Saturday, June 13, 2009

नाम है चाँद सिनेमा

ज़िन्दगी आज चाँद पर पहुँच गई है। मगर फिर भी हम ज़मीन को भुला नहीं पाये। क्योंकि ज़मी की ये मिट्टी हमें अपनी तरफ खींचती है। कुछ भी हो आज लोगों ने अपने आसपास में ही हर जरूरत और जीने लायक सारे ऐश-आराम तैयार कर लिये हैं। जिने वो कभी कल्पनाओं में ही देखा करते थे। जिस चाँद पर आज जीवन के चिन्ह और नुस्खे खोजे जा रहे हैं। वो कभी एक सपना था। जिसे साकार होने में वक़्त लगेगा। कल का क्या भरोसा कल क्या हो? कल को देखना हमारे बस में नहीं तो क्या हुआ। इस कल के सवाल से तो सिर्फ वक़्त ही पर्दा उठा सकता है।

अपना आज तो हम खुद बना सकते हैं। ये आज को बनाने वाली कोशिश ही शायद हमारे कल की तस्वीर बना दे।

इसलिये सरज़मी पर बने इस चाँद के करीब रह कर हम खुद को तसल्ली दे लेते हैं। जी हाँ, इस चाँद का पूरा नाम है चाँद सिनेमा। जो दिल्ली के त्रिलोकपुरी इलाके में स्थित है। जहाँ पर त्रिलोकपुरी के ही क्या इस के आजु-बाजू बसे लोग बड़े शौक से यहाँ फिल्मों को देखने आते हैं। हर दिन चार शोह। दिखाकर चाँद सिनेमा बिना थके अगले दिन की तैयारी में जुट जाता है। वो एक सिलसिलेवार पेशकश लोगों के दरमियाँ रखने की कोशिश करता है। चाँद सिनेमा ईंट-पत्थरों से सुन्दर और लुभानी बिल्डिंग ही नहीं है बल्की ये वो जगह है जहाँ नैतिक और अनैतिक परीवेशों का मिलन होता है।

इस जगह में हर कोई एक तलाश लेकर आता है और एक नया आंनद को पाकर फिर अगले ही क्षण किसी और आनंद की तलाश में उतर जाता है। जो शख़्स अपने जीवन के प्रगाढ़ता को बनाये रखने के लिये यहाँ आते हैं। वे ये जानते हैं की महत्वाकांक्षा को अहसास तले ही पाला जा सकता है । बिना अहसास के महत्वाकांक्षा अधूरी है और महत्वाकांक्षा के बिना अहसास अधूरा है। ये वैसा ही है जैसे रेशम का कीड़ा पेड की पत्तियाँ खाकर रेशम उगलता है। वो जगह निरंतर अपने मंथनो में व्यस्त रहती। सिनेमा हॉल के पर्दे पर लोग अपनी काम की ज़िन्दगी मे खोई हुई भूमिकाओं और अदाकारिओ को फिल्मी पर्दे पर पूरा होते देख फूले नहीं समाते थे। लोग दिनभर की अपनी परिवृत्ति को यहाँ लाकर छोड दिया करते थे।

हर आदमी में एक अभिनेता छुपा है बस, जरूरत है तो उसे तलाशने की। जो दैनिक जीवन को एक तरह का सर्जिवन प्रदान करता है। किसी तरह समाज के चंगुलो से बाहर निकलकर अपने शरीर को कुण्ड रूपी माहौल में डुबा देने की इच्छा को पूरा करना होता था।

ये मुकम्बल होता था लोगों के पेचिदा हालातों की जकड़न से। जो निराशावादी प्रेणाओ से जुदा होकर अपने में ज्योतिमान उजाला लिये ज़िन्दगी के अन्धेरों को दूर कर देना चाहती थी। जगह-जगह स्थित सिनेमाघरों की ये पहलकदमी रही की कार्यक्रम के साथ कलाकारों के माध्यम से लोगों के मिलने की वजह बनाई जा सके। वो कोना जो शायद देश , घर , चीजें, परीवार के अन्य विभाजनों से अलग अविभाजित रहा। जिसमें एक-दूसरे को चाहने और पाने की क्षमता बनी रही। वो अभी ज़िन्दा है। सदाबहार है। जिसमें लोगों की महानता उनके बड़कपन मे बदल गई। फिल्मी जगत जो आम जीवन के रू-ब-रू होने का बहुत बड़ा फ्रेम है। जिसमें नायक-नायिका के जरीये कहानी की बहुत सी अभिव्यक्तियों और चरित्रों को उभारा जाता है। जो वास्तविक तौर से समाज का मनोरंजन नहीं बल्की समाज के ही समुहदाय मे जी रहे लोगों का ही एक आईना है जिसमें इंसान की अंनगिनत छवियाँ विराजमान है।

फिल्में लोगों को क्यों भाती है? इस बात का पता उनके विचलित मन की दशा का अन्दाजा लगाने से पता चलता है। जिसमें हर श्रेणी का के लोग आते है। वो फिर चाहे बच्चे हो या जवान और बुर्जुग सब को मन की कामनाओ का आनंद उठाने का अधिकार है।

ज़िन्दगी के असल सत्य से दूर और क्ररू सच्चाइयों से परे रहकर जीवनयापन करने वाले लड़कों का हुज़ुम चौक के नुक्कड़ पर रोज़ाना जुड़ा करता था।

तब कम उर्म के लड़कों को किसी फिल्म या घटना से अपरिचित रखा जाता था। सब अपने बच्चों को अच्छा पढ़ाना और कुछ बनाने कि जिज्ञासा लेकर अपने घर की दहलीज़ पर बैठे ख़्यालों में वक़्त के टुकड़ों को सियां करते थे। पर वो सब लोग इस बात से अन्जान रहते थे की उनके बच्चे भी चाँद सिनेमाघर की चौखट को एक बार तो जरूर चूमना चाहते है। यकिनन ये इरादा बूरा नहीं था पर मुफलसी के रहते हर कोई पैसे ख़र्च करने के बारे मे दस बार सोचता था। आदनी का सब पर एक ही ज़रिया था मजदूरी जो पसीने का मूल तक नहीं उतार पाती थी जिसमें सिर्फ घर का गुजारा ही संम्भव हो पाता था।

करीब बीस साल पहले दिल्ली का कुछ और ही मंजर हुआ करता था। जिसमें शहर, बस्तियाँ, बाज़ारों और खासी जगहों का नक्शा भाविष्ये के मजबूत पैमाने पर आँका गया था। जात-पात और ऊँच-नीच से लैस उस जमाने में कई अजीबो-गरीब धारणाओं में पल रही इच्छाओं को कहीं किसी कोने में अपने से सींचा जा रहा था।

दूसरी तरफ नाबालिक लड़के-लड़कियों को अपनी मन-मर्जी करने का कोई हक नहीं होता था। तब विज्ञापन और कई सूचनाओं के माध्यमों को आम जीवनयापन करने वाले लोगों एक-दूसरे पर प्रतिबन्द लगा कर रखते थे।

जो अपने -अपने बच्चों को अपने रिती-रिवाज़ों में बाँधे रखने की शाजिश जैसा ही था। कोई ये नहीं चाहता था की उसका बच्चा घर से बाहर किसी और जगह में बसी अवधारणाओ का शिकार हो। तब गलियाँ इतनी छोटी नहीं हुआ करती थी जितनी आज है। हर किसी का अपना आंगन हुआ करता था। सब के मुँह पर किसी न किसी फिल्म और नाटक का जिक्र रहता था।

रोजाना काम से भरी थकावट से निज़ात पाकर शरीर को आरामदय बनाकर सिनेमा घरों की चर्चा हुआ करती। दिल्ली के कई बाँटे गए इलाकों में सिनेमाघरों का नशा चढ़ा हुआ था। सब अपने परिजनों को दूर -दूर तक ये संदेशा दे आते थे की बच्चों को सिनेमा घर न भेजें वे बिगड़ जायेगें। माँ-बाप वास्तविक ज़िन्दगी में पल रही कल्पना परीर्चित नहीं थे। फिर भी सब पूरी तरह से एक नई नस्ल पर विरासतों की मोहर लगा दी जा चूकी थी। मगर जुगनूओं की टिम-टिमाती रोशनिओ को भला वो काला अन्धेरा कब तक छुपाये रहता? किसी को क्या मालूम था की वक़्त उनके साथ क्या कारिस्तानी करने वाला है। मौत ने सब के लिये एक लाक्षागृह बना रखा है जिसकी सिमाओं में दाखिल होते ही मन बैचेन हो जाता है। जैसे कोई मशाल लिये हमारी तरफ आ रहा है और हम भाग रहे हैं।

उस जमाने में किसी न किसी बहाने कभी अपने घर में तो कभी किसी और के घर में जाकर केबल टीवी का मज़ा लिया करते थे। तेजी से बदल रहे दौर में केवल टीवी द्वारा फैलाई गई होड़ को लोगों ने गलत साबित करने की कोशिश की थी।

सन, 1980 के अन्तराल में कई अफ़वाहों को इस बदलते जमाने का एक नया आईना बतलाया गया। जिसमें नज़र आने वाला पड़ाव बदनामी के अन्धेरों में छुपा दिया गया। वो समय इतिहास की चट्टानों से टकराने की क्षमता रखता था। मगर समाजवादि परम्पराओं का बीता काल लोगों के दिलो-दिमाग पर हावी था। ज़िन्दगी का उजाला हर किमत पर अन्धेरो की कालकोठरी से बाहर आने को ऊतारू था। अगर आज कहा जाये की फिल्म के आने से पहले कुछ नहीं था जो आज है तो ये जीवन के खिलाफ होगा। फिल्म तो प्रभावशाली और अतिशयोक़्ति लेकर फैलने वाली जिज्ञासा की उपज है। इसे भला हम कैसे नकार सकते हैं। चाँद सिनेमा का भी इसी तरह का सफ़र है जो आम दिनों को रोजाना एक अधभूत अभिव्यक़्तियों में रूपान्तर कर देता है। जो सड़क से गुज़रते शख़्सों के दिलों में आरमान जगा देता है। अपनी ज़िन्दगी के प्रति निष्ठावान लोग जैसे कई दार्शनिक प्रस्तूतियाँ बनाते जा रहे। अनंत संस्कृति में जीते हुए भी हर दिन अपने वज़ूद का नया दिन बनाते जा रहे हैं।

राकेश

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