Monday, April 20, 2009

खोया सा है सब कुछ बाजार में

एक आदमी सड़क के किनारे बसी एक बस्ती में रहता था। सड़क के दूसरी ओर वो काम भी करता था। हर रोज सुबह जल्दी-जल्दी में ही मगर नवाबों की तरह तैयार होता और पैरों मे चप्पल ठूसकर वो सड़क के किनारे खड़ा हो जाता। सड़क पार करने की चाह में वे हमेशा किनारे पर ही खड़ा होकर सड़क के दूसरी ओर देखता रहता। अपने पजामे मे अपने तलवे से उठाकर बस, कभी आगे तो कभी पीछे होता रहता था। सड़क की दूसरी ओर कहो या सड़क को पार करना उसे दस मिनट तो हमेशा लगते थे।

वो आदमी इस दस मिनट के अन्तराल मे काफी शौर भी सुनता था। सड़क की दूसरी ओर पँहुचकर वो अपने हिस्से की जगह को साफ भी करता था और वहीं पर अपनी दुकानदारी चलता था।

कभी-कभी वो आदमी जल्दी घर चला आता तो बीवी के लिए कुछ न कुछ जरूर लाता था। कभी अगर दिन अच्छा निकल जाता तो बीवी के साथ घंटों बैठकर बातें भी करता था और रात में बिस्तर पर दुलार भी करता था। उसी पल मे वो आदमी दिनभर के बारे मे बड़े प्यार से बतलाता भी था और अगर दिन कभी अच्छा न गुजर पाता था तो वो आदमी शाम मे चुपचाप बैठ जाया करता था। रात के खाने मे कोई न कोई नुक्स निकालकर खाना आधे मे ही छोड़ दिया करता था। खाना अधभर खाकर कुछ ऐसे खामोश हो जाया करता कि जैसे आज अपने घर मे नहीं किसी किराये के मकान मे सो रहा है और साथ मे सोने वाली उसकी बीवी नहीं बल्की सरकारी अस्पताल में बिस्टर बाँटने वाला कोई दूसरा मरीज है।

मगर वो आदमी छुट्टी के दिन को बड़ी ताज़गी से बिताता था। जब भी कोई छुट्टी घोषित होती तो वो सबसे पहले अपना काम बन्ध करकर घर में ही बैठ जाया करता। बिना नहाये-धोये वो आदमी दरवाजे पर बैठकर आसपास की जगहें मे नज़रे घुमाता रहता, थोड़ी देर तक उसका यहीं काम लगातार चलता रहता था। चारों ओर नज़रों मे घुमाता और बस, बैठा रहता था। उसके बाद बाँध कमर मे स्वापी काँधे पर डाल तोलिया वो बाहर की तरफ चला जाता। जहाँ पर लोग खड़े या बैठे दिखते कुछ देर वहीं पर खड़ा होकर वो उनमे शामिल होता। नहीं तो रिक्सेवालों के यहाँ जाकर उनके खेलो में घुस जाया करता था।

बाद में जब मन भर जाया करता था तो उठाये थैला वो कभी-कभी बाजार सब्जी लेने भी चला जाया करता था। हाथ मे पाँच किलो का थैला उठाये वे पचास ग्राहकों को मन मे रखकर बाजार में घुस जाया करता था।

बाजार से उसका रिश्ता पाँच किलो या ज़्यादा से ज़्यादा दस किलो तक की सब्जी लाने ले जाने से ही हुआ करता था। ऐसा नहीं था की वो आदमी खरीदारी के बारे मे कुछ जानता नहीं था, बाजार में घूमने के मज़े वो पहचानता नहीं था। हफ़्ते मे वो एक बार ही सही मगर बाजार से उसका रिश्ता काफी पुराना था।

सवेरे - सवेरे ही वो बाजार चला जाया करता था। पहले दो घण्टे वो सिर्फ वहाँ पर दुकान-दुकान देखता फिरता, सब्जियों के रेट पुछता फिरता। कुछ को अपने हाथों से दबाता, कुछ को नौंचता और जब चीज़ भा जाती तब वहाँ पर बैठ जाया करता था।

आज भी छट्टी का ही दिन है। वो आदमी अब सड़क के दूसरी ओर को भूल गया है। सड़क के दोनों किनारे एक-दूसरे से मिल गए हैं मगर सड़क और भी चौड़ी हो गई है। भीड़ भी बड़ गई है। दस मिनट मे सड़क पार करना अब आधे घण्टे मे तब्दील हो गया है। काँधों से काँधे भी टकराने लगे हैं।

वो आदमी हाथ मे थैला उठाये बाजार की तरफ चल दिया। बाजार अब बड़ा हो गया था। बाजार मे दुकाने भी बड़ गई थी। आधी खुली और आधी बन्द। अब बाजार उनके पैरों तले से ही शुरू हो गया था। हाथ में थैला मगर पाँच किलो का ही था। लेकिन उस थैले की कल्पना मे अब ग्राहको की तदात अब अनगिनत थी। वो आदमी सोचकर निकला था की इस थैले मे अपने हिस्से का बाजार भर लायेगा।

कुछ दूर चलने के बाद वहाँ बिछड़े पुराने यार मिले। जो अब पूरी तरह से बाजार के हो चुके थे। उनकी बोली मे भी बाजार की ही बातें थी। चीज़ों को देखने की नज़र भी उनको आँकने के समान थी। हाल-चाल पूछने वाली ज़ुबान मे भी वही नौंचने वाले शब्द थे। कैसा ही हिसाब-किताब कहते फिर माल के बारे पूछते। वो आदमी जानता था कि ये माल किसे कह रहे हैं। वो आदमी कुछ कह नहीं पाता। वो आदमी वहाँ पर खड़ा रहता। वो आदमी अगर कुछ कह पाता था तो बस, “हाँ-हूँ" की ही ज़ुबान बोल पाता।

अब तक तो वो आदमी उन यारों को बस, खामोशी से देखता रहा। बाजार में नज़रे घुमाने लगा। कभी अपने यारों को देखता तो कभी महज़ उनके चेहरे पर ही अटक जाता। पुराने यार मिलने के इस अचम्भित दौर मे वो आदमी सकबका सा रहता। सोच-विचार में पड़ जाता। क्या कहे, क्या कहे के घेरे मे फँस जाता।

वो आदमी अब धीरे-धीरे उनकी बातों को नज़रअंदाज़ करने लगता। वो आदमी वहाँ से निकल जाने की सोचने लगता। यारों के साथ में खड़ा होना आज मन को कसोट रहा था। खुद को भूल जाने पर जोर कर रहा था। मगर वो आदमी खुद को याद रखना चाहता था।

सड़क के दूसरी ओर का ठिकाना याद रखने से अब कोई फायदा भी नहीं था। इस ओर से उस आदमी का लगाव गहरा हो गया था। पाँच किलो के थैले में अनगिनत लोगों की कल्पना उसके घर से ही शुरू हो जाती थी। यारों को अलविदा करके वो आदमी अपने घर की तरफ चल दिया था। इस पाँच मिनट के रास्ते मे वो आदमी अपने घर को भूला चुका था। याद रहता तो बस, घर का दरवाजा, वहाँ जाने का रास्ता और पाँच किलो का थैला। उसके साथ-साथ सड़क की दोनों ओर। घर तो कहीं खो गया था।

सड़क के दोनों किनारे एक हो जाने से लोग बहुत नज़र आते थे। कौन कहाँ जा रहा है? कहाँ से आया है? ये कोई नहीं जान सकता था। कभी-कभी तो लगता जैसे सभी एक-दूसरे के साथ हैं। ‌वो आदमी रास्ते मे यारों की बातें याद करता हुआ घर की तरफ मे बड़ता जाता। यादों मे दोस्त की बातें और बीते समय के दृश्य घूमते चलते। वो आदमी उनको याद करके मुस्कुराता चलता। कभी-कभी पीछ मुड़कर भी देख लिया करता था।

एक यार अपने यहाँ खाने पर बुला रहा था, “कभी तो आ जाया करों मौत या ज़िन्दगी की पूछने" कहकर जलील कर रहा था।

वो आदमी यार की बात सुनकर थोड़ा मुस्कुरा देता। "जरूर आयेगें" कहकर उसे शांत करता। पुराने दिन वापस आयेगे सोचकर मन ही मन उसका शुक्रियाअदा भी करता। दिमाग मे कोई न कोई दिन पहले से ही तय कर लिया करता। सारे काम उस दिन से पहले या उस दिन के बाद कर लेगा ये भी सोच लिया करता था। चलते-चलते वो यारों से दूर हो जाने का वो अफसोस भी करता था।

पाँच मिनट का रास्ता ख़त्म भी हो गया था। वो आदमी अपने घर के दरवाजे पर आते-आते बाजार की सारी बातें वो भूल जाया करता था। बस, कभी-कभी जब कोई बात नहीं होती थी करने को तो वो यारों की बातें छेड़कर अपनी बीवी को पुराने दिनो के बारे में बड़ा-चड़ाकर बताया करता था और मज़े लूटता था। बीवी के आगे यारों का यार साबित करके वो मन ही मन मुस्कुराता भी था।

सड़क के किनारे भले ही मिल गए थे। लोग भी घने गुज़रने लगे थे। वो आदमी उन सभी लोगों को अपने पाँच किलो के थैले से ही देखता था। बस, बातों ही बातों मे यार बनाता और रोटियाँ बेलता था। सबको खाना खिलाता था। घर पँहुचकर वो आदमी अपना घर हमेशा खोजता था मगर कभी घर मिलता नहीं था।

लख्मी

No comments: