Friday, June 26, 2009

बुनाई - सिलाई, बाकि है अभी

बुनाई जिसमे पैबंद जुड़ते चले जाते हैं। किसी भी चीज़ का छोर, किनारा व कगार देखना ना मुमकिन होता है। आजादी भरी ये राहें किसी भी चीज़ को ख़ुद से ज़ुदा मानकर नहीं जीती और न ही चलती। बुनाई आकार को उस सरफस की भांति रखती है जिसे कभी भी महसूस किया जा सकता है। उसके साथ खेला जा सकता है, उसके साथ बदलाव के वार किये जा सकते हैं। लेकिन ये बुनाई अब सिलाई में तबदील हो गई है। जहाँ पर पैबंद को कसा जा रहा है। उसे मजबूत धागों से लपेटा जा रहा है। कहीं से भी कुछ उधड़ा न रह जाये उस नज़र को दिन में कई बार घुमाया जा रहा है। ये नज़र का घुमाना इस कदर छुपा है कि इसके साथ बातचीत करना आसान नहीं है और अगर बातें शुरू भी हो गई तो वे कटुरता निकलेगी जिसे सुनाने वाला और सुनने वाला दोनों ही एक-दूसरे के आमने-सामने बेइज्जत होते नज़र आते रहेगें।

हर जगह की वैसे नीति ही रही है, जो चीज़ें आसानी से दिख जाती है वे उस जगह के दृश्य ही होते हैं। बाकि का सब तो उनके पीछे समाया होता है। इस जगह की भी कुछ नीति है, जो नज़र तो नहीं आने वाली लेकिन उसे महसूस किया जा सकता है। यहाँ पर कैसे कोई चीज़ कितने वक़्त तक रहेगी और वो चीज इस जगह के बाहर यानि शहर में कहाँ तक जा सकती है उसका अभास यहाँ पर छटाई करने वाले को होता है। यहाँ पर सब अभास का ही तो खेल है। भरी-भरी बोरियों मे से कौन सा टुकड़ा कहाँ का है?, कौन सा पीस कितने का है?, कौन सा माल काम का है और कौन सा हिस्सा किसके काम मे आयेगा? ये सब का सब उस अभास से ही होकर निकलता है। जो चीज़ें कभी छटाई मे भी बेकार रह जाती हैं वे दोबारा से फिर किसी बोरी मे लदकर आयेगी ये भी तय है।

हमारे लिए ये जानना कतई कठीन नहीं होगा की इस जगह का चलन कैसे होता है? इस जगह के साथ कितनी और जगहें जुड़ी हुई हैं या फिर इस जगह के हाथ कितने लम्बे हैं? ये सब बातें ये जगह अपने में समाये जीती है। चीज़ों का आवन-जावन, उनका भराव, खरीदी-बैचेगी, और लोगों का इस जगह में काम के सिलसिले घूमते फिरना इस जगह को फैलाव और गहरा करने मे सक्षम हो जाता है। भले ही हम इस जगह मे किसी से वाकिफ हो या न हो, लेकिन किसी न किसी माहौल के पात्र हम बन ही जाते हैं। और कभी-कभी तो ऐसे क़िरदार जो हर किसी की नज़रों के निशाने पर होता है। यही सबसे बड़ी बेरूखी है इस जगह की परतों के साथ।

किसी की केड़ी नज़र पड़ जाने के बाद मे ये जगह का दूसरा महीना शुरू हुआ है। इस नज़रों के घेरे में किसी मे कोई खास बैचेनी नज़र आये ऐसा यहाँ पर कुछ भी महसूस नहीं होता या फिर ये जगह उसका पूर्वभ्यास होने नहीं देती। ऐसा लगता है जैसे किसी कार्यहित जगह को साज़-सज्जा का ठिकाना बनने में देर नहीं लगती। वे ठिकाना जो प्रदर्शन से पहले सजने-सवरने के लिए बनता है। जहाँ किसी कार्यहित जगह के पूर्वनिर्माण करने की चेष्टा दिलों मे समाई रखने की मुहीम हर वक़्त दिमाग पर अपने हथोड़ों से वार करती है।

हर दरवाज़ा खुला है, कहीं से भी किसी भी नज़र का घेरा कहीं तक भी नहीं दिखता। कोई खास तैयारी नहीं है। जगह का पूरा का पूरा उठकर कहीं चले जाना ही मुमकिन लगता है। ये नीतियाँ बनने और उनको चलाये रखने से ज़्यादा मुश्किल होगा। यहाँ के कई बोलों मे आने वाली जगहें अपने साथ आसरे की भूमिका अदा कर रही हैं। कहीं भी जाना हो लेकिन बिना आसरे के वे बेमाइने होगी। ऐसा सब जानते हैं। ये कोई मार्किट नहीं है जिसके खुलने और बन्द होने का वक़्त है। ये कुछ और है।

घुलना-मिलना, मौज़-मस्ती उसके साथ शहरमें अपनी वे ताकत दिखाना जो पिछले कई सालों मे इन बेकार चीज़ों से बनाई है वे सब तो अब बस, लेशमात्र की भांति रह गई है। जिसमे कुछ चिपकनापन है जो हाथों से कुछ इस तरह से चिपक गई है कि छूटने का नाम नहीं पा रही है। ये अहसास इस जगह का क्षणिक पल है। जो कब छूकर निकल जाता है उसका पता भी नहीं चलता।

पिछले दिन मुलाकात में वक़्त कुछ अलग था। ये ऐसा वक़्त था जब न तो कोई चीज़ तेजी मे भी और न ही थकावट में बस, अपनी ही एक खास रफ़्तार थी जो बन गई है। यहाँ पर पैशेबंद माहौलों से तो यहीं उजागर होता नज़र आता। ये मेरे लिए आसान राह थी जो दिखने पर अपने भ्रम को थोड़ा तोड़-मरोड़ देती है। उन्ही दृश्यों से मैं इस फिसलन से भरी जगह मे घूम रहा था। जो बेरूप है, बेमोल है, बेआसरे है और बेइज्जत है। इससे पहले वो सब थी जिसे आज नकारा जा रहा है। ये सारा चक्कर जगह के बदल जाने से है।

खुरदरी दीवार के साथ रखा एक बड़ा और मजबूर शीशे को एक आदमी अपनी कमीज़ से रगड-रगडकर साफ कर रहा था। ये शीशा इतना बड़ा और मोटा था कि किसी अकेले आदमी के बस का नहीं था कि वे इसे इधर से उधर खिसला सके। ये इकलौता था जो उस दरवाज़े के सामने रखा था जो महीनों तक हिलने वाला नहीं था। इसमे छटाई-चुनाई की भी कोई जरूरत नहीं थी और न ही किसी मार की।

सभी के आंकड़े यहाँ पर आकर बिखर गए थे। ये न तो कबाड़ के रूप मे यहाँ मौज़ूद था, न ही खरीदी-बैचेगी मे था और नहीं ये नये माल के आधार पर था। फिर भी इसकी कीमत लगाना किसी को सही मायने मे गवाँरा नहीं था। बोला जाये तो क्या बोला जाये? अगर कोई इसे खरीदने चला आया तो क्या कहेगें? कबाड़ मे इसकी क्या कीमत है वे तो मालुम थी लेकिन जो खरीदने आयेगा उसके जरूरत का हिसाब लगाना किसी को नहीं आयेगा। वे शख़्स उसपर कपड़ा मारकर चमका रहा था। भले ही उसपर अनेकों लकीरें खींची थी, खुरच कर उसपर नम्बर लिखे थे। लकीरों मे कुछ नाम भी छुपे थे। कुछ-कुछ हिस्सो से वे उचला भी हुआ था।

हर वे चीज़ जिसमें कुछ नज़र आता है वे यूहीं रखी रह जाती। वे कहाँ तक जायेगी उसकोप भाँप लिया जाता। किसमे जीवन बाकि है, कौन दोबारा से साँस ले सकती है और कौन दोबारा से वहीं जा सकती है जहाँ से आई है वे समझ लिया जाता। इस सोच मे सब कुशलता लिए हैं।

एक लड़का नीले रंग की थैली मे से कुछ निकाल रहा था। उसमे ढेरों नलियाँ थी। जिनमें से खून भी टपक रहा था। पानी और खून से लथपथ वे नलियाँ बहुत भारी लग रही थी। वे लड़का उन नलियों से साफ़ और मोटी नली निकाल रहा था। ये नलियाँ थोड़ी छोटी थी। किसी मे तो इंजैक्शन भी लगे थे। कुछ में कैप थी। मगर वो खोज रहा था वे नली जो रबड़ की हो। सारी नलियाँ प्लाश्टिक की थी। उसने सारी पन्नी बाहर ही खाली कर दी थी। सबसे आखिर मे से उसने रबड़ वाली नली निकाली और उसको अपने हाथ मे पकड़ी दो लड़कियों मे फँसाकर गुलेल बना लिया। बाकि का सारा माल वापस उसने उसी पन्नी मे लाद दिया था।

एक बन्दा जो एक पंखे मे लगा हुआ था। वे उस पंखे मे से मोटर और पंखुड़ियाँ निकाल रहा था। ताकि गर्मियों का काम चल जाये। वो यहाँ - वहाँ नज़र घुमाता हुआ कहता, "अब पहले जैसा मज़ा नहीं रहा। बस, हम तो मज़ा बना लेते हैं।"

लख्मी

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