Tuesday, August 4, 2009

दैनिक जीवन के आयोग मे...

नये शहर के नये इलाके में आये हुए सुरेश को कुछ ही दिन हुए थे। उसने कभी सोचा भी नहीं था की उसकी ज़िन्दगी इतनी बेरहम बन जायेगी के सुरेश को किसी के सामने हाथ फैलाना पड़ेगा। उसने किसी तरह अपने मकान मालिक से कुछ दिनों की मोहलत मांगी ताकी वो पिछले दो महीने का भी किराया दे सके। उसे इस बात का गम नहीं था की यहाँ आकर उसे लोगों से मांगना पड़ रहा है। गम तो इस बात का था की इसके सिवा उसके पास कोई चारा भी नहीं था। वो एक दम अकेला पड़ गया था। वो क्या करता जब सब घर के लोग उसकी तरफ उम्मीद की नज़र से देखते। जरुरत आदमी को क्या नहीं करवा देती? इंसान, इंसान को क्यों भूल जाता है? और जानवरों जैसा सलूक करने लग जाता है पर सुरेश जानवर नहीं बना।

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मेरी यादें जो असल में किसी और की धरोहर है। मैं इन्हे कैसे ठुकरा दूं। वक़्त रेत की तरह मेरे हाथों से छूट जाता है। मैं अपनी याद्दश्त को ज़िन्दा रखना चाहता हूँ। इसलिये वर्तमान को देखता हूँ और उसे पकड़ कर रखना चाहता हूँ। जिसमें मेरी यादों का सिलसिला के लिये सौगात बन जायें।

दर्द जीना सिखाता है फिर दर्द कैसे दूश्मन हुआ,सब कुछ संतूलन मे चलेगा तो असंतूलन का अपनी रचनात्मकता को कौन जानेगा। हम असंतूलन में है संतूलन बनाने के लिये प्रयास करते है मगर फिर वही उसी जगह असंतूलन में आ जाते हैं।

राकेश

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