Thursday, January 28, 2010

प्रहार -

अपने एक साथी के साथ प्रहार शब्द को लेकर बात हुई. उसके सवाल में इस शब्द के मायने चाहे कुछ भी हो लेकिन ये शब्द जीवन के किसी न किसी हिस्से को अपने जोर के तले दबा ही लेता है. प्रहार कोई अकेला शब्द नहीं है और न ही अकेला इसका कोई मतलब है बल्कि ये अपने साथ में किसी बात, फेसले और हुकुम को उसकी भरोसाहीन गति के तहत उसे सामने की तरफ में फेंक देता है. जिसका मोल जीवन में उतना ही है जितना की हमारे हर बात पर अमल करने के जैसा होता है.

असल मायने में देखा जाये तो प्रहार कोई दंड या एक्शन नहीं होता. वो कोई आवाज़ भी करेगा ये भी नहीं होता और शांति के भाग कोई हिस्सा होगा ये भी. लेकिन इसकी भूमिका किसी बदलाव और तबदीली के माध्यम के रूप में ही होती जाती है.

जीवन और जीना सही मायने में देखा जाये तो इससे भरा हुआ है. हम चाहें तो भी इसके कोनो से बाहर नहीं हो सकते. दो अलग तरह के धाराओं हम बहते हैं - पहली बोद्धिक जिंदगी और दूसरी समाजिक जिंदगी. इसमें में हम खुद की बुनाई करते जाते हैं. कभी खुद को गिरते हैं तो कभी खुद को खड़ा करते हैं लेकिन होते इसी में हैं.

क्या हमने पता है - जीवन के कितने टुकड़े मिलकर एक याद बनाते हैं? लेकिन असल में ये हमारा सवाल नहीं है. हमारा सवाल है - जीवन के टुकड़े होती क्यों है और कैसे होते हैं?

हम बहुत कम महसूस कर पाते हैं किसी महीम और नाज़ुक प्रहार को. हर वक्त कुछ चटक रहा है और हर वक्त कुछ चकनाचूर भी. इन दोनों स्तिथियों को अपने बोद्धिक और समाजिक जीवन के बीच में खड़ा होकर समझने की जरूरत होती है. ये दोनों स्तिथियां मांग करती हैं उस बीच के वक्त में जाने की. क्योंकि जब एक समाजिकता प्रहार करती है तो बोद्धिक टूटती है और जब एक बोद्धिकता प्रहार करती है तो समाजिकता बिखर जाती है. हमने इनके दरमियाँ रहकर अपने शब्दों और चेतनाओं को उड़न में लाना होता है.

क्योंकि जब एक कलाकार अपने पूर्णरूप से कलाकार है तो उसमे पल रही मनुषयता का नष्ट है और अगर कोई मनुष्य अपने पूर्णरूप से मनुष्य है तो उसमे जी रहे कलाकार का नष्ट है.

प्रहार इनको बनाता है - बहस में लाता है और एक दुसरे को एक साथ लेकर जीने की उमंग देता है. असल में ये कोई बंटवारा नहीं है.

लख्मी

Wednesday, January 27, 2010

किसी को पढ़ना क्या है?

पढ़ना अपनी अभिव्यक्ती से भेद में रहना। खुद को कोई Pouse देना, Start और End के बीच की धुनों में खुद को जमाये रखना। पढ़ना एक ब्रेकर की भांति अपने को शामिल किये रखता है।

असल, में पढ़ना कान, आँख और मस्तिक तीनों को एक साथ लेकर बहने के चलन के समान होता है। खुद की ज़ुबान के साथ खुद को सफ़र मे रखने के जैसा। सुनना अगर छवियों का नक्शा बनाता जाता है तो पढ़ना उन नक्शों के भीतर जाने ले जाने का न्यौता बनता है जिसमें हम अपनी रफ़्तार खुद से तय करते हैं किसी अन्य रफ़्तार के मोहताज़ नहीं होते।

जब कोई लिखता है तो कई छोटे-छोटे ऐसे पहलू उसमें दबे रह जाते हैं की उनको छूना या उनसे पार पाना बेहद कठिन हो जाता है। उन्ही पहलुओं से उस लिखने वाली शख़्सियत और लेखन मे आने वाले किरदार का गहरा रिश्ता उभरता है जिसे पिरोया गया है। ये रिश्ता कभी भेद बनता है तो कभी एक दूसरे के लिये कहीं पहुँचने के द्वार।

पढ़ना, उन द्वारों से होकर गुज़रने की कोशिश को बयाँ करता है। उन अनेकों छोटे पहलू किसी खास रिक्तस्थान की भांति बन जाते और उनके बीच खड़े होने का अहसास देते हैं। पढ़ने में हम खाली उसी को नहीं पढ़ रहे होते हैं जिसे लिखा गया है या बोला गया है। बल्कि उस जीवन तक तैर जाते हैं जिसमे वे सारा माहौल और दुनिया सजाई है। सुनने में और पढ़ने में एक यही महीम सा अंतर रहता है। सुनकर हम एक-एक करके आगे बढ़ते हैं लेकिन फिर भी हम एक पर ही रहते हैं मगर पढ़ना हमें सारी गिनती भूला देता है और दुनिया को परोस देता है।

पढ़ना हमें डूबने का अहसास देता है और सुनना हमें बह जाने का। इसी के बीच तैरती है सारी कायनात।

लख्मी

खमोशी - एक निर्जीवता

Silence - The Unconsciousness

कुछ देर खामोश रहने की कोशिश की। "खामोश" शब्द के असर को एक जीवित शरीर से टकराने के अहसास से। मगर उस कुछ ही समय में लगा मानो पूरा आसपास मुझमे खुद ही समाने की कोशिश कर रहा है। हर धीमी से धीमी आवाज़ अपना दायरा और बड़ा करती जा रही थी। लगता था जैसे मैं खुद को सुन सकता हूँ।

लेकिन, मैं ये कभी नहीं भूल सकता था कि मेरे इर्द-गिर्द बहुत बड़ा और गहरा शहर है जो बहुत तेजी से दौड़ रहा है और कितनों को बहुत पीछे छोड़ता भी जा रहा है। जिसे पकड़ पाना और उससे दूर जाना बेहद मुश्किल है।

इस कुछ ही समय ने मेरे अन्दर बहुत सी बातें और आवाज़ें भर दी थी। कल्पनाओं को खुला छोड़ने और उसके साथ बह जाने के लिए कई रास्ते खोल दिए थे।

ज़रा सोचें तो - जब हम खुद को सुन रहे होते हैं तो असल मायने में किससे मिल रहे होते हैं? किसी वक़्त से?, खुद के अन्दर बसे चेहरों से?, यादों से? या ताज़ा बनती कल्पनाओं से?

इसी तरह के कई सवाल बड़े होने लगते हैं।

मगर, खामोशी महज़ ज़ुबान को बन्द करना ही नहीं है शायद लेकिन इससे दिल और दिमाग का क्या रिश्ता है? वे तो निरंतर भागते - दौड़ते रहते हैं। नये और पुरानी चाहतों के दिवानेपन को पकड़कर नये मनसूबे बनाते हैं और कुछ ही पलों के बाद उन्हे तोड़ भी देते हैं। यही नीति लगातार चलती रहती है।

खामोशी का विराट रूप क्या है? खामोशी कहाँ तक जा सकती है? खामोशी क्या किसी को निर्जीव बना सकती है? इस कुछ समय में कुछ भी तो नहीं बदला और ना ही कुछ खामोश हुआ। मेरी ज़ुबान चुप थी मगर आसपास बहुत शोर में था।

लख्मी

Tuesday, January 26, 2010

फुटपाथ का द्वश्य

सड़क पर भारी-भरकम वाहनों की गिच-पिच से भरा शोर-गुल का माहौल। धूएँ की गंद और कानों के पर्दे को तकलीफ पहुँचाती। तिपहिया स्कूटर और कार इत्यादि के हॉर्न की आवाजें जो पल भर को झजोड़ के रख देती है।

अर्चना रेड लाईट के पास बने कॉरिडोर में बड़ी बसों आना-जाना लगा रहता है। जहाँ लगता है की किसी के लिये यहाँ ठहरने का वक़्त नहीं। सब किसी न किसी धुन में चले जा रहे है। रोज का एक मक्सद और रोज की कोई कोशिश जिससे माध्यम बनाकर ज़िन्दगी की किन्ही प्रतिक्रियाओं को अपने व्यक्तिव में गेरतें हैं।

वर्तमान जो कोई सांप बनकर जगह के सूनेपन को डस जाता है फिर कोई परी की कहानी माँ की ममता की गोद में सून्ने को मिलती है। बाप का साया सिर पर है तो जीवन की कोई भी कसौटी हो। अपनी परम्पराओं का पालन कर सब अपने लिये कुछ न कुछ बना ही लेते हैं।

आज सच के सामने खडे होकर जीना साधारण बात नहीं है। अनिश्चिता उस दलदल में ले जाती है जिसका कोई तल मालूम नहीं पड़ता। मन के तारों को जनह देने वाली उस छवि ने चंद पलों को जैसे बीतने से पहले ही रोक लिया हो। कुछ देर ठहरने का जो अनूभव के बाद जो ख्यालगोहि मैंने अपने आपसे की उसमे मुझे अपने सामने बनी छवि के प्रती मेरे मन वात्सल्याता का अंकुर फूटने लगा।

श्याम ढले जब रेड लाईट ने चलती गाड़ियों को लगाम देने का इशारा किया तो जैसे आस-पास रोशनी कोई गोला सड़क के उपर गिर गया हो। सारी गाड़िया रूक गये और हफ्ते इंजन गर्र-गड़ाने लगे। फुटपाथ पर एक 3 साल का बच्चा अपनी आँखों से सिस्क-सिस्ककर रो रहा था। चारों तरफ चौराहा और शोर-शराबे का माहौल जिसमें उस रोने वाले बच्चे का होसला अपना नियंत्रण खो रहा था। यातायात के सारे फंग्सन बने हुए थे। उस बच्चे का रोना किसी को सुनाई नहीं आ रहा था पर सब अपनी गाड़ियों में बैठे बाहर खड़े उस बच्चे की हालत पर तरस खा रहे थे। उसके करीब उस की शायद बहन थी जो उसके रोने को बार-बार नज़रअन्दज कर रही थी। वो अपने पास रखी स्टील की थाली को तडा-तड बजाये जा रही थी पर उसे जरा भी नहीं चूभ रहा था। जिसे देखकर शायद किसी का भी कलेजा मुँह को आ जाये।

इतनी संवेदना थी उसके मासूम से चेहरे में और सिस्कियों में जिसे महसूस करके मन व्याकुल हो उठा। मेरी व्याकुलता उसकी समस्या का समाधान नहीं थी। पता नहीं उसके इस हाल का जिम्मेदार कोन है और किसी जिम्मेदार ठहरा सकते है? मगर कम्बखत ये मेरे वहाँ होने पर लानत थी की क्यों न उस रोते बच्चे को गोद में उठा कर ममता दिखाई। खैर, समय निकल जाने के बाद खुद को कोसने का क्या फायदा। जरा उस लड़की को तो देखो जो बालपन में ही अपनी मेहनत का वो नजारा दिखाती जिसे देखकर हर आँखें हैरान हो जाती और कुछ उस नजारें को देखने के रोज आदी हो जाते वो भी हर बार की तरह उसके करतब देखकर चन्द शब्द जूबाँ पर लाकर खूद को तसल्ली देकर इस जगह से निकल जाते। वहाँ रह जाता तो सिर्फ उस फुटपाथ पर उन बच्चों की जिन्दगी का अंश। जो समय की कग़ार पर कभी उभरता और कभी अद्वश्य हो जाता।

वो लडकी सारी विपदाओं से अन्जान बनकर अपने रोज़ के रूटीन का अनुसरण कर खुद की कोई छवि बनाती जिसकी शायद ज़िन्दगी को भी जरूरत नहीं है। किसी को भला समझने के लिये 3-4 मिनट काफी होते हैं। हर रोज अगर यही द्वश्य आँखों को प्रभावित करता है तो वो कहीं न कहीं जीवन का हिस्सा बन जाता है। जो आप के हाजिर होने का संकेत देता है।

मेरे ठीक सामने खम्बे के पीछे खडे उस बच्चे का रोना अभी जारी था। उसकी बहन अपने शरीर का अंग-अग बांँस की लकड़ी की तरह मोड़ देती । यातायात के चंद लम्हात रोकते ही उसका जीवन का प्रक्रिया शुरू हो जाती। वो लगातार कलाइयों और बदन को मोड़ देने वाली क्रिया करने में व्यस्त हो जाती। सड़क पर खड़ी गाड़ियों में बैठे शख़्स आँखें फाड़े उसी ओर देखने लगते जहाँ उसके घायल हाथ-पाँव अपने दर्द का अहसास किये बिना मस्कत करने लग जाते। रोजाना के अभ्यास ने उसका शरीर लचीला बना दिया था। वो अपने हाथों को जमीन पर रखकर कला-बाजियाँ दिखाने लग जाती। एक बार फिर दो बार, इस तरह वो कई कलाबाज़ी एक साथ कर जाती। उसे देखकर लगता की अगर यही लड़की किसी जिमनास्टिक या किसी इंस्टीट्यूट में होती तो उसकी इस काबीलियत की तारीफें गढ़तें पर उस सड़क पर आए दिन बने माहौल की विवश्ता यही थी। वहाँ जो भी इस तरह का कुछ घटता उसे कोई बदल नहीं सकता था। जब वो लड़की दस कदम तक कलाबाजी करती हुई चली जाती। बच्चा वहाँ खड़ा हुआ रो रहा था। जैसे ही उसकी कलाबाजी खत्म हुई वो सड़क के पास बनी पटरी पर बिछाए जाल को उलांग कर स्कूटर, कार, मोटरसाइकिल वालों के पास चली जाती।

गोरे रंग और मासूम शक्ल वाला वो बच्चा उसे दूर जाता देख अजनबियों जैसा महसूस करता। वो लड़की उसे अपनी तरफ बुलाती जाल के इस पार पर वो सिर हिलाकर मना कर देता और वही कुदाकादी मचाने लगता। वो जाल के पास आता फिर जाल को छूता शायद वो कुछ समझने की कोई कर रहा था। मगर उसका बचपन उस पर लादे बोझ से छूटकारा दिला देता। वो जाल को छूता हुआ धीरे-धीरे दिवार की ओर चला जाता अपनी बहन के बूलाने पर भी वो वापस नहीं आता।

तभी सड़क की ग्रीन लाईट हो जाती और गाड़ियाँ रेस के मैदान में दौड़ने को अपनी जगह छोड देती। वो लड़की सब से पैसा मांगकर वापस उसी वहाँ से हट जाती और फि वो रेड लाईट होने का इंतजार करने लग जाती।

राकेश

Saturday, January 23, 2010

तकनिक को पहनकर सोने के जमाने आ गये।

मेरे ख़्यालों की मलिका
रात भर जागा बनाकर
इंटरनेट को खटोला मन का

झाँकता रहा पूरी रात बनकर
कोई संत, की शायद गूगल विन्डों से कहीं मिल
जाये कोई मंत्र

दूर संचार भी दूर था
थी सूचनाओं की मच्छलियों की घूसपेठ
मेरे मन के बाज़ार में
मिल जाये कोई तो तंत्र

इस चोर बाज़ार में
जहाँ बसा सकूँ कोई अपनी चिंगारियों का बसेरा
वहाँ किसी की अनूमती न हो
हो बे-लगाम मेरी सोचों का सवेरा

इस बेबाक सफ़र में
न कोई लक्ष्य न कोई मंजिल
अन्जान है यहाँ हर हमराही हमारा
गली-गली में लगे चिन्ह वापसी के
दिखाया लाईव ज़िन्दगी का
तामाशाबिन नज़ारा

कोशिश तो बहुत की, कि धरलूँ टिम-टिमाती जूगनूओं को
पर न था हताशा को ये गवाँरा
थे तार उलझे-उलझे मेरे किस्मत के
खत्म कर दिया वारलेस सिस्टम ने
नये जमाने के मॉडम आ गये
तकनिक को पहनकर सोने के
जमाने आ गये।


राकेश

Friday, January 22, 2010

हर समय हमारे साथ हमारी यद्दश्तौर और कल्पना

हम जो जीवन मे सोच रहे है उसका एक उदहारण, चित्र उभारना चाहिये। जो हमारी अवधारणाओं और विशेष विषय के उदाहरण पर विचार विमर्श उनको बाँटने से ही उनके जीवन बुनियाद मजबूत हो जाती है। जीवन के सभी तत्वों को गम्भीरता से लेना चाहिये जिससे ऐसा न हो की आप का लाइव दूसरों के पहलू से बहुत दूर हो जाये। यदी ऐसा होगा तो खुद में एक धूंधलापन पैदा हो जाने का डर आ जाता है। अपने जीवन को विशेष रूप से सोचने की कोशिश न छोड़ें।

अपने आपको हर किमत मे पकड़े रहे तभी बौद्दिकी ज़िन्दगी को हर्ष और उल्लास से जी सकेंगे। जीवन के संचार, संकेतों और प्रतिकों का अध्ययन है और आमतौर पर तीन शाखाओं में विभाजित है। शब्दों, लक्ष्ण और बातें जो वे उल्लेख के बीच सम्बंध, उनका औपचारिक संरचनाओं में संकेत के बीच सम्बंध लक्षण और उन लोगों पर न के प्रभाव के बीच सम्बंध जो है उन्हें उपयोग करें।

सकेतिकता अक्सर महत्वपूर्ण मानवविज्ञान आयाम होने के रूप में देखा है, उदाहरण के लिए का प्रस्ताव है कि हर संस्कृतिक, जीवन, समय को घटना संचार के रूप में देखा जा सकता है। हालांकि विज्ञान के तार्किक आयामों पर ध्यान केंद्रित कुछ वे ऐसे कैसे जीवों के पूर्वानुमान के बारे में और अनुकूलन के लिए, अपनी दुनिया में जगह बनाने के लक्षणिक रूप में प्राकृतिक विज्ञान के लिए और जीवन के कर्मकांडो में भी सम्बंधित क्षेत्र लाक्षणिक सिद्धांतों अध्यन कर सकते हैं। हम अपने किसी उद्देश्य के रूप में संकेतो या अपनी जीवन प्रणालियों को समझने का एक
ग्रह बना सकते है।

जो हर समय हमारे साथ हमारी याद्दाश्त में स्थिर होगा और जिसका रूप की कल्पना का ढ़ाँचा जगह में बखूबी दिखेगा। जहाँ पर रहने वाले जीवों में सूचना का संचार रचनात्मक माहौल में शामिल किया है। दिमाग की एक उपज है जो समूहों और आर्कषण देने वाले माहौलों से उभरी एक कल्पना है।


राकेश

सार्थक दर्शण

ज़िन्दगी में जाने अन्जाने में किसी का किसी पर उधार हो ही जाता है। तो फिर क्यों न इस ज़िन्दगी के हर पहलू को जी भर कर जिया जायें। क्यो न ज़िन्दगी का कोई सार्थक दर्शण तलाशा जाये। जिस की पनाह में हम अपने से जूड़े पहलूओ से टकरा सकें। हर किसी में ये सहास नहीं होता बहुत से वक़्त के जरा करवट लेने से ही अपने कदम पीछे कर लेते हैं। उनके होने की किसी आहट तक किसी को नहीं होती है। मगर पिली धूप में जो जलता है वो सोने की तरह निखरता है। उसकी आहटों पर वक़्त भी निर्णय के मोड़ पर आ जाता है।

रिश्ता तो सिर्फ पहचान है आदमी के जीवन में किसी का दामन पकडे रहने की। जिससे की कोई उद्देश्य मानकर वो अपनी भूख का खुद निवाला बनता रहे और उसे जरा भी महसूस न हो पाये की वो धीरे-धीरे मकड़ी के जाल मे फँस रहा है। किसी न किसी दिन वो अपने शरीर का प्रतिनिधित्व छोड देगा। ये तत्व रूपी दूनिया में फिर कोई न फर्क होगा। सब एक-दूसरे को निष्ठावान होकर देखेगें।

क्या ऐसी कोई दूनिया है जिसको हम परीभाषित कर सकें? जिसमे इंसान का धर्म उसका मसीहा न हो। मसीहा देखना हो तो अपने जैसे किसी शख्स को बैठाकर उससे दो बातें करने मे ही मसीहा का दर्शण मिल जाये। क्योंकि मसीहा तो खुद इंसान में दिव्यमान है। जिसे देखने के लिये आँखों की जरूरत ही नहीं आँखे तो जगह में समझ कर चलने के लिये है सही गलत और किसी का होना न होने को भापनें के लिये है जो हर कण और हर जगह उजागर होकर सब मे मिला है उसे खोजने या समझने की जरूरत क्या है।

जीवन ही वही है। वो कब आता है, कब जाता है, कब सुनता है, कब नहीं सुनता है। ये सब माया है उसकी जो आप में है जिसका आप के मन में एक दिपक जल रहा है । अगर कुछ करना है तो उस जलते दिपक को तलाशों और उसे अपने अन्दर बुझने से बचाओ। बाहर का तूफान अपने आप शान्त हो जायेगा।

राकेश

हू-ब-हू बनी तस्वीर

बात - ओहदे या शरीर को नहीं मानती

SMS – किसी ने आपको कोई बात कही वो बात जो आपकी ज़िन्दगी और फैसलों मे बहुत अहमियत रखती है"

अगर बात कहने वाला इंसान समाज मे बुरा यानी ( गेंगस्टर, वैश्या अथवा पागल ) कहलाया जाता है तो उसने जो बात हमसे कही है उसका महत्व हमारे लिए घट जायेगा? मैंने अपने समाजिक रिश्तो और कुछ दोस्तों से बात पूछी सभी के जवाबों में "हाँ" रहा। मगर इस हाँ के अलावा कुछ और नहीं। मैं थोड़ा परेशान हूँ। ये सवाल परेशानी में नहीं डालता बल्कि ये "हाँ" सोचने पर मजबूर कर देता है। तू कुछ कह सकता है?

SMS - मेरे जवाब में ये कतई "हाँ" नहीं है। अगर कोई गोली आपकी जान लेले तो ये नहीं सोचा जाता खासकर की मरने के बाद या घायल होने के बाद मे की ये गली किस जाती की बंदूक से चली है।

एक शख़्स का अदाहरण देता हूँ, “मजनू जी को अपने घर से बाहर यानी अलग रह रहे कई साल हो गए हैं। वो सड़क के किनारे बिना छत के रहते हैं। उन्हे नजदीक से जानने वाले उन्हे दीवाना कहते हैं और दूर से देखने और जानने वाले पागल कहकर उन्हे नवाज़ते हैं। जगह का मर्म और उसकी ऊपरी सतह को वो अपने पल-पल बनते अनुभव से बताते हैं। उनकी ज़ुबान में नज़र आती जगह किसी किताब के अक्स में भी नहीं होती।

अगर कोई दिवाना या पागल आपको अपनी जगह या घटनाओं से रू-ब-रू करवादे तो उस बात में अहमियत की गोटियाँ नहीं फैंकी जाती।

मजनू जी को लोग बुरा इंसान मानते हैं। अपने बच्चों को बहुत कम उम्र में जो अकेला छोड़ आये थे। मोल, अहमियत और कीमत (वैल्यू ) बात की होती है किस ज़ुबान, ओहदा और शरीर से निकली है ये नहीं देखा जाता। ये एक चश्मा है जिसे उतारा जा सकता है।महाभारत के कर्ण के शरीर से चिपटा कवज़ नहीं जिसे चीरा जा सके।

SMS - हम लोगों को जरा दूसरों के देखने और सुन्ने से हटकर अपने खुद नजरिये से सोचकर समझने की जरूरत है। क्योंकि कानों मे पड़ा हर शब्द सम्पूर्ण नहीं होता। मुँह से निकली हर बात सच नहीं होती। समाज में कई संबन्ध होते है जिनके रिश्तों की कसौटी पर हर किसी को खरा उतरना होता है।

हम एक समाज में रहकर भी अपने लिये अपना बनाया वातार्वण चहाते हैं। जिसके लिये मन मुताबिक करने की ठान लेते हैं। मगर समाज में रिश्तों को बनाये रखने और उनको अपने पास रखने के लिये हर मोड पर दूसरों को अपने काबिल और सब में घूले-मिले रहने के लिये अपने इरादों को भूलना पड़ता है।

हर कोई ये कर ही पाता और जो करता है वो रिश्तों के दायरे से बहार हो जाता है। उसकी गिनती आम आदमी नहीं होती हो दूसरों के जैसे सा नहीं मना जाता कहने को तो वो भी इंसान का ही एक हम शक्ल होता है पर सिर्फ हम शक्ल हू-ब-हू नहीं। उसका जीवन उस हू-ब-हू बनी तस्वीर की तरह होता जो सच और झूठ के प्रतिक से अलग होता है। जिसकी कोई पहचान नहीं होती। हाँ, हम सोच सकते हैं कि इंसान की बनाई इस दूनिया में इंसान की ही बनाई बहुत सी पहचान है। जो इंसान को ही विभाजन करती है। इस लिये शायद आज जिस तरह से जीवन को देखा जाता है वो महज एक धूंधली तस्वीर है या फिर कह सकते है की मानवता पे गिरा वो पर्दा है जिसकी आढ़ में मानव का ही अपमान होता है। इस लिये आज जबकी हमारे सामने हमारे ही जैसा शख़्स खड़ा होता है तो हम उसे कैसे नहीं पहचान पाते। ये तो वो ही बता सकते है जो इंसान का बँटवारा करते है। बोल, शब्द और किसी के उपर कही बात क महत्व की तो आप रोज किसी न किसी से कितनी ही बाते करते है कितने ही सवाल और जबाब करते है।

रास्ता पूछने पर अगर कोई सही या गलत बता दे तो आप घर वापस आना तो नही भूलते। फिर किसी के कुछ बोलने या समझने से आप को क्यों फर्क पड़ता है आप का अपना विश्वास तो अटल है वो ढ़गमगा नहीं सकता फिर क्यों दूसरे की गवाही?


राकेश

Monday, January 18, 2010

नये - पुराने सवालों के बीच

हमारे बीच एक शख़्स आये। जो काफी दूर से आये थे। वे इस अपेक्षा से हमारे साथ दो दिन रहे कि वे अपने शहर जहाँ पर वे रहते हैं। वहाँ पर कई लोगों के साथ मिलकर उस इलाके के लिए हमेशा कुछ न कुछ सामुहिक कार्यक्रम करते हैं और उस सामुहिक कार्यक्रम में उनके साथ जुड़ने वाले कई लोग हर बार उनसे ये उम्मीद बाँध लेते हैं कि वे उनके साथ कोई ऐसा स्थान बनायेगें जिसमें वे खाली देखने वाले नहीं बल्कि करने वाले और कुछ अपना सहयोग देने वाले बने।

वे हमारे पास ये सवाल लेकर आये कि वे इस उम्मीद को कैसे ज़िन्दा रख सकते है और उसे क्या आहार दिया जाये? असल में वे एक ऐसी जगह बनाना चाहते हैं जिसमें हर कोई खुद से आये और कई अंजान और रिश्तों के बीच में खुद को नये सिरे से रख सकें। खुद को व्यक़्त कर सकें और साथ ही साथ खुद से कुछ रोज़ पूछ सके और उस पूछे गए को तलाश सकें।

वे हमारी जगह पर आकर ये कल्पना कर पाएँ। मगर उनके कुछ सवाल रहे जो पुराने हैं लेकिन अंदाज़ को खोलने को कहते हैं। ये कुछ ऐसे सवाल थे जिनको बहुत प्यार से सोचा जा सकता है और लगता था जैसे बहुत आसानी से इसका उत्तर दिया जा सकता है। जैसे -

> जब आप देखते हैं तो क्या देखते हैं जिसे आप सोचते हैं कि लिखें? और क्या बाँटने के लिए लिखे और क्या नहीं बाँटने के लिए लिखे?
> जब आप किसी चीज़ को छूते हैं तो उस छूने को कैसे लिखते हैं?
> जब आप महसूस करते हैं तो उस महसूस करने को कैसे लिखते हैं?
> जब आप सुनते हैं तो उस सुनने को कैसे लिखते हैं?
> घटना, कहानी, कल्पना और अनुभव क्या इसी में होता सारा लेखन?
> आप ज़रा अपना बताइये की आप कैसे लिखते हैं?(यानी अपने साथियों से हटकर आपकी नज़र, सोच, कल्पना और शब्द ज़ुदा क्यों है?)
> लिखे जाने के कुछ ऐसे टिप्स हैं जिनको लेकर लेखन शुरू किया जा सकता है?
> क्या बात होती है ऐसी जिसे आप मानते नहीं हो, जानते नहीं हो और समझना नहीं चाहते लेकिन फिर भी उसे लिखते हो?
> आप सब कुछ जानते हो लेकिन फिर भी खुद को समझाने के लिये लिखा जा सकता है, कैसे?

हमने उनके इन सवाल को बहुत हल्के स्वभाव से लेने की कोशिश की या कहिये की एक्टींग की। लेकिन जवाब देने के बाद में लगा की खाली जवाब देने से ये बातें समाप्त हो सकती है? जो खुद को एक बार फिर से दोहराने को कहे या मिटा के लिखने को कहे वे क्या हो सकती है?

आप क्या कहते हैं? ये सवाल मैं आपकी ओर फैंकता हूँ।

लख्मी

Saturday, January 16, 2010

वक़्त की चादर में "मैं"

वक़्त का हर लम्हा चाहता है खुद को भूलकर सब कुछ खोकर कहीं उड़ जाने को। वक़्त किसी भी चीज़ को लपेटकर नहीं जीना चाहता और न ही किसी भी दृश्य को लपेटकर रखना चाहता। हर लम्हे और बात को खुला छोड़ देता है।

वक़्त के साथ जीने और बीतने वाला हर लम्हा खुद की बनाई तस्वीरों को पीछे छोड़कर नई दिशाओ में अपने को देखना चाहता है।

वक़्त का कोई सबूत नहीं होता। वक़्त का कोई ठिकाना भी नहीं होता। बस, वक़्त के साथ समझोता करने वाले शरीर का ही है ये सारा खेल।

वक़्त किसी "मैं" को नहीं पैदा करता और न ही उसकी जान लेता है। बस, “मैं" की चेष्टा करने वाला शख़्स ही उसको इस्तमाल करने की ज़ुबान मे पिरोये चलता है। हर भेषबूसा के साथ और हर शख़्सियत के साथ पैदा होने वाला शख़्स और मर जाने वाला शख़्स हर पल खुद को इन्ही कसौटियों के तले बनाता जाता है।

अपने विपरीत अक्स को पालकर और उससे जूझकर चलना ही "मैं" को ज़िन्दा रखना है। कभी-कभी "मैं" को ज़िन्दा रखना जीने के लिए बेहद जरूरी होता है। मगर "मैं" की चादर बेहद बड़ी होने लगती है और उस चादर मे हर रिश्ता और बर्ताव संजोने लग जाता है।

पौशाकें बदलकर चलने वाला शख़्स "मैं" की पौशाक के साथ जूझने से डरता है। अपने से विपरीत होने से कतराता है। क्या ये ज्ञात है, “अनेकों बर्तावो में, हालातों मे और माहौलों मे किसी "मैं" का आकार क्या होता है?

लख्मी

अथक संकेतिकता

अक्सर हम जिन चीजों से भागते हैं वो कभी न कभी, कहीं न कहीं हमारे सामने आ जाती है। यानी आप लाख बार चाहों किसी अपने दूर करने के लिए यकिनन वो वक़्त की कागारों हमें पुन: मिल जाती है और फिर हम उस असल अनूभव से नज़र नहीं चुरा सकते। वो अनूभव जिसका आभास न पाने के लिए दूसरे क्षितिजों की से चमक की तरफ खिंचते हैं। मगर, ज़िन्दगी का हर क्षण, जो पल से भी छोटा दिखता है। उसकी संकेतिकता हमें जिज्ञासू बनाये रखती है। जो अभी जानना है उसे बाद के समय में क्यों छोड़ दे? इस अभी में जो संकेतिकता है वो आगे नहीं मिल सकेगी। जैसे- गन्ने में से उसका रस निकाल लिया जाये तो उसका ताज़ापन ख़त्म हो जाता है। वो रस बिना बेजान बाँस की फाँसो की तरह बच जाता है। जिसे और उसकी योग्यता भी लुप्त हो जाती है। जिसके बाद वो भाड़ झोंकने के काम मे आता है। अगर हर कोई ज़िन्दगी में अपने आसपास होने वाली एक तरह की जागृती संकेतिकता को पहचान ले तो जीवन को जीने का मज़ा ही बदल जायेगा।

किसी हवा में उड़ने वाले धुँए से पूछो, "वो कहाँ जाता है ज़मी में, बादलो में, नदिया, तालाब, सागर में कहीं भी हो वो इक दिन लौटकर जरूर आता है।

कथन उतना ही उत्तम है जितना की जीवन की पूर्न आशा करने वाले हम प्राणी। जीवन अनंत कल्पनाओं का सागर है जिन्हे पाने के लिए नित नये प्रयास करना जरूरी है। यहाँ तक आपको आपकी अथक संकेतिकता ही पहुँचा सकती है। जो अभेद है, अमर है, अजय है। वाही स्वंय के भीतर और बाहर पलने वाली संकेतिकता। जो सम्पर्क कराती है आपका नये जीवन की दृष्टियों से।

राकेश

Friday, January 15, 2010

अनेक अंत: शेषो से -

कोई जगह या हम अगर किसी चीज को उभारते हैं तो उसी वक़्त उसी चीज़ और सोच को ब्लॉक भी कर देते हैं।

आगे बढ़ने की राह हर वक़्त किसी न किसी चीज़ को ब्लॉक करते हुए जाना है। ब्लॉक का मतलब किसी सोच या चीज़ का अंत नहीं होता और न ही उसकी कोई रोकथाम है। बल्कि वे सोच आगे के सवालों को खोलने और उनको गहरापन देने के समान होती है।

हर जगह, हर इंसान, हर काम के उपरांत, मध्धय और अनेक अंत: शेषो से बने होते हैं। हर चीज़ कई सारे कणों का जमावड़ा होती है। उसी चीज का चेहरा उन्ही के छोटे-छोटे अणुओं से बना होता है और हर किसी ने अपनी जगह को बखूबी से संभाला हुआ है। जो जहाँ पर रुक गया वही पूरे चेहरे का हिस्सा बन गया। हम उन्ही हिस्सों से आगे बड़ते हैं और अगले हिस्सों तक जाने के लिये अपने कदमों को मजबूत बनाने लगते हैं।

क्या हमें पता है कि कोई जगह कितने सवालों और चीज़ों की बुनी धारा होती है? लोग, उनका जीना, उनका चलना, उनका अपनी जगह बनाना, काम और रिश्ते, चीज़ और जिम्मेदारियाँ। अगर हम जगह, लोग और जीवन को दो अलग शब्दों मे कहे तो - जैसे : किसी जगह का समाजिक जीवन और बोद्धिक जीवन क्या है?

इन दो धाराओं को हम जगह की महीम बुनाई मे महसूस कर सकते हैं। इन दोनों के जरिये जैसे - जैसे हम आगे बड़ते जाते हैं वैसे - वैसे किसी चीज़ को पीछे छोड़ते जाते हैं। जो पीछे छुटा वे किसी सवाल की बुनाई मे था और जो आगे मिला वे पीछे छुटने वाले से किसी बहस मे था? इस मजबूत सवाल से हम दोनों के बीच अपनी जगह बना पाते हैं।

किसी चीज़ का बन्द हो जाना या किसी जगह के खुले दरवाजों को दोबारा नहीं खोला जा सकता। इस बुनियादी विचारधारा के अहसास से हम जगह के साथ-साथ चलने लगते हैं।

लख्मी

कैनवज भरा है रंगो से

ज़िन्दगी बड़ी व्यस्त है पर फिर भी मैं को एक गैप चाहिये।
सब कुछ अपने पास है, मगर थोड़ी गुंजाइश चाहिये।
सारे रिश्ते अपने है लेकिन
कुछ तो पराया होना चाहिये।


है सब शान्त एक चुप्पी साधे हुए
मगर ज़रा सा शोर-शराबा चाहिये
बहुत दूर चला गया हूँ मैं
थोड़ा सा किसी का सहारा चाहिये।


है बन्द परले ये सोच के
के रात दिलनशीं है
सदियों से बन्द इन आँखों
थोड़ा उजाला चाहिये।


कैनवज भरा है रंगो से
तस्वीरें बोझल हो रही
ज़रा हटो नये रंगो को
थोड़ी जगह चाहिये


मन को रोक ले कोई
ऐसी सरहद नहीं
हाथों की खिचीं लकीरों को
अब ज़रा छुटकारा चाहिये।

है पस्त पड़ गे जीवन के दुख
टूट गई बेड़ियाँ गुलामी की
खूब जीए किनारों में
अब ज़रा तूफानों से जूझना चाहिये।

क्यो भूल गे गाँव के हवा पानी का स्वाद
जिस मिट्टी ने बनाया नवाब
वो ज़मी आज कुछ मांगती है
तू लोटेगा नहीं ये वो जानती है
मगर खुद को तो बेहलाने का
कोई बहाना चाहिये।

राकेश

Tuesday, January 12, 2010

सवाल किसी और का - जवाब कोई और देता है

सवाल किसी और का - जवाब कोई और देता है शहर इस मूलधारा से हम को बनाने और रचने की बहुत गहरी ताकत लिए चलता है। हर वक़्त हमें कोई अपने सवालों और कल्पनाओं से बुनने की कोशिश करता रहा है जिसकी पुष्टी करते हैं शहर की छाती पर लगे तमाम बोर्ड, माथे पर लिखी लाइनें, पाँव पर चिपके स्टीगर और हाथों में थामे अनेकों पेम्पप्लेट। हर वक़्त बिना कोई गहरी आवाज़ लिए चीखते हैं - चिल्लाते हैं और अपना दवाब प्यार से थोपने को कह डालते हैं।

इन्ही चीख-पुकारों के पीछे कई आदेश छुपे होते हैं। आदमी कब-कब शांत खड़ा दिखता है? आदमी को शांत देखने की कोशिश करने वाले हम हमेशा उसे किसी न किसी उत्तेजना के शिकार बना देखते हैं। असल में हमें उसका अहसास नहीं उसकी स्थिती नज़र आती है। आदमी बैठा है, खड़ा है, लेटा है या चल रहा है या फिर हिल रहा है। लेकिन हर वक़्त वो किसी न किसी बैराग में है। वो ज़िन्दा है।

बेबाक अन्दाज़ में हम अगर कहे तो जब शांत होता है, बैठा हो या चल रहा होता है तो भी वे कई बिन आवाज़ के आदेशों की धीमी धुनों पर नाच रहा होता है। इन डाँस में कोई सवाल नहीं होता हाँ, अगर होता है तो बस, रिएक्शन और उसमे शामिल कई अद्धछुपे जवाब। हर इंसान अपने साथ ऐसे ही कई अनकेनी जवाबों का शोर लिए चलते हैं।

हमारी हर स्थिती किसी न किसी सवाल का उत्तर ही बनती है। हर वक़्त किसी न किसी ऐसे सवाल का जवाब शहर की सड़क पर बिखरे पड़े होते हैं जिसके बारे में किसी को कुछ पता नहीं होता। क्या हमें पता है की हर रोज़ घर से निकलने के बाद शहर हमसे क्या पूछता है? और हम उसका जवाब कैसे देते हैं?

कोई किसी को कुछ बोल नहीं रहा मगर फिर भी किसी से मुख़ातिव है।

लख्मी

Tuesday, January 5, 2010

याद - ग़ुरूर , भूल - शर्मिंदा

इंसान के याद रखने की क्षमता के अनुसार उसके भूल जाने की तीव्रता ज़्यादा ज़ोश में रहती है - करोंड़ो पल हैं

हमारी ज़िन्दगी में जो हर बार किसी ऐसी चमक के मोहताज़ बने रहते हैं जो उन्हे नींद से जगाये। अतीत में संभालकर रखा गया हर एक पल हर वक़्त कि ऐसी हलचल, मूवमेंट, तस्वीर, हादसा और बात का इंतजार करता है जिससे वे अनेकों समय की निबंध झुर्रियो के नीचे दबा हुआ वो पल तुरंत बाहर आकर अपना जलवा दिखाये।

यादों में जाने का सिलसिला क्या है? ये सफ़र कैसे तैयार होता है और हम इस सफ़र के लिए कैसे तैयार होते हैं? यादों में जाने का कोई निर्धारित समय नहीं होता। हर एक चीज़ हमें मीलों का सफ़र कराने की अगर ज़िद्द पकड़ले तो समझों यादों का मूल्य कुछ नहीं रह जाता। हर चीज़ एक पगडंडी तैयार करती जायेगी और आँखें मूंदकर चलने वाला इंसान वही सब देखता जायेगा जो वो कहीं रखकर भूल गया था।

कुछ यादों में दिखने वाले वाक्या ऐसे होते हैं जैसे इंसान किसी को उधार देकर भूल गया हो। वो जब अचानक से दर्शन देते हैं तो एक बार फिर से याद बनने लगती है।

हजारों पलों में से करोड़ों पल भुलाने वाला इंसान फिर भी खुद के अतीत का मसीहा मानकर जीता है। अपनर वर्तमान को धोखा देकर जीना ही इस सफ़र का सबसे बड़ा गाइड बनता है। हर शख़्स उन रास्तों का गाइड है जो किसी को भी अपने साथ ले जा सकते हैं।

यादें - कहकर काल्पनिकता को हकीकत का दावेदार बनाने का एक बहुत ही खूबसूरत रास्ता है।

लख्मी

हर इंसान कभी - कभी खुद को तीसरा इंसान समझकर बातें करता है।

इस धुन को तोला कैसे जाता है? ये असल में दो धाराएँ हैं।

पहली:- खुद के साथ बातें करना

इस वक़्त में इंसान अपने को दो अलग-अलग शख़्सों की भांति देखने लगता है जिसमें दिल और दिमाग के बीच चल रही वायव्रेशन को समझने की चेष्ठा होती है। ये दो स्थिर ढाँचों के बीच उस तरल धारा के समीप जाने की कोशिश है जिसमें कुछ भी ठहरा हुआ नहीं है। इसमें कई यादों के बिन्दू, लड़ाई के कण और नकामी के वे गहरे उदाहरण हैं जिनको वे कभी पकड़ना ही नहीं चाहता। बस, बहने देना चाहता है।

दिल और दिमाग तक जाते-जाते ये अंजाम पाते हैं। नहीं तो - अनेकों छोटी-मोटी परतों के बेनाम बादशाह बनकर उन तमाम तरल हलचलों पर राज करते हैं। ये वे अहसास होते हैं जिनको समेटा नहीं जा सकता अथवा जिसे गुथा नहीं जा सकता। उसे शरीर की हलचल कहकर जीने दिया जाता है। जो सफ़र करती हैं कई मजबूत अवशेषों में।

दूसरा: - किसी और को खुद से बातें करते देखना।

इस वक़्त में इंसान वे होता है जो वे अपनी असल ज़िन्दगी और दिमाग का साथी भी और मालिक भी।

इन दोनों कथनों में हमारे साथियों में एक बेहद नाज़ुक सा बटँवारा कर दिया। जो दिखता भी है और जिसे "मैं" और "वो" कहकर नवाज़ा भी जाता है। खुद से बातें करना दोहरी शख़्सियत और किसी और का बातें करना उसकी गाढ़ी और ठोस शख़्सियत।

अपने लिए विराट दर्शन और किसी और के लिए सिमटा सा कुछ।

ये महीम सा बँटवारा - कहीं खुद के साथ कि गई नइंसाफी की पहली सीढ़ी तो नहीं है? तीसरा शख़्स किसी इतिहास और भविष्य की उम्मीद पर नहीं जीता। वे पैदा होता है और रास्तों को दोबारा से बनाने की कहकर कहीं खो जाता है। खुद के अंदर बैठा तीसरा शख़्स खुद से नये तरीके बनाने की कोशिश में पनपता है।

ये शख़्स न तो कहने वाला बनता है और न ही सुनने वाला - इसकी भूमिका जीवन मे नये पैमानों को खोजने और बने - बनाये रूपों को तरल बनाने की होती है।

लख्मी