Monday, November 9, 2009

चार दोस्तों ने पूरी रात कुत्ते को तापकर गुजार दी....

आज की रात एक - दूसरे के हाथ पकड़कर चलने वाली रात थी। दिल्ली की आग कम थी जो यहाँ की हवाओ के बीच मे मरने चले आये थे। जगह के बनने मे ये भी करना जरूरी होता है। ये यहाँ की पहली शादी थी। बारात अपने छपे वक़्त से 2 घण्टा देरी से थी। रात मे बाजे - गाजे के साथ मे दो तीन घण्टे और बितने वाले थे। सभी कोशिश मे थे जल्दी से दावत मिल जाये तो कहीं पर सोने का जुगाड़ किया जाये।

जनमासा शादी के घर से एक किलोमीटर की दूरी पर था। सभी वहाँ पर बैठकर दावत के बुलावे का इंतजार कर रहे थे। कोई हाथो को बांधे यहाँ से वहाँ घूमता तो कोई किसी को तालशता फिरता। लेकिन इतना आसान नहीं था आज की रात मे किसी को आसानी से देखा जा सके। लोग जैसे दिखते वैसे ही धूएँ मे कहीं खो जाते। अचानक ही एक की जगह दो निकल आते तो कभी कोई भी नहीं दिखता मगर आसपास जैसे कई लोगों के होने का अहसास हर वक़्त घूमता रहता। कभी खाली आवाज़ आती तो कभी किसी की आहाट, दिल मे तभी एक खुशी सी महसूस हो जाती की कुछ भी हो हम अकेले नहीं है।

दावत खा चुके थे - जनमासा लोगो से भर गया था। सो लोगों की बारात मे कुछ 7 रजाइयाँ ही थी, लोग न जाने कैसे - कैसे उसमे घुसे हुए थे। एक - एक रजाई मे लोगों की गिनती नहीं थी। जो भी पहले आ गया था वही रजाई लेकर पड़ गया देरी से दावत खाने वाले जनमासे से बाहर ही खड़े रह गये थे।

सारे तो उस जनमासे मे सो गये लेकिन बचे चार दोस्त जो अपने लिये जगह ढूँढते रहे। पहले तो वो सोचने लगे की बाहर ही बैठ जाये मगर बिना आग के बाहर बैठना मुश्किल था। धूंध में जलाने के लिये लकड़ियाँ लाना भी आसान नहीं था। यहाँ अगर आदमी हाथ छोड़ दे तो खो जाये। उसके बाद मे आवाज़ मारकर ही उन्हे पास लाना हो। बहुत ढूँढने के बाद भी एक भी लड़की नहीं मिली।

चारों के चारों डाल हाथ मे हाथ वो निकल गये जनमासे से थोड़ा सा दूर। ठंड बड़ती जा रही थी। रात इतनी आसानी से गुज़र जाये ये भी तय नहीं था। बस, आँखें खोज़ रही थी कोई ऐसी जगह जहाँ पर बैठकर रात बिताई जाये। पूरा जनमासा घूमने के बाद मे एक ओटक वाली जगह मिली। जहाँ पर थोड़ी सी गर्माहट थी। वहीं पर उन्होने रात बिताने की ठानली। जमीन पर पड़ी एक बोरी मे बहुत तेज - तेज धूआँ निकल रहा था। गरमाहट के अहसास मे वो चारों दोस्त वहीं पर बैठ गये। जमीन पर बैठने के बाद मे तो जैसे हवाओ ने उनको छूने का काम ही बन्द कर दिया था। चारों के चारों बातों में और उस ताप के अहसास मे कहीं खो गये। पूरी रात हाथों को फैलाये ठंड को काटते हुए उन्होने रात को विदा करने की कोशिश करी।

उन चारों के घेरे मे धूएँ की परत कभी चड़ती तो कभी ख़त्म हो जाती। लेकिन हाथ जैसे उस बोरी को ढके चड़े थे। बोरी मे धूआँ भरा हुआ था। ऐसा लगता जैसे रात ने पूरी गरमाहट इसी मे भर दी हो। वो चारों अपनी बातों मे लीन हो चले, ये तक याद नहीं रहा कि उनको यहाँ पर बैठे कितना वक़्त हो गया है। पूरी रात बीत जाने के बाद मे वो वहाँ से उठने के लिये खड़े हुये और उस बोरी को भी उठाने के लिये जैसे ही हाथ बड़ाया तो उसके नीचे से एक कुत्ता बड़ी घबराहट मे उबासी भरता हुआ भाग खड़ा हुआ।

वो चारों एक – दूसरे को बड़ी भौचक्केपन से देखने लगे। पहले तो डर गये लेकिन उसके बाद मे बहुत हँसे - पूरी रात उन्होने कुत्ते को ताप कर बिता दी थी।

यही कहानी पूरे सफ़र मे रोनक रही - चार दोस्तों ने कुत्ते को तापकर पूरी रात काट दी थी।

लख्मी

पहेलियों मे समाई कहानियाँ . . .

ये कहानी उतनी ही पुरानी है जितनी की वे दुनिया जो कहने और सुनाने के अहसासों मे बांटी जाती रही है। इनमें कई ऐसी पहेलिनुमा दुनिया है जिसको समझने में हर वक़्त दिलचस्पी बड़ती रहती है। इस दौरान हम कुछ ऐसे सफ़र से गुज़रेगें जिसमें हम कुछ दिमाग चलाकर आगे बढ़ेगें। थोड़ा अटकते हैं - वे कहानियाँ जिनमे हम आसानी से उतरते जाते हैं लेकिन कभी ठहरकर ये भी नहीं सोचते की वे कहानियाँ हमें कितने ऐसे लोगों से मिलवाती हैं जिनसे हम कभी मिले नहीं मगर जिसकी भी ज़ुबान से उस कहानी को सुना बस, उसी शख़्स को कभी-कभी कहानी का हीरो समझकर उस कहानी मे उड़ने लग जाते हैं।

कुछ कहानियों को बाँटना आरम्भ करते हैं -


कहानी की शुरुआत करते हैं: -

तीन भाई अपने खेतों मे बहुत खुश रहते । अपनी मेहनत और हर वक़्त को सींचने मे उन्हे बेहद आन्नद आता। उनका घर उनके खेतों से ज्यादा दूर नहीं था लेकिन फिर भी वो खाना खेतों मे ही खाते थे। दिन भर काम के आन्नद मे वो तीनों एक दूसरे से मिल नहीं पाते थे। एक खेतों मे पानी का काम करता तो दूसरा बीज देखता तो तीसरा हर वक़्त खेतों के रंगों को ही देखता रहता था।

तीनों के तीनों दोपहर मे एक पहर मे ही अपने - अपने काम के आन्नद के बारे मे बतलाते थे। जो करना उनको बेहद खुश कर देता था।

एक बार काम से थोड़ा सा निज़ात पाकर वो तीनों खाने के इन्तजार मे बैठे थे। तीनों को बेहद आराम महसूस हो रहा था। बीच वाला भाई बता रहा था कि खेतों को अब पकने मे ज्यादा वक़्त नहीं लगेगा। उनकी खुशबू और रंग निखर गया है। दो दूसरा कहता, “फिर तो पानी को बन्द करना होगा। नहीं तो सारे के सारे रंग खो देगें।

इन सभी पर बात चल रही थी। तभी उनके घर से खाना आ गया। उन तीनों ने कहा, “खाना अभी नहीं खायेगे हम, तुम जाओ हम थोड़ा आराम करले उसके बाद मे खायेगे। " उनकी बीवी खाना रखकर चली गई। वो तीनो भाई खाना यूहीं रखकर सो गये। थोड़ी देर के बाद मे उनमे से छोटा भाई उठा उसने देखा की दोनों भाई सो रहे हैं तो उसके रोटियों के तीन हिस्से किये और अपना हिस्सा खाकर सो गया। उसके बाद मे दूसरा भाई उठा - उसने भी देखा की दोनों भाई सो रहे हैं उसने भी रोटियों के तीन हिस्से किये । अपना हिस्सा खाया और खाना पैक करके सो गया। उसके बाद मे तीसरा भाई उठा। उसने देखा की दोनों भाई सो रहे हैं उसने भी रोटियों के तीन हिस्से किये। अपना हिस्सा खाया और रोटियाँ पैककर के सो गया।

अब बात अटक गई की आखिर उसमे रोटियाँ कितनी थी?

क्या हम ये जान सकते हैं....

लख्मी

सब कुछ तेर रहा था

हाथों में चप्पल पकड़े वो दरवाजे पर ही बैठी थी और दरवाजे के एक कोने में कई कॉकरेज मरे पड़े थे। अक्सर बारिशो में गली के सीवर भर जाते हैं तो सीवरों में सारे कॉकरेज बाहर निकल पड़ते हैं। जो गली में सबसे नीचे वाले घर में घुसने की फिराके में रहते हैं।
राजवती जी को ये बात बिलकुल पसंद नहीं है की बारिश का पानी उनके घर में भरे। कई तरह के वो इन्तजाम करके रखती हैं पर फिर भी वो पानी को रोक नही पाती। कभी पानी बौछारों के जरिये दरवाजे से अन्दर आता है तो कभी छत से टपकने से। दरवाजे पर तो वो छाता खोलकर लगा देती है और टपकने में सारे घर के बर्तन। बाल्टी से लेकर पतीले तक को वो पूरे घर में अलग-अलग जगह पर लगा देती हैं।

अगर दिन मे बारिश पड़े तो भी ठीक है पर रात में पड़ती है तो इनकी हालत ख़राब हो जाती है। तब तो ना नींद आती है और ना ही ध्यान आराम भरता है। वो पूरे घर को पानी से बचाती और बड़-बड़ाती रहत है और अगर लाइट चली जाए तो दुखों में जैसे उनके सोने पर सुहागा हो जाता है।

कल रात भी कुछ ऐसा ही हुआ सारे कॉकरेजो को मार वो पानी रोकने का इन्तजाम करके वहीं नीचे बाराम्दे में लेट गई और बाकी सारे तो पहले से ही नींद में खोये हुए थे। काफी देर तक तो वो दरवाजे पर ही देखती रही। हर हिलती-डुलती चीज उन्हे कॉकरेज ही लगती। यही देखते-देखते उन्हे कब नींद आई होगी उन्हे पता ही नही चला। बिना पंखे के दरवाजे से आती हवा और बाल्टी-पतीलों में टपकते पानी की आवाज किसी लोरी का काम कर रही थी। यूहीं पूरी रात बारिश पड़ती रही। आधी ही रात के बाद में पानी के टपकने की आवाज भारी हो गई थी और ऐसा लग रहा था कि जैसे कोई हिला रहा है। नींद से भरे शरीर को कोई झूला रहा है। ये कोई सुबह का झूला सावन के गीतों के साथ का अहसास नहीं था। मगर फिर भी चादर ठीक से आ नही रही थी। इतने मे बगल में रखी तेल की कटोरी सिर से टकराई। राजवती जी ने उसे अपने हाथ से पीछे कर दिया। तो वो दोबारा से नीचे की तरफ से टकराई। चाहते ना चाहते उन्हे अपनी नींद तोड़नी पडी। ऑख खुलते ही नज़रें एक जगह पर रुक ही नहीं पाई। सब कुछ तैर रहा था। कटोरियां, एस्ट्रे, झाडू, पतीले, चप्पले, रात के झूठे बर्तन और उनके साथ-साथ बिस्तर भी। वो हडबडाती और बड़बडाती हुई उठी सबके बिस्तर को खीचते हुए चिल्लाई, “किसी की ऑख नहीं खुलती, एक मैं ही हूँ जो मरती रहती हूँ। देखलो आज मैं सो गई तो क्या हुआ।"

ये कहती-कहती वो पानी से बर्तनों को उठाने लगी और बाकी के लोग ये नहीं समझ पा रहे थे की अब करना क्या है? और चुपचाप ऊँचाई वाली जगह पर मुरझाए से बैठ गए।

"कब से कह रही थी की बाहर चबूतरा बनवालों पूरी गली का पानी हमारे ही घर में भरता है। मगर मेरी कोई नहीं सुनता।"

अब तो पूरा घर पानी निकालने में जुट गया था सभी छूपी चीजें बाहर निकल आई थी फ्रिज़, टीवी और टेबल के पीछे का सारा समान बाहर ही तेर निकला था। पैन, पैन्सिल, दवाइयाँ, डिब्बियाँ, पॉलिस की डिब्बी, रिब्बन, बिन्दी के पैकेट इन सब चीजों को देखकर सभी के सभी उन्हे ही चुनने मे लग गए। सभी खोया समान जैसे मिल गया था।

पानी निकालने में तो पूरा बीस मीनट लगा पर नींद आने में चार घण्टे। बारिश रूक जाने की दुआ निकलने के बाद।

"अरे राम जी फट गए हो क्या?”

लख्मी