Tuesday, August 4, 2009

एक और मुलाकात,

अपने को आज़माने के क्या तरीके हैं?

शाम मे ये कसर हर रोज़ निकाली जाती है। एक गुट जो रोज़ शाम मे मिलता है जिनके पास मे खाली खुद की कहानियाँ ही नहीं होती वे रखते हैं खुद को दोहराने और खुद को आज़माने के साधन।

इस बार का मौका रहा, अख़बार और टीवी पर चलती दुनिया। उसके साथ मे एक शख्स अपने साथ मे कई अखबारों की कटींग लेकर आया। जिसमे कई नौकरियों के गुच्छे थे। हर पर्चा दिल्ली शहर के किसी कोने का था। ऐसा लगता था की जैसे एक ही बन्दा कितनी बार शहर के अन्दर घूमा होगा। उसका सवाल था - इतना घूमने के बाद भी किसी को कैसे बताया जाये शहर क्या है?

उसमे वो खुद को हटाकर बोल रहा था। वो अखबार की कटींग उसके लिए ये प्रमाण नहीं थी की वो शहर को कितना जानता है बल्कि ये था की वो शहर मे कितने अन्दर के हिस्सो मे खुद को देख पाता है। अखबार उसके लिए एक ऐसी शख्सियत बना रहा था जो उसके शहर के कोनो मे ले जाने की जोरआज़ामइस करता और हर बार किसी नई तरह से खुद को आज़माने की तरफ मे धकेल देता।

अखबार खाली पढ़कर किसी के बारे मे और किसी को जानने में ही किरदार निभाये ये ही तय नहीं होता। उसका कहना था - "क्या मैं इन कटींग को लेकर जितना घुमा उसके बाद भी मैं शहर मे कहीं परिचित नहीं होता क्यों? ये मेरे लगभग चार साल है जो मेरे लिये किसी भागदौड़ के सिवा कुछ नहीं थे लेकिन आज ये इतने पावरफुल हैं की मैं इनको लेकर किसी के भी आगे अपनी मेहनत और भटकने को बता सकता हूँ। जिसमे मुझे बहुत दम लगता है।"

वो अखबार उस गुट के लिये कोई बड़ी बात तो नहीं थे लेकिन ये उस एलबम की तरह थे जिनको उस जन के रास्तो और थकावट को सहज़ कर रखा था जिससे वो आज खुद को किसी शक्तिशाली इंसान से कम नहीं आँक सकता था जो खुद से बहस करने के साथ - साथ किसी को उस बहस मे शामिल भी कर सकता था।

अखबार की ये कटींग उन सारे क्षणिक पलो की वो किताब थी जिनको पढ़ा नहीं जा सकता था उसके साथ घूमा जा सकता था।

लख्मी

No comments: