देखकर लग रहा था की कोई तन्दूर पर बैठा हो। उन साहब के आगे-पीछे हिलने से कुर्सी की चर्माराती आवाज़ आती। जैसे कुर्सी कोई गाना सा गा रही हो। कागजों और प्लासटिक के मोटे-मोटे गठ्ठरों को एक के ऊपर एक करके रखा हुआ था।

गोदाम का तामझाम समेटा जा रहा था। सोचा इस कुर्सी पर बैठे नौजवान से कुछ पूँछू पर हिम्मत नहीं कर पा रहा था। मेरे दिंमाग मे तो पहले सें ही हुए सवालों की मोहर लग चूकी थी। मैं फिर भी खुद को तसल्ली देने लगा। एक कोशिश के बाद खुद को विश्वास के घेरे में लेकर कुर्सी पर बैठे नौजावन से मैनें खड़े-खड़े पूछा, "जरा सुनिये आप का क्या नाम है?”

उसने मेरी परछाई को अपने शरीर पर पड़ता देखकर मेरी तरफ सिर उठाया फिर वापस कर लिया, "जरा सुनिये भाई साहब, मैं आप से ही कुछ पूछ रहा हूँ"
तीसरी बार फिर मैंने उन्हे पुकारा, "जरा सुन लिजिये"

उसके कानों पर जूं तक न रेगीं। कमाल है। जब मैनें गर्दन को जरा घुमाकर नीचे देखा तो। उसने अपनी हथेलियों के बीच में एक वॉल्कमैन दबा रखा था। जिसका हैंडफोन उसके दोंनो कनपट्टियों पर लगा था।

गोदाम मे जहाँ-तहाँ सें दौड़-दौड़ कर आवाजें हम तक आ रही थी जिसकी गूंजों से सारा आलम किसी मेले से क्या कम था जो ये साहब इतनी जगहों से आते फिल्मी गानों और शेहनाइयों के बजते शोर में गोदाम में हैंडफोन लगाकर बैठे थे।

इस शौर ने मुझे अजीब सी दुनिया दे दी जिसमें मुझे लगता की मैं किसी को नहीं दिख रहा किसी ऊँचाई पर कायम हूँ। जहाँ चीजें कभी दूर दिखती तो कभी नज़दीक दिखती है। हवा में उडती टिड्डियों और मक्खियों की भनभनाती आवाज़ भी अब मेरे कान साफ-साफ सुन सकते थे।

सोचा की इन सारी आव़ाज़ों को एक धागे में पीरो लूँ। लेकिन हक़ीकत का बोध बड़ा तकलीफ दह होता है। इस हक़ीकत को क्या समझूँ? जो न मुकम्मल है न अधूरी फिर जो कभी-कभी इतना जोर से चुभती है की दर्द बर्दाश्त के बाहर हो जाता है। गोदाम में जैसे चीजें अपने आपको तैयार कर रही थी। सारी तोड़-मारोड़ के बाद खामोशी से वक़्त की हर चुनौती का जबाब देती। इतनी करूणा बहुत कम देखने को मिलती है। कागजों के चट्टो को वो हाथ कस-कस कर बाँधते फिर दूसरे ही पल बाजू में रखी एक साथ मिली चीजों को छाटने लगतें।

ये देखना बड़ा ही शुकून भरा होता जब टीवी पर चलते फिल्मी डायलॉगबाज़ी और बोलीवुड के सितारों की जायके दार ख़बरो मे जीते हुए वक़्त जैसे पतली गली से होकर निकल जाता पर ऐसे में उन साहब का ध्यान तो अपने वॉकमैन पर चलते गानों में था।दोनो स्पीकरों वो बडे मज़े से सुन रहा था। पास में से आती कोई अज़ीब सी गन्द जो हवा मे अपने साथ मीठा सा स्वाद लेकर आती। बाँस पर पड़ी छन्नीदार चादर से चौखट को ढक रखा था। जो अन्दर-बहार हवा को बेरोक-टोक आने-जाने देता।

आज गोदाम अपने एक और अन्दाज को देखा रहा था जिसमें इश्क नर्म-नर्म अहसासों से गोदाम में सभी काम करने वालों को सींच रहा था। शायद आज इनके लिए बिना इस माहौल के काम करना मुश्किल हो। शरीर और मन को आराम देने वाली महफिलों में मन करता है की यहाँ ठहर जाऊँ। मैं तो यहाँ का रहने वाला नहीं तो भला ठहरने का क्या मतलब पर खानाबदोशो की का तो यही अदा होती है। जहाँ मन किया वहाँ ढेरा डाल लिया और फिर लम्हों को एक नई जगह में डाल कर नया चेहरा बना कर जीना शुरू किया। मगर मैं खानाबदोश भी नहीं हूँ हाँ एक फ़कीर जो जगह-जगह अपने लिए कुछ माँग लेता है और बदले में दूआएँ दे देता है। पिछले जन्मों के कर्मकाण्डो के कारण मैं ये भी न बन सका। पता नहीं किस करनी से मैं सब मिठासो से वंचित रहा।

ये भी नहीं हूँ जो जीवन मे तमाशाही मंज़र बनाकर लोगा मन जीत लेता है। मैं कुछ-कुछ मिला सा हूँ सब में से जरा-जरा सा लेकर बना हूँ। वैसे कुछ मुकम्मल नहीं है। फिर भी मान लेता हूँ की जो हैं वही सब कुछ नहीं हैं मगर फिर भी वही सब कुछ है।

राकेश

लव्ज़ों के अध्याय...

उनकी कही हर बात उनके दिल के बेहद करीब की है। वे उन्हे बताते हुए कभी भी थकते नहीं हैं। उनका हर लव्ज़ सोचा-विचारा महसूस होता है। हाँ कहते-कहते कभी वे इतना खो जाते हैं की वे ये तक भूल जाते हैं की अब वे क्या कहने जा रहे हैं। अपनी बातों के पिंजरे में वो कभी खुद ही फँस जाते हैं तो कभी सुनने वालों को फाँस लेते हैं।

यहाँ पर काफी लोग हैं जो उनके इस दिवानेपन के कायल हैं। तभी तो न दिन, न रात बस उनके सामने धूनीरमाए बैठे रहते हैं। सोचते है कि क्या पता कब वो बात निकल जाए जिनसे उनका कोई न कोई सम्बंध जरूर है। उसी के इंतजार में सभी अपने होठों को दबाये उनके हर लव्ज़ को सुनते हैं।

कोई चाहें जानता हो या न जानता हो कि वे यहाँ पर कैसे आए? खाली यही जानते थे कि वो ज़िन्दगी को और उनकी घटनाओं को बेहद करीब से देख चुके हैं। ये उनकी बातों से पता चलता होगा।

“मुझे थोड़ी नफ़रत है इस जगह से। इसने मुझे इतने सारे रास्ते दिए हैं अन्दर दाखिल होने के कि मैं यहाँ से बाहर का रास्ता भूला चुका हूँ। जब भी सोचता हूँ यहाँ से खिसकने की तभी यहाँ पर ज़्यादा रूकने का मन करता है। एक बार मेरे रिश्तेदार ने यहाँ पर मेरे सामने बैठकर मुझसे पूछा, “खालू तुम ज़िन्दा हो? सच बताना, तुम्हे लगता नहीं है कि तुम यहाँ पर ज़िन्दा नहीं हो? बताओ खालू।"

और वो ये वाहीयात सवाल करके वो हँसने भी लगा। पहले तो मुझे सभी की तरह उसके लव्ज़ बहुत ही बेहुदा लगे। हर शब्द उसकी हँसी की चादर में लिपटकर और भी नौंचने वाला लग रहा था। मैं सोच रहा था कि इस रिश्तेदारी का क्या सारा सिला मेरे ही नसीब के रास्ते होकर गुजरेगा। मैं उसे देखते हुए जब उसकी तरफ में झुका तो तब मुझे अहसास हुआ की ये वो चाहें किसी भी भाव से पूछ रहा हो मगर उसका मतलब मेरा दिल दुखाने का नहीं था। वो तो इस जगह के बारे में मुझसे पूछना चाह रहा था। मगर मैं छोटा सा आदमी इस जगह की क्या बातें बतलाता। मैंने खाली उसके सवाल का जवाब दिया न की उसके सवाल के पीछे छुपे उसके उस अहसास का जो वे यहाँ पर महसूस कर रहा था। वो मुझपर नज़र गढ़ाये था और मैं उसपर। थोड़ी देर तक मैं सोचता रहा की क्या कहूँ? मगर कुछ देर की चुप्पी के बाद में मैंने जवाब दे ही डाला।

मैं ज़िन्दा हूँ या मैं ज़िन्दा कैसे हूँ इसका मुझपर कोई पुख़्ता जवाब तो नहीं है मगर हाँ कभी-कभी मरने का खौफ़ ही मुझे ज़िन्दा रहने का अहसास करवाता है। दिन में हो, हफ़्ते में हो या सालों में मगर जब मरने से डर लगता है तब अहसास होता है कि हाँ भई मैं तो ज़िन्दा हूँ।"

उनकी इन्ही बातों का या छोटी-छोटी कहानियों में बसे चेहरो का ही असर है जो उनके सामने की सीट कभी खाली या खमोश नहीं रहती। इन्ही किस्सों में कुछ न कुछ तलाशने को उनके सामने की जगह हमेशा भरी रहती है। बातों की कसक हो या टकराव की आहुती सभी एक समान होकर अपने पैमाने तैयार करती है। ये कोई सीख या प्रवचन नहीं था। जो लोग उनसे लेकर खुद पर आज़माते होगें। ये वो पहलू था जिसे समझना तो बेहद बाद की बात है मगर उससे पहले था उस पहलू का हिस्सेदार बनना।

उनकी ज़ुबान से अनगिनत वाक्या न जाने कितने वक़्तों में बाहर आकर तैर रहे होगें। लेकिन उनके समंदर में अभी वाक्यों और शख़्सों की कोई कमी नहीं थी। हर वक़्त गोते लगाये जा सकते थे। बिना टोके-टोके।

वो हर शुभा यहाँ पर किसी को तलाशते रहे हैं। मगर वो कभी मिल नहीं पाया। उनका यहाँ पर आना ही उसको तलाशते हुए आना था। लेकिन वो परवान ना चड़ सका। वो काम पर से निकाले गए थे। ये कहके की आपको दिखता है नहीं तो आप ये काम नहीं कर सकते। खाम्खा में कुछ नुक्सान कर दोगे।

ये शब्द उनके कलेजे पर छप गए थे। वो कितनी ही बार उनको भूला देने का नाटक करे मगर ये हैं कि उनके दिलों-दिमाग से हटते ही नहीं। वो नफ़रत करते हैं कभी-कभी अपने दिल और दिमाग दोनों से। बाकि कितने लोग उनके सामने से गुज़रें हैं जिन्हे किसी भी बात का ठेस नहीं पँहुचता। वो वक़्त के फिसलने को उन सभी बातों का सीख का हिस्सा मानते हैं। जो हो गया पानी मारो और कहीं कुछ छोड़कर दोबारा से दौड़ पड़ते हैं किसी नई दौड़ में। वे अभी तक सिक्के की तरह जमीन पर खड़े हैं किसी एक तरफ में पलटते ही नहीं। इसी बात का सदा अफसोस रहेगा उन्हे।

वे कहते हैं, “रास्ते तो आपको हमेशा अपनी ओर खींचते हैं और वादा भी करते हैं कि दूसरी ओर आपकी मंजिल है। मगर जब कभी एक ही रास्ता ज़िन्दगी भर के लिए पैरों में चिपक जाए तो कितना ही जोर लगा लो मगर वो कभी आपको आगे नहीं धकेलता। मेरे पाँव भी किसी एक रास्ते से चिपक गए हैं। जिसके हमराजों ने पाँव की पकड़ को न मंजूर कर दिया है। अब तो मंजूरी पा जाने के बाद ही कहीं चलेगें नहीं तो वो भरोसा नहीं आ पायेगा दौड़ने का।"

वो दरियागंज की किसी सुनार की दुकान में सोने का हार बनाने का काम करते थे। सोने की नक्कासी, उसमे नग जड़ना और खूबसूरत हार के डिजाइन बनाना उनका शौक भी था और पैशा भी। एक बार दिल्ली आते समय एक शख़्स से सफ़र में मुलाकात हुई। पूरी रात के सफ़र में ढेहरों बातें दोनों दरमियाँ हुई। उसी बातों में ये रिश्ता इतना मजबूत हुआ की उन्हे वो शख़्स यहाँ दिरयागंज ले आया। उस शख़्स की यहाँ पर ज्वैलरी की दुकान थी और इन्हे सोने का काम करने का बड़ा शौक था। तो बस, दोनों की खूब बनी और गुज़री।

सालों गुज़र जाने के बाद मे काम और शौक दोनों एक दूसरे के आड़े आ गए। जिससे रिश्ता किसी और चादर में लिपट गया। ये बदलाव तो आना ही था वाज़िब सी बात है। उनका तो यही मानना था। पल दो पल के लिए यहाँ के हिस्सेदार बनने के चश्के ने इन रास्तों का मुसाफिर ही बना दिया और वो बड़े चाव से इन राहों में खो जाने को तैयार हो गए।

इन शब्दों के बाद में उन्होनें अपने शौक को अपने सबसे ज़्यादा नज़दीक किया और काम के पन्नों पर हस्ताक्षर करके उसका अध्याय ख़त्म कर दिया। अब तो वो जैसे सारे काम निबटाकर यहाँ पर मौज़ूद हैं। बस, तलाश है बाहर के रास्ते की लेकिन अगर वो रास्ता मिल भी गया तो ये तय नहीं है कि वे बाहर जायेगे भी या नहीं।

लख्मी

बहुत दिनों से सोच रहा था...

बहुत दिनों से सोच रहा था की बस्ती में जाने के बाद मुझे ऐसा क्यों लगता है की लोग अपनी जगह को बनाते हुए एक तरह का सफ़र बना रहे होते हैं जिसमें तमाम जरूरतें, अपेक्षायें और भरोसे के होते हुए भी कुछ हाथ से फिसल जाने का डर साथ रहता है।

किसी तरह हमारी इच्छा शक़्ती हमें इस फैसलों के दोराहों पर लाकर खड़ा कर देती हैं जिसमें एक झटके का फैसला होता है, आर या पार पर सब कुछ होने के बावज़ूद भी बाकी सब चलता रहता है। किसी के जगह में आने-जाने से किसी को क्या फ़र्क पड़ता है? लेकिन जगह में जब मौज़ूदगी का शौर और सन्नाटा होता है तो वो जगह अपने आपमे गाढ़ी छवि बना लेती है। मौज़ूदगी का ये सन्नाटा कैसा है? जिसकी नज़र समय को पकड़ने के लिए कभी-कभी बेकाबू हो जाती है। चीज़ों और समय के अन्नत दास्तानों से भरी उस जगह के भीतर कितने ही जाने-अन्जाने चेहरों का झुण्ड बसा होता है।

उसने एक लम्हे के लिए मेरे चेहरे की तरफ देखा फिर मुँह पलट लिया। उसकी आँखें मानो मुझे बिना जाने-पहचाने ही अपनी गिरफ्त में लेने को थी। वो गिरफ्त जिससे कभी भी मैं आज़ाद नहीं हो पाता।

आसमान साफ नज़र आ रहा था। धूप की हल्की चमक ठीक उसके गालों और होठों पर पड़ रही थी। मैं उसके चेहरें को अब खुद मे महसूस कर रहा था की उसने फौरन चाय-पानी के लिए गुज़ारिश करनी शुरू कर दी। मैंने तो दोस्त समझकर हाथ मिलाया था पर मुझे क्या मालूम था की दोस्त की शक्ल में हम मेहमान बन जायेगें। वो भी कुछ ही वक़्त के लिए।

वो दीवार लग रही थी जिसमें मैं आगे रास्ता बन्द समझ कर पीछे लौट रहा था। यकायक मेरे साथ चल रहे साथी ने मुझे बताया की वैसा नहीं है जैसा तुम सोच रहे हो। वहाँ से जाने का रास्ता है- गोदाम जाने का। अपनी आँखों को मिड़कर हम और वो आगे बड़े - बड़े और आगे बड़े। दीवार तक पँहुचने से पहले ही मेरे मन में आशकाएँ उछल-कूद करने लगी। मूंडेरियों के दूसरी तरफ हमारे देखने पर मुझे कुछ हूआ जैसे कोई छू गया हूँ। सवाल या कोई और अजब सा पल।

शायद ये मेरे साथी ने नहीं देखा जो मैंने देखा पर ये कैसे हुआ की मैंने देखा और बाजू में चल रहे मेरे साथी ने नहीं देखा। शायद वो किसी और ख़्याल में डूबा हो। जब मेरी नज़र वहाँ पड़ी तो मूंडेरियों की पीछे की दीवार पर अधबनी कुर्सी पर बैठा वो सिर को धीरे से नीचे जाने देता तो कभी नींद के टूटने पर चौंकर आँखें खोल लेता। उसके चारों तरफ काफी शौर था। मगर फिर भी वो नजाने अपने को कैसे आराम दे लेता। बड़ी बेफिक्री से वो अपने दोनों घूटनों को मौड़कर शरीर को एक विशीष्ट मुद्रा में साधे हुए था।

उसने बड़ा भारी सा मजबूत बोरी का कट्टा अपनी कमर टेड़ी करके डाला हुआ था। लग रहा था की वो जैसे अभी-अभी अपना मुँह धोकर आ रहा हो। काली पन्नी लाल पन्नी में चीज़ों को उसने बड़ी मसक्कत से बाँधा हुआ था। हाथों में मिट्टी के चन्द कण बाकी रह गए थे। उसके चेहरे की मुस्कूराहट किसी अमीबा शैवाल की तरह कभी टूटती तो क्भी खुद ही जुडती नज़र आती।


ये बड़ा तंग रास्ता था....

ये बड़ा तंग रास्ता था जो यूँ समझिये की रास्ते के पास में जितनी भी चीज़ों को चून्ने वाले से लेकर, चीज़ों को यहाँ छाँटने वाले फिर तराजू पर चढ़ाने वाले और गोदाम से टम्पू में सारा माल भेजने वाले मालिको समेत सबके चेहरे ने एक अज़ीब सा नक़ाब पहना हुआ था जिसको कुछ क्षणों में समझने की मुझमें ताकत नहीं थी। ये मेरी अवधारणा थी क्या या मेरे मन का असपष्ट विचार। पता नहीं। सब कुछ जान कर भी मैं अंजानों की तरह वहाँ बैठ गया।


सिर पर मँड़राने वाली मूहार मक्खियों के जैसे अधबने विचारों का भिन-भिनाना अब बंद हो गया। क्योंकि आँखों को अब कुछ और ही भा गया था। गोदाम में आज माल ही माल दिखाई दे रहा था। पहले के दिनों आज कुछ ज़्यादा था।ये हफ़्ते की शुरूआत का दिन था। लोग सुबह से ही तरह-तरह की चीज़ों को ज़्यादा से ज़्यादा लाना शुरू कर देते हैं। वो चीज़ें जो एक या दो बार मे इस्तेमाल करके फैंक दी जाती है।

गोदाम में बच्चे भी खेल रहे थे। उनकी माँए घर की चौखटों पर बैठी अपने पती के काम में हाथ बटा रही थी। बच्चे अपनी प्यारी सी मुस्कान देते हुए बोरे में भरी चीज़ों पर चढ़कर इतने उत्तेजित हो रहे थे। जीवन की असम्भवता से जूझकर मुस्कुराते फिर खेल में लग जाते।

राकेश

गोदाम के अहसासों भरे सफ़र में...

गोदाम से उठकर टेम्पू में चीज़ों को जोर से फैंकने की आवाज़े कानो में लग रही थी। सोनू अपनी कमीज़ की आश्तिनों को ऊपर चढ़ा कर दाये-बाँये जगह को देर तक देखने लगा। सारी चीज़ों और दिवारों को नापते-परखते हुए वो नीचे बैठ गया फिर कुछ पलों के बाद वो सारी चीज़ों पर ऐसे निंगाहे डालने लगा जैसे पूरे गोदाम की शिनाफ्त (जाँच-पडताल) कर रहा हो।

वो अपना नसीब आज़माने के लिए शहर चला आया था। ये सुनकर की शहर में 'रोज़ कुआँ खोदो और रोज़ पानी पियो' वाली नीती चलती है। इस जुमले को वो अपने साथ ज़ुबाँ पर लिख लाया था पर वैसा बिल्कुल भी नहीं था जैसा वो सोचकर आया था। क्या यही सब के साथ होता है?

जनाब दिल्ली की तो दास्तान ही अलग है। यहाँ कभी ऐसा भी होता है की जहाँ हम खोद रहे हैं वहाँ पानी की जगह गैस लाईन, पाईप लाईन और केवल लाईनों का सिमटा हुआ जाल निकल आता हैं। प्रमोद सें बड़ी गुज़ारिश करने के बाद सोनू को गोदाम में काम मिला था। काम का अपनी दुनिया के साथ बड़ा गहरा रिश्ता होता है। जब रहता है आदमी काम करता है पर साथ ही में काम ज़िन्दगी की वो सीडी बन जाती है जिस पर चलकर कोई भी शख़्स ज़िन्दगी की वास्तविक्ता को ऊँचाई से देख सकता है जिसमें उसकी अपनी कल्पना होती है अपनी चाहत होती है।

सोनू ने भी कुछ ऐसा ही चाह था। उसका सपना था की वो यहाँ से पैसे कमाकर अपने जीने का ढ़ंग बदले और अपने जीवन में खुशहाली लाये। यूँ तो ये मुराद सब माँगते हैं लेकिन किसी-किसी की ही मुराद पूरी होती है। जीवन भर क्या पूरा हुआ क्या अधूरा रहा की चिन्ता लगी रहती है। मगर ये भी क्या कम है की काम के साथ सब अपनी एक अदृश्य छवि बना लेते हैं। जिसे हर कोई नहीं देख पाता। बस, वही देखता है जो इसी छवि में जीता है।

गोदाम में मिले काम के मौके को सोनू ऐसे ही कैसे जाने देता? रोज़ाना काम में लग जाता तन-मन एक कर देता। अपने साथ वाले लड़के को देखकर वो भी काम को समझने लगा।

सोनू प्रमोद के साथ काम पर लग गया। गोदाम में किसी की अपनी जगह थी तो कोई किसी के पास काम करता था। अपने घर में भले ही चूल्हा न जले पर दूसरे का पेट तो भर ही दिया करते थे। गोदाम एक परीवार सा दिखता तो कभी मिल कर बाँटने वाली जगह नज़र आती।

सब रोज़ इसी भेषबूसा में अपनी-अपनी कारस्तानियों में लग जाते किसी से कोई मतलब न रखते हूँ। सोनू भी जल्दी ही सब से घुल मिल गया। पूरे दिन बस्ती के कोने-कोने में फेरी मार के आता फिर दिन में तीन-चार बार माल बिनकर ले आता फिर काँटे पर चढ़वाता। अब वो अपना काम बेहतरीन ढ़ंग से करना जान चुका था। उसे किसी की जरूरत नहीं थी।

शहर के हाथों ने और गोदाम से उठने वाली समझ और वहाँ की काम की शिक्षा ने उसे जीना सीखा दिया था। गोदाम में आकर एक और नौजवान ने अपनी ज़िन्दगी की शुरूआत की थी। बाहर से आता रास्ता जो चौराहे से निकाल कर गोदाम में आता था। वो गली इतनी ही चौड़ी थी की बस, टेम्पू के लिए ही जगह बचती थी। जरा सा आगे कदम रखो तो दो-तीन हाथ ही जगह बचती।


रोज़ाना कोई किस्सा सब के पास बतीयाने को होता। तमाम अफ़वाहों के उडने के बाद भी गोदाम में काम करने वाले शख़्सों को जीवन अपनी लय में चलता रहता। शहर में हर बार चूनाव आते और पहले गोदाम और बस्ती तोड़ने की अफ़वाहें उछालती फिर हमर्ददो की तरह आकर बड़ी-बड़ी डीगें मारते की हम आप का घर नहीं टूटने देगें। ये कह कर वो वोट माँग चले जाते।

गोदाम का अपना अस्तित्व है वो बना इस जगह में मिलनसार और अपनी चाहतों पूरा करने का ठिकाना।

जहाँ पर सबने पहली -पहली बार अपने नये जीवन की शुरूआत की और कुछ काम-धँधा न मिलने पर अपने आप जीने की मुहीम को छेड़ा । काम तो तलाश लिया जिससे दो-तीन वक़्त का गुज़ारा हो जाता।

हाथों में न ही कोई हुनर था न ही कोई ज्ञान जिसे अपना मानकर समाज में जगह बना कर जिया जाया। बस, ये ही दो हाथ जो हथेलियों पर पड़ी लकींरे जिनसे कोई काम न चलने वाला था। नसीब को रोकर क्या मिलता खुदा ने अपना काम तो कर दिया हमें इस दुनिया में भेजकर अब अपनी बारी थी। सो अपने जीवन को खुद ही बनाने की जिद्द ठान ली और आगे बढ़ते गए सफ़र काटता गया।

चौराहे पर जो जीवन नित-नयी सम्भावनाएँ दे रहा था। वो अपने को खुद ही बनाता और खुद ही शाम की तैयारी करते हुए सब कुछ समेटता है।

राकेश

चौराहों का गोदाम

थककर मैं वहाँ बैठ गया जहाँ से मुझे वो चेहरा याद आया जो मेरी कल्पनाओं के अधखुले दरवाज़ों से होकर कभी गुज़रा था। आज यकायक वो दृश्य आँखों में वापस उमड़ आया जिसकी चमक में अंधेरे से उजालें की तरफ कदम बड़ाया था। जब तक मैं उस चेहरे को जी भरकर देख लेता तब तक मेरे शरीर की सभी माँसपेशियों ने मेरा साथ छोड़ दिया था।

अपने सामने आने वाली नंगी आवाज़ों सें मैं बचने की कोशिश करता। मैं किसी कतार में नहीं खड़ा था। मेरे चारों ओर लगी दूकाने, पी.सी.ओ बूथ, सब्जी का ठिया, चाय-नमकिन का ठिया जहाँ पर रोज़ाना महफिलें सजती। प्रर्चून की दुकान, सलीम भाई की हैयर कटिंग की दुकान, बाबूराम हलवाई की दुकान जिसकी जलेबियों का स्वाद सब की ज़ुबाँ पर रहता है।

इस सारी उथल-पुथल भरे वातावरण में कोई अंजान सा प्रकाश बिखरा हुआ था। उसी प्रकाश में तमाम वस्तुओं की दुनिया सी नज़र आ रही थी। कोई जिज्ञासा सी इस माहौल में मुझे अपनी तरफ खींचे जा रही थी। मैं हताश सा होकर इधर-उधर झाँकने लगा। वहाँ मौज़ुद लोगों के बावज़ूद चीज़ों का वज़ूद कुछ और ही चेतना लिए बैठा था। जिसके अन्दर से कई किरणें निकलकर मेरी इंन्द्रियों को एक अंजाना सा स्वाद दे जाती।

जहन पर ये ढेर सारी दस्तक...
चौराहों से आती टोली वहाँ के ठहरे समय को हल्के से छेड़ जाती। लोगों की परछाइयों का झुँड चला आता। कहीं से आकर ठहर जाने के बाद यहाँ फिर किसी तरह की रफ़्तार होने लगती पर वो रफ़्तार क्या होती ये पता नहीं था। जैसे लोहे को काटते हाथ जब, एक के बाद एक लोहे को काटने का प्रयास कर रहे होते हैं तो वे खुद भी लोहा बन जाते हैं।

वैसे ही इस चौराहें का गोदाम अपने आपको एक ऐसी सिद्दत से देखता है। लगता है की आसमान से ओश की बूंद बनकर गिरने वाले शीतल अहसासों का झुँड़ यहाँ आ गया हो या कोई चाहतों सें खड़ी की गई समय को मिट्टी और पानी की तरह आपस में मिलाकर और दुनिया के सारे बागीचों से कलियाँ चुन-चुनकर अपने पास जमा करली हैं। उसी तरह जगह को बनाने मे भी वही शिर्कत नज़र आती है।

जो न घर है न रहगीरों का ठिकाना वो तो चीज़ों से कोई आकार देने की लरक है।
जो किसी चीज़ की ऐसी स्थिती या रूप है। गोदाम की असली पहचान ये है या नहीं इस बात पर मुझे संदेह है। जीवन में कौन सुख और इज्जत नहीं चाहता। सारे सुखों से इंसान को ये सुख क्या कम है कि वो जटील से जटील हालातों में भी ज़िन्दा है।

ऊंची-ऊंची और बड़ी महत्वकाँक्षा के अतरिक्त भी ज़िन्दगी में महत्वकाँक्षा पलती है।
जो आम जीवन में संजीवनी बूटी की तरह हर शख़्स को पुर्नजीवित करती रहती है।
फैसलों में अपने आपको आग मे सोने की तरह जलाने की जद्दोजहद भी इंसान ही करता है।

रोज़ाना गोदाम में काम करते हुए रेडियो और सीडी प्लैर पर नये और पुराने गाने सुनते, फिल्मी गानों में ये सब इतने मसगुल हो जाते हैं की न सुबह का पता चलता न शाम ढ़लने की ख़बर होती।

प्रमोद, दीपक, शेरू भाई मस्ती से चीज़ों को छाँटते। दोनों पैरों को मोड़कर बैठते। हाथ और कपड़े गोदाम के काम में मैले हो जाते। फिर भी चेहरा फूलों की तरह मुस्कुराता रहता है। आँखों में झील कैसी गहराई होती है। कब कहाँ से कैसी या कौन सी आवाज़ पैदा हो जाती कुछ पता न चलता। मेरी सोचने की क्षमता जेसै और ऊर्जा माँगती।

तमाम तरह की चीज़ों के ऊपर बैठे-बैठे वो हाथों को मशीन से भी तेज चलाते। लगता उनके हाथ में कोई मकैनिकल पुर्जा लगा है जिसकी मदत से वो फुर्ती से काम करते। ये मकैनिकल पुर्जा यहाँ कहाँ बनता है? मैं इस के बारे में जानना चाहता हूँ।

बाहर क्या हो रहा है? वो इस से बेख़बर होकर अपने दुनिया में कुछ न कुछ तलाशते रहते थे। ये कैसा देखना था जो वास्तविक्ता को ही तोड़ देता था। जब वो चीज़ों की छटनी करते तो देखते-देखते ही वे कहीं इतनी दूर चले जाते की जहाँ से वापसी की कोई गुंजाइश न होती। आँख जैसे चीज़ों और जगह के रूप से फिसल कर खुद से बनाये माहौलो में लेकर गिर जाती।

चीज़ों की इन सब को बड़ी परख होती एक ही बार में कौन सी चीज़ काम चलाऊ है या कैसी है। वो ये अच्छी तरह पहचान जाते हैं। पूरे दिन गोदाम मे आए माल में छटाई होती फिर आखिर में रद्दी, हल्की प्लास्टिक और कड़क प्लास्टिक को अलग-अलग करके तराजू पर चढ़ा दिया जाता। शाम तक गोदम का सारा माल बेच दिया जाता। बस, आज का काम ख़त्म। अगले रोज़ की तैयारी शुरू हो जाती। वो भी बिना रूके।

ये जगह मेरी नहीं है मगर मैं जगह का हूँ इसलिए सब के सामने हूँ मुझे जगह में सुनाई देने वाली अवधारणाओं से संदेह हुआ। लगा की मानव की कल्पना और उसके बारे मे सोचने का प्रयास नाममात्र है। मैं खुद को बुद्धी जीवि कहता हूँ मगर मैंने ये कैसे मान लिया की मैं सही सोचता हूँ और जो दिखाई और सुनाई देता है वही सच होता है। मेरी सभी चेतना देने वाले मनबुद्धि, आत्मा, शरीर, इंद्रियों पर विषम चिन्ह सा लग गया पर सोच कहीं आकर नहीं रूकती वो निरंतर पर्वतों से बहती नदियों की तरह है। मैं ये फ़र्क करने बैठ गया की मैं जो अपने बीच स्पष्टिकरण कर रहा हूँ वो क्या है? क्या उससे बनी छवि को या शख़्सियत को मैं किन्ही हालातों मे स्वातंत्रता पूर्वक रख पाऊगाँ। मैं कहीं खो सा गया बेहोशी के इस आलम से बाहर आने के बाद मैंने देखा की जिसे मैं अभी-अभी कह रहा था की वास्तविक्ता को तोड़ना और अपने शरीर को छोड़कर कहीं दूर निकल जाना। मैनें भी तो अभी यही किया तो मुझमें और गोदाम में काम करने वालो में तो कोई फासला नहीं है। चलो ये तो पता चल ही गया।

उड़ते हुए कागजों, पन्नियों को देखकर लगाता है जैसे इस जगह में ही वसंत अभी आया है और अपने मस्त हवा के झोकों के साथ और वहाँ की प्रतेक चीज़ों सें हठखेलियाँ कर रहा हो।

प्रमोद का एक दोस्त उस रोज़ आया जब गोदाम मे खड़े टेम्पू में माल भरा जा रहा था। धूप ठीक सिर के उपर थी। पसीनों में लथ-पथ उस का शरीर जैसे हाफ रहा हो। उस के हाथों में एक झोला लगा हुआ था जिसमें उस के कुछ हफ्ते ठहरने के कपड़े थे और चेहरे पर नई जगह में आने से जन्मे उम्मीदों भरे भाव छलक रहे थे।

गाँव से वो शहर में कुछ आमदनी के लिए आया था। प्रमोद उसे देखकर खुश हुआ "अरे सोनू तू गाँव में सब ठीक तो है न।" और कैसी लगी दिल्ली? जो पहली बार आता है क्या उस से ऐसे ही सवाल होते हैं। खैर, प्रमोद के सवालों का भला वो एक बार में कैसे जबाव दे पाता। जरा चैन की साँस तो ले लेने दे फिर सारा किस्सा सुनाता हूँ। उसने सुस्ताते हुए अपनी सहमती जताई।

राकेश

Monday, April 20, 2009

खोया सा है सब कुछ बाजार में

एक आदमी सड़क के किनारे बसी एक बस्ती में रहता था। सड़क के दूसरी ओर वो काम भी करता था। हर रोज सुबह जल्दी-जल्दी में ही मगर नवाबों की तरह तैयार होता और पैरों मे चप्पल ठूसकर वो सड़क के किनारे खड़ा हो जाता। सड़क पार करने की चाह में वे हमेशा किनारे पर ही खड़ा होकर सड़क के दूसरी ओर देखता रहता। अपने पजामे मे अपने तलवे से उठाकर बस, कभी आगे तो कभी पीछे होता रहता था। सड़क की दूसरी ओर कहो या सड़क को पार करना उसे दस मिनट तो हमेशा लगते थे।

वो आदमी इस दस मिनट के अन्तराल मे काफी शौर भी सुनता था। सड़क की दूसरी ओर पँहुचकर वो अपने हिस्से की जगह को साफ भी करता था और वहीं पर अपनी दुकानदारी चलता था।

कभी-कभी वो आदमी जल्दी घर चला आता तो बीवी के लिए कुछ न कुछ जरूर लाता था। कभी अगर दिन अच्छा निकल जाता तो बीवी के साथ घंटों बैठकर बातें भी करता था और रात में बिस्तर पर दुलार भी करता था। उसी पल मे वो आदमी दिनभर के बारे मे बड़े प्यार से बतलाता भी था और अगर दिन कभी अच्छा न गुजर पाता था तो वो आदमी शाम मे चुपचाप बैठ जाया करता था। रात के खाने मे कोई न कोई नुक्स निकालकर खाना आधे मे ही छोड़ दिया करता था। खाना अधभर खाकर कुछ ऐसे खामोश हो जाया करता कि जैसे आज अपने घर मे नहीं किसी किराये के मकान मे सो रहा है और साथ मे सोने वाली उसकी बीवी नहीं बल्की सरकारी अस्पताल में बिस्टर बाँटने वाला कोई दूसरा मरीज है।

मगर वो आदमी छुट्टी के दिन को बड़ी ताज़गी से बिताता था। जब भी कोई छुट्टी घोषित होती तो वो सबसे पहले अपना काम बन्ध करकर घर में ही बैठ जाया करता। बिना नहाये-धोये वो आदमी दरवाजे पर बैठकर आसपास की जगहें मे नज़रे घुमाता रहता, थोड़ी देर तक उसका यहीं काम लगातार चलता रहता था। चारों ओर नज़रों मे घुमाता और बस, बैठा रहता था। उसके बाद बाँध कमर मे स्वापी काँधे पर डाल तोलिया वो बाहर की तरफ चला जाता। जहाँ पर लोग खड़े या बैठे दिखते कुछ देर वहीं पर खड़ा होकर वो उनमे शामिल होता। नहीं तो रिक्सेवालों के यहाँ जाकर उनके खेलो में घुस जाया करता था।

बाद में जब मन भर जाया करता था तो उठाये थैला वो कभी-कभी बाजार सब्जी लेने भी चला जाया करता था। हाथ मे पाँच किलो का थैला उठाये वे पचास ग्राहकों को मन मे रखकर बाजार में घुस जाया करता था।

बाजार से उसका रिश्ता पाँच किलो या ज़्यादा से ज़्यादा दस किलो तक की सब्जी लाने ले जाने से ही हुआ करता था। ऐसा नहीं था की वो आदमी खरीदारी के बारे मे कुछ जानता नहीं था, बाजार में घूमने के मज़े वो पहचानता नहीं था। हफ़्ते मे वो एक बार ही सही मगर बाजार से उसका रिश्ता काफी पुराना था।

सवेरे - सवेरे ही वो बाजार चला जाया करता था। पहले दो घण्टे वो सिर्फ वहाँ पर दुकान-दुकान देखता फिरता, सब्जियों के रेट पुछता फिरता। कुछ को अपने हाथों से दबाता, कुछ को नौंचता और जब चीज़ भा जाती तब वहाँ पर बैठ जाया करता था।

आज भी छट्टी का ही दिन है। वो आदमी अब सड़क के दूसरी ओर को भूल गया है। सड़क के दोनों किनारे एक-दूसरे से मिल गए हैं मगर सड़क और भी चौड़ी हो गई है। भीड़ भी बड़ गई है। दस मिनट मे सड़क पार करना अब आधे घण्टे मे तब्दील हो गया है। काँधों से काँधे भी टकराने लगे हैं।

वो आदमी हाथ मे थैला उठाये बाजार की तरफ चल दिया। बाजार अब बड़ा हो गया था। बाजार मे दुकाने भी बड़ गई थी। आधी खुली और आधी बन्द। अब बाजार उनके पैरों तले से ही शुरू हो गया था। हाथ में थैला मगर पाँच किलो का ही था। लेकिन उस थैले की कल्पना मे अब ग्राहको की तदात अब अनगिनत थी। वो आदमी सोचकर निकला था की इस थैले मे अपने हिस्से का बाजार भर लायेगा।

कुछ दूर चलने के बाद वहाँ बिछड़े पुराने यार मिले। जो अब पूरी तरह से बाजार के हो चुके थे। उनकी बोली मे भी बाजार की ही बातें थी। चीज़ों को देखने की नज़र भी उनको आँकने के समान थी। हाल-चाल पूछने वाली ज़ुबान मे भी वही नौंचने वाले शब्द थे। कैसा ही हिसाब-किताब कहते फिर माल के बारे पूछते। वो आदमी जानता था कि ये माल किसे कह रहे हैं। वो आदमी कुछ कह नहीं पाता। वो आदमी वहाँ पर खड़ा रहता। वो आदमी अगर कुछ कह पाता था तो बस, “हाँ-हूँ" की ही ज़ुबान बोल पाता।

अब तक तो वो आदमी उन यारों को बस, खामोशी से देखता रहा। बाजार में नज़रे घुमाने लगा। कभी अपने यारों को देखता तो कभी महज़ उनके चेहरे पर ही अटक जाता। पुराने यार मिलने के इस अचम्भित दौर मे वो आदमी सकबका सा रहता। सोच-विचार में पड़ जाता। क्या कहे, क्या कहे के घेरे मे फँस जाता।

वो आदमी अब धीरे-धीरे उनकी बातों को नज़रअंदाज़ करने लगता। वो आदमी वहाँ से निकल जाने की सोचने लगता। यारों के साथ में खड़ा होना आज मन को कसोट रहा था। खुद को भूल जाने पर जोर कर रहा था। मगर वो आदमी खुद को याद रखना चाहता था।

सड़क के दूसरी ओर का ठिकाना याद रखने से अब कोई फायदा भी नहीं था। इस ओर से उस आदमी का लगाव गहरा हो गया था। पाँच किलो के थैले में अनगिनत लोगों की कल्पना उसके घर से ही शुरू हो जाती थी। यारों को अलविदा करके वो आदमी अपने घर की तरफ चल दिया था। इस पाँच मिनट के रास्ते मे वो आदमी अपने घर को भूला चुका था। याद रहता तो बस, घर का दरवाजा, वहाँ जाने का रास्ता और पाँच किलो का थैला। उसके साथ-साथ सड़क की दोनों ओर। घर तो कहीं खो गया था।

सड़क के दोनों किनारे एक हो जाने से लोग बहुत नज़र आते थे। कौन कहाँ जा रहा है? कहाँ से आया है? ये कोई नहीं जान सकता था। कभी-कभी तो लगता जैसे सभी एक-दूसरे के साथ हैं। ‌वो आदमी रास्ते मे यारों की बातें याद करता हुआ घर की तरफ मे बड़ता जाता। यादों मे दोस्त की बातें और बीते समय के दृश्य घूमते चलते। वो आदमी उनको याद करके मुस्कुराता चलता। कभी-कभी पीछ मुड़कर भी देख लिया करता था।

एक यार अपने यहाँ खाने पर बुला रहा था, “कभी तो आ जाया करों मौत या ज़िन्दगी की पूछने" कहकर जलील कर रहा था।

वो आदमी यार की बात सुनकर थोड़ा मुस्कुरा देता। "जरूर आयेगें" कहकर उसे शांत करता। पुराने दिन वापस आयेगे सोचकर मन ही मन उसका शुक्रियाअदा भी करता। दिमाग मे कोई न कोई दिन पहले से ही तय कर लिया करता। सारे काम उस दिन से पहले या उस दिन के बाद कर लेगा ये भी सोच लिया करता था। चलते-चलते वो यारों से दूर हो जाने का वो अफसोस भी करता था।

पाँच मिनट का रास्ता ख़त्म भी हो गया था। वो आदमी अपने घर के दरवाजे पर आते-आते बाजार की सारी बातें वो भूल जाया करता था। बस, कभी-कभी जब कोई बात नहीं होती थी करने को तो वो यारों की बातें छेड़कर अपनी बीवी को पुराने दिनो के बारे में बड़ा-चड़ाकर बताया करता था और मज़े लूटता था। बीवी के आगे यारों का यार साबित करके वो मन ही मन मुस्कुराता भी था।

सड़क के किनारे भले ही मिल गए थे। लोग भी घने गुज़रने लगे थे। वो आदमी उन सभी लोगों को अपने पाँच किलो के थैले से ही देखता था। बस, बातों ही बातों मे यार बनाता और रोटियाँ बेलता था। सबको खाना खिलाता था। घर पँहुचकर वो आदमी अपना घर हमेशा खोजता था मगर कभी घर मिलता नहीं था।

लख्मी

पच्चीकारी का बहाव

परछाई कभी परछाई नहीं होती,
वो होती है कोई धूंधला सा आकार।

समय कभी समय नहीं होता,
वो होता है किसी पल का ठहराव या बहाव।

दिन का कोई भी वक़्त महज़ वक़्त ही नहीं होता.
वो होता है शायद किसी तरफ का इशारा।

क्या होने वाला है?, क्या हो गया है? असल में ये कुछ नहीं होता,
वो तो होता है किसी आने वाले कल का पूर्वाभ्यास।

याद असल में याद नहीं होती,
वो होती है किन्ही धूंधली परतों के दरवाजें।
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खो जाना मिल जाने पर निर्भर है और मिल जाना खो जाने की लपेट में।
कहीं खो गया है कोई या मिल जाने के डर में है?


लख्मी

Wednesday, April 15, 2009

समय की परछाइयों के कदम

जब जगह में पड़ते है। तब माहौल में कई छवियाँ व्यवस्थित हो जाती हैं। जगह का अपना वज़ूद अपने को किसी अन्जान से चेहरे में ढाल लेता हैं। जब उसका अन्जान सा चेहरा हमें महसूस होता है तो तरह-तरह की कल्पनाएँ घेर लेती हैं जिसके कारण हम अपने शरीर को भूल जाते हैं।


दिनाँक- 12-04-2009, समय- दोपहर 11:00 बजे

राकेश

चेहरों का समूह

भागती दौड़ती ज़िन्दगी में कुछ तो हैं जिसमें कभी न कभी ठहर जाते हैं और अपने ईर्द-गिर्द घूमती आवाज़ों में भटक जाते हैं।

फिर एक छाव सी मिल जाती है जिसके तले बैठ के मन को मानों जैसे एक साहिल मिल गया लेकिन वो साहिल नहीं जिसपर खड़े होकर लोग डूबते सूरज को देखते हैं। ये वो सवेरे की उजली किरणों को अपने में लेकर जी भरके साँस लेने की आज़ादी है।

जो शहर के आवागमन में एक भूख देती है।


दिनाँक- 12-04-2009, समय- सुबह 10:30 बजे

राकेश

एक किलो गेहूँ और एक गाना...


दिनाँक- 12-04-2009, समय- शाम 3:00 बजे

इनका नाम पूरे चार-पाँच गाँव मे जहुरा बाबा कहकर पुकारते हैं। ये मेरठ के एक छोटे से गाँव खट्टा के रहने वाले हैं। वे कोई गाना गाते हुए पिछली यादों मे फौरन चले जाते हैं। कहते हैं -

ब्याह को हुए चार साल हो गए थे। मगर बहु का गौना नहीं हुआ था। उनकी उम्र भी ज्यादा नहीं थी। ब्याह के बाद वो चार साल उन्हे आज भी याद है और ये उनकी ज़िन्दगी मे अनमोल है। उन चार सालों मे गुजरा एक-एक वक़्त उन्हे भूलने से भी नहीं भूलता।

वे चौदह साल के थे उस वक़्त जब उनका ब्याह हुआ। उस समय ऐसा भूत सवार था उनपर की मन निचावला बैठने की कोई जिद्द नहीं करता था। बस, उड़ते फिरते थे एक गाँव से दूसरे गाँव और एक मण्डली से दूसरी मण्डली।

उन चार सालों के बीच का कोई भी समय पूछलो तो वे बात पर बात बताते हैं।



उन दिनों गाँव मे बहुत जोरदार सभा आई हुई थी। पूरा का पूरा गाँव शाम होते ही वहीं पर चल देता था। क्या जनानी या क्या आदमी सारे वहीं पर अपनी चौगड़ी जमाये बैठे रहते थे। चाहें पूरा दिन कुछ भी हो लेकिन शाम मे सारा गाँव खाली हो जाया करता था।

उनकी अठ्ठारह साल की उम्र हो चुकी थी वो अपने भीतर अल्लडपन लिए घूमते थे। दिन मे कभी तो वो दुकान संभालते तो कभी भैंस चराते। वो भी शाम मे उन्ही मण्डलियों मे घुस जाया करते थे।

गाँव की उस सभा में किसी आदमी के पास मे एक रिर्कोडर वाला भौंपू हुआ करता था। वो रोजाना शाम मे नये-नये गाने वाली रिर्कोड चलाया करता था। वहीं पर इन्होने कई गाने व गीत सुने थे। ये कहीं उन्हे भूल न जाये इसलिये अगले पूरा-पूरा दिन उसे गाते रहते थे।


वे बताते हैं, जब वो अठ्ठारह साल के पूरे हो चुके थे। तो गाँव मे बड़ी जोरदार अनबन चलने लगी थी। गाने गाना सही नहीं माना जाता था। कोई अगर गाँव मे गाना गाता हुआ गुजरता था तो उसके घर मे कोई न कोई कलेश हो जाता था। उस समय गाँव मे रागनी गाई जाती थी। सभी आदमी चाहते थे की उनके बालको मे ये रागनी के गुण ‌आ जाये लेकिन किसी के पल्ले ये नहीं पड़ते थे। फिल्मो के गाने तो फौरन याद हो जाया करते थे। तब बड़ी चली थी लता-मुकेश की पिच्चर "मदरइंडिया" तो बस, पूरे गाँव मे बहुत जोर पकड़ रहे थे। वहीं से सारे गाने ज़ुबान पर रूक गये।

वे आज भी अपने सामने बैठे सुनने वाले लोगों मे ये नहीं देखते की उनकी उम्र क्या है? या वे कौन है? बस, उनके बैठते ही महफिल शुरू हो जाती है।



लख्मी

वो कहीं दूर चली गई थी

इन्चीटेप लिए हाथ में वो किसी जगह की तरफ में बढ़ रही हैं। कोई उन्हे पीछे से कई आवाज़ें मार रहा है लेकिन उनके कान किसी भी आवाज़ को सुनने के लिए राज़ी नहीं हैं। वे तो बस, जमीन पर बढ़े चले जा रही हैं। वो नंगे पाँव हैं और जमीन पर कई छोटे-छोटे पत्थर हैं। गड्डों से पूरी जमीन भरी पड़ी है। वे काफी दूर तक आ गई हैं। जहाँ पर कोई भी नज़र नहीं आ रहा। कुछ समय के बाद में वो पीछ मुड़कर देखती हैं तो बहुत सारे लोग हैं जो बहुत दूर खड़े हैं उन्हे जोरों से आवाज़ें दे रहे हैं लेकिन कोई भी आवाज़ उन तक नहीं पँहुच रही है, हाँ इतना महसूस हो रहा है कि वे सारे हाथ हिला रहे हैं।

वो 'जाने दो', अपने मन में कहती हुई आगे की तरफ बढ़ती जा रही हैं। जमीन को देखती हुई वो नीचे बैठ गई। अपने हाथों मे पकड़ी इन्चीटेप से वो जमीन को नापना शुरू करती हैं। वो वहीं तक नाप पाती हैं जहाँ तक उनके हाथ फैल सकते हैं। वो अपने हाथों को और फैलाना चाहती हैं लेकिन ये संभव नहीं है। वो बहुत जोर लगाती हैं की उनके हाथ फैले मगर ये होना मुश्किल हो रहा है।

वो थक जाती हैं इधर से उधर नज़र दौड़ाने लगती हैं। कुछ सुझ नहीं रहा। कुछ देर के बाद में वो वहाँ से उठकर कुछ दूर चलने लगती हैं। कुछ तलाशने की चाह में। जमीन को देखती हुई वो आगे जब बड़ती हैं तो मन अब यहाँ पर रूकने का करने लगता है। मगर पीछे वाली जगह भी तो काफी भली थी। लेकिन मन में अब कुछ और आने लगा था। वो उस पहले वाली जगह को देखती हुई नीचे बैठ गई। यहाँ पर भी उन्होनें अपने हाथों को फैलाने की बेइन्तहा कोशिश की लेकिन वो फैला नहीं पाई।

इस खुले से आलम मे वो बेहद खुश हैं। ख़ुद के हाथों से कुछ मापने की कोशिश उन्हे रोशन कर रही है। वे हर जगह पर जाकर अपने मन में कुछ आंकड़े से गुनगुनाने लगती हैं। छोटे-छोटे पत्थर चुनकर वहाँ पर रखने लगती हैं। बहुत जल्दी में हैं। मियाँ काम पर भी जाने के तैयार हो चुके होगें। उससे पहले ये सारा निबटाना है। दिमाग दोनों ओर घूम रहा है और वो नाच रही हैं। लगभग पाँच मिनट के ही बीच में उन्होनें कई छोटे-छोटे पत्थर चुनकर चार बड़े-बड़े आकार के डिब्बे बना दिये। चार में से तीन तो आमने सामने थे लेकिन एक डिब्बा थोड़ा दूर था। वे उसे देखकर ख़ुश थी।

वो वहीं पर बैठ गई। पहले उन्होनें अपनी इन्चीटेप को खोला और एक कोने से दूसरे कोने तक कुछ नापा, थोड़ी देर उसे खोलकर बैठी रही, फिर उन्होनें कुछ बड़बड़ाया और फिर इन्चीटेप को और खोला। उसके बाद में वो दूसरे छोर पर चली गई। वहाँ पर भी उन्होनें कुछ ऐसा ही किया। जिस-जिस जगह पर उन्होनें नपाई ख़त्म कर दी थी वहीं पर उन्होनें एक बड़ा सा पत्थर रख दिया।

अब उनमें बहुत तेजी आ गई थी। काम शुरू हुआ। कहीं पर जाती और कुछ मोटे भारी पत्थर उठाकर ले आती। बस, कहीं जाती और पत्थर उठा लाती। वे ये लगातार कर रही हैं। कोई अगर साथ देने वाला नहीं है तो वो खुश है की उन्हे कोई रोकने वाला भी नहीं है। उनकी इच्छा उनके नाम है।

अभी सुबह के 6 बजे हैं। थकावट बिलकुल भी नहीं हो रही है। शरीर काफी हद तक हल्का सा महसूस हो रहा है। कितनी सारी आवाज़ें कानों में गई होगीं लेकिन याद एक भी नहीं है। बस, बिना बोलों के कोई आवाज़ याद है। जिसमें किसी गाने की धून है। बहुत ही मदहोश कर देने वाली आवाज़ है। जिससे थकावट का कोई असर नहीं है।

छत इतनी जल्दी बन जायेगी इसका तो अंदाजा भी नहीं था। एक पल को तो लगा जैसे उसी जमीन पर कमर टूटी है जिसपर हाथ फैलाने में तकलीफ हो रही थी। लेकिन यहाँ पर भी वही सब कुछ था जो वो बीते कल में छोड़ आई थी। बल्लियाँ एक के ऊपर दूसरी घूसी हैं। उसमें कई पन्नियाँ लटकी हैं। कोनों में कई कागज़ ठूसे हैं। इन्हे देखकर ही तो बीते कल की यादें ताज़ा हो जाती हैं। वो वापस वहीं पर भागी, जहाँ पर वो अपने हाथ फैलाना चाह रही थी। वहाँ पर अब कुछ भी नहीं था। बस, एक मैदान जिसमें कई लोग बैठे हैं। उन्हे लग रहा था कि ये वही लोग हैं जो उन्हे आवाज़ें देकर, हाथ हिलाकर बुला रहे थे। वो भागी-भागी उन डिब्बो के पास गई जो उन्होनें ख़ुद अपने हाथों से बनाये थे। वहाँ पर जाने के बाद में वो थोड़ी हैरानियत से बाहर निकली। लेकिन यहाँ पर भी खाली वही एक डिब्बा रह गया था जो चार में से अलग बनाया था उन्होनें। वो तीन नहीं दिख रहे थे जो एक साथ थे। वो थोड़ा परेशान सी थी लेकिन करती भी तो क्या? बस, उसी डिब्बे में बैठ गई।

वो बिना बोलो का संगीत ख़त्म हो गया था। अब कुछ सुनाई नहीं दे रहा था। वो दोबारा से उसी बल्लियों के नीचे थी जिनमें बीते कल की निशानियाँ कैद हैं, यादें कैद है मगर रिश्ते आजाद हैं। उन्ही के बीच में वो ज़िन्दा हैं।

लख्मी

Tuesday, April 7, 2009

वो कल्पना थी या हक़िकत थी मगर

कोई शुकून मेरे ओर-पास है
मगर वो साया भी कहीं मुझमें है।
मैं अकेला सा हूँ मगर, कोई तो साथी साथ है।
छू जाता है किसी का अहसास मगर,
किसी धड़कन की आवाज़ है।

मैं किसी का नहीं मगर
कोई मेरा तो मगर- जो पास से गुजर जाता है
जैसे कोई आँधी हो उधर

मेरी तन्हाइयाँ थी बेकदर, न थी किसी को कदर
मेरे शरीर को न शरीर समझा
जख़्म दिए मुझे इसकदर।

वो कल्पना थी या हक़िकत थी मगर
कोई तो चेहरा था जिसको अपनी थी कदर
तिनका-तिनका बिखर गया दिल-ए-आशियाना
न तुम्हे ख़बर न हमें ख़बर।


दिनाँक- 31/3/09, समय- दोहपर 2:40 बजे, जगह- सादिक नगर

राकेश

जीवन की कल्पना


दिनाँक- 29/3/09, जगह- दक्षिणपुरी, समय- दोपहर 1:35 बजे


श्री सत्यनारायण पूजन

जीवन में कथाओं का बहुत बड़ा महत्व होता है। कथाएँ हमारी मार्गदर्शक बनकर आत्मा को सत्य की ओर ले जाती हैं। वो सत्य जो आत्मा, शरीर, मन, ज्ञान से मिला देता है और एक कर देता है। इंसान अपने जीवन काल में धर्म या किसी सत्य से जुड़कर जीता है। वो अपनी शुद्धी के लिए और अपने पुर्नजन्मों की कुशलता के लिए हवन, जाप और यज्ञ करता है जिसकी कल्पना इसी जन्म मे हो जाती है। वो क्या हो, कैसी स्थिती में हो?

मानवता का एक ओर रूप है। पुर्ननिर्माण मानव कल्पना। जो अदृश्य है। वो सत्य होगा। इसलिए सारे क्रियाकलाप हो रहे हैं।

राकेश

Saturday, April 4, 2009

आदमी- क्या है आदमी

अपने साथी की ज़ुबान से सुनी दो लाइनें जिसमे मुझे अपनी ओर खींच लिया। ऐसा लगा मैं अपने को कई नज़रिये से देखने की चाह मे जी रहा हूँ। ये कुछ शब्द जो मुझमें तैर रहे हैं...

हर आदमी में होते हैं दो-चार आदमी
जिसको भी देखना, कई बार देखना
बेहताशा छवि बनाकर रहता है आदमी
दूसरों की नज़र में हैं, आम आदमी
ख़ुद की नज़र में हैं, जहांन आदमी
दूनियाँ जिसको कहती आदमी
वो आदमी कहता है की, सारी दूनियाँ आदमी

मुझे दिवाना कहकर बुलाते हैं आदमी
मैं कहता हूँ की, हर दिवाना है आदमी
जब कोई हाथ पसारता है तो
बाँटने के लिए खड़ा होता है आदमी

यूँ चंद पंक़्तियों में नहीं हो सकता बयाँ आदमी
ज़िन्दगी के हर सफ़र में शामिल है आदमी
कहते हैं शायर की बहुरूपिया है आदमी
अपनी गलियों में ख़ुद खोया है आदमी

ख़ुद से नाराज नहीं आदमी
ख़ुद से खुश है आदमी
अपनी ख़ुशबू को चारों तरफ बिखेरता है आदमी
जब दर्द होता है तो मुस्कुराता है आदमी

काँटों में फूलों की सेज बनाता है आदमी
इतनी सुहानी ज़िन्दगी जीता है आदमी
नहीं होता मायूस सदाबहार रहता है आदमी
किस्मत के लेखे को बदलता है आदमी

झील सी आँखों में तैरती कश्ती है आदमी
तारों को छूने की फिराक़ में रहता है आदमी
धरती की गोद में नवजातशीशू की तरह खेलता है आदमी
माँ बनके अपनी ममता दूसरों पर लूटाता है आदमी

किसी मनचले की अदा है आदमी
ख़ुदा के हाथों की बनाई मूरत है आदमी

मुसाफिर है आदमी, साथी है आदमी
दिया है आदमी, बाती है आदमी
जाता है आदमी, आता है आदमी

सम्बधों को निभाता है आदमी
दूसरों के आँसुओं को पीता है आदमी
ज़िन्दगी के सफ़र को मज़ा समझ कर जीता है आदमी

राकेश

तसल्ली मे ख़्याब

दिन बितते जा रहे हैं और उनके अन्दर की तसल्ली बड़ती जा रही है। ये तसल्ली इत्मिनान से बैठने के समान नहीं है। यहाँ से सपनों की दुनिया आरम्भ होती जाती है। वे सपने जिन्हे अब हकीकत मे बदलने का समय नजदीक आने लगा हो। वे सपने जिन्हे कभी आँख बन्द करके देखा भी नहीं था। वे सपने जिन्हे कभी किसी से बोला भी नहीं था और वे सपने जिन्हे ये मानकर जीया था कि ये कभी पूरे होगें इसका भी अन्दाजा नहीं था। ये सपना भी उन सपनों की भांति भूल जाने की जिद्द करता जैसे आधी रात मे आती गहरी नींद मे आते सपनों के साथ होता है। जो याद रखने से लड़ते हैं।

इन सपनों मे जितनी निर्मलता थी उतनी ही इस सपने मे पीड़ा, लेकिन देखने से अनटोक भी नहीं कर सकते थे। ये बेहद हल्का अहसास था। जिसे बताया या समझाया नहीं जा सकता था। बस, निभाने की मुहीम चलाई जा सकती थी।

आँख अभी उनकी पूरी तरह से खुली नहीं थी। ऐसा लगता था जैसे वे आँख खोलना भी नहीं चाहती थी। मैं उनके दरवाजें पर खड़ा ये इन्तजार कर रहा था कि वे कुछ बोले। लेकिन वे अभी आधी नींद मे थी। उनके कागज़ातों मे कुछ कमी थी। जिसकी वज़ह से उनसे जितनी भी बार मिला उतनी ही बार वे उन कागज़ातों से ही डर जाती। उनका डर उनके लिए जैसे चुभने के समान बन जाता।

वे खड़े होकर बड़ी सहजता से मुस्कुराते हुए बोली, "दुआ से सब कबूल हो जाये। ये मेरे अकेले की दुआ नहीं है। इसमें वे सभी है जो हमारी तरह आज सपनों मे खोए हुए हैं। ऊपर वाला सबकी फरियाद सुनले। हे मेरे मौला। आज तो ऐसा लगा एक पल के लिए जैसे हम यहाँ पर थे ही नहीं। एक बड़ी सी जगह में हो। सारे थे वहाँ जो हमे जानते थे। बस, बारिसो मे न भेजें ये हमें, पूरे भीग जायेगें। डर लगता है जब बारिशों मे कहीं इस तरह से भेजा जाये तो। अभी भी डर सा लग रहा है। खुले से माहौल में सारे समान को बचाकर रखे या ख़ुद को। कभी न रहने दिया था हमें ऐसे खुले में आज हम ऐसे ही बैठे रहे थे। नींद पर काबू हो गया है। सपनों में किसी तीसरी दुनिया के चित्र दिमाग मे घूमने लगते हैं। ये कहाँ के है वे तो मालुम नहीं है बस, अच्छी बात ये है कि वहाँ पर हम अकेले न है। खूब मिट्टी की भीनी-भीनी खुशबू भर रही है चारों ओर। हे भइया कहाँ के बारे मे जिक्र हुआ है देने वालों के बीच में? कहाँ पर भेजेंगे हमे ये लोग? बनाने की फिक्र नहीं हैं अब तो हमें, अल्ला मियाँ ने ख़्याब मे सब रोशन कर दिया है। जब किसी जगह पर बैठा दिया है तो बनवा भी जरूर देगा। इसकी फिक्र न है।

हम सभी दूर-दूर से जाकर कुछ-कुछ समान उठाकर ला रहे हैं। मेरे तो मियाँ ने बड़े-बड़े पत्थरों का भी इन्तजाम कर दिया है। सोने के लिए तो ये ही काफी होगें हमारे लिए। मैंने जमीन पर बहुत अच्छे से पानी का छिड़काव करके झाडू से सारा आलम पाक कर दिया है। अभी तो रात काफी हो गई थी नहीं तो सारा का सारा आज ही बना देते। चारपाई तो हमारे पास है ही। मगर मेरे मियाँ ने उसके चारों बाँस निकालकर जमीन मे गाड़ दिए है और उनपर चड़ा दी है चद्दरें। अच्छा हुआ मैंने चद्दरें पहले ही खरीद ली थी। जो आज काम मे आ गई। फिर उन बड़े-बड़े पत्थरों को एक सार रखकर हमनें सोने का इंतजाम किया। आज रात मे तो हम बिना कुछ खाये ही सो गए थे। मेरे मियाँ ने पहले ही कह दिया था कि जो कुछ हाथ लगे खाते चलना, क्या पता वहाँ क्या मिले या न मिले। इसलिए मैंने तो पहले ही अंजीरे खा लिए थे। रात बहुत हो गई है, जमीन मे ऐसा लग रहा है जैसे कुछ चल रहा है। जब पत्थर के नीचे हाथ डाला तो पता लगा की पानी बह रहा है। बारिस हो रही है। चद्दर के आरपार रोशनी दिखाई देती रही है। हमारा ये घर शायद बस्ती के बीच मे है। हर तरफ की चादर मे से रोशनी नज़र आ रही है। रात भर बड़ी सुहानी नींद आई और देखो जब आँख खुली तो यहीं पर थे। ये ख़्याब नहीं था, ये अल्ला मियाँ ने इशारा किया है की हमें उसने आसरा दे दिया है।"


आज इतने दिनों मे पहली बार उनके चेहरे पर हँसी देखकर बहुत सुकुन पँहुच रहा था। ये अचानक कैसे हुआ? ये मैं समझना नहीं चाहता था लेकिन कुछ जानने की इच्छा हो रही थी। वे हीटर जलाते हुए बोले जा रही थी और मैं वहीं पर खड़ा ये सब सुने जा रहा था। पहले तो सोचने लगा की ये स्वाभाविक है कि कुछ चीज़ जब अपनी जगह से हिलने लगती है तो उसकी कल्पानिक जगह के चित्र ख़्याबों मे उतर आते हैं। फिर सोचा की ये वक़्त बहुत हावी है जिससे दिमाग उसे भूलना ही नहीं चाहता। मगर क्या ये सच मे स्वाभाविक है? उनके चेहरे से जब ये भरपूर चित्र निकलते तो कुछ भी ऐसा नहीं लगता जैसे वक़्त अपना वज़ूद खो बैठा है।

चाय का पानी खौल चुका है उनका ध्यान यहाँ पर बिलकुल भी नहीं है। वे अपने सिर पर हाथ रखे बैठी हैं, "मैं तो बस, यही चाहती हूँ की सब एक ही जगह पर रहें। कहने को तो वो सब हो जायेगे जो इंसान करना चाहता है। लेकिन बस, आसपास के लोग साथ रहे, दूर ही सही लेकिन दिखते रहे तो सब बहुत जल्दी से हो जाता है।"


लख्मी

टीवी और बेटियों का जादू

आज के बदलते समय ने इतिहास को नये सिरे से कहना आरम्भ कर दिया है। पश्चिम सभ्यता के मुकाबले औरत को हमारे यहाँ भी ऊँचा दर्जा दिया जाने लगा है। जन्म से ही जिसकी ज़िन्दगी ख़तरों से, अत्याचारों से जुझती रही फिर भी कभी मुँह से ज़ुँबान न निकाली। आज देश के कठोर निर्णयनों-कानून ने वो पल्टिमारी की सत्ता को भी इस मामले मे गम्भीरता से सोचना पड़ गया।

जागरूकता की आग से वो लपटे उठी की इसने सबको अपने साथ ले लिया ।
अब हर जगह महिलाओं को पहला दर्जा दिया जाता है हर महकमे मे। ये ज़्यादा तर सम्भव हुआ है टीवी चैनलो के और कई परिवारों के लाडले कार्यक्रमों से। धीरे-धीरे महिलाओं और बच्चियों पर आधारी उपन्नयासो से जो लोगों के दिलों में जगह बनी है। वो जगह आज दूसरे क्षेत्रो पर चढ़ाई करने को अमादा है। बात है की पहले सास-बहु, जेठानी-देवरानी की डिमांड होती थी। आज लोगों की प्यारी राजदूलारी बेटियों ने हर चेहरे पर जादू कर दिया है।

कुकू नारण के परिवार मे किसी चीज की कमी नहीं थी बस, वो मालिक से बेटी की दुआ माँगते थे। उन्हे अपने घर मे जो खुशियाँ बिखेर दे उस बेटी की चाहत थी। बेटी के आते ही घर जैसे स्वर्ग बन गया। हर तरक्की कदम चूमने लगी। जैसे पहले लोग बेटो को लेकर रियेक्ट करते थे वही जगह अब बेटियों ने ले ली है। बेटा गोन बेटी कमींग।

सो अब हर जगह दिलो-दिमाग पर बेटियों का जादू बोल रहा है और खिताब सीधा टीवी को जाता है। आज अगर कोई ग्रहणी घर की कल्पना करती है तो वो सबसे पहले कहती है "एक घर होगा, उसमे एक बड़ा सा टीवी होगा" अब आप ही बताइये की घर में टीवी की जो हैसियत है वो किसी और चीज़ की नहीं है। सदियो से इंसान एक-दूसरे के गाँव-गाँव जाकर सूचना और प्रचार का साधन ख़ुद ही बनते थे जिससे वो लोगों को पुरी तरह सें जागरूप करने में असमर्थ रहते थे। वक़्त ने वो कर दिखाया जो इतिहात मे कभी न हुआ अगर हुआ तो उस जोश ने दम तोड़ दिया।आज ज़िन्दगी इतनी तेज और कुशल हो गई है की जीनें का ढ़ंग ही बदल गया है। लोगों के दिलों में टीवी राज कर रहा है और उस से जुड़े धारावाहिक जो रोज़ की ज़िन्दगी में तरह-तरह के चेहरों के साथ रिश्तों के गठबंधन कर रहे हैं।

दिलो पर छा जाने वाले नाटकों में आज की लिस्ट में सबसे ऊपर का नाम है। "सब की लाडली बेबो।" बेबो के बाद फिर दूसरी बेटियो का नाम भी है। जो नाम टीवी की जान है। इस मे कई चैनलों की साझेदारी है। स्टार प्लस, सोनी, कलर्स, एनडीटीवी वगेहरा। जो बेटियों के तरह तरह के पात्रों से सम्बधित है जो पारिवारिक ढ़ाँचो को नये सिरे से दिखाते हैं। हमारे यहाँ भी कुछ ऐसी ही घटनाये जन्म लेने लगी हैं। बेटो की जगह अब बेटियों ने माँ-बाप का बोझ उठाने की ठान ली है। कहीं आत्मनिर्भता की कहानी है तो कही बेटियों की ममता के आगे सब घुटने टेक देते हैं। कहीं बेटिया माँ-बाप का दुख दूर करने के प्रयास कर रही हैं तो कहीं ज़िन्दगी के हर मोड़ पर समाज से लड़ रही हैं। कहा जा रहा है की अब वो दिन दूर नहीं जब लड़कियाँ भी लड़को की तरह अपने परीवार की तरह सारी जिम्मेंदारियों को निभायेगीं और ये कोई हैरत की बात नहीं। ऐसी कई लडकियाँ है जो ये अपनी भूमिका बखूबी निभाती आ रही हैं। इतिसाह गवाह रहा है की महिलाओ ने कैसे वक़्त से लोहा लिया है।

टीवी ने लोगों की ज़िन्दगी को सच से रू-ब-रू कराने की मुहीम छेड़ दी है। इस के जोहर के कारण हर मानवता पर ध्यान आकर्षित किया जा रहा है। सब के मनों में एक-दूसरे के लिए प्रेम भावना को लाया जा रहा है। वो मंच तैयार हो रहा है जिसपर सबका अपना ख़ास क़िरदार है और हर क़िरदार दूसरे का पहलू बना है।


राकेश

मैं बेखौफ़ जीता हूँ

मैं बेखौफ़ जीता हूँ मगर मुझे अनहोनी से लगता है डर
सब कुछ ठीक क्यों नहीं चलता लगी रहती है रोज़ाना कोई फिकर।

मैं लाख कोशिशें करूँ बार-बार भागूं
मगर वो डर मेरी परछाई को भी नहीं छोड़ता
स्वंय को बचाने के लिए किसी स्वंय को मारना पड़ता है।
चला जाता हूँ जिस तरफ आग ही आग नज़र आती है
ये तो कोई अग्निपथ है जिसमें ज़िन्दगी जली जाती है।

घाव इतने बने हैं शरीर पर कि लगाने को दवा कम पड़ती है
मुझे कोई तो हमदर्दी दिखाओ दोस्तों
आज जीने को ज़िन्दगी कम पड़ती है।


मैं बेचैन रहता हूँ ये सोचकर की मैं कौन हूँ
आइना न मुझे दिखाओ दोस्तों
इस में कोई अन्जानी सी शक़्ल दिखती है।

जब शहर में कोई आंधी आती है
धूल, मिट्टी और बहुत से कण ले आती है
ये तो मौसम है इसका क्या भरोसा
कभी-कभी अपनो से भी तकलीफ हो जाती है।

इस तकलीफ को मेरी कमजोरी न समझना दोस्तों
मेरी तबीयत तो बस, यूँ ही बिगड़ जाती है
इसमें किसी का दोष नहीं
मेरी भूख ही ऐसी है जो मुझे
रह-रह कर भटकाती है।

किसी गिद्ध की तरह मेरा मन उडता है
होता कहीं और कहीं और देखता है
मेरा यकिन करना ही मेरी उलझन बन जाती है
जो मुझे सच के विपरीत सपने दिखाती है
अक्सर मुझे कोई नींद अपने पास बुलाती है।

राकेश