Tuesday, January 26, 2010

फुटपाथ का द्वश्य

सड़क पर भारी-भरकम वाहनों की गिच-पिच से भरा शोर-गुल का माहौल। धूएँ की गंद और कानों के पर्दे को तकलीफ पहुँचाती। तिपहिया स्कूटर और कार इत्यादि के हॉर्न की आवाजें जो पल भर को झजोड़ के रख देती है।

अर्चना रेड लाईट के पास बने कॉरिडोर में बड़ी बसों आना-जाना लगा रहता है। जहाँ लगता है की किसी के लिये यहाँ ठहरने का वक़्त नहीं। सब किसी न किसी धुन में चले जा रहे है। रोज का एक मक्सद और रोज की कोई कोशिश जिससे माध्यम बनाकर ज़िन्दगी की किन्ही प्रतिक्रियाओं को अपने व्यक्तिव में गेरतें हैं।

वर्तमान जो कोई सांप बनकर जगह के सूनेपन को डस जाता है फिर कोई परी की कहानी माँ की ममता की गोद में सून्ने को मिलती है। बाप का साया सिर पर है तो जीवन की कोई भी कसौटी हो। अपनी परम्पराओं का पालन कर सब अपने लिये कुछ न कुछ बना ही लेते हैं।

आज सच के सामने खडे होकर जीना साधारण बात नहीं है। अनिश्चिता उस दलदल में ले जाती है जिसका कोई तल मालूम नहीं पड़ता। मन के तारों को जनह देने वाली उस छवि ने चंद पलों को जैसे बीतने से पहले ही रोक लिया हो। कुछ देर ठहरने का जो अनूभव के बाद जो ख्यालगोहि मैंने अपने आपसे की उसमे मुझे अपने सामने बनी छवि के प्रती मेरे मन वात्सल्याता का अंकुर फूटने लगा।

श्याम ढले जब रेड लाईट ने चलती गाड़ियों को लगाम देने का इशारा किया तो जैसे आस-पास रोशनी कोई गोला सड़क के उपर गिर गया हो। सारी गाड़िया रूक गये और हफ्ते इंजन गर्र-गड़ाने लगे। फुटपाथ पर एक 3 साल का बच्चा अपनी आँखों से सिस्क-सिस्ककर रो रहा था। चारों तरफ चौराहा और शोर-शराबे का माहौल जिसमें उस रोने वाले बच्चे का होसला अपना नियंत्रण खो रहा था। यातायात के सारे फंग्सन बने हुए थे। उस बच्चे का रोना किसी को सुनाई नहीं आ रहा था पर सब अपनी गाड़ियों में बैठे बाहर खड़े उस बच्चे की हालत पर तरस खा रहे थे। उसके करीब उस की शायद बहन थी जो उसके रोने को बार-बार नज़रअन्दज कर रही थी। वो अपने पास रखी स्टील की थाली को तडा-तड बजाये जा रही थी पर उसे जरा भी नहीं चूभ रहा था। जिसे देखकर शायद किसी का भी कलेजा मुँह को आ जाये।

इतनी संवेदना थी उसके मासूम से चेहरे में और सिस्कियों में जिसे महसूस करके मन व्याकुल हो उठा। मेरी व्याकुलता उसकी समस्या का समाधान नहीं थी। पता नहीं उसके इस हाल का जिम्मेदार कोन है और किसी जिम्मेदार ठहरा सकते है? मगर कम्बखत ये मेरे वहाँ होने पर लानत थी की क्यों न उस रोते बच्चे को गोद में उठा कर ममता दिखाई। खैर, समय निकल जाने के बाद खुद को कोसने का क्या फायदा। जरा उस लड़की को तो देखो जो बालपन में ही अपनी मेहनत का वो नजारा दिखाती जिसे देखकर हर आँखें हैरान हो जाती और कुछ उस नजारें को देखने के रोज आदी हो जाते वो भी हर बार की तरह उसके करतब देखकर चन्द शब्द जूबाँ पर लाकर खूद को तसल्ली देकर इस जगह से निकल जाते। वहाँ रह जाता तो सिर्फ उस फुटपाथ पर उन बच्चों की जिन्दगी का अंश। जो समय की कग़ार पर कभी उभरता और कभी अद्वश्य हो जाता।

वो लडकी सारी विपदाओं से अन्जान बनकर अपने रोज़ के रूटीन का अनुसरण कर खुद की कोई छवि बनाती जिसकी शायद ज़िन्दगी को भी जरूरत नहीं है। किसी को भला समझने के लिये 3-4 मिनट काफी होते हैं। हर रोज अगर यही द्वश्य आँखों को प्रभावित करता है तो वो कहीं न कहीं जीवन का हिस्सा बन जाता है। जो आप के हाजिर होने का संकेत देता है।

मेरे ठीक सामने खम्बे के पीछे खडे उस बच्चे का रोना अभी जारी था। उसकी बहन अपने शरीर का अंग-अग बांँस की लकड़ी की तरह मोड़ देती । यातायात के चंद लम्हात रोकते ही उसका जीवन का प्रक्रिया शुरू हो जाती। वो लगातार कलाइयों और बदन को मोड़ देने वाली क्रिया करने में व्यस्त हो जाती। सड़क पर खड़ी गाड़ियों में बैठे शख़्स आँखें फाड़े उसी ओर देखने लगते जहाँ उसके घायल हाथ-पाँव अपने दर्द का अहसास किये बिना मस्कत करने लग जाते। रोजाना के अभ्यास ने उसका शरीर लचीला बना दिया था। वो अपने हाथों को जमीन पर रखकर कला-बाजियाँ दिखाने लग जाती। एक बार फिर दो बार, इस तरह वो कई कलाबाज़ी एक साथ कर जाती। उसे देखकर लगता की अगर यही लड़की किसी जिमनास्टिक या किसी इंस्टीट्यूट में होती तो उसकी इस काबीलियत की तारीफें गढ़तें पर उस सड़क पर आए दिन बने माहौल की विवश्ता यही थी। वहाँ जो भी इस तरह का कुछ घटता उसे कोई बदल नहीं सकता था। जब वो लड़की दस कदम तक कलाबाजी करती हुई चली जाती। बच्चा वहाँ खड़ा हुआ रो रहा था। जैसे ही उसकी कलाबाजी खत्म हुई वो सड़क के पास बनी पटरी पर बिछाए जाल को उलांग कर स्कूटर, कार, मोटरसाइकिल वालों के पास चली जाती।

गोरे रंग और मासूम शक्ल वाला वो बच्चा उसे दूर जाता देख अजनबियों जैसा महसूस करता। वो लड़की उसे अपनी तरफ बुलाती जाल के इस पार पर वो सिर हिलाकर मना कर देता और वही कुदाकादी मचाने लगता। वो जाल के पास आता फिर जाल को छूता शायद वो कुछ समझने की कोई कर रहा था। मगर उसका बचपन उस पर लादे बोझ से छूटकारा दिला देता। वो जाल को छूता हुआ धीरे-धीरे दिवार की ओर चला जाता अपनी बहन के बूलाने पर भी वो वापस नहीं आता।

तभी सड़क की ग्रीन लाईट हो जाती और गाड़ियाँ रेस के मैदान में दौड़ने को अपनी जगह छोड देती। वो लड़की सब से पैसा मांगकर वापस उसी वहाँ से हट जाती और फि वो रेड लाईट होने का इंतजार करने लग जाती।

राकेश

1 comment:

Udan Tashtari said...

रोज के दृश्य-रोज का दर्द!

सटीक चित्रण!