Tuesday, August 4, 2009

लाईट केमरा एक्सन

सतपाल किसी एक रास्ते से गुज़रने पर वहाँ से वो कई चक्कर लगा दिया करता था। पुलिया के पास लगने वाले दैनिक बाज़ार का शौरगुल उसके सम्पर्क को तोड़ नहीं पाता था। वो पनी उधेड़बुन में लगा रहता। मोसमी के जूस का ठिया, चाय की खूशबू से वो चौराहा अपने पास से होकर जाने वाले शख़्सों के स्पर्श को महसूस करता।

गुब्बारे वाला बाजा बजाते हुये निकलता। जूस की दुकान के पास लगा मुर्गे काटने वाले का ठिया जो सुबह करीब दस बजे ही मुर्गियों की गर्दन पर छूरी रख देता था। वहीं चार कदमों की दूरी पर बड़ा सा कुड़ेदान था। जहाँ से मोटी-मोटी मक्खियाँ मंडराती हुई यहाँ-वहाँ घूमती फिरती। फिर सब्जियों रेहड़ी और लोहे का STD both जिस पर पान तम्बाकू चिप्स वगेहरा भी मिलते हैं। ये चौराहा सड़क के दोनों ओर को मुड़ता हुआ चला जाता है। रोजाना यहाँ की उथल-पुथल से टकराकर लोग निकलते हैं।

जहाँ एक-दूजे से निगाहें मिलाकर हर कोई कट जाता है अपने रास्ते को। लगातार आवारा आवाजे यहाँ बेफिक्र माहौल से जुझती रहती है। इस माहौल में होने के बाद भी सतपाल अपने अंतरद्वधों मे फंसा रहता है। वो हँसता है मुस्करता है मायूस भी होता है फिर अचानक उसके चेहरे के एक्सप्रेशन ही बदल जाते है। अगर कहीं रूक गया तो वो वहाँ से तस का मस भी नहीं होता। दिमाग चौबीसों घण्टे रट्टे लगाता रहता है वक़्त में बन रहे आँकड़ो का चार्ट उसके सामने जैसे कभी भी उभर आता है।

हमारी तरह उसे भी ऊर्जा सूरज की किरणों से मिलती है खाने के सभी पोस्टिक आहार से उस का शरीर भी बड़ता है। सतपाल की दैनिक ज़िन्दगी उसके रोज के चिन्तनमन्न से शूरू होती और कब किस रूप में ख़त्म होती ये पता नहीं चलाता।

शाम तक वो बहुत सी जगहों पर टहल कर आ जाता। पुराने दोस्तों से यूं ही अचानक मिलता और एक चौंकने वाले अन्दाज मे बर्ताव करता। सड़क का वो किनारा जहाँ से वो दस साल पहले स्कूल जाया करता था। बीच में बस स्टेंड भी है। ऑटो रिक्शा स्टेंड भी है। वही पुरानी फलो की दूकान भी है। चौराहे पर बना वो मंज़र आज भी है।
दोपहर की धूप उसके स्कूल के दिनों की याद दिलाती है। जब सुबह के स्कूल की लड़कियों की छुट्टी होती है तो आज भी उसी टाईम पर बाहर पुलिया पर आकर खड़ा हो जाता है। जो दोस्त उसे पहले से जानते है। वो अब उससे कट जाया करते। बस, कुछ ही दोस्त थे जो उसे समझते थे।

सतपाल एक दिन अपने पुराने दोस्त से टकराया, उसके चेहरे को भाँपने लगा दोनों मुस्कुराये, "अरे राकेश तू" सतपाल ने कहा उसके बाद। उसने भी सतपाल से हाथ मिलाया।

"सतपाल कैसा है तू? मैं तो ठीक हूँ, तू सुना कहाँ जा रहा है?”
"बस घर का कुछ सामान था वो ही लेने जा रहा हूँ।"
"अबे आज तो पेपर है, मेथ का"

राकेश हिचकिचा गया, "क्या बकवास कर रहा है। तू पागल है क्या?”
सतपाल हँसा, "अबे मैं पागल नहीं तू पगला गया है। देख मैं तो सेन्टर जा रहा हूँ तू आ जाना।" राकेश ने खट्टेपन से कहा- "कोन सा पेपर कोन सी क्लास?”
सतपाल बोला, "अरे भाई दसवीं और कोनसी?”
राकेश उसे समझाने का प्रयास करने लगा।
"देख भाई तू कुछ भूल रहा है। दसवी तो मैंने कब की पास करली है। मैथ मैं एक बार फेल हुआ। दूसरी पास कम्पार्टमेन्ट आई थी फिर मैं पास हो गया।"

माना के नम्बर कम थे पर पास होने की खुशी ज़्यादा थी। जैसे - तैसे दसवीं का ठप्पा लग गया यही बहुत है। सतपाल को इस बात का जरा भी झटका नहीं लगा। "अच्छा" कोई बात नहीं मैं तो जा रहा हूँ तूझे आना है तो चल।
दस साल पहले बीते दौर को सतपाल ने अभी भी ज़िन्दा कर रखा था। यादों में नहीं था ये मुझे यकिन था। अतीत उसके जहन में अन्धेरे में जल रही डिबिया की तरह था।
वही डिबिया उसे अपने उजाले में आज का समय दिखा रही थी। उसकी कामनाएँ मेरी नहीं थी। उम्मीद टूटी नहीं थी। वक़्त का साथ उसने नहीं छोड़ा था। पर शायद वक़्त उसे कही गुमनाम जगह छोड़ आया था।

दुनिया उसके लिये वैसी ही थी जैसी सब के लिये वो भी भूख प्यास जानता था। वो पुलिया की मुंडेरियों पर घण्टो बैठ करता था कभी सड़क के किसी कोने पर खड़ा होकर अपनी निगाहों को दूर - दूर तक ले जाता । फिर कुछ सोचने लगता। फिर दोबारा से हाथों की कोहनियों को मिला लेता और बड़ी पैचिदा हालात रिएक्ट करने लगता।
शायद ये दूनिया पागल होती तो कैसा होता किसी न कोई फिक्र न कोई डर होता। मगर इतना होने के बावज़ूद ये पापी पेट न होता तो सोने पर सुहागा होता।

वक़्त हर किसी के साथ अहतियात नहीं बरता। सतपाल शायद उन सभी हालातों से गुज़र रहा था। जहाँ से अच्छा खासा इंसान भी टूटने लगता है। सतपाल टूटने का नाम नहीं वो लड़ रहा था। अपनी दैनिक ज़िन्दगी से। वो निहत्था भी नहीं था। अभी उसने हथियार नहीं घेरे थे। अपने आप में कभी मोन तो कभी इस मोन को तोड़कर वो बाहार आ जाता। फिर यथार्थ श्रृखलाओं मे शामिल हो जाता।

ठीक उस तरह जिस तरह कई कबूतरों के भीड़ दाना खाते हुये अचानक कोई कबूतर आसमान में उड़ जाता है। वो मदमस्त हो कर बस्तियों शहरों के ऊपर से उड़ता जाता है। न किसी जगह पँहुचने की जल्दी न किसी का इंतजार। नहीं वापसी कि चिन्ता होती।

सतपाल जब अपनो के बीच होता तो उसे अकेला पन महसूस होता और जब वो बाहार आता तो उसे कुदरती सुकून हासिल होता। वो दूनिया के ऊपर पडे वक़्त के पर्दो को हटाकर किसी दूनिया का नज़ारा देखा करता। क्षण भर में ही उस की आँखे जैसे किसी फ्रैम से झाकने लगी हो और उसके चेहरे पर सैकड़ों फुल खिल गये हो।
रोशनी की किसी किरण न जैसे उसके हाथेलियों कोई दिव्य मणी रख दी हो जिसके तेज से उस के शरीर में दिव्यमान उजाला भर गया हो। चारों तरफ आते-जाते लोगों की भीड़ कहीं से कहीं चली जा रही होती और वो वही पर ठहरा हुआ जैसे किसी के चरित्र की अदाकारी को पेश कर रहा होता।

लाईट, कैमरा, एक्शन......

माहौल में कुछ बदल जाता। वो अमिताभ बच्चन की नकल कर के कहता, "रिश्ते में तो हम तुम्हारे बाप लगते है नाम है शहनशा" फिर फौरन वो राजकुमार बन जाता। जानी हम सोदागर है हमारे चौदह घर है"

एक ही टेक में वो कई सीन बना देता। इस तरह से फिल्मी एक्टरों के डायलॉग और एक्टींग करके वो सब को हँसाता फिरता था।

कभी भी वो तमाशा दिखाने वाला बन जाता कभी तमाशे वाले का जमूरा बन जाता।

राकेश

3 comments:

vijay kumar sappatti said...

amazing story ,,,, padhkar chup sa ho gaya hoon ... badhai ..

vijay

pls read my new poem "झील" on my poem blog " http://poemsofvijay.blogspot.com

Urmi said...

मेरे ब्लॉग पर आने के लिए और टिपण्णी देने के लिए शुक्रिया!
मुझे आपका ब्लॉग बहुत अच्छा लगा! बहुत ख़ूबसूरत और दिलचस्प कहानी लिखा है आपने!

Ek Shehr Hai said...

shokirya
aap ke liye hum hamesha kahani-kissagohio se avgate karate rahegen.