Tuesday, May 19, 2009

ये सवाल नहीं था, कुछ और था...

क्या हम जानते है की हमारे बिना हो या हमारे साथ, कितनी जगहं और कोने रोज बनते है और रोज माहोल सजाते है? उन्ही बे-बोल जगहों के बीच एक जगह ये भी है. जो कबसे बनकर चल रही है वो किसी को नहीं पता लेकिन कब से इसमें जान पड़ी है वो सब को पता है. लोगो की भीड़ जमने ही वाली है. लो समझो जम ही गई.

"वो कौन सी चीज है जो वापस नहीं आ सकती!"

ये बात कहकर वो चुपचाप बाहर निकल गए. ये ठिया उन लोगो के जुड़ने से बनता है जो खुद को तलाशते हुए यहाँ चले आते हैं. इसका कोई वक्त नहीं है. ये कभी भी तैयार हो जाता है. लेकिन इसकी शर्त सिर्फ इतनी है की यहाँ से कोई चुपचाप निकल नहीं सकता. हाँ भले ही चुपचाप बैठ सकता है मगर निकल नहीं सकता.

साथ से गाना शुरू हुआ, "आशकी में चूर हो लिया छोरा जाट का, बुड्डे ने भी पट्ठा चाहिए सोलाह साल का."

उसके बाद यही आवाज़ वहां पर बहुत देर तक आती रही. आज यहाँ पर कुछ हुआ है, जिसका यहाँ पर किसी को अंदाजा नहीं है. आज इस जगह के एक बन्दे के नहीं आने का सबको दुःख जरुर हो रहा है. रविंदर जी आज के बाद यहाँ पर नहीं आयेगे.

रविंदर जी के यहाँ के सबसे पुराने बासिन्दे हैं जिन्हें यहाँ रहते कई साल हो गये हैं. अपने हाथो से उन्होंने यहाँ पर ये जगह बनी थी. शुरू से ही गाने और लोकगीतों की शौक रहा है. जिसके सब्दो में वो हमेसा खींचे चले गए है. पुराने से पुराने गानों के रिकॉर्ड और दिल में उनकी कहानियां वो हमेसा ही अपने अन्दर समां कर रखते आये है. कभी-कभी तो रात कितनी ही बीत जाएँ लेकिन वो उस जमीं से उठते नहीं है जहाँ पर एक बार वो गाने बैठ जाते हैं. फिर तो बस गीतों की दुनिया की जनम होने लगता है. नए - पुराने और उस दौर के गाने मुंह से निकलने लगते है जब वे जवान हुआ करते थे.

दरअशल, ये दौर बहुत जल्द दिमाग से गायब होने लगता है. जब कम और रिश्तों के बीच में सब कुछ खोने लगता है तो ये दौर भी उसी की आहुति बन जाता है. उन्होंने भी इस दौर को सफ़र के माद्यम से ही देखा है. जिसको वो बहुत जल्दी भूलना चाहते थे लेकिन उन गीतों की धुनों और शब्दों ने उन्हें ये सब भूलने ही नहीं दिया.

वो वक्त है तो आज की समय है वो अपने साथ न जाने किनते लोगो को कैद करके रखते है. और यहाँ पर सभी को कैद में मज़ा भी आता है. वो अब नहीं आ पायगें. इसका सबको बहुत अफ़सोस है.

उन्होंने पिछली रात सबसे एक बात पूछी थी जिसका जवाब वो चाहते थे. इसके कारण वो यहाँ से गए हैं. उन्होंने पूछा था, "क्या मेरे लिए कोई वक्त बचा ही नहीं है जिसमे मैं किसी को बिना याद किये ही जी सकूँ? क्या हर वक्त मुझे मेरे परिवार और लोगो के बारे में सोचना पड़ेगा?"

उनकी बातों में कुछ खींचें की तड़प थी तो दूसरी तरफ कुछ उखाड़ कर फेँक देने की जिद्द, वो किसी बात से खिशिया नहीं थे और न ही दुखी थे वो बस कुछ पाने की कोशिश में थे. यहाँ पर किसी के पास भी वो जवाब नहीं था जिससे उनको ये कहा जाये की जगह बदल जाती हैं लेकिन वो बातें नहीं बदलती जिनको दिल में लेकर हम घूमते हैं. उन्हें यहाँ से जाने का अफ़सोस नहीं था और न ही उन्हें कोई खींच कर ले जा रहा है उसका दुख था. बस उनका सवाल है उनका दर्द बन गया था.

क्या कोई समय की लडाई थी? क्या कोई बात पूछने की कोशिश थी? क्या कुछ मांगने की तड़प थी? या खुद को पाने की जिद्द? ये सब के सब सवाल उनके उस एक सवाल में छुपे थे. वो जब जा रहे थे तो सब के सब उनको देख रहे थे. वो मुस्कुरा रहे थे लेकिन वो बात दिल के किसी कोने में ठहर गई थी. ये सवाल खली उनका ही नहीं था जो बहार निकल कर खामोश हो गया था. ये सवाल इस ठिकाने और यहाँ के हर बन्दे के लिए था. सभी उस सवाल को महसूस कर रहे थे. लेकिन जवाब किसी के पास नहीं था.

क्या उम्र और समय के साथ जगहों का रिश्ता, जुड़ना, बिछड़ना और बनाना जुदा है? ये कब तक हमारी जिंदगी में शामिल रहता है? यही यहाँ पर आज छूता हुआ है. जिसमे हम कभी महसूस कर सकते हैं.

लखमी

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