Wednesday, January 27, 2010

खमोशी - एक निर्जीवता

Silence - The Unconsciousness

कुछ देर खामोश रहने की कोशिश की। "खामोश" शब्द के असर को एक जीवित शरीर से टकराने के अहसास से। मगर उस कुछ ही समय में लगा मानो पूरा आसपास मुझमे खुद ही समाने की कोशिश कर रहा है। हर धीमी से धीमी आवाज़ अपना दायरा और बड़ा करती जा रही थी। लगता था जैसे मैं खुद को सुन सकता हूँ।

लेकिन, मैं ये कभी नहीं भूल सकता था कि मेरे इर्द-गिर्द बहुत बड़ा और गहरा शहर है जो बहुत तेजी से दौड़ रहा है और कितनों को बहुत पीछे छोड़ता भी जा रहा है। जिसे पकड़ पाना और उससे दूर जाना बेहद मुश्किल है।

इस कुछ ही समय ने मेरे अन्दर बहुत सी बातें और आवाज़ें भर दी थी। कल्पनाओं को खुला छोड़ने और उसके साथ बह जाने के लिए कई रास्ते खोल दिए थे।

ज़रा सोचें तो - जब हम खुद को सुन रहे होते हैं तो असल मायने में किससे मिल रहे होते हैं? किसी वक़्त से?, खुद के अन्दर बसे चेहरों से?, यादों से? या ताज़ा बनती कल्पनाओं से?

इसी तरह के कई सवाल बड़े होने लगते हैं।

मगर, खामोशी महज़ ज़ुबान को बन्द करना ही नहीं है शायद लेकिन इससे दिल और दिमाग का क्या रिश्ता है? वे तो निरंतर भागते - दौड़ते रहते हैं। नये और पुरानी चाहतों के दिवानेपन को पकड़कर नये मनसूबे बनाते हैं और कुछ ही पलों के बाद उन्हे तोड़ भी देते हैं। यही नीति लगातार चलती रहती है।

खामोशी का विराट रूप क्या है? खामोशी कहाँ तक जा सकती है? खामोशी क्या किसी को निर्जीव बना सकती है? इस कुछ समय में कुछ भी तो नहीं बदला और ना ही कुछ खामोश हुआ। मेरी ज़ुबान चुप थी मगर आसपास बहुत शोर में था।

लख्मी

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