Friday, February 26, 2010

शहर जो है बहूरूपिया :

हर वक़्त शहर परिवर्तन में है। इसी में शहर के नक्शे बनते-बिगड़ते और बदलते हैं। मगर परिवर्तन और नक्शों का बदलना महज जगहों पर ही निर्धारित नहीं रहता है उसका संबध शहर से निकलते लोगों से बंधा होता है। हर रास्ता जब भी मुड़ता है तो उसमें एक मंजिल की अपेक्षा साथ रहती है और मंजिल में कई जिंदगियाँ वहाँ अपने होने की झलक भरती है। अपेक्षाओ, सपनों, आगे बढ़ने की चाहत, कुछ बनाने की उम्मीद और अपना माहोल तलाशने की कश्मकश लेकर यहाँ घूमने वाला राहगीर अपने कदमों में निशान बनाता चलता है।

शहर उन निशानों में कोई नक्शा भरकर अन्य दिशाओं को खोल देता है। हर मोड़ चाहें वो रॉइट-लेफ्ट हो या यू-टर्न मगर खुद को मोड़ने की चाहत को अपने वापस होने जाने की भी राहत बनाता है। चले-चले जाना शहर की भूमिका में शामिल नहीं होती। वो अपने में घुमाने और वापस लाने में भी अपना रोल निभाती है। शहर मे दर्ज करने और दर्ज होने की प्रक्रिया में हर शख़्स एक पात्र की ही तरह दिखाई देता है मगर क्या पात्र में नज़र आने वाला शख़्स शहर की चकाचोंद में रह रहा है। क्या वही बहुत है?

वर्तमान पर कदम रखे लोग अपनी महत्वकानशाओं को एक कोई सीधी दिशा दिये चले जा रहे हैं और एक न नज़र आने वाले कल के भविष्य में हाथ डालकर कुछ निकालना चाहते हैं जो अभी अनुभव में नहीं है पर वो ही बहुत महत्वपूर्ण है।

इसी महत्वपूर्णता की नींव रखते हैं अपने अतीत की ताकत से। उसी का दामन पकड़े शख़्स अपने किनारों, माहौलो और जगहों का दावा करके अपनी इमेज़ बना पाता है। जो अपने जीवन के बेहतरीन सालों की सोख़ से बना शहर है पर क्या देखा जाये तो यही एक पुर्ण जीवन है? और यही पुर्णता का दायरा क्या है?

यहाँ पर उभरता है एक और शहर जो है बहुरूपिया शहर। जिसके नाम मे ही बहुरूपिया होने का कोई एक ऐसा पारदर्शी परदा है जिससे पीछे की दुनिया का अंदेशा होता है। वैसे ही जैसे रेत में पड़े कुछ कण जो धूप लगने से चमकते हैं। जिस पारदर्शी परदे के सामने वाला शख़्स खुद को उसके पीछे नज़र आती दुनिया में अपने किसी अक्श को तलाश सकता है।
शहर का बहुरूपिया होने का मतलब यही नहीं है की हर शख़्स अपनी कई छवियाँ अपने अन्दर लेकर जीता है और उससे हमारी पहली मुलाकात है। शहर उभारता है वो पहलू जिसमें अपने वो रूप लेकर अंदर ही अंदर नहीं रहता वो असल मर वो है जो उसके पीछे खड़ा है। हम जो देखते हैं वो उस शख़्स के आधीन है, साथ है पर अंदर नहीं है। जो उस शख़्स के पीछे है वो उस शख़्शियत के ऑदे, बनावट, फैलाव और संबध से नहीं दिखता। वो इस बनावट में नहीं फिट होता और ना ही हमारी समझ की रूपरेखा से टच होता है। 'शहर' फिर 'खाली शहर' ही नहीं रहता। वो कोना है, घर-परिवार है, नौकरी है, चाहत है और मिलने की जगह है।

लोगों के साथ में शहर का संबध ही शहर बनाता है। उसमें जगह भी बहुत नजदीकी से शहर के किसी पन्ने में दर्ज है। शहर से बस्ती बनने की प्रक्रिया उन जगहों को तराशती है। जहाँ जगह और जीवन एक ही ढांचे में पनपने लगते हैं।

दोहराने की और अपना बनाने की ताकत किये शख़्स अपनी यादों के साथ हमेशा अंतरद्वुंध में रहता है। क्या याद रहेगा, कैसे याद रहेगा और क्यों याद रहेगा? इन्ही से वो अपने जीवन की यात्रा को सुखमई बनाता है पर क्या ये जिंदगियों पर ही शामिल रहता है? शहर अपनी याद और अतीत को नहीं दोहराता वो लड़ता है पर कैसे?

कई जगहें, बनी-बनाई बस्तियों अपने अन्दर 30-35 साल लिये अपने नक्शे खो चुकी हैं एक खास हिंसा के तहत। जिसको शहर बहुत सरलता से एक शब्द देता है "विस्थापन”..

विस्थापन बनाना है या तोड़ना? इन्ही के बीच में कहीं ताली तो कहीं गाली खाता है और एक शहर की कोई परीचित जगह अपरीचित हो जाती है और नक्शा अपनी पहचान का झण्डा लिये कहीं किसी और जमीन की तलाश में चला जाता है।

शहर कोई खेल तो नहीं है लोगों के लिये या जिंदगियाँ कोई लॉडिड समान भी नहीं है शहर के लिये उसको शहर कहाँ रखता है? फिर भी जीवन निसंकोच अपनी चाहतों कि पोठलियाँ लिये शहर में टहल रहा है और इंतजार करता है हमेशा किसी स्थान पर बैठा किसी कदमराही को देखने का। जहाँ पर जैसे जगह हमेशा दो आदमियों की रहती है। बसों की सीट, पार्क के बेंच, रेल का डिब्बा, स्कूल के डेस्क या फिर झूले का बॉक्स। ये सब किसी अकेले शख़्स के लिये नहीं बने हैं या बनाये गये हैं। दो लोग जो एक-दूसरे के लिये है। कोई ना कोई राहगीर तो है जो बहुरूपिया शहर को तैयार करता है।

लख्मी

खोने का डर :

हर चीज़ पाने वाला शख़्स किसी चीज़ के खो जाने से डरता है। एक-एक चीज़ जुटाकर अपना झोला भरने वाला शख़्स झोली के वज़न पर जीता है। इस झोली का कोई आकार नहीं है और ना ही इसकी कोई गहराई। झोली का दम ही इसके फैलाव में इच्छाएँ बढ़ाता जाता है।

इस झोली के सबसे नज़दीकी साथी कोन है? शख़्स के हाथ। जिनसे नापना और खोलना नियमित चलता जाता है। हाथ जो चुनना जानते हैं, खोदना जानते हैं, बटोरना जानते हैं और बाटँने के स्वाद को पहचानते हैं। समय खोदना और बटोरना के दम से बंधी हुई रहती है झोली।

एक शख़्स जिन्होनें अपने घर के सामने वाले हिस्से को खुद से सकेरा और बनाया वो अपनी बनाई हुई जगह के लिये बहुत सख़्त रहा। मगर कुछ समय के बाद वे सभी सख़्ताई शहर की किसी दौड़ में खो गई। वो काम और रिश्तों की बुनियादी सवाल मे कहीं खो गया। वो जगह और सामने के हिस्से से दूर होता चला गया। लेकिन जब उस जगह को कोई और सकेरने लगा तो वो डर गया मगर क्यों?

ये “क्यों” बहुत बड़ा और गहरा है। हाथ से जगह का नाता - रिश्ता नहीं नाता। ये क्या होता है?
इसमे डर ये नहीं होता कि कोई और उस जगह पर आ गया है बल्कि इसमे डर कुछ होता है।

डर खुद के दोबारा लौटने का,
डर फिर से सकेरने का,
डर उस समय मे दोबारा जाने का,
समय को बनाने का,

डर कुछ जमे हुए को खोदने का और उसके साथ नाता बनाने का जिसमें टकराना और बहस फिर उन रिश्तों के बीच में घूमने का जिसका जीवन मे उतना ही मोल होता है जितना की खुद को वापसी नजर से देखने का होता है। इस डर का क्या मायने है? क्या ये डर होना जरूरी होता है? इस वापसी मे क्या छुपा है? क्या नीचे के पायदान की तरफ जाना है या आगे की कल्पना मे खुद को देखने की लरक समाई होती है?हम इन सारे पहलुओ को अगर अपने जीवन के किन्ही मुख्य सवालों से देखे तो वो हमें कोन सी दिशा पर ले जाती हैं?
ऐसे ही कई सवालों की बौछार लगातार चलती रहती है जिसको रोके बिना चलना कल्पनाओं के उन किनारों को खोज निकालता है जिनमे कई चाहत उभरती हैं।

लख्मी

मैं की आकृति में बदलाव क्यों?

समाज़ मे "मैं" की आकृति ज्यादातर सिमटने के समान ही बनी रहती है जब तक वे खुद को "मैं" की कठोर और मूलभूल लकीरों से हटकर नहीं सोच पाता। वैसे एक बार को जब हम समझते हैं की जब भी "मैं" अपने खुद के अहसासों से बाहर जाने की कोशिश करता है तो उसे तिरछी नज़रों से टकराकर किसी घेरे मे आना पड़ जाता है।

मेरे "मैं" मे प्रतिरूप मे खाली एक ही रूप को सिमटना नहीं है पर फिर भी वो क्यों दरवाजे पर अकेला खड़ा दिखाई देता है? लोगों की खिचयाने वाली नज़रें, कहीं किनारे होकर बतियाने की या बातें बनाने की कोशिश क्यों "मै" को किसी किनारे करने की लालसा मे दिखाई देती है?

“मैं" के रिश्ते उसके रूप नहीं होते पर फिर भी वो उन्ही मे क्यों अपनी अकृति को बनाये चलता है?

हम हमेशा रोल और रूप के ही द्वंध मे रहकर अपनी छवियाँ बनाते जाते हैं। इस सभी छवियों मे मेरे जीवन और रोजाना मे कुछ महत्व है जिसके आधार पर मेरे काम और रिश्ते बन गये हैं। "मैं" अगर काम और रिश्तों से बाहर जाकर कुछ बनाना या सोचना चाहे तो क्या उभार पाता है?

"मैं" एक अभिव्यक़्ति से होकर निकलता है और साथ ही साथ अभिव्यक़्ति को बनाता भी है। लेकिन काम का लेवल "मैं" के महत्व और आकृति को बनने मे और बिगाड़ने मे बहुत तेजी से क्रियाये करता है। ये सारा खेल समाज और मोहल्ले से देखा जाता है।

हर "हम" और "मैं" की एक खास अहमियत है। जिससे किसी न किसी जीवन की मांग और उसके साथ नाता खोजने मे वो कभी लड़ता है तो कभी एक नई और ताज़ी बहस को बनाता है। हर जीवन खुद को दोहराने के शब्द की मांग करता है। जिसके साथ तरीके की राहें भी जुड़ी होती है। बस, इतना सोचने की जरूरत होती है की उस "हम" मे और "मैं" मे कितनी खुलकर बोलने की आजादी है। कभी - कभी "हम" भी भिचा और पिचका हुआ महसूस होता है और कभी - कभी "मैं" भी खुला और ताज़े होने का अहसास करवाता है।

यहाँ पर सवाल उभरता है -
हम क्या है और मैं क्या हूँ

लख्मी

Saturday, February 20, 2010

तलाश के बाहर और अंदर :

तलाश क्या है? हम तलाश को लेकर खुद के जीवन को कैसे समझते हैं? अगर सीधे से शब्दों में कहा जाये तो - तलाश जो कभी खत्म नहीं होती। तलाशें अंतहीन होती है। तलाश भूख को बड़ाती भी है और उसे ज़िन्दा भी रखती है। मगर तलाश के आगे क्या है? मोटे अक्षरों मे कहे तो तलाश के आगे एक और तलाश है? तलाश के आगे उत्तेजना है और तलाश के आगे संतुष्टी है। मगर तलाश अपना रूप कैसे पाती है? तलाश के रूप के साथ तलाशने वाला का क्या रिश्ता होता है? उसके चिन्ह क्या है?

हमारे सवालों मे तलाश खाली कुछ खोजना ही नहीं रहती। तलाश मांग करती है तराशने की। हम जो तलाशते हैं उसे तराशते भी हैं। शख़्स, जीवन, कल्पना, जगह बनाना, सपने, काम और रिश्ते इनसे लेकर चलते काँरवे को हम कहाँ तक सींच पाते हैं? टूकड़ों मे इनकी महक लेते - लेते इनको भरपूर तराशने के सवाल शुरू हो जाते हैं। जिनसे खाली अभिव्यक़्ति का ही सवाल नहीं रहता बल्कि जिस जगह से हम काफी लम्बे समय से जुड़े होते हैं वे भी डिमांड करती है नये रास्ते और द्वार बनाने की जिसमें नई जगह जुड़ी और नये आयाम भी।

ऐसा महसूस होता है कि कुछ कभी रुकता नहीं है। वे निरंतर चलता रहता है -

लख्मी

Monday, February 8, 2010

वो कोन सी जमीन होगी जहाँ पर हम बात कर सकेगें

अनुभव तब तक अनुभव बना रहता है जब तक कि उसमे सोच का स्वाद न मिला हो। बिना सोच और कल्पना के अनुभव बहुत "मैवादी” हो जाता है। उसके बाद में बस, मेरा जीवन – मेरी कहानी बनकर वो धोंस जमाने का काम करता है। जिससे बहस करना उतना ही मुश्किल हो जाता है जितना की उसमे खुद को तलाशना।

अनुभव जितना "मैंवादी" होता जाता है उतना ही उसमें अभिव्यक़्ति का सवाल पैदा होने लगता है। मगर ये अभिव्यक़्ति करना वो नहीं होता जो खुद को तराशने के जैसा हो। वे महज़ नाटकिये रूप धारण करके कहीं जमने का अध्याय बनाने की कोशिश मे रहता है।

असल में, अभिव्यक़्ति करना खाली अनुभव की पौशाक मे होता ये तय नहीं होता। पिछले वक़्त दे दौरान लिखा : - जगह के बनने के अहसास मे कुछ भी अनुभव मे नहीं रहा। खुद कि अभिव्यक़्ति अगर "मैं" मे नहीं होती वे दूर खड़े होकर देखने वाला, सुनने वाला और धीमा जत्न करने वाला के रूप मे भी उभरती जाती है।

अनुभव अगर "मैंवादी" से बाहर नहीं निकल पाता तो खुद को रचना और खुद को व्यक़्त करना कहानी के हिस्से बनाता जाता है। जिसको रंगा जा सकता है लेकिन उसे तराशा नहीं जा सकता।

अनुभव, कई अनेकों कहानियों का एक अच्छाखासा जमावड़ा होता है। जिसको दोहराते हुए चलना और उसको नये पुराने चेहरो मे बयाँ करते रहना हि उसको मजबूत करता जाता है।

काफी वक़्त पहले एक साथी ने एक बहुत आसान सा सवाल पूछा। लेकिन जब उसको सोचना शुरू किया तो वो हर बंदिश से बाहर उड़ जाने को ज़ोर देने लगा।
उसने पूछा, “अतीत, अनुभव और कल्पना के बाहर क्या है? अगर हम लिखते हैं तो इन तीनों धाराओं से बाहर क्या ला पाते हैं?, अगर हम कुछ बनाते या रचते हैं तो इन तीनों अहसासों से अलग क्या तलाश पाते हैं खुद में?”

ये तीनों शब्द असल मे एक मटके की तरह बन गये और जो भी चीज़ बोली या लिखी जाती वे सीधा उसी मे जाकर गिर जाती। ऐसा लगता जैसे हम खुद को कभी सोच ही नहीं पायेगें। बस, इन तीनों को भरने का काम कर रहे हैं और ये काम बहुत ज़ोरों से चल रहा है। अब तक न जाने कितने पन्नों और कितने शब्दों की ये किताब तैयार भी हो गई होगी। ये वे मटके बन गये जिनका फैलाव चाहें न दिखता हो लेकिन इसकी गहराई बेहद अंदर तक है।

इनको सोचने के लिये पहले एक शब्द को उठया : "अनुभव"

अनुभव, अनुभव कई गहरी और अंतहीन परतों अपने साथ लिये चलता है। जो कभी रट्टा और किसी का दिया हुआ ज्ञान नहीं बनता। जिसमें खुद को बनाने से ज्यादा खुद को फ्रैम देने नाम जुड़े और छुपे होते हैं। इंसान इसको अपनी ताकत और बलबूता मानकर जीता है। बड़े-बड़े दाव इसके होने से खेल जाता है और खुद को कहीं खड़ा कर पाने और मौज़ूदगी का अहसास मानकर छाती चौड़ी करता है।

फिर एक सवाल अचानक से आता है - अनुभव के बाहर क्या है?

उसके बाद मे सवालों की झड़ी लग गई। लगा जैसे अनुभव से बाहर जाने से पहले इन सवालों को अलग नहीं किया जा सकता।

कोई अपने अनुभव में कहाँ, कैसे और क्यों आता है? कितने समय के लिये आता है?
क्या अपने सारे अनुभव में वो होता है?
अनुभव क्या है? - क्या जो उसने सीखा है अब तो उसका चिट्ठा है?, जो उसने पाया या खोया है उसका डेटा है?
अनुभव और अतीत मे क्या फर्क होता है?
अनुभव मे अतीत की छवियाँ होती है या जूझने का मिक्स अहसास?
अनुभव की भाषा क्या है?
अनुभव क्या खुद के साथ हुआ या बीता कोई वाक़्या है या कई वाक़्यों की ज़ुबान है?
अनुभव जीवन की कोई कहानी है या खुद के बनाये मुद्दों से बहस का कोई स्वाद है?
अनुभव खुद का तोड़ है या फिर खुद का जोड़?
अनुभव खुद के जीवन?
अनुभव दुहराव मे जाता है तब क्या होता है?
इसमें इंसान कहाँ होता है? जीवन कहाँ होता है?, कल्पना कहाँ होती है?, सपने कहाँ कहाँ होते हैं? और छुटे हुए हमरागी कहाँ होते हैं?
मिलने की भाषा मे होता है या छुट जाने के वियोग मे?
अनुभव कोई अलमारी है या फटी हुई जेब?

ये खुद से पूछे जाने वाले वे सवाल बन गये जिनको भूलकर दम लिया जाता है और भागने के लिये कुछ बुना जाता है।

लख्मी

Tuesday, February 2, 2010

पिंजरा पंछी के उड़ जाने से बेजान सा रह जाता है ।

जमीन पर रखा तसला शोहले उगल रहा था। कनातों के बीच चारपाईयों पर इखट्टा लोग रात की बेहोसी को तोड़ कर अपनी उपस्थिति का संकेत दे रहे थे।
मन मै पैदा होने वाली चेतनाएं काफिर रात मे बेहोशी के आलम को ,होठो की खामोशी से बनी अंतहीन समय की दिवारों से अपना सिर टकरा-टकरा कर कुछ बयां कर रही थी।

जलती हुंई लकडी की आग पर हाथ सेंकते चारो तरफ बैठे लोगो का मन विलाप और शोक् से थक चूका था।
अब तीन दिन बितने के बाद हर चेहरे पर मूस्कुराहट ने जन्म लिया था। ये प्रारंभिक आशाये फिर से रिश्तो के बिच अपना आंशिया बना रही थी।

तीन दिन बाद हसीं आने के बाद लगा जैसे कई सदियो से हसंंना ही भूल गये हो। मगर शंकर बाबा ,गम मे चूर और विलाप से भरे मनो की व्याकुलता को दूर करने के लिये किस्सो की झडीयाँ लगा रहे थे।
वो मस्तमलंगा की तरह सब को सवांग सूनाते और उनके चेहरों की खामोशी को तोड़ने की कोशीश करते।
शंकर बाबा की बाते समझ मे नही आती ,बैठे-बैठे नाचते तो,कभी हाथ और सिर हिला कर मस्करी भी करते । उनकी हसी की आवाज गली के सन्नाटे को चेता देती ।

लेकिन सूबहा अभी बहुत दूर थी और मन के पार जाने वाली यादें झिजोड रही थी। घटनाएंं समय की कालगुजारीयो की गवाह होती है। ये आस-पास ही होती है अद्विश्यता मे छिपी हुँई।

शंकर बाबा ज्यो-ज्यो किसी की नकल उतार कर हंसते ,तो उनके पास बैठे बच्चे आदमी और ओरतें उनकी श्रोता बन कर जुमलो पर जोर से हंसती। जब हंस,हंस के दम फूलने लग जाता तो कहती "अरे बाबा पागल है "बार-बार इस कथन वो दोहराते भी और हंसते भी रहतें।

फिर से शंकर बाबा कोई कविता ,छंद या दोहा तो कभी चूटकुला सूनाते। वो जानबूझकर ऐसा कर रहे थे । क्यो के तीन दिन से जैसे उनका परीवार किसी चूप्पी मे जा बसा हो ।

मानसिकता शून्याता के शिखर पर थी ।

समय ने डर और संकोच से बनी अवधारणाओ को जिन्दगी मे न्यौता दिया था।
आज की सूबहा कोई नई सूबह नही थी मगर कुछ यूं हुआ की, ये सूबह आज शत्रूता के भेष मे सामने खडी थी। जिस का प्रतिद्वंद्वी बार-बार हलातो की बयानबांजी से टूट कर निहत्था हो गया था।

बडी तेजी से उसकी ओर बडती आक्रमकता सवालो का तूफान लेकर बड़ रही थी। कोई ओर चारा नही था ,सिवाये इस तूफान के सामने खडे होने के ।
विचारो की गुथ्थी को मन सुल्झाने की तमाम नकाम कोशीशे कर चूका था।
कई सवालों के जबाब पाने के लिये उसका मन जहा-तहा भटकने लगा। जिस खबर ने कानो में जाते ही मार डाला था । जैसे पिंजरा पंछी के उड़ जाने से बेजान सा रह जाता है । उसी तरह खामोशी के चन्द पलों ने आत्मा पर सैकडों जख्म बना दिये थे।
जब सूना की वो खत्म हो गया । यानी हमारे साथ किसी का होना अब रेत पर बनी छवि की तरह हवा के झोकों से मिट गया।
जिन्दगी की सूंची मे से एक ओर नाम कट गया।
वो मौत ममता की गोद से भी गहरी थी क्या ? वो मौत पिता के सपनों से भी उँची थी क्या ? वो मौत अपनो की चाहत से भी बडकर थी क्या ?
जो एक ही झटके मे ही हवा के झोके से आशाओ का लक्षयभेद गई। क्षणभर मे ही जिन्दगी ने मौन रूप धारण कर लिया।

राकेश..

Monday, February 1, 2010

जो जीवन की छाप नहीं बनता -

हर चीज पाने वाला इन्सान किसी चीज के छिन जाने से डरता है. एक एक चीज जुटाकर अपना झोला भरने वाला शख्स बस झोली के वज़न पर जीता है. असल में इस झोली का कोई आकार नहीं है और न ही इसकी कोई गहराई. इन दोनों परतों को शख्स कभी सोच ही नहीं पाया.

कभी हमने खुद से अपने भरते अतीत और अनुभव को सोचा है की इसका आकार क्या है और इसकी गहराई क्या है? क्या सच में सभी कुछ अनुभव की खुराक बनता जाता है या कुछ है एसा जो अनुभव को ही निगल के फ़िराक में रहता है?

लगातार - निरंतर कुछ भरता जा रहा है और हम उससे चाहे समझोता करें या न करें लेकिन उसके भरने को कभी रोक नहीं पातें. बस झोली का दम ही उसके फेलाव के इच्छाएं बड़ता जाता है.

झोली के सबसे नजदीकी साथी यानि इन्सान के हाथ जिनसे उसको नापना और खोलना - बंद करना लगातार चलता रहता है.
हाथ जो चुनना जानते हैं, खोदना जानते हैं, बटोरना जानते हैं, तराशना जानते हैं और बाँटना पहचानते हैं. समय इन खोदने और बटोरने के दम पर बंधा हुआ है.

क्या जीवन में सभी कुछ पाना है या खोना है? इनकी कहानियां कभी ख़त्म क्यों नहीं होती?
एक साथी ने कहा, "जीवन में कुछ पाना और खोना ही छाप है वरना कुछ भी नहीं है."

लोग बहुत है जीवन में जिसे भूलना चाहते हैं और फिर भी अनुभव की पौशाक पहनकर भागते फिरते हैं. उसके ये कहने पर कुछ समय के लिए डर तो लगा लेकिन उसके बाद में जैसे सभी कुछ किसी अकस्मात आये किसी संदेसे की भांति गायब हो गया. पर जो रह गया वे था वो एहसास जो छाप ने नहीं आता. वो फिर जाता कहाँ हैं?

लख्मी