Tuesday, January 5, 2010

हर इंसान कभी - कभी खुद को तीसरा इंसान समझकर बातें करता है।

इस धुन को तोला कैसे जाता है? ये असल में दो धाराएँ हैं।

पहली:- खुद के साथ बातें करना

इस वक़्त में इंसान अपने को दो अलग-अलग शख़्सों की भांति देखने लगता है जिसमें दिल और दिमाग के बीच चल रही वायव्रेशन को समझने की चेष्ठा होती है। ये दो स्थिर ढाँचों के बीच उस तरल धारा के समीप जाने की कोशिश है जिसमें कुछ भी ठहरा हुआ नहीं है। इसमें कई यादों के बिन्दू, लड़ाई के कण और नकामी के वे गहरे उदाहरण हैं जिनको वे कभी पकड़ना ही नहीं चाहता। बस, बहने देना चाहता है।

दिल और दिमाग तक जाते-जाते ये अंजाम पाते हैं। नहीं तो - अनेकों छोटी-मोटी परतों के बेनाम बादशाह बनकर उन तमाम तरल हलचलों पर राज करते हैं। ये वे अहसास होते हैं जिनको समेटा नहीं जा सकता अथवा जिसे गुथा नहीं जा सकता। उसे शरीर की हलचल कहकर जीने दिया जाता है। जो सफ़र करती हैं कई मजबूत अवशेषों में।

दूसरा: - किसी और को खुद से बातें करते देखना।

इस वक़्त में इंसान वे होता है जो वे अपनी असल ज़िन्दगी और दिमाग का साथी भी और मालिक भी।

इन दोनों कथनों में हमारे साथियों में एक बेहद नाज़ुक सा बटँवारा कर दिया। जो दिखता भी है और जिसे "मैं" और "वो" कहकर नवाज़ा भी जाता है। खुद से बातें करना दोहरी शख़्सियत और किसी और का बातें करना उसकी गाढ़ी और ठोस शख़्सियत।

अपने लिए विराट दर्शन और किसी और के लिए सिमटा सा कुछ।

ये महीम सा बँटवारा - कहीं खुद के साथ कि गई नइंसाफी की पहली सीढ़ी तो नहीं है? तीसरा शख़्स किसी इतिहास और भविष्य की उम्मीद पर नहीं जीता। वे पैदा होता है और रास्तों को दोबारा से बनाने की कहकर कहीं खो जाता है। खुद के अंदर बैठा तीसरा शख़्स खुद से नये तरीके बनाने की कोशिश में पनपता है।

ये शख़्स न तो कहने वाला बनता है और न ही सुनने वाला - इसकी भूमिका जीवन मे नये पैमानों को खोजने और बने - बनाये रूपों को तरल बनाने की होती है।

लख्मी

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