Friday, June 26, 2009

अफ़साना नामा



जगह में हर वक़्त कुछ न कुछ चलता रहता है। आप क्या पकड़ते हो उसमे ये आप पर निर्भर है की उसमे समाये जिवश्यमों को कैसे तलाशा जा सकता है। जो जीवन की अपनी भूख से अलग है। वो क्या है।

राकेश

विकल्प ही विकल्प..




विकल्पों की कमी नहीं पर आज के नौज़वान किसी और ही संकृति की ओर आर्कषित हो रहे हैं 2050 तक भारत और अमेरीका में कोई अन्तर नहीं होगा। न रोजी रोज़गार का न फैशन, शिक्षा का सब एक हो जायेगा पर दुख इस बात का है की अगर कुछ नया होगा तो हजारों साल पुरानी सभ्यता लुप्त हो जायेगी। उसका गुन-गान गाने वाला इंसान नहीं बचेगा। मशीनरी राज होगा हर जज़्बात, हर बात, हर भावना, हर अंग से पर्दाफाश होगा।

राकेश

कश्ती, भूख बड़ रही है।




आज कोई किनारा नहीं दिखाई देता हर तरफ नज़र भटकाने वाले चेहरे, चिन्ह, रास्ते है, हालात है, अफवाहे हैं। ज़िन्दा रहने कठीन और कठीन बन गए है। कहाँ जाये सफ़र थके इस शरीर को राहत देने के लिए। दुनिया इतनी छोटी क्यों पड़ती जा रही है और लोग बड़ रहे हैं। चीज़ें कम हो रही है और भूख बड़ रही है।

राकेश

आपके भीतर कई परीवेश दखल देते हैं




एक खुले और फैलने वाले माहौल की आप कैसे कल्पना करते हो? जिसमें आपके भीतर कई परीवेश दखल देते हैं और आप किस - किस को अपनाते है। समाज में जीने के लिए आम परीवेश क्या होगें? ये आप खुद को तय करना होगा।

राकेश

आज हम कहाँ है?



आज हम कहाँ है और कल हम कहाँ थे और न जाने - आने वाले कल में हम कहाँ होंगे? शायद ये सबको पता है मगर फिर भी हम अन्जान से होकर अपनी दैनिकता में शामिल हो जाते है। कब कहाँ किस जगह कोई घटना हमारा इंतज़ार कर रही है। रोज़ ऐसी घटनाओं और हादसो के चुंगल से हम जाने-अन्जाने में बच निकलते है। जब वक़्त को निचौड़कर देखते हैं तो उसमें हमारी हर सांस का हिसाब होता है। यूँ ज़िन्दगी बीत जाती है और हम एक नये शरीर में प्रवेश कर लेते हैं। पुर्नजन्म भूल जाते हैं। वो जन्म जो पहले सफ़र कर चुका है उसकी खोज कहाँ है?

राकेश

पाठक की राह क्या है?

किसी भी रचना, शख़्स, कहानी या लेख को अपने अतीत-आपबीती या अनुभव से बाहर किस तरह से जी सकते हैं? यानि जो रचना, कहानी या लेख हमारे अतीत- आपबीति और याद में नहीं आते उसे हम खुद में कैसे उतारते हैं या उससे कैसे जुझ पाते हैं?

एक छवि...
'एक शख़्स अपने टूटते हुए घर से दस कदम दूरी पर बैठा है। जिसका घर टूट रहा है और वो उसे देखकर रो रहा है।'

इस छवि को हम कैसे सोचेगें? जो हमारी याद और अनुभव मे नहीं आती। क्या हम उससे एक दूरी बना लेते हैं?
उससे - इतनी दूरी की जहाँ से हम उसके हर पल को देख सके मगर वो हमारे किसी भी अहसास को ना देख सके या महसूस कर सकें।

क्या हम छूपने की कोशिस करते है? उसकी हर नज़र से या तो अपनी आँखें बन्द कर लेते हैं या फिर किसी मजबूत और ठोस मूरत के पीछे छुप जाते हैं। इस छूपने मे एक डर कि गुंजाइस पैदा हो चूकी होती है हमारे अन्दर जो ये देखती है की कहीं पर अगर वो हमारे से टकरा गई तो हम क्या करेगें तो इन्तजार करते हैं किसी मजबूत मूरत के आ जाने का।

क्या हम किसी कहानी को पढ़कर कई चीज़ों को पीछा या दोहरा रहे होते हैं या कुछ दूरी बना लेते हैं?
इन नज़रियो के बीच मे "पढ़ना" शब्द कैसे उभरता है? इतना तो शायद नज़र में आ ही जाता है कि पढ़ना किसी रोशनी और डर के तहत नहीं था। यहाँ पर किसी छवि, शब्द, रूप, आकार से दूरी होती है। वो खाली नज़र आने वाली इमेज़ में नहीं थी। शायद अपने से टकराने की मौज़ूदगी पर निर्भर करती है।

हम अगर खुद के आधार और आकार को छूपा दे तो सामने आने वाली इमेज़ किस तरह से नज़र आती है?
कहते है:- किसी भी पढ़े मे अपने भाव ना आये ऐसा नहीं होता । पर क्या वाकई ऐसा होता है?
एक छोटा सा खेल है अपने साथ जो हम करते है । नजदीकी-दूरी, दिखने-छूपने, अन्छूआ-छूना । ये क्या किसी पढ़ी गई कहानी, लेख, वाक्या, जीवनजर्नी या किताब के साथ होता है? कितने नजरिये और अहसास है कहानियों और लैखो को पढ़ने के?

इस सवाल की अंगनाई मे कहीं उभरता है की "पढ़ना क्या है?” वो किसी के कहे, बोले, सुनाये, लिखे, छापे ये शब्दों पर निर्भर नहीं होता या वहीं पर जमा नहीं रहता। वो तैरता है दो ख़ास तरह की जिवनियो में। किसी भी कहानी ने अपना कोई रंग का फैलाव होता है जो छवियों और रूपों में बहता है। पढ़ने वाले की अपनी कोईन कोई रंग की धारा होती है जिसे लेकर वो बहने में उतर पाता है। किसी कश्ती और बिना चप्पू के। वो बहता है, तैरता है और डूबता भी है मगर उसके बहाव से बाहर भी आ जाता है। कभी उसका रंग लेकर तो कभी अपना रंग देकर। मगर वो क्या है जो दो अलग धाराओं के दरमियाँ होता है और वो क्या है जो दो धाराओं के मिलने से बनता है?

जैसे- मान लेते हैं की काले-सफेद रंगो के मिलने से बनने वाला ग्रह कलर की तस्वीर क्या है?

पढ़ना शब्द मे ये कुछ रंग उभरते हैं। जो अपने रंग और कहानी को पढ़ने के बाद में उफान मे थे। ऐसे कई और नजरियों, दूरियाँ, मुतभेड़, छुपना और ग्रह कलर के अवशेस है हमारे बीच जो पल रहे हैं। उनकी सूची हम उभार सकते हैं। अपने पढ़ने के अहसास से।

अनुभव और अतीत की ज़ुबानी से बाहर निकलकर क्या दुनिया बयाँ कि जा सकती है? वो क्या है जो हमारे जीवन के बाहर का अहसास है? पढ़ना, किसी की कहानी उसी की जुबानी सुनना और उसमे शामिल होना ये कैसे संभावनाओ मे जीने लगता है?

लख्मी

बुनाई - सिलाई, बाकि है अभी

बुनाई जिसमे पैबंद जुड़ते चले जाते हैं। किसी भी चीज़ का छोर, किनारा व कगार देखना ना मुमकिन होता है। आजादी भरी ये राहें किसी भी चीज़ को ख़ुद से ज़ुदा मानकर नहीं जीती और न ही चलती। बुनाई आकार को उस सरफस की भांति रखती है जिसे कभी भी महसूस किया जा सकता है। उसके साथ खेला जा सकता है, उसके साथ बदलाव के वार किये जा सकते हैं। लेकिन ये बुनाई अब सिलाई में तबदील हो गई है। जहाँ पर पैबंद को कसा जा रहा है। उसे मजबूत धागों से लपेटा जा रहा है। कहीं से भी कुछ उधड़ा न रह जाये उस नज़र को दिन में कई बार घुमाया जा रहा है। ये नज़र का घुमाना इस कदर छुपा है कि इसके साथ बातचीत करना आसान नहीं है और अगर बातें शुरू भी हो गई तो वे कटुरता निकलेगी जिसे सुनाने वाला और सुनने वाला दोनों ही एक-दूसरे के आमने-सामने बेइज्जत होते नज़र आते रहेगें।

हर जगह की वैसे नीति ही रही है, जो चीज़ें आसानी से दिख जाती है वे उस जगह के दृश्य ही होते हैं। बाकि का सब तो उनके पीछे समाया होता है। इस जगह की भी कुछ नीति है, जो नज़र तो नहीं आने वाली लेकिन उसे महसूस किया जा सकता है। यहाँ पर कैसे कोई चीज़ कितने वक़्त तक रहेगी और वो चीज इस जगह के बाहर यानि शहर में कहाँ तक जा सकती है उसका अभास यहाँ पर छटाई करने वाले को होता है। यहाँ पर सब अभास का ही तो खेल है। भरी-भरी बोरियों मे से कौन सा टुकड़ा कहाँ का है?, कौन सा पीस कितने का है?, कौन सा माल काम का है और कौन सा हिस्सा किसके काम मे आयेगा? ये सब का सब उस अभास से ही होकर निकलता है। जो चीज़ें कभी छटाई मे भी बेकार रह जाती हैं वे दोबारा से फिर किसी बोरी मे लदकर आयेगी ये भी तय है।

हमारे लिए ये जानना कतई कठीन नहीं होगा की इस जगह का चलन कैसे होता है? इस जगह के साथ कितनी और जगहें जुड़ी हुई हैं या फिर इस जगह के हाथ कितने लम्बे हैं? ये सब बातें ये जगह अपने में समाये जीती है। चीज़ों का आवन-जावन, उनका भराव, खरीदी-बैचेगी, और लोगों का इस जगह में काम के सिलसिले घूमते फिरना इस जगह को फैलाव और गहरा करने मे सक्षम हो जाता है। भले ही हम इस जगह मे किसी से वाकिफ हो या न हो, लेकिन किसी न किसी माहौल के पात्र हम बन ही जाते हैं। और कभी-कभी तो ऐसे क़िरदार जो हर किसी की नज़रों के निशाने पर होता है। यही सबसे बड़ी बेरूखी है इस जगह की परतों के साथ।

किसी की केड़ी नज़र पड़ जाने के बाद मे ये जगह का दूसरा महीना शुरू हुआ है। इस नज़रों के घेरे में किसी मे कोई खास बैचेनी नज़र आये ऐसा यहाँ पर कुछ भी महसूस नहीं होता या फिर ये जगह उसका पूर्वभ्यास होने नहीं देती। ऐसा लगता है जैसे किसी कार्यहित जगह को साज़-सज्जा का ठिकाना बनने में देर नहीं लगती। वे ठिकाना जो प्रदर्शन से पहले सजने-सवरने के लिए बनता है। जहाँ किसी कार्यहित जगह के पूर्वनिर्माण करने की चेष्टा दिलों मे समाई रखने की मुहीम हर वक़्त दिमाग पर अपने हथोड़ों से वार करती है।

हर दरवाज़ा खुला है, कहीं से भी किसी भी नज़र का घेरा कहीं तक भी नहीं दिखता। कोई खास तैयारी नहीं है। जगह का पूरा का पूरा उठकर कहीं चले जाना ही मुमकिन लगता है। ये नीतियाँ बनने और उनको चलाये रखने से ज़्यादा मुश्किल होगा। यहाँ के कई बोलों मे आने वाली जगहें अपने साथ आसरे की भूमिका अदा कर रही हैं। कहीं भी जाना हो लेकिन बिना आसरे के वे बेमाइने होगी। ऐसा सब जानते हैं। ये कोई मार्किट नहीं है जिसके खुलने और बन्द होने का वक़्त है। ये कुछ और है।

घुलना-मिलना, मौज़-मस्ती उसके साथ शहरमें अपनी वे ताकत दिखाना जो पिछले कई सालों मे इन बेकार चीज़ों से बनाई है वे सब तो अब बस, लेशमात्र की भांति रह गई है। जिसमे कुछ चिपकनापन है जो हाथों से कुछ इस तरह से चिपक गई है कि छूटने का नाम नहीं पा रही है। ये अहसास इस जगह का क्षणिक पल है। जो कब छूकर निकल जाता है उसका पता भी नहीं चलता।

पिछले दिन मुलाकात में वक़्त कुछ अलग था। ये ऐसा वक़्त था जब न तो कोई चीज़ तेजी मे भी और न ही थकावट में बस, अपनी ही एक खास रफ़्तार थी जो बन गई है। यहाँ पर पैशेबंद माहौलों से तो यहीं उजागर होता नज़र आता। ये मेरे लिए आसान राह थी जो दिखने पर अपने भ्रम को थोड़ा तोड़-मरोड़ देती है। उन्ही दृश्यों से मैं इस फिसलन से भरी जगह मे घूम रहा था। जो बेरूप है, बेमोल है, बेआसरे है और बेइज्जत है। इससे पहले वो सब थी जिसे आज नकारा जा रहा है। ये सारा चक्कर जगह के बदल जाने से है।

खुरदरी दीवार के साथ रखा एक बड़ा और मजबूर शीशे को एक आदमी अपनी कमीज़ से रगड-रगडकर साफ कर रहा था। ये शीशा इतना बड़ा और मोटा था कि किसी अकेले आदमी के बस का नहीं था कि वे इसे इधर से उधर खिसला सके। ये इकलौता था जो उस दरवाज़े के सामने रखा था जो महीनों तक हिलने वाला नहीं था। इसमे छटाई-चुनाई की भी कोई जरूरत नहीं थी और न ही किसी मार की।

सभी के आंकड़े यहाँ पर आकर बिखर गए थे। ये न तो कबाड़ के रूप मे यहाँ मौज़ूद था, न ही खरीदी-बैचेगी मे था और नहीं ये नये माल के आधार पर था। फिर भी इसकी कीमत लगाना किसी को सही मायने मे गवाँरा नहीं था। बोला जाये तो क्या बोला जाये? अगर कोई इसे खरीदने चला आया तो क्या कहेगें? कबाड़ मे इसकी क्या कीमत है वे तो मालुम थी लेकिन जो खरीदने आयेगा उसके जरूरत का हिसाब लगाना किसी को नहीं आयेगा। वे शख़्स उसपर कपड़ा मारकर चमका रहा था। भले ही उसपर अनेकों लकीरें खींची थी, खुरच कर उसपर नम्बर लिखे थे। लकीरों मे कुछ नाम भी छुपे थे। कुछ-कुछ हिस्सो से वे उचला भी हुआ था।

हर वे चीज़ जिसमें कुछ नज़र आता है वे यूहीं रखी रह जाती। वे कहाँ तक जायेगी उसकोप भाँप लिया जाता। किसमे जीवन बाकि है, कौन दोबारा से साँस ले सकती है और कौन दोबारा से वहीं जा सकती है जहाँ से आई है वे समझ लिया जाता। इस सोच मे सब कुशलता लिए हैं।

एक लड़का नीले रंग की थैली मे से कुछ निकाल रहा था। उसमे ढेरों नलियाँ थी। जिनमें से खून भी टपक रहा था। पानी और खून से लथपथ वे नलियाँ बहुत भारी लग रही थी। वे लड़का उन नलियों से साफ़ और मोटी नली निकाल रहा था। ये नलियाँ थोड़ी छोटी थी। किसी मे तो इंजैक्शन भी लगे थे। कुछ में कैप थी। मगर वो खोज रहा था वे नली जो रबड़ की हो। सारी नलियाँ प्लाश्टिक की थी। उसने सारी पन्नी बाहर ही खाली कर दी थी। सबसे आखिर मे से उसने रबड़ वाली नली निकाली और उसको अपने हाथ मे पकड़ी दो लड़कियों मे फँसाकर गुलेल बना लिया। बाकि का सारा माल वापस उसने उसी पन्नी मे लाद दिया था।

एक बन्दा जो एक पंखे मे लगा हुआ था। वे उस पंखे मे से मोटर और पंखुड़ियाँ निकाल रहा था। ताकि गर्मियों का काम चल जाये। वो यहाँ - वहाँ नज़र घुमाता हुआ कहता, "अब पहले जैसा मज़ा नहीं रहा। बस, हम तो मज़ा बना लेते हैं।"

लख्मी

Tuesday, June 23, 2009

उखडते प्रगाढता का चेहरा

रंग बहुत है बस जरूरत है खुद को उन रंगो के पास पहुँचाने की, जब मिलेगा आप को अपना नया रंग।



रोशनी की गुलाम नहीं वो बन्द मुठ्ठी को भी चकमा दे देती है आप किसी भ्रम मे मत रहना वो जागती आँखो को भी धोखा दे देती है।




जमीं पर पड़े निशान मिट जाते हैं अच्छे-अच्छे जख़्म भर जाते हैं,मगर जीवन मे किसी की मौजूदगी का होना नहीं मिट सकता। वो मौजूदगी जो गायब है।ये विवाह की वेदी पर हुआ कैसा गठबंधन है। जो आत्माओ का युगो तक रिश्ता बना देता है।





राकेश

Saturday, June 20, 2009

अंदरूनी जगह के लम्हे















जिंदगी कभी - कभी उन रास्तों को पकड़ने की चाहत में आमादा हो जाती है जो उसी की रहनावाज़ बनी रहती है.

राकेश

साए में कुछ चाहत












जिंदगी को तलाशते हुए हम अक्सर उस मुकाम पर आ जाते है. जहाँ जिंदगी खुद हमारा इंतजार कर रही होती है.

राकेश

Thursday, June 18, 2009

कहीं खो जाने जैसा है

शाम का वक़्त कैसा भी हो लेकिन ये जगह किसी काम से खाली महसूस होती है। लगत है जैसे अब किसी के पास कुछ बचा नहीं है। जितनी सहजता से और जल्दी से अपने काम को निबटा लो उतना ही बेहतरीन होगा। शाम का नज़ारा देखने से बनता है। शांत तो नहीं कह सकते लेकिन कुछ तो है जिससे खाली हैं हाथों मे कुछ बचा नहीं है। जिसे खुरच कर दिन को दोहरायऊޠजाये या फिर कोई इरादा नहीं है जिसे अभी के वक़्त मे किया जाये। टुकड़ो में नज़र आते झुंड अपने मे कई ऐसे काम समाये हुए हैं जिसका अंदाज़ा भरना आसान नहीं होगा। हर वक़्त यहाँ का दक्ष है। अपने हर काम और दृश्य में छुपे कामों मे दक्ष होने और अपने साथ किसी शख़्स को माहिर करने के बेइन्तहा कारण समाये हैं। जिसको इस वक़्त एक-दूसरे मे पिरोया जाता है।

यहाँ की शाम की सबसे बड़ी और अच्छी बात ये है कि कल फिर से दिन के शुरू होते ही वही होगा जिससे खाली हुए हैं।

अभी आँखें किसी को खोज़ नहीं रही बस, पूरी जगह में घुम रही है। नज़रों के टिकने के कोने यहाँ बेहद हैं लेकिन लगता है जैसे सब के सब अपने में व्यस्त हैं। यहाँ पर खड़ा होना ही इस जगह के अन्दर घुसने के लिए झंझोरता है। लगता है जैसे बिना आ‌वाज़ किए बस, दाखिल हो जाओ।

एक बेहद कसक सी महक पूरे माहौल मे तैर रही है। इसको संभालना बहुत मुश्किल है। वे सब कुछ छुप गया है जो दिन की रोशनी मे इसे न देखने पर मजबूर करता है। अब तो पूरे इलाके मे नज़र कहीं तक भी घुमाओ कोई मनाही नहीं है। बस, कुछ रास्ते जैसे कस गए हैं। उधर जाना मना है। ये मना किसी ने किया नहीं है। कोई तख़्ता नहीं लगा है लेकिन फिर भी जैसे वे किसी और का है और ये बात सब जानते हैं। इस वक़्त मे ये जगह काफी बड़ी महसूस हुई। इस दौरान पूरे इलाके मे पैदल घुमने मे थकावट सी महसूस होती है।

एककाद कोने तो जैसे स्वप्नद र्शी बने यहाँ ठहरे हुए हैं जहाँ पर लोग आते और दो ही पल मे चले भी जाते। यहाँ की मुण्डेरियाँ भरी लदी हैं। जहाँ पर सुस्ताने से भरपूर माहौल ख़ुद मे बुलाने के कई तीर छोड़ता है। ऐसा लगता जैसे घंटों अगर यहाँ पर बैठकर गुजारा भी जाये तो वो अहसास कम होगा।

यहाँ पर लगे चीज़ों के चिट्ठे किसी शख़्स की भांति खड़े नज़र आ रहे हैं। ऐसा लगता जैसे सभी ख़ुद मे बातें कर रहे हैं। एक-दूसरे से कुछ कहने की चाहत मे, एक-दूसरे पर लदे पड़े हैं। इस वक़्त मे अगर कुछ देखने की चाहत भी होती है तो भी यही सब कुछ नज़र आता है।

दिन की शुरूआत के लिए कुछ तैयारी इनमे समाई होगी ये कहना मुमकिन नहीं होगा।

लख्मी

Saturday, June 13, 2009

संदर्भ, बतलाने के शब्द क्या है?

संदर्भों से हम क्या समझते हैं? संदर्भ क्या करते हैं? इनकी भाषा और जीवन मे उतर जाने के मायने क्या है? कई तरह के संदर्भों के मथने से कई चीज़ें उभरकर आई जिसे कभी तो अपनाया गया तो कभी उन्हे अपने घर, परिवार और रिश्तों से दूर रखा लेकिन फिर हम क्या सोचते हैं? क्या मथने के बाद निकलने वाले रूपों को सोचते हैं या हमेशा मथे जाने की वाली प्रक्रिया को?

मथने से जो भी निकला उसने समाज़ मे अपनी जगह कैसे बनाई? इन सवालों को हम चीज़ों से नहीं बल्कि उसके हर वक़्त रूप और आकार बदलने से देख सकते हैं। वो क्या है?

कई संदर्भ अपना आकार एक रास्ते की ही भांति बनाने की कोशिश मे रहते हैं। जिसका अहसास एक प्लेटफॉर्म की तरह से बयाँ होता है जहाँ पर कोई किसी को जानता नहीं है बस, राहगिर की तरह ही सब जाने जाते हैं। उनके नाम और काम के पैमाने किन्ही कहानियाँ के रूपों मे महकते हैं।

हर संदर्भ अपने अन्दर अपने ही शब्द और उनको सोचने के मायने बनाते हुये चलता है। मायने जो शब्दों से पनपते है और उसकी अन्दर बसे रूप किसी न किसी शख्स की कल्पना देते हुये उभरते हैं। यहाँ पर हमेशा एक सवाल अटक जाता है कि जिनको हम पढ़ या सोच रहे हैं वो शब्द है या कोई बोली?

इस सवाल में हमेशा एक खींचातानी रहती है। संदर्भों की रूपरेखा मे और वहाँ पर आये लोगों में इस सवाल से बनने वाली दुनिया जैसे कहीं गायब रहती है। हम इस सवाल को अगर कुछ यूं सोचे की, शब्द और उसका उच्चारण क्या है?

देखा जाये तो इन्ही दो चीज़ों मे पूरी पढ़ाई का माप - दण्ड छुपा रहता है। कभी वो किसी संदर्भ की बाहर की दुनिया मे भाग जाता है तो कभी शब्दों से बनी कहानी पर ही टिक कर रह जाता है। हमारे आसपास मे जैसे शब्दों और कहानियों की बौछारें सी जगमगाई रहती है। सभी उसी मे लीन से महसूस होते हैं। हर कहानी के जरिये किसी ज़िन्दगी को देखने की कोशिश होती है लेकिन इस कथन मे एक बहस छुपी रही है कि ज़िन्दगी कभी कहानी नहीं होती।

हमारा अपना जीना हमारी ज़िन्दगी के विपरित नहीं होता। उसी के संदर्भ मे कई कहानियाँ रिश्ते पनपते हैं। जैसे, छोटे - छोटे कामों की जगहें और मिलने के ठिकाने कभी निजी रूप मे नहीं होते वे खिलते हैं मिलने औ मिलकर चले जाने के ग़म में। जिसमे कभी मिलन तो कभी बिछड़ने के किस्से अपनी छाप छोड़ जाते हैं और उसी की कसक से नए दृश्य गढ़ने लगते हैं।

ये गढ़ना कभी बदलाव की आग मे नये रूप लेता है तो कभी बनने से टूटने तक के खेलों को खेलता है। हमारी ज़िन्दगी और हमारी जगहें इन सभी पलों से जुझती है। जिसके साथ कभी तो हमारी रोज़मर्रा से टकराव होता है तो कभी सिर्फ मानने के ऊपर होता है। क्या ये पल हमें कोई अनुभव नहीं करवाते?

मान लेते हैं - हर संदर्भ अपनी रूपरेखा और अपने अनुभवी समय से संवाद करता है। जिसके साथ मे जमीन से उठने वाले सपने और यादें किस तरह से संजोई जाती है? उनका रिश्ता वहाँ के माहौल से क्या होता है?

संदर्भों को लोग खुद के लिये बनाकर रखते हैं। उसमे होने वाले हर नमूनों को अपने रिश्तों की शक्ल देकर उसको अपने से बाहर ले जाते हैं। संदर्भ जैसे खुद को गढ़ने के जैसा होता है। जो एक सार्वजनिक अहसास खुद मे भर देता है। कहते हैं - हर संदर्भ मे जीने के समान बहुत कुछ होता है बस, उसको संवाद मे लाने का ढाँचा होना चाहिये।

पिछले दिनों कई तरह के संदर्भ देखे। कहीं पर मिलने के, कभी पर समाजनिक चर्चा के, कहीं पर कामों के दुनिया के, कहीं पर आगे की कल्पना करने वालो के, कहीं पर इंसान के भविष्य के चिंता जताने वाले तो कहीं पर बस, रूकने वाले।

कभी तो लगा जैसे ये संदर्भ है या महज़ ठिकाने। पहले तो लगा कि ये ठिकाने ही हैं बसर्ते ये देखना जरूरी है कि इनमे घुलने वाली बातों के रूप क्या है? समाजिक ढाँचों को अगर तलाशा जाये तो कुछ भी नज़र आ जाता है लेकिन बौद्धिक जीवन के ढाँचे क्या है? ये संदर्भ कहाँ है?

इसकी तलाश जारी है - फिर लगा की ये ठिकाने और संदर्भ बना - बनाया रूप और आकार नहीं मांगते बल्कि ये बनाये जाते हैं। गुटों के हिसाब से ये रूप पाते हैं।

लख्मी

नाम है चाँद सिनेमा

ज़िन्दगी आज चाँद पर पहुँच गई है। मगर फिर भी हम ज़मीन को भुला नहीं पाये। क्योंकि ज़मी की ये मिट्टी हमें अपनी तरफ खींचती है। कुछ भी हो आज लोगों ने अपने आसपास में ही हर जरूरत और जीने लायक सारे ऐश-आराम तैयार कर लिये हैं। जिने वो कभी कल्पनाओं में ही देखा करते थे। जिस चाँद पर आज जीवन के चिन्ह और नुस्खे खोजे जा रहे हैं। वो कभी एक सपना था। जिसे साकार होने में वक़्त लगेगा। कल का क्या भरोसा कल क्या हो? कल को देखना हमारे बस में नहीं तो क्या हुआ। इस कल के सवाल से तो सिर्फ वक़्त ही पर्दा उठा सकता है।

अपना आज तो हम खुद बना सकते हैं। ये आज को बनाने वाली कोशिश ही शायद हमारे कल की तस्वीर बना दे।

इसलिये सरज़मी पर बने इस चाँद के करीब रह कर हम खुद को तसल्ली दे लेते हैं। जी हाँ, इस चाँद का पूरा नाम है चाँद सिनेमा। जो दिल्ली के त्रिलोकपुरी इलाके में स्थित है। जहाँ पर त्रिलोकपुरी के ही क्या इस के आजु-बाजू बसे लोग बड़े शौक से यहाँ फिल्मों को देखने आते हैं। हर दिन चार शोह। दिखाकर चाँद सिनेमा बिना थके अगले दिन की तैयारी में जुट जाता है। वो एक सिलसिलेवार पेशकश लोगों के दरमियाँ रखने की कोशिश करता है। चाँद सिनेमा ईंट-पत्थरों से सुन्दर और लुभानी बिल्डिंग ही नहीं है बल्की ये वो जगह है जहाँ नैतिक और अनैतिक परीवेशों का मिलन होता है।

इस जगह में हर कोई एक तलाश लेकर आता है और एक नया आंनद को पाकर फिर अगले ही क्षण किसी और आनंद की तलाश में उतर जाता है। जो शख़्स अपने जीवन के प्रगाढ़ता को बनाये रखने के लिये यहाँ आते हैं। वे ये जानते हैं की महत्वाकांक्षा को अहसास तले ही पाला जा सकता है । बिना अहसास के महत्वाकांक्षा अधूरी है और महत्वाकांक्षा के बिना अहसास अधूरा है। ये वैसा ही है जैसे रेशम का कीड़ा पेड की पत्तियाँ खाकर रेशम उगलता है। वो जगह निरंतर अपने मंथनो में व्यस्त रहती। सिनेमा हॉल के पर्दे पर लोग अपनी काम की ज़िन्दगी मे खोई हुई भूमिकाओं और अदाकारिओ को फिल्मी पर्दे पर पूरा होते देख फूले नहीं समाते थे। लोग दिनभर की अपनी परिवृत्ति को यहाँ लाकर छोड दिया करते थे।

हर आदमी में एक अभिनेता छुपा है बस, जरूरत है तो उसे तलाशने की। जो दैनिक जीवन को एक तरह का सर्जिवन प्रदान करता है। किसी तरह समाज के चंगुलो से बाहर निकलकर अपने शरीर को कुण्ड रूपी माहौल में डुबा देने की इच्छा को पूरा करना होता था।

ये मुकम्बल होता था लोगों के पेचिदा हालातों की जकड़न से। जो निराशावादी प्रेणाओ से जुदा होकर अपने में ज्योतिमान उजाला लिये ज़िन्दगी के अन्धेरों को दूर कर देना चाहती थी। जगह-जगह स्थित सिनेमाघरों की ये पहलकदमी रही की कार्यक्रम के साथ कलाकारों के माध्यम से लोगों के मिलने की वजह बनाई जा सके। वो कोना जो शायद देश , घर , चीजें, परीवार के अन्य विभाजनों से अलग अविभाजित रहा। जिसमें एक-दूसरे को चाहने और पाने की क्षमता बनी रही। वो अभी ज़िन्दा है। सदाबहार है। जिसमें लोगों की महानता उनके बड़कपन मे बदल गई। फिल्मी जगत जो आम जीवन के रू-ब-रू होने का बहुत बड़ा फ्रेम है। जिसमें नायक-नायिका के जरीये कहानी की बहुत सी अभिव्यक्तियों और चरित्रों को उभारा जाता है। जो वास्तविक तौर से समाज का मनोरंजन नहीं बल्की समाज के ही समुहदाय मे जी रहे लोगों का ही एक आईना है जिसमें इंसान की अंनगिनत छवियाँ विराजमान है।

फिल्में लोगों को क्यों भाती है? इस बात का पता उनके विचलित मन की दशा का अन्दाजा लगाने से पता चलता है। जिसमें हर श्रेणी का के लोग आते है। वो फिर चाहे बच्चे हो या जवान और बुर्जुग सब को मन की कामनाओ का आनंद उठाने का अधिकार है।

ज़िन्दगी के असल सत्य से दूर और क्ररू सच्चाइयों से परे रहकर जीवनयापन करने वाले लड़कों का हुज़ुम चौक के नुक्कड़ पर रोज़ाना जुड़ा करता था।

तब कम उर्म के लड़कों को किसी फिल्म या घटना से अपरिचित रखा जाता था। सब अपने बच्चों को अच्छा पढ़ाना और कुछ बनाने कि जिज्ञासा लेकर अपने घर की दहलीज़ पर बैठे ख़्यालों में वक़्त के टुकड़ों को सियां करते थे। पर वो सब लोग इस बात से अन्जान रहते थे की उनके बच्चे भी चाँद सिनेमाघर की चौखट को एक बार तो जरूर चूमना चाहते है। यकिनन ये इरादा बूरा नहीं था पर मुफलसी के रहते हर कोई पैसे ख़र्च करने के बारे मे दस बार सोचता था। आदनी का सब पर एक ही ज़रिया था मजदूरी जो पसीने का मूल तक नहीं उतार पाती थी जिसमें सिर्फ घर का गुजारा ही संम्भव हो पाता था।

करीब बीस साल पहले दिल्ली का कुछ और ही मंजर हुआ करता था। जिसमें शहर, बस्तियाँ, बाज़ारों और खासी जगहों का नक्शा भाविष्ये के मजबूत पैमाने पर आँका गया था। जात-पात और ऊँच-नीच से लैस उस जमाने में कई अजीबो-गरीब धारणाओं में पल रही इच्छाओं को कहीं किसी कोने में अपने से सींचा जा रहा था।

दूसरी तरफ नाबालिक लड़के-लड़कियों को अपनी मन-मर्जी करने का कोई हक नहीं होता था। तब विज्ञापन और कई सूचनाओं के माध्यमों को आम जीवनयापन करने वाले लोगों एक-दूसरे पर प्रतिबन्द लगा कर रखते थे।

जो अपने -अपने बच्चों को अपने रिती-रिवाज़ों में बाँधे रखने की शाजिश जैसा ही था। कोई ये नहीं चाहता था की उसका बच्चा घर से बाहर किसी और जगह में बसी अवधारणाओ का शिकार हो। तब गलियाँ इतनी छोटी नहीं हुआ करती थी जितनी आज है। हर किसी का अपना आंगन हुआ करता था। सब के मुँह पर किसी न किसी फिल्म और नाटक का जिक्र रहता था।

रोजाना काम से भरी थकावट से निज़ात पाकर शरीर को आरामदय बनाकर सिनेमा घरों की चर्चा हुआ करती। दिल्ली के कई बाँटे गए इलाकों में सिनेमाघरों का नशा चढ़ा हुआ था। सब अपने परिजनों को दूर -दूर तक ये संदेशा दे आते थे की बच्चों को सिनेमा घर न भेजें वे बिगड़ जायेगें। माँ-बाप वास्तविक ज़िन्दगी में पल रही कल्पना परीर्चित नहीं थे। फिर भी सब पूरी तरह से एक नई नस्ल पर विरासतों की मोहर लगा दी जा चूकी थी। मगर जुगनूओं की टिम-टिमाती रोशनिओ को भला वो काला अन्धेरा कब तक छुपाये रहता? किसी को क्या मालूम था की वक़्त उनके साथ क्या कारिस्तानी करने वाला है। मौत ने सब के लिये एक लाक्षागृह बना रखा है जिसकी सिमाओं में दाखिल होते ही मन बैचेन हो जाता है। जैसे कोई मशाल लिये हमारी तरफ आ रहा है और हम भाग रहे हैं।

उस जमाने में किसी न किसी बहाने कभी अपने घर में तो कभी किसी और के घर में जाकर केबल टीवी का मज़ा लिया करते थे। तेजी से बदल रहे दौर में केवल टीवी द्वारा फैलाई गई होड़ को लोगों ने गलत साबित करने की कोशिश की थी।

सन, 1980 के अन्तराल में कई अफ़वाहों को इस बदलते जमाने का एक नया आईना बतलाया गया। जिसमें नज़र आने वाला पड़ाव बदनामी के अन्धेरों में छुपा दिया गया। वो समय इतिहास की चट्टानों से टकराने की क्षमता रखता था। मगर समाजवादि परम्पराओं का बीता काल लोगों के दिलो-दिमाग पर हावी था। ज़िन्दगी का उजाला हर किमत पर अन्धेरो की कालकोठरी से बाहर आने को ऊतारू था। अगर आज कहा जाये की फिल्म के आने से पहले कुछ नहीं था जो आज है तो ये जीवन के खिलाफ होगा। फिल्म तो प्रभावशाली और अतिशयोक़्ति लेकर फैलने वाली जिज्ञासा की उपज है। इसे भला हम कैसे नकार सकते हैं। चाँद सिनेमा का भी इसी तरह का सफ़र है जो आम दिनों को रोजाना एक अधभूत अभिव्यक़्तियों में रूपान्तर कर देता है। जो सड़क से गुज़रते शख़्सों के दिलों में आरमान जगा देता है। अपनी ज़िन्दगी के प्रति निष्ठावान लोग जैसे कई दार्शनिक प्रस्तूतियाँ बनाते जा रहे। अनंत संस्कृति में जीते हुए भी हर दिन अपने वज़ूद का नया दिन बनाते जा रहे हैं।

राकेश

सवाल एक मगर जवाब अनेक...

हम सवालों के बारे मे क्या जानते हैं? सवाल क्या हैं और अपने साथ क्या लिये चलता है? क्या हम ये भी जानते हैं कि एक सवाल के कितने जवाब हो सकते हैं?

वैसे - हर सवाल अपने साथ मे कोई व किसी भी प्रकार का बंधा हुआ जवाब लिये नहीं चलता। वो तो अपने संदर्भ मे कई अनुभवों की अपेक्षा रखता है। सवाल एक न्यौता होता है अपने अन्दर कई अन्य तरह के जवाबों को रख पाने की और उनकी असीमता को खोज पाने की।

हर सवाल की अपनी एक गहराई होती है जिसमे अनुभवों की तारें जुड़ती रहती हैं और तारें क्या हैं? क्या किसी चीज़ का खोलना है?, फैलाना है?, पैमाने तलाशना है? आखिर मे क्या है?

जवाबों की असीमता हो देखने की कोशिश में ऐसा महसूस होता है कि कुछ भी नहीं है जो बंधा हुआ है, मजबूत है, ठोस है, पैक है या फिर अकड़दार है। सवालों से पनपी ये जवाबों की दुनिया एक तरल अहसास के साथ मे बहती है और अपने को गढ़ने के नये - नये आयाम तलाशती है।

कभी - कभी तो लगता है कि जैसे कुछ तो है जो फिक्स है। हर जवाब का एक आकार है मगर फिर बात आती है की किसी भी जवाब के साथ मे चौंकाने का रिश्ता क्या बन पाता है?

जवाब और उसको बताने के बीच मे हम खेलने लगते हैं। जिसमे नये शब्द, नई सोच, नये अनुभव और नई समझ की असीमता समाई होती है।

अगर हम एक सवाल को और सोचे की, सवालो के साथ मे जवाबों का क्या रिश्ता होता है? खाली पूछताछ या निवारण का, शायद नहीं।

कहानी कभी जवाबों मे नहीं घूमती मगर कहानी का आधार और आकार जवाबों मे तलाशा जाता है। तो हम किसी बंधे जवाब पर कहानी के कितने अन्दर जा पाते हैं? मेरा खुद का परिवेश ही मेरे जवाबों मे घूमने का अवसर देता है। जिसमे सवालों की भूमिका मुझे खोलने और फैलने के न्यौते देती है। अक्सर हम अपने किसी बंधे पैमाने को रखे हुए जवाब मानते हैं। और उसपर भी कई शब्द और बातें हम पर होती है उसे कह पाने की मगर वो मांग क्या हो जो वो भी निकल कर आये?

मान लेते हैं - सवाल एक तस्वीर की भांति हैं और जवाब एक शिर्षक है। जिसको हम उस तस्वीर पर रखकर, कभी उससे दूर होकर, कभी उसे देखकर, कभी उसे सुनकर , कभी उसे समझकर, कभी उसे महसूस करके या कभी उसे किसी याद मे जाकर देख सकते हैं।

सवालों पर बहस का केन्द्र भी तो कुछ होता है। वो समझ भी हो सकती है और परिवेश भी। जो विभिन्न - विभिन्न अनुभव से होकर आता है। जिसमे सही या गलत का कोई मापदण्ड नहीं होता।

सवालों की दुनिया से निकलकर जब जवाबों की चौखट पर जाते हैं तो क्या मिलता है? ये सवाल हमें नई दरवाज़े खोलने के समान उभरता दिखता है।

लख्मी