Tuesday, May 26, 2009

समय का खुक्ख होना क्या है?

किसी जगह का बनना, उसका चलना और उसका मिटना। इसके अलावा भी किसी जगह को किस वज़ह से अपने में दोहराया जाता है? जगह का चुप होना, उसका फैलाव होना होता है या चुप्पी ठहराव की दास्ताँ बताती है? समय का खुक्ख होना क्या है?

पिछले दिनों जिस जगह से मेरा वास्ता रहा वो जगह किसी भी मायने मे उतरने से कभी नहीं चूकती। वे रहने की जगह भी है, खेलने की भी, कामग़ार समाज के अन्दर जीने वाली थी और एक ऐसी जगह के रूप मे भी वो समा जाती है जहाँ पर रहना, जमना और किसी से नाज़ुक रिश्ते बनाकर चले जाना और फिर दोबारा से नई जगहें तलाशना। ये जगह खुद मे कई ऐसे हमराज़ अपने मे समाये जीती है। वक़्त के बितने और कहीं छुप जाने से क्या होता?, हर रोज़ से आज किसी ग़ेर वक़्त मे इस जगह से मिला।

आज जैसे किसी के पास कुछ बचा ही नहीं है। खाली हो गया है सब। या हमें क्या मालुम कि शायद जिनसे हम मिले हैं, वे इस ख़ुद के खुक्ख होने को जीवन मानते हैं।

आज इस जगह पर लोगों से बात करने के बाद में ऐसा व्यतित हुआ जैसे चाहें किसी भी जगह को बनाने के गुण लिए लोग चले आते हो लेकिन इसके अलावा कुछ और भी है जो बताया जाता है। वे क्या है? उसी की तलाश में रिश्ते भटकते हैं और ठिकाने उजड़ते हैं। पर उस छोर तक पहुँचने मे कुछ कसर बाकि रह ही जाती है हर बार।

यहाँ सवाल का बवाल ये नहीं है कि ये जगह शायद कुछ दिनों के बाद में यहाँ पर रहेगी नहीं। ये बात किसी के मन में हो या न हो, मगर उससे पहले दिमाग में इस जगह के वे पल दोहराने की कोशिश है जो याद रखें जायेगें। वे क्या होगा जिससे ये जगह याद रह जायेगी? वे कौन से दृश्य होगें जिससे यहाँ के हर वक़्त को तस्वीरों में उतारा जायेगा? और सबसे बड़ी बात ये की यहाँ पर ऐसा क्या है जिसे छोड़कर जाया जायेगा? जिससे इस जगह को महीनो तक दिलों में यूहीं का यूही रखा जा सकेगा? ये सब कुछ बेकार की बातें हैं। भला ऐसा भी कभी होता है कि कोई किसी जगह से उठ खड़ा हो जाये तो उसकी महक उस शख़्स मे नहीं रहती? या किसी को उसी की बनाई जगह से उठा दिया जाये तो वे कभी उस तरफ मुड़कर भी नहीं देखेगा? ये कभी नहीं होता। दरअसल बात ये भी नहीं है, सारा माज़रा तो ये ही की इस जगह की महक क्या है जो यहाँ के होने का अहसास भर पायेगी? ये महक यहाँ इस जगह की है या लोगों की है? यहाँ के बासिदों की है जो यहाँ रहते नहीं लेकिन आते-जाते हैं? या उनकी है जो यहाँ पर कुछ बनाते हैं। जगह की भूमिका हो या न हो लेकिन कई हाथ पसारे लोगों ने इसे भूमिकृत बना दिया है। इसलिए ये जगह बोल सकती है, घूम सकती है, भाग सकती है, बस सकती है और बसा भी सकती है। भले ही इसके हाथ-पाँव हो या न हो।

एक शख़्स से बात करने पर लगा जैसे कुछ चीज़ें और बातें फब्ती की भांति होती हैं। जिसे भुलाना पड़ता है। याद रखने की कोई जरूरत नहीं होती। वो ख़ुद से पूछ पाता है कि याद रखने से क्या ज़िन्दगी वैसी नहीं रहेगी जैसी चल रही है? या याद रखने से कुछ नया जुड़ता जायेगा?

ऐसे ही कुछ सवाल रोज़ अपने से पूछ पाते हैं। मैं यहाँ पर कई दिनों से आ-जा रहा हूँ, लेकिन इतने दिनों के बाद भी ये समझना मुश्किल है कि यहाँ के कोन से छोर को लोग अपने नजदीक मानते हैं। इस जगह के कई छोर हैं। जो ख़ुद से बनाये गए हैं। ये वे नहीं है जो दिखते हैं या वे नहीं है जिनसे आया-जाया जाता है। ये वे हैं जिन्हे एक-दूसरे के लिए घोषित किया गया है। जहाँ एक-दूसरे मे शामिल होने की ललक उभरती है। मैंने उनसे कुछ पूछने की कोशिश की, यही के क्या यहाँ पर सबसे पुराने आप हैं? और ये काम यहाँ कितना पुराना है?

वे बोले, "यहाँ पर ये काम या कोई और काम कितना पुराना है वे छोड़ों, पहले ये पूछों की ये जगह है किस की? हमारी सुनो तो हम बस, इतना जानते हैं की ये जगह किसी की थी ही नहीं। न तो उसकी जो हमें यहाँ पर लाया, न उसकी जिसने हमें यहाँ पर बैठाया, न ही उसकी जिसने ये जगह बनाई-बसाई और न ही उसकी होगी जो हमें यहाँ से भगायेगा और तो और ये जगह तो हमारी भी नहीं है। असीलियत बतायें तो ये जगह उनकी हैं जो यहाँ पर बिना बजाये अपनी चीज़ें रख या बैच जाता है। ये जगह उनकी है जो एक-दूसरे के आसरे यहाँ पर रह जाते हैं। हम मानते हैं की हम तो यहाँ इस जगह के उपयोगकर्ता हैं। अब तक इस जगह ने सबको उपयोग करना अच्छे तरह से सिखा दिया हैं।"

गोदाम के बाहर एक शख़्स नींबू पानी की रेहड़ी लगाकर खड़ा था उसने कहा, "भाइए लोग यहाँ कबके भूल चुकें हैं कि इस जगह पर किसका तख़्ता ठुका था। ये भी गवाँ बैठे हैं हमें यहाँ पर ठिकाना किसी ने क्यों दिया। जब तक हम यहाँ पर आवाराओं की तरह नहीं फिरेगें तब तक ये फलेगी भी नहीं। यहीं का यहीं पर रह जायेगा। इस जगह के इस कब्रिस्तान को बड़े होते वक़्त नहीं लगेगा।"

एक शख़्स अपने एक हाथ की उंगलियों में एक छोटा सा गुलाब का फूल फसायें पूरे इलाके में घूम रहा था। कभी-कभी किसी कोने में खड़ा होकर किसी के पास जाकर पूछने लगता तो कभी किसी कोने में अकेला ही खड़ा हो जाता। उससे ये पूछने में डर लग रहा था कि वे यहाँ पर कैसे आया। बड़ा तेज़ था उसके चेहरे में। वे बोला, "हमारी ज़िन्दगी जब गठ्ठरों मे गुज़र गई तब पूछ रहे हो कि यहाँ पर कैसे? हम तो यहीं के हैं। मान लो कि हमारी तो पैदाइश ही यहीं की है। कभी-कभी नराज़गी चलती है यहाँ से लेकिन ज़्यादा दिन तक दूरी रहती नहीं हैं ये खींच ही लाती है मेरे को यहाँ। एक बड़ी गुप बात बताऊँ, ये अन्दर की बात है ये जगह मेरे को साँस देती है। इस जगह में मेरे कई बार जान बचाई है। आज भी बचा रही है। मुझे इतना याद है कि मुझे कोई अपने कांधों पर धर कर लाया था। मैं बहुत नशे में था। आज भी हूँ। बाकि सब भूल गया हूँ।"

मुर्गे का मीठ बैचने वाले एक शख़्स जो साथ वाले अंडे के पराठें बैचने वाले से 19 अंडों की मारामारी के कारण झगड़ रहा था। लगभग 20 मिनट की जबरदस्त चिल्लाचिल्ली के बाद में वो मामला सुलझा। असल में पिछले दिन ये नहीं आया था इसकी जगह पर इसका भांजा आया था। वो लोगों से पिछले माल के बकाया पैसे ले गया था। जिसे भांजा मानने से ये शख़्स इनकार कर रहा था। ये कह रहा था कि मेरा तो कोई भांजा ही नहीं है, अंडे के पराठें वाला कह रहा था कि भईए वे ख़ुद ही कह रहा था तभी तो हमने दिये उसको पैसे।

ये गर्मागर्मी जोरों पर रही। ये कहता, "मुल्ला जी ऐसे कैसे आप किसी को भी पैसे दे दोगें। वे कैसे भांजा हो गया मेरा। क्या सकल-सूरत मिलती थी उससे या वे असल में मेरा नाम ले रिया था?"
मुल्ला जी बोले, "ये कहाँ खड़ा है वे भूल गया है तू? यहाँ कोई किसी की सकल से नहीं मिलता लेकिन सब एक दूसरे के रिश्तेदार हैं। पता लगता है तुझे किसी को देखकर। जब वे आ जायेगा भइए अब तो तभी होगा फैसला।"

ये कुछ कह नहीं पाया। बस, इधर से उधर नज़रें घुमाने लगा। फिर दोबारा आया अपनी साइकिल के पास और जमीन पर टाट बिछाकर मुर्गे काटने लगा।

गोदाम के माल से एक टेम्पों कसाकस भर दिया गया था। उसको बाँधने के बाद में एक बेहद पतला सा लड़का टेम्पों को दूर से देखने लगा। साथ में खड़े नींबू पानी बैचने वाले से दो रुपये का नींबू का पानी लिया और चुश्की मारते हुए ऊपर की ओर देखने लगा। उससे ये सवाल पूछने की हिमाकत कर बैठा मैं। वे जैसे अपने हर कदम को रखने पर बेहद उत्कट था। भरपूर इंद्रइयों से जीने वाला। वे अपने तावनुसार होकर बोला, "क्या बोल रहा है भाई? ये जगह मैंने बनाई है। कौन जानता था इस जगह को बता सकते हो? नहीं, ये कैसे बनी ये बताऊँ? जब तक यहाँ से धड़ाधड़ माल यूहीं हमारे हाथों से भरकर जाता रहेगा तब तक ये जब चलती रहेगी। मैंने इस जगह में अपना बहुत वक़्त दिया है। मेरा भाई भी यहीं का है। यहाँ से सारा माल मेरे ही हाथों की मेहनत का फल है। कैसे भर जाना है माल ये मुझसे बेहतर कौन जानता है। ये मैंने बनाई है जगह। मैं हूँ यहाँ का सबसे पहला आदमी।"


इस जगह का पूर्वाभ्यास लेने के समान यहाँ पर बहुत कुछ था और कुछ भी नहीं था। लेकिन ऐसे कई वाक्या व दृश्य हैं जिनसे ये जान लेना बेहद मुश्किल है कि प्रदर्शन के पहले क्या होने वाला है? इन सभी में भी कोई पूर्वाभ्यास लेने की भी जरूरत नहीं थी और न ही इस जगह के हर पहलू को देखने से पहले का ये ज्ञान था। एक माहौल जैसे हर दूसरे माहौल के आश्रित है। वैसे ही जैसे हर सिक्के के दो पहलू होते हैं। कोई किसी को खोज़ रहा है, जिसे खोज रहा है वे कोई नहीं है लेकिन वो "कोई" सब मे है। यही सबका दक्ष है। जिसे सींच लिया गया है यहाँ।

लख्मी

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