Friday, May 8, 2009

दुनिया से बातें...

वक़्त मे बहती यादों के साथ लड़ने के लिए कहीं खड़ा है आदमी।
जिसे भूलने से डरता है उसी को दोहराता है आदमी।
एक आदमी काम करके रोज़ थक जाया करता था।
कहीं थककर बैठकर किसी न किसी से बतिआया करता था।

शाम के पानी आने वक़्त हो चला था। गिरधर जी रोज़ाना की ही तरह से पानी के इंतजार में तैयार खड़े थे। पानी भरना तो उनका एक बड़ा ही खूबसूरत बहाना है। वो उस समूह से मिलने की कोशिश में हमेशा रहते जिसे वो दूर ही दूर से चाहने लगे थे। एक बार कोई जरा कहदे की वो गुट आज यहाँ आने वाला है बस, वो सारे काम-वाम छोड़कर उनका किसी प्रेमिका की तरह से इंतजार किया करते। उन्हे उसी में मज़ा आता था।

ये गुट था जगह-जगह पर जाकर कुछ किताबें पढ़ने के लिए बाँटने वाला। चाहें वे किसी धर्म की हो या फिर किसी आस्था की, वे शहरों मे इन किताबों के पाठक तलाशते थे। कभी सड़क के किनारे खड़े हो जाते तो कभी जानने वालो के जरिये उनके जानने वालो के घर में चले जाते। बस, इस किताब के बारे में कभी कहते तो कभी इंसानी नितियों और चलने के बारे में गहरी बातें करते पाठकों के मनों को क्षुक्क्षम करते। लेकिन किताबों की चाहत उनके मन में हमेशा ताज़ी रहती। उनकी इन कोशिशों से आसपास को देखने का मन बहुत रोशन हो जाता।

अनेकों लोगों से खूब बातें करना और उनको किताबों के बारे में बोलना। यही काम भाता था गिरधर जी को। वे किताबों के रक्षक हैं, ये कहना बहुत अटपटा लगता है लेकिन लोग उन्हे ऐसा कहते हैं। उन्हे हर तरह कि किताबों को जमा करने में बेहद सुख मिलता है। किताबों के लिए उनका उतावलापन देखने से बनता है। कभी-कभी तो किसी कबाड़ जमा करने वाले के साथ बैठे मिलते हैं।

उनकी गली के बाहर थोड़ी पास में ही एक कबाड़ी की दुकान है। उनके यहाँ पर हर हफ्ते में दो बार रद्दी आती है। वो उन बोरियों मे घुसे रहते हैं। अगर उसमे कोई पढ़ने लायक किताब मिल जाये तो उसे वे फौरन रख लेते हैं और अपनी झोली के वज़न मे बढ़ोत्तरी कर लेते है।

वो सरकारी नौकरी करते थे, अपनी हर तंख़्वया पर उनका किसी न किसी किताब का घर में लाना तो तय रहता था। उन्हे सबसे ज़्यादा अगर कुछ पसंद था तो वो था, लोकगीतों की किताबों को पढ़ना। उनका मानना था की वो किताबें जो कहीं नहीं पढ़ी जाती वो अक्सर कबाड़ी के थैलो में मिल जाती है। उनके पास अपने घर में भरमार है किताबों की, लेकिन इस भागदौड़ में वो किसी कौने में पढ़ी है तो कभी कोइ पढ़ने ले गया तो वापस ही नहीं आता।

एक बार वो कह रहे थे, "किताबें किसी फोटोएल्बम से कम नहीं होती एक बार कोई ले गया तो वापस ही नहीं लाता। अपने पसंद की कोई न कोई चीज़ वो रख लेता है।"

पानी के चक्कर मे वो काफी देर तक वहीं खड़े रहे। काम करना तो अब बन्द हो गया है और किताबें लेना भी तो उन्ही गुट के इंतजार मे लगे रहते हैं। छोटी-छोटी कहानियों में बसते ज्ञान और संतुष्टी की बातें उनको भाने लगी हैं।

आने वाले समय मे क्या रह जायेगा?, आने वाला समय कैसा होगा?, हम जो कर रहे हैं वो आखिर में क्या है? इंसान के लिए आखिर में क्या रहने वाला है? हमारा आज किसी तरह की ओर है? और हमारे कहने-सुनने और संगत बनाने में हमें क्या अभी सोचना बाकी है?

इन सवालों से वो किताबें भरी रहती हैं। इन सवालों के हल क्या हैं उसे सोचने से पहले उन कहानियों मे जो लोग हैं उन्हे ढूँढना ही किसी शिकार की तरह है। उनको चश्का लगा है इन सवालों से अब सभी को देखने का। वो जो अभी तक देख पाये हैं वो क्या था? और उनको अभी और क्या देखने को मिलने वाला है? वे बेहद खुश होते हैं जब वे उन किताबों से पहले उन गुट में से किसी एक से भी बात कर लेते हैं तो।

एक बार उन्ही में से एक शख़्स से बात हुई वो आदमी दीन-धर्म और दुनिया के रचने के बारे में बता रहा था। गिरधर जी को उस आदमी की बोली बहुत मीठी लगी। इतने प्यार से कोई दुनिया को बताता है क्या? और इतने प्यार से कोई दुनिया क्या हो जायेगी ये कहता है क्या? गिरधर जी सब कुछ उतनी ही उदारता से सुन रहे थे जितने स्नेह से वो आदमी बता रहा था।

वो बोला, "आपको पता है दुनिया का जब अन्त होगा तो कौन लोग बचेगें?, आपको पता है जब ऊपर वाला नीचे आयेगा तो कौन उनका सामना कर पायेगें?
क्या आपको पता है कि अगर आपसे कहे की आप दुनिया को दोबारा से बनाओ तो आप कैसे बनाओगे और आपकी दुनिया मे कौन लोग होगें?"

गिरधर जी उनको भौचक्के से निहार रहे थे। उनके हाथों में एक मोटी सी किताब थी। गिरधर जी नज़र उसी पर टीकी थी। वे आदमी बीच-बीच में उस किताब को खोलता और एक सवाल उनके सपूत कर देता। शायद ही उस आदमी को भी पता होगा की इन सवालों का अर्थ क्या है?

गिरधर जी बोले, "क्या मैं बिना रिश्तेदारों के दुनिया को सोच सकता हूँ? क्या मैं बिना काम के सोच सकता हूँ? ये ही तो दुविधा है की मैं मरने के बाद ही ये सब सो पाउँगा, अगर मैं इसी दुनिया में वापस आऊँगा तो दुनिया बनाने में मज़ा ही क्या है? मैं भी कभी-कभ सोचता हूँ की कितनों के सपनों मे भगवान दर्शन दे जाते हैं मैं इतनी कोशिश करता हूँ लेकिन मेरे सपनों में वो एक बार भी नहीं आये। मुझसे कुछ नहीं कहते।"

वो आदमी बोला, "ऊपर वाले की कोई आवाज़ नहीं है, ये सब आपकी खुद की आवाज़ है। जो आप सुनना चाहोगें, करना चाहोगे। उसी मे ऊपर वाला आपके साथ होगा। बस, वो काम और बात कहने और करने वाली होनी चाहिये।"

गिरधर जी बोले, "मुझे नौकरी करते हुए 30 साल होने वाले हैं। मैंने बहुत सारे काम किये उनमे मैंने जो अपने मन से किये उनकी तो गिनती ही नहीं है। उसे कौन पूछता है, वो सब तो भूलने के लिए होते हैं। ये भी सब पढ़कर और सुनकर भूल जायेगें।"

वो आदमी बोला, "हम आपको ये किताब देते हैं, इसे पढ़कर आप नहीं भूलेगे। मगर हाँ आपको इस किताब को मन से पढ़ना होगा।"

गिरधर जी बोले, "हाँ मैं बहुत दिल से पढूँगा।"

गिरधर जी ने उस किताब को अपने माथे से लगाया और उसे अपने गोद में रख लिया। वो दिन है और आज का दिन है। गिरधर जी के पास ना जाने कितनी किताबे हो गई हैं। ये पहली किताब थी, आज उनके पास में बहुत सारी किताबे हैं और किताबें खोजने का चश्का बड़ गया है। वो भी उनके साथ मे किताबों के बारे लोगों से बातें करने के लिए जाते हैं। उनके पास किताबों में खाली सवाल ही नहीं बल्की वो बातें करने की चाहत भी है जिसके चलते वे इस पाठकों की दुनिया में शामिल हुए हैं।

कहते हैं, "लोगों से उन सवालों पर बातें करने में मज़ा आता है जिनके बारे में उन्हे पता नहीं है लेकिन उस सवाल के आने पर वो डर जरूर जाते हैं। कुछ बहस पर अड़ जाते हैं। कहते है हम तो ऐसे ही ठीक है, कुछ किताब को हाथ में लेने से डरते हैं, कुछ खाम्खा में कहते हैं आपने देखी है दुनिया तो कोई कहते है सब कुछ यहीं पर रख है। इतनी लाइनें सुनी है इस गुट मे शामिल होकर की डर से कैसे छुटा जाता है वो समझ में आया है।

उनका आज भी पाठक तलाश्ने का का जारी है। आपको वो कहीं भी मिल सकते हैं। किसी के घर में, गली में, सड़क पर, पार्क में, बस में या फिर आपके खुद के घर में।

लख्मी

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