Friday, June 26, 2009

कश्ती, भूख बड़ रही है।




आज कोई किनारा नहीं दिखाई देता हर तरफ नज़र भटकाने वाले चेहरे, चिन्ह, रास्ते है, हालात है, अफवाहे हैं। ज़िन्दा रहने कठीन और कठीन बन गए है। कहाँ जाये सफ़र थके इस शरीर को राहत देने के लिए। दुनिया इतनी छोटी क्यों पड़ती जा रही है और लोग बड़ रहे हैं। चीज़ें कम हो रही है और भूख बड़ रही है।

राकेश

1 comment:

Unknown said...

मन के भीतर कि गहराई कि कोई सीमा नही। हाथ से सांकल खड़काइये और लुप्त हो जाइये उस विशाल जहान में जहाँ ना जगह कि कमी है अभी और ना बढ़ते शरीरों के मैले है।

हैं तो ठण्डी परछाईयाँ, परछाईयाँ, और सिर्फ परछाईयाँ।