Tuesday, October 13, 2009

यहाँ मोड़ बहुत हैं

( रोज़गार विभाग )

बात कुछ खास नहीं है।
ये ऐसी जगह है जो ज़िन्दगी मे कोई बदलाव तो नहीं लाती लेकिन फिर भी कहीं न कहीं हर किसी के साथ जुड़ी रहती है जिसमे दर्ज हो जाना एक संटुष्टी ला देता है कि "चलो हो गया" अब इंतजार की दुनिया शुरू।

एक वक़्त को मान लेते हैं जैसे इसकी लाइन मे लगे रहना ही ज़िन्दगी है। जिसमे हमें ये पता नहीं होता की हमारे आगे कौन लगा है और हमारे पीछे कौन? वोकोई लड़की है या लड़की? उसकी उम्र क्या होगी? खैर, 18 साल से तो ऊपर ही होगी। वो दिल्ली के कौन सी जगह मे रहता होगा? देखा जाये तो पूरी की पूरी लाइन अदृश्य ही बनी रहती है। बस, अपने नम्बर और अपने से आगे के नम्बर को सोचा जा सकता है लेकिन अपने से पीछे के नम्बर और उसकी ज़िन्दगी की तो कल्पना भी नहीं की जा सकती। हर कोई यहाँ पर अपने नम्बर से इस लाइन का सबसे आखिर का नम्बर है।

अभी थोड़ी ही देर मे एक और लाइन लगने वाली है।


उसने दरवाजे को जोर से धकेला। बारिश पड़ जाने के कारण बहुत जल्दी थी अन्दर घुसने की, कि कहीं सारे डॉकोमेन्ट न भीग जाये। वैसे तो सभी कागज़ो को उसने पन्नी मे अच्छी तरह से लपेटा हुआ था और सामने ही तो वो खिड़की थी जहाँ पर उसे पहुँचना था। वो जल्दी - जल्दी चलते हुये बोला, “लगता है बारिश की कारण कोई नहीं आया।"
वो सीधा खिड़की के पास मे पहुँच गया। जैसे ही उसने खिड़की पर पहुँचकर अपने सारे कागज़ निकाले की पीछे से कई सारी आवाज़ों ने उसे घेर लिया।
“ओ भइये यहाँ - कहाँ, तेरे को ये लाइन नहीं दिखी? चल पीछे से आ।"

पूरी की पूरी लाइन दिवार से चिपकी हुई थी। ग्राउंड के बाहर लगे पेड़ों की झाड़ियों की ओटक मे सभी खुद को और कागज़ों को बचाये खड़े थे। जो बारिश मे जल्दी पहुँचने की फिराक ने दिख नहीं पाई। जो दरवाजे तक ही जाती थी लगभत 30 से 35 लोग तो होगें। वो लाइन को देखते - देखते सबसे आखिर मे जाकर खड़ा हो गया। उस समय सभी की नज़र उसी पर थी। लाइन के शुरू मे ही दो पुलिसकर्मी भी खड़े हुए थे। जो सभी के कागज़ों मे लगी तस्वीर से चेहरा मिला रहे थे। उसके साथ – साथ कुछ पूछ भी रहे थे।

तेज हवा और बारिश की बौछारों के कारण शख़्स बिना बोले ही शौर कर रहा था। सभी के हाथों मे लगी पन्नियाँ काफी हल्ला मचा रही थी। हवा के साथ लड़ रही थी। सभी ने अपने कागज़ सीधे हाथ की तरफ मे पकड़ रखे थे। जो हाथ दिवार की ओट मे था। आज खुद को बचाना जरूरी नहीं जितना की कागज़ों को बचाना मायने रखता था। अभी खिड़की पर काम थोड़ा सुस्त था। इतने सभी अपने - अपने फोर्म भरने की बातें कर रहे थे।

पीछे खड़े शख़्स ने पूछा, “ भाई साहब आप कब आये?”

उसने लाइन को लम्बा हुये जो मन मे आया बोल दिया, “भाई साहब मैं तो अभी आया हूँ तभी तो आपके आगे खड़ा हूँ अगर पहले आया होता तो आपसे चार आदमी आगे खड़ा होता। क्यों भाई साहब?”

वो बस, “सही बात है भाई" कहकर चुप हो गया।

आज यहाँ पर देखकर लग रहा था जैसे आज कुछ पंगा है। नहीं तो रोज़गार विभाग मे पुलिस वालो का खड़ा होना कोई मतलब नहीं बनता है। एक – एक कागज़ को चैक करना और सवाल करना। ये क्या कोई नया नियम लागू हो गया था। कुछ समझ में नहीं आ रहा था। उससे आगे वाले शख़्स बता रहे थे की आजकल लोग बहुत शातिर हो गये हैं। काम तो मिलता नहीं है तो जो लोग अपने लिये कुछ नहीं कर पाते तो उन्हे अपने साथ मे ले आते हैं और उनके कागज़ दिखाकर यहाँ पर नाम दर्ज करवा लेते हैं और रोज़गार की मांग कर जाते हैं फिर अगर रोज़गार मिल जाता है तो जिसके कागज़ लेकर आये थे उसे उसी मे नौकरी दे देते हैं। तन्खुया उन्हे देते हैं और मुनाफा खुद से कमाते हैं।

वो कुछ देर सोचने के बाद मे बोला, "औ यानि नाम आपका और पैसा मेरा अच्छी पार्टनरसीप है।"
उसने इस बात को कहकर अपने दिमाग से ऐसे निकाल दिया जैसे स्कूल की हिन्दी किताब की कहानियों में कोई लाला अपने दूग्ध में से मक्खी को निकालता था।

"कहीं ऐसा भी कभी होता है भला?

लाइन में लोग बढ़े चले जा रहे थे । कभी कुछ ही लोग आगे बड़ जाते और कभी पूरी लाइन एक – दूसरे को धक्का मारने पर मजबूर हो जाती। लेकिन जिस कारण धक्का लगता। वे थी बारिश और उसी से बचने के लिये आगे कोई साधन नहीं था तो लोग अपना-अपना नम्बर लगाकर कहीं किसी ओटक में छुपकर खड़े हो जाते। लोग पूरे ग्राउंड में घूमते नज़र आ रहे थे।

उन्ही आते लोग में से एक शख़्स घूमता हुआ आया। वो सभी से कुछ पूछ रहा था। वो आया और पैंसिल को हाथ पर चलाते हुए बोला, "भाई साहब क्या मैं पैंसिल से फोर्म भर सकता हूँ?”

उसने इन साहब की तरफ नज़रे की , सफेद कमीज़, नीली पैन्ट और आँखों में पर सफेद नज़रों का चश्मा।, “भाई साहब आप कितने पढ़े-लिखें है?”
वो बोला, “मैं बीए कर रहा हूँ।"
“तो भाई साहब जब पैंसिल हाथ पर नहीं चल रही तो पेपर पर क्या चलेगी? बारिश का मौसम है पैंसिल धुल जायेगी पैन से भरिये।" वो ताना कसता हुआ बोल पड़ा।

ये सुनकर वो हँसते हुए चला गया और ये भी हँसने लगा। "बताओ इतने पढ़े -लिखे लोग पैंसिल को हाथ पर चला रहे हैं क्या यार।"

इसी को सोचते-सोचते वो हँसे जा रहा था। बारिश तेज होने की वज़ह से लाइन के आगे की जगह में पानी भर गया था। अब तो सभी को उसी में से गुज़रना पड़ रहा था और लोगों की रफ़्तार में भी थोड़ा हल्कापन आ गया था। लाइन में खड़े-खड़े पाँव दर्द करने लगे थे पर यहाँ पर तो किसी को यह भी नहीं कह सकते थे की हैंडीकैप हूँ पैर में दर्द हो रहा है। क्या मैं आगे जा सकता हूँ?" यहाँ पर लाइन मे लगने वाले सभी हैन्डीकैप ही थे। किसको बोलते? मगर इतना तो तय था की लंच से पहले नम्बर आ ही जायेगा। जमीन में पानी अब कुछ ज़्यादा ही भर गया था। उसके आगे वाला शख़्स बोलकर गया, “भाई ज़रा मेरी जगह देखना मैं अभी आता हूँ।" अब नम्बर आने वाला था उस शख़्स का। थोड़ी ही देर में वो वापस आया उसने अपनी पीठ में एक लड़की को बैठाया हुआ था। उस लड़की ने अपने हाथों में एक पन्नी पकड़ी हुई थी और सभी को देखते हुए कुछ बातें कर रही थी । बातें करते - करते वो खूब हँस रही थी। उसकी उम्र से तो वो बीस साल की ही लग रही थी। सभी लोग उन्ही दो जनों को देखकर रहे थे। उस लड़की की खिलखिलाती हँसी बेहद अच्छी लग रही थी। वो आदमी जिसने उस लड़की को पीठ पर बैठाया हुआ था वो भी उसी बातों का जवाब दे रहा था। दोनों बातें करते हुए खिड़की पर आ गए थे। उस लड़की खिड़की पर आते ही खुद को संभाला । वो अपना दुप्पटा ठीक करते हुए खिड़की के अन्दर झाँकने लगी। वो खिड़की की ऊँचाई तक तो आ ही गई थी। उसने रोज़गार विभाग मे नाम दर्ज कराने के साथ – साथ एक मोबाइल साइकिल वाली एस.टी.डी का भी अप्लाई किया था। जिसके लिए उस लड़की ने फोर्म भरा था। वो जैसे ही वहाँ पर पहुँचे तभी एक पुलीष वाले ने उन्हे रोका और उनसे पूछा, “ये कौन है तेरा?”

वो मुस्कुराते हुए बोली, “ये मेरा बड़ा भाई है।"

उसने इतना कहा और वो अन्दर चली गई। थोड़ी देर के बाद में एक शख़्स आया, जो बोल नहीं सकता था। उसने हर चीज़ को एक पेपर पर लिख रखा था। वो कौन है?, कहाँ रहता है?, उसका विक्लांग के प्रमाणपत्र पर कितना परसेंट लिखा है? सब कुछ था। वो बस, अपने साथ मे किसी को ले जाना चाहता था की कोई अगर कुछ ऐसा पूछ ले जो उसने पेपर मे नहीं लिखा है तो वो उसे समझा सके। क्योंकि सरकारी आदमी पर तो इतना वक़्त होगा नहीं की उसको समझने में अपना समय दे। वो पूरे मे घूम रहा था। मगर यहाँ पर ऐसा माहौल था की जैसे हर किसी की दिक्कत एक- दूसरे से बड़ी है। वो अपनी संभाले या किसी और की। वो ऐसे ही घूमता हुआ यहाँ पर आया। उसने अपनी डायरी और एक अलबम सोनू के हाथ मे पकड़ा दी। वो बस, उसकी अलबम को देखता रहा। वो एक गायक है, तस्वीरों मे तो ऐसा ही लग रहा था। कई सारे स्टेजशोह मे वो गा रहा था और नेता लोग उसे तोहफे भी भेंट कर रहे थे। रामलीला थी, किसी की पार्टी थी, जागरण था। जिन्हे लोग आधी रात के गायक कहते हैं।

उसके साथ मे, एक पुलीस वाला चला गया। बाकि सब उसके बारे मे बातें करने मे लग गए थे। ऐसा लग रहा था जैसे कोई यहाँ से जाने की सोच ही नहीं रहा है। एक – दूसरे को देखने के बाद सोनू का भी नम्बर आ ही गया। वो अपनी पन्नी में कागज़ निकालता हुआ खिड़की पर दाखिल हुआ । वही पुलिष वाले के दो सवाल फिर अन्दर दाखिल। अन्दर में घुसते ही उसने सारे पेपर वहाँ पर बैठे एक शख़्स के आगे रख दिये। उसने उन पेपरों से पहले फोर्म को देखा, “अच्छा तो तुम्हे भी एस.टी.डी चाहिये?"

अब उसकी नज़र अलग काग़जों पर गई। उसने पूछा, “आप हो सोनू? पर आपका तो एक पाँव खराब है और आपके सार्टिविकेट पर लिखा है बोथ ऑफ लैग।"
पहले तो उसे विश्वास ही नहीं हुआ। ऐसा तो हो नहीं सकता। उसने उन पेपरों को अपने हाथ मे लिया और देखा। बोथ आफ लैग का क्या मतलब होता है वो उसे पता नहीं था। आज जब पता चला तो बस, उसके दिमाग में बाहर खड़ा पुलिष वाला और उसका डंडा ही नज़र आने लगा। आज से पहले सार्टिविकेट में ये लिखा है ध्यान क्यों नहीं दिया? इतने पढ़े लिखे लोगों ने देखा उन्होने क्यों नहीं बताया। आज गली के सारे पढ़े लिखे लोगों को बताऊँगा। मगर बेटा आज तो गया तू।" फोटो लगी है ये तो ये मानेगा नहीं और डाक्टर ने गलती की है । ये तो ये मान ही नहीं सकता। अब क्या करें?

वो वहीं पर खड़ा उस शख़्स की सूरत देखता रहा और थोड़ी देर के बाद बोला, “सर लगता है मैं गलती से अपने साथ वाले का पेपर ले आया हूँ । हम अभी बाहर में एक-दूसरे का सार्टिविकेट देख रहे थे ना ! इसलिये। मैं अभी ले आता हूँ।"

बस, दिमाग मे इतना था कि कैसे ना कैसे यहाँ से निकल जाऊँ फिर देखूगाँ। उसने उन काग़जों को एक बार भी नहीं देखा और बस जितनी तेज वो चल सकता था उतनी तेज चलता वो बाहर आ गया। बाहर आकर सोचने लगा की अगर एक गलती होती तो चलता भी यहाँ तो बोथ ऑफ लैग लिखा था। यानि के दोनों पैर ख़राब। ये कैसे हो गया? सार्टिविकेट को बने भी सात साल हो चुके हैं। अब तो बदल भी नहीं सकता और इसी को देखकर रेल का पास, बस का पास और आईकार्ड बने हैं। तब तो किसी ने नहीं देखा या कहा। आज ये क्या हो गया। बस, अब हो तो कुछ नहीं सकता था पर वो अपने पर बहुत हँसा और हँसतें हुए अपने माथे पर हाथ मारते हुए वो बोला, “साला किश्मत ही ख़राब है।"

लख्मी

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