Monday, February 1, 2010

जो जीवन की छाप नहीं बनता -

हर चीज पाने वाला इन्सान किसी चीज के छिन जाने से डरता है. एक एक चीज जुटाकर अपना झोला भरने वाला शख्स बस झोली के वज़न पर जीता है. असल में इस झोली का कोई आकार नहीं है और न ही इसकी कोई गहराई. इन दोनों परतों को शख्स कभी सोच ही नहीं पाया.

कभी हमने खुद से अपने भरते अतीत और अनुभव को सोचा है की इसका आकार क्या है और इसकी गहराई क्या है? क्या सच में सभी कुछ अनुभव की खुराक बनता जाता है या कुछ है एसा जो अनुभव को ही निगल के फ़िराक में रहता है?

लगातार - निरंतर कुछ भरता जा रहा है और हम उससे चाहे समझोता करें या न करें लेकिन उसके भरने को कभी रोक नहीं पातें. बस झोली का दम ही उसके फेलाव के इच्छाएं बड़ता जाता है.

झोली के सबसे नजदीकी साथी यानि इन्सान के हाथ जिनसे उसको नापना और खोलना - बंद करना लगातार चलता रहता है.
हाथ जो चुनना जानते हैं, खोदना जानते हैं, बटोरना जानते हैं, तराशना जानते हैं और बाँटना पहचानते हैं. समय इन खोदने और बटोरने के दम पर बंधा हुआ है.

क्या जीवन में सभी कुछ पाना है या खोना है? इनकी कहानियां कभी ख़त्म क्यों नहीं होती?
एक साथी ने कहा, "जीवन में कुछ पाना और खोना ही छाप है वरना कुछ भी नहीं है."

लोग बहुत है जीवन में जिसे भूलना चाहते हैं और फिर भी अनुभव की पौशाक पहनकर भागते फिरते हैं. उसके ये कहने पर कुछ समय के लिए डर तो लगा लेकिन उसके बाद में जैसे सभी कुछ किसी अकस्मात आये किसी संदेसे की भांति गायब हो गया. पर जो रह गया वे था वो एहसास जो छाप ने नहीं आता. वो फिर जाता कहाँ हैं?

लख्मी

1 comment:

Arshad Ali said...

aapne bilkul sahi kaha hay.

aapka aalesh achchha laga.