Tuesday, February 2, 2010

पिंजरा पंछी के उड़ जाने से बेजान सा रह जाता है ।

जमीन पर रखा तसला शोहले उगल रहा था। कनातों के बीच चारपाईयों पर इखट्टा लोग रात की बेहोसी को तोड़ कर अपनी उपस्थिति का संकेत दे रहे थे।
मन मै पैदा होने वाली चेतनाएं काफिर रात मे बेहोशी के आलम को ,होठो की खामोशी से बनी अंतहीन समय की दिवारों से अपना सिर टकरा-टकरा कर कुछ बयां कर रही थी।

जलती हुंई लकडी की आग पर हाथ सेंकते चारो तरफ बैठे लोगो का मन विलाप और शोक् से थक चूका था।
अब तीन दिन बितने के बाद हर चेहरे पर मूस्कुराहट ने जन्म लिया था। ये प्रारंभिक आशाये फिर से रिश्तो के बिच अपना आंशिया बना रही थी।

तीन दिन बाद हसीं आने के बाद लगा जैसे कई सदियो से हसंंना ही भूल गये हो। मगर शंकर बाबा ,गम मे चूर और विलाप से भरे मनो की व्याकुलता को दूर करने के लिये किस्सो की झडीयाँ लगा रहे थे।
वो मस्तमलंगा की तरह सब को सवांग सूनाते और उनके चेहरों की खामोशी को तोड़ने की कोशीश करते।
शंकर बाबा की बाते समझ मे नही आती ,बैठे-बैठे नाचते तो,कभी हाथ और सिर हिला कर मस्करी भी करते । उनकी हसी की आवाज गली के सन्नाटे को चेता देती ।

लेकिन सूबहा अभी बहुत दूर थी और मन के पार जाने वाली यादें झिजोड रही थी। घटनाएंं समय की कालगुजारीयो की गवाह होती है। ये आस-पास ही होती है अद्विश्यता मे छिपी हुँई।

शंकर बाबा ज्यो-ज्यो किसी की नकल उतार कर हंसते ,तो उनके पास बैठे बच्चे आदमी और ओरतें उनकी श्रोता बन कर जुमलो पर जोर से हंसती। जब हंस,हंस के दम फूलने लग जाता तो कहती "अरे बाबा पागल है "बार-बार इस कथन वो दोहराते भी और हंसते भी रहतें।

फिर से शंकर बाबा कोई कविता ,छंद या दोहा तो कभी चूटकुला सूनाते। वो जानबूझकर ऐसा कर रहे थे । क्यो के तीन दिन से जैसे उनका परीवार किसी चूप्पी मे जा बसा हो ।

मानसिकता शून्याता के शिखर पर थी ।

समय ने डर और संकोच से बनी अवधारणाओ को जिन्दगी मे न्यौता दिया था।
आज की सूबहा कोई नई सूबह नही थी मगर कुछ यूं हुआ की, ये सूबह आज शत्रूता के भेष मे सामने खडी थी। जिस का प्रतिद्वंद्वी बार-बार हलातो की बयानबांजी से टूट कर निहत्था हो गया था।

बडी तेजी से उसकी ओर बडती आक्रमकता सवालो का तूफान लेकर बड़ रही थी। कोई ओर चारा नही था ,सिवाये इस तूफान के सामने खडे होने के ।
विचारो की गुथ्थी को मन सुल्झाने की तमाम नकाम कोशीशे कर चूका था।
कई सवालों के जबाब पाने के लिये उसका मन जहा-तहा भटकने लगा। जिस खबर ने कानो में जाते ही मार डाला था । जैसे पिंजरा पंछी के उड़ जाने से बेजान सा रह जाता है । उसी तरह खामोशी के चन्द पलों ने आत्मा पर सैकडों जख्म बना दिये थे।
जब सूना की वो खत्म हो गया । यानी हमारे साथ किसी का होना अब रेत पर बनी छवि की तरह हवा के झोकों से मिट गया।
जिन्दगी की सूंची मे से एक ओर नाम कट गया।
वो मौत ममता की गोद से भी गहरी थी क्या ? वो मौत पिता के सपनों से भी उँची थी क्या ? वो मौत अपनो की चाहत से भी बडकर थी क्या ?
जो एक ही झटके मे ही हवा के झोके से आशाओ का लक्षयभेद गई। क्षणभर मे ही जिन्दगी ने मौन रूप धारण कर लिया।

राकेश..

No comments: