Tuesday, August 4, 2009

एक संवाद –

शख़्सियत और जगह को हम कैसे देखते हैं? उसके साथ मे दोहराना क्या है? यहाँ पर दोहराना खाली कह देना ही नहीं है, वे कभी बयाँ करना होता है तो कभी उतारना।

ये सवाल सर्वहारा रातें के पन्नो मे बखूबी उभरता है - लेकिन उस शाम इस किताब के लेखक से बात करने के बाद मे इन दोनों शब्दों के मायने ही कुछ और बने।

शख्स जिसको देखने के कई रूप हो सकते हैं लेकिन सबसे ज्यादा मजबूत रूप कौन सा है? जिसे देखकर हम उसकी छवी बनाते हैं? एक काम करने वाला वर्ग खुद को काम के मालिस मे मांधता रहता है, खुद को चमकता रहता है, खुद को सम्पूर्ण बनाने की कोशिश मे वो खुद को पॉलिस पर पॉलिस करता रहता है। यही शायद उसको देखने के और बयाँ करने के कारण बन जाते हैं।

लेकिन क्या हमें पता है कि हम जिसे देख रहे हैं, काम करते हुये, बैठे हुये, बातें करते हुये या किसी चीज को निकालते हुये। वे वही शख्स है जो वो साफ नजर आ रहा है या इसके अलावा भी वो कुछ और है?

शख्स अपने साथ मे अपनी कई और छवि लिये चलता है। जिसे वो मांजता या निखारता हुआ भले ही नज़र न आये लेकिन वो उसके पूरे दिन के घेरे से बनाता चलता है। यहाँ पर शख्स एक जीवन की भांति लगा जिसमे एक शख्स नहीं बल्कि उसमे कई शख्सो को जोड़कर देखा जा सकता है। जिसमे शख्स कभी, यादों को दोहराने वाला नहीं बनता, कभी काम को लिबास बनाकर जीने वाला भी नहीं रहता, कभी ज़ुबान को बनाकर उसे दोहराने वाला भी नहीं रहता। शख्स यहाँ पर एक हवा और पानी की तरह से जीता है जिसकी जुबान और रातें खुद को नया रूप देने लिये जी जाती हैं।

मेरे कुछ सवाल थे जो मैं पिछले दिनों लेखन और दोहराने के तरीको मे किसी जीवन और शख्सियत को उभारने की कोशिश कर रहा था। जो सर्वहारा रातें किताब के बाद मे सवाल को गहरा कर देती है।

मेरे आसपास मे कई कहानियाँ सुनी और सुनाई जाती हैं। कभी उदाहरणों के तौर पर तो कभी समा बाँधने के लिये तो कभी जगह को बताने के लिये। हर कहानी कभी एक दूसरे से बंधी - जुड़ी लगती है तो कभी एकदम अलग दिशा की। मगर वो सुनाई किस लिये जा रही है उसका अहसास एक ही रहता है।

इन कहानियों मे अनगिनत लोग बसे होते है, जिनको कभी मैं नहीं मिला, उनको कभी देखा भी नहीं है। कहानियों मे आये लोग कहानियों मे है लेकिन असल जिन्दगी मे वो कहीं स्थित नहीं रहते। उनका कोई रूप नहीं दिखता। मैं कभी सोचता हूँ की किसी कहानी के जरिये आने वाला शख्स कोई और नहीं बल्की सुनाने वाले की ही दूसरी छवि हैं औ‌र कभी सोचता हूँ की ये शख्स बनाये - रचे गये रूप है कोई शख्स नहीं है।

मेरे इस घुमाऊ सवाल के बाद मे शरीर और आकार को लेकर बातचीत चली, जिसमे मेरा सवाल था‌ की जो रूप कहानी मे बनता है वो कभी नजर नहीं आता, ऐसा लगता है जैसे वो बौद्धिकता हर किसी के अन्दर का ही रूप है। तो मैं उन कहानियों मे बसे लोगो को अपने आसपास मे स्थित करके उसे बयाँ करने लगता हूँ। किसी जगह को सींचते हुये।

इस पर मेरे एक साथी ने कहा, "मुझे लगता है की मैं कई अनेकों शरीर से घिरा हुआ हूँ लेकिन वो अहसास नहीं मिलता जिसमे उन्हे मैं ढाल पाऊँ।

बातचीत मे शरीर और उसका अहसास, हमारी सोच और बातों मे बेहद टाइट लग रहा था जिसमे जॉक रांसियर केर साथ बात करने के बाद उभरा, "शरीर हो या कहानी, दोनों की अपनी - अपनी जुबान होती है, और इन दोनों को लिखने वाले की अपनी। हमे ये तय करना होता है की हम कौन सी जुबान बनाये जिसमे कुछ छुटे भी और वो भी न रहे की जिसको लिख रहे हो वो वही रहे जो वो है। हमें अपनी और उसकी जुबान दोनो को सोचना होता है। जिससे किसी तीसरी जुबान का बनना तय होता है। वही उन सारे सवालो और शख्सियतों को खोल पाती है। इतना गहरा सोचना और खुद के लिये सवाल बना लेना कभी कभी सामने वाली चीज से मिलने से रोकता है। हमें पहले टकराना होता है, जिससे हम सवाल तय कर पाते हैं, मिल पाते हैं।"

ये तीसरी जुबान क्या होती है?

लख्मी

No comments: